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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २८७ पदेसविरए ति तत्थ इमो पदेसविरअस्स सोलसवविओ दंडओ कायवो भवति ॥ २८७ ॥
कर्मपुद्गलप्रदेशो विरच्यते अस्मिन्निति प्रदेशविरचः कर्मस्थितिरिति यावत् । अथवा विरच्यते इति विरचः, प्रदेशश्चासौ विरचश्च प्रदेशविरचः, विरच्यमानकर्मप्रदेशा इति यावत्। तत्थ पढमत्थमस्सिदूग आउद्विदीए सोलसवदिओ वंडओ कायव्यो त्ति भणिदं होदि ।
सम्वत्थोवा एइंदियस्स जहणिया पज्जतणिवत्ती ॥ २८८ ॥
जहण्णाउअबंधो जहणिया पज्जत्तणिवत्ती णाम । भवस्त पढमसमयप्पहुडि जाव जहण्णाउअबंधस्स चरिमसमयो ति ताव एसा जहणिया णिवत्ति त्ति भणिवं होदि । आबाधा एत्थ किण्ण घेप्पदे ? ण, अप्पिदसरीरस्स तत्थ पदेसाभावादो। एइंदिया बादर-सुहमपज्जत्तापज्जत्तभेएण चउविहा। तत्थ कस्स जहणिया णिवत्ती
छयासठ सागर और सत्तर कोडाकोडीसागरमें भाग देनेपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान लब्ध आते हैं, इसलिए इनकी इतनी द्विगुणहानियाँ होती हैं। इस सब विधिका कथन परम्परोपनिधामें किया जाता है, क्योंकि, इसमें परम्परासे कहाँ कितनी हानि और वृद्धि होती है यह देखा जाता है।
इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई। प्रदेशविरचका अधिकार है। उसमें प्रदेशविरचका यह सोलहपदवाला दण्डक करने योग्य है ।। २८७ ।।
कर्मपुद्गलप्रदेश जिसमें विरचा जाता है अर्थात् स्थापित किया जाता है वह प्रदेशविरच कहलाता है। अभिप्राय यह है कि यहाँ पर प्रदेशविरचसे कर्मस्थिति ली गई है। अथवा विरच पदकी निरुक्ति है- विरच्यते अर्थात जो विरचा जाता है उसे विरच कहते हैं। तथा प्रदेश जो विरच वह प्रदेशविरच कहलाता है। विरच्यमान कर्मप्रदेश यह उसका अभिप्राय है। इन दोनों अर्थों में से प्रथम अर्थकी अपेक्षा आयुस्थितिका सोलह पदवाला दण्डक करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
एकेन्द्रिय जीवकी पर्याप्तनिर्वृत्ति सबसे स्तोक है २८८ ॥
जघन्य आयुबन्धकी जघन्य पर्याप्तनिर्वृत्ति संज्ञा है। भवके प्रथम समयसे लेकर जघन्य आयुषन्धके अन्तिम समय तक यह जघन्य निर्वृत्ति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-- यहाँ पर आबाधाका ग्रहण किसलिए नहीं करते हैं ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, विवक्षित शरीरके वहाँ प्रदेश नहीं हैं। शंका-- एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे चार
४ अ० प्रती 'जहण्णा उअबंधो ' इति पाठो नोपलभ्यते ।
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