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५, ६, २८६ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए परंपरोवणिधा अथवा जहा वेयणाए जाणागुणहाणिसलागाणं गुणहाणीए च परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा।
णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥ २८५॥ पलिदोवमपढमवग्गमूलस्स असंखे० भागमेत्तादो। एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं असंखेज्जगुणं ॥ २८६ ।। असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो । एवं परंपरोवणिधा समत्ता।
चाहिए। अथवा जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें नानागुणहानिशलाकाओं और एक गुणहानिकी प्ररूपणा की है उसप्रकार यहाँ भी करनी चाहिए।
नानाप्रदेशगणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ।। २८५ ॥ क्योंकि, वे पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । उनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणा है ।। २८६ ॥ क्योंकि, वे पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमलोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
विशेषार्थ-- यह तो अनन्तरोपनिधाके प्रसंगसे ही बतला आये हैं कि प्रथम स्थितिमें जो द्रव्य मिलता है उससे द्वितीय स्थितिमें मिलनेवाला द्रव्य विशेष हीन होता है आदि । अब यहाँ परम्परोपनिधामें यह बतलाया गया है कि इस प्रकार आगे आगेकी प्रत्येक स्थितिमें विशेषहीन विशेषहीन होता हुआ वह द्रव्य कितना काल जानेपर आधा, कितना काल जानेपर चतुर्थांश और कितना काल जानेपर अष्टमांश आदि होकर रह जाता है। यहाँ बतलाया है कि औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीरका द्रव्य उत्तरोत्तर अन्तर्मुहुर्त अन्तर्मुहुर्त काल जानेपर उत्तरोत्तर आधा आधा होता जाता है। तथा तैजसशरीर और कार्मणशरीरका द्रव्य उत्तरोत्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल जानेपर आधा आधा होता जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरकी अपेक्षा इस प्रकार निषेक रचना होती है जिससे वह प्रथम निषेकमें प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अन्तर्मुहुर्तके अन्त में प्राप्त होनेवाला निषेक आधा रह जाता है । तथा इससे दूसरे अन्तर्मुहर्तके अन्त में प्राप्त होनेवाला निषेक उससे भी आधा रह जाता है। इस प्रकार इन तीन नोकर्मोकी क्रमसे जो तीन पल्य, तेतीस सागर और अन्तर्महर्त उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है उसमें इस एक द्विगुणहानिके कालका भाग देनेपर उस उस नोकर्मकी अलग अलग द्विगुणहानियोंका प्रमाण आ जाता है। यहाँ मूलमें एक द्विगुणहानिस्थानान्तरसे एक गुणहानि ली गई है और इस एक द्विगुणहानिका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जहाँ जितना लब्ध आता है वहाँ उतनी द्विगुणहानियाँ बतलाई गईं हैं। इन्हींको नानाद्विगुणहानिस्थानान्तर कहते है । यतः तीन पल्य और तेतीस सागर में अन्तर्महुर्तका भाग देनेपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान प्राप्त होते हैं अतः औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीरकी इतनी द्विगुणहानियाँ बतलाई हैं । तथा अन्तर्मुहूर्वमें अन्तर्मुहूर्तका भाग देनेपर संख्यात समय लब्ध आते हैं अतः आहारकशरीरकी संख्यात द्विगुणहानियाँ बतलाई हैं। तेजस और कार्मणशरीरकी एकद्विगुणहानि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसका
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