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५, ६, १९२ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा ( ३०७ ति जेण विसरीरा तत्थ संखेज्जा तेण तत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखे० भागो।
सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा सव्वत्थोवा विसरीरा॥१८९॥ सुगमं । तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ १९० ।। को गणगारो ? संखेज्जा समया । इंबियाणुवादेण एइंदिया बादरएइंदियपज्जत्ता ओघं ॥१९१॥
कुवो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा अणंतगुणा । तिसरीरा असंखेज्जगुणा ति भेदाभावादो।
बावरेइंदियअपज्जत्ता सहमेइंवियपज्जत्तापज्जत्ता बीइंदियतीइंदिय-चरिदियपज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिदियअपज्जत्ता सव्वत्थोवा विसरीरा ॥ १९२॥
विग्गहगदीए सगसगरासीणमसंखे०भागस्स उप्पत्तिदसणावो । णवरि णिरंतररासीसु सगसगढ़िदीए सगसगदव्वे भागे हिदे एगसमयसंचिदविसरीराणं पमाणं होदि।
है। आनत- प्राणत कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें यत: दो शरीरवाले वहां संख्यात हैं अतः वहां भी गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
सर्वार्थसिद्धिविमानवासी दो शरीरवाले देव सबसे स्तोक हैं ।।१८९।। यह सूत्र सुगम है। उनसे तीन शरीरवाले संख्यातगणे हैं । १९० । गुणकार क्या है । संख्यात समय गुणकार है ।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियपर्याप्तकोंका भड्ग ओघके समान है ॥१९१॥
क्योंकि, उनमें चार शरीरवाले सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले अनन्तगुण हैं और उनसे तीन शरीरवाले असंख्यातगुणे हैं, इस दृष्टिसे कोई भेद नहीं है।
बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले सबसे स्तोक हैं ।।१९२।।
__ क्योंकि, विग्रहगतिमें अपनी अपनी राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। इतनी विशेषता है कि निरन्तर राशियोंमें अपनी अपनी स्थितिका अपने अपने द्रव्यमें
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