________________
३२६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६ २३९
णिवुणाणं वा णिण्णाणं वा सुहमाणं वा आहारवव्वाणं सुहमदरमिवि* आहारयं ॥२३९॥
___ असंजमनहुलदा आणाकणिढदा सगखेत्ते केवलिविरहो त्ति एवेहि तीहि कारणेहि साह आहारसरीरं पडिवज्जति । जल-थल-आगासेसु अक्कमेण सुहमजीवेहि दुष्परिहरणिज्जेहि आऊरिदेसु असंजमबहुलदा होदि । तप्परिहरणटुं हंसांसधवलमप्पडिहयं आहारवग्गणाक्खंधेहि णिम्मिदं हत्थमेत्तुस्सेहं आहारसरीरं साहु पडिवज्जंति । तेणेदमाहारपडिवज्जणमसंजदबहुलवाणिमित्तमिदि भण्णदि । अण्णा सिद्धंतो आगमो इदि एयट्ठो । तिस्से कणिटुदा सगखेत्ते थोवत्तं आणाकणिटुदा णाम । एवं बिदियं कारणं । आगमं मोत्तण अण्णपमाणाणं गोयरमइक्कमिदूण टुिदेसु दव्वपज्जाएसु संदेहे समुप्पणे सगसंदेहविणासणठ्ठ परखेत्तट्ठियसुदकेवलि केवलोणं वा पादमूलं गच्छामि ति चितविदूण आहारसरीरेण परिणमिय गिरि-सरि सायर मेरु कुलसेलपायालाणं गंतूण विणएण पुच्छिय विणटुसंदेहा होदूण पडिणियत्तिदूण आगच्छति त्ति भणिदं होइ । परखेत्तम्हि महामुणोणं केवलणाणप्पत्ती परिणिवाणगमणं परिणिक्खमणं वा तित्थयराणं तवियं कारणं । विउव्वणरिद्धिविरहिदा आहारलद्धिसंपण्णा साहू ओहिणाणेण सुदणाणेण वा देवागमचिशेण वा केवलणाणप्पत्तिमवगंतूण वंदणाभत्तीए
निपुण, स्निग्ध और सूक्ष्म आहारद्रव्योंमें सूक्ष्मतर है, इसलिए आहारक है ॥२३९॥
असंयमबहुलता, आज्ञाकनिष्ठता और अपने क्षेत्र में केवलिविरह इस प्रकार इन तीन कारणोंसे साधु आहारक शरीरको प्राप्त होते हैं । जल, स्थल और आकाशके एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवोंसे आपूरित होने पर असंयमबहुलता होती है । उसका परिहर करने के लिए साधु हस और वस्त्र के समान धवल, अप्रतिहत, आहारवर्गणाके स्कन्धोंसे निर्मित और एक हाथप्रमाण उत्सधवाले आहारकशरीरको प्राप्त होते हैं। इसलिए यह आहारकशरीरका प्राप्त करना असंयमब हुलतानिमित्तक कहा जाता है। आज्ञा, सिद्धान्त और आगम ये एकार्थवाची शब्व हैं । उसकी कनिष्ठता अर्थात् अपने क्षेत्रमें उसका थोड़ा होना आज्ञाकनिष्ठता कहलाती है। यह द्वितीय कारण है। आगमको छोडकर द्रव्य और पर्यायोंके अन्य प्रमाणको विषय न होने पर तथा उनमें सन्देह होनेपर अपने सन्देहको दूर करने के लिए परक्षत्र में स्थित श्रुतकेवली कोर केवलीके पादमलमें जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारकशरीररूपसे परिणमन करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पातालमें केवली और श्रुतकेवली के पास जाकर तथा विनयसे पूछकर सन्देहसे रहित होकर लौट आते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परक्षेत्र में महामुनियों के केवल ज्ञानकी उत्पत्ति और परिनिर्वाणगमन तथा तीर्थङ्करोंके परिनिष्क्रमणकल्याणक यह तीसरा कारण है । विक्रियाऋद्धिसे रहित और आहारकलब्धिसे युक्त साधु अवधिज्ञानसे या श्रुतज्ञानसे या देवोंके आगमन के विचारसे केवलजानकी उत्पत्ति जानकर वन्दनाभक्तिसे जा
विचार कर *म० प्रतिपाठोऽयम् प्रतिषु ' -दव्वाणं वा सुहुमदरमिदि' इति पाठ 1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org