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५, ६, २४० )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए णामणिरुत्ती
( ३२७
गच्छामि त्तिचितिदूण आहारसरीरेण परिणमिय तप्पदेस गंतूण तेसि केवलीणमसि च जिण-जिणहराणं वंदणं काऊण आगच्छंति ति भणिदं होदि । एवाणि तिणि वि कारणाणि अस्सिऊण घेप्पमाणआहारसरीरस्स णामणिरुत्ती वुच्चदे । तं जहागिउणा अण्हा मउआ त्ति भणि होदि । णिहा धवला सुगंधा सुट्ठ सुंदरा त्ति भणिदं होदि । अप्पडिहया सुहमा णाम । आहारदव्वाणं मज्झे णिउणदरं जिण्णदरं खंधं आहारसरीरणिप्पायणठं आहरदि घेण्हदि ति आहारयं । णिवण-णिण्णाणं कथं सुहमदरत्तं ? ण,? पढमावत्थं पेक्खिदूण तरतमपच्चयविसयाणं सुहुमदरत्तं पडि विरोहाभावाधो । अथवा आहारकद्रव्याणि प्रमाणानि, तेषां निपुणानां मध्ये अतिनिपुणं निष्णातानामति निष्णातं सूक्ष्माणामतिसूक्ष्ममाहरति परिछिन्नत्तीत्याहारकम् । पंचवण्णागमाहारसरीरपरमाणूणं कथं सुक्किलतं जुज्जदे ? ण, विस्सासुवचयवाण पडुच्च धवलत्तवलंभादो।
तेयप्पहगणजत्तमिदि तेजइयं ॥ २४० ॥ शरीरस्कन्धस्य पद्मरागमणिवर्णस्तेजः, शरीरान्निर्गत*रश्मिकलापः प्रभा, तत्र भवं
आहारकशरीररूपसे परिणमन कर उस प्रदेशमें जाकर उन केवलियोंकी और दूसरे जिनों व जिनालयोंकी वन्दना करके वापिस आते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इन तीनों ही कारणोंका अवलम्बन लेकर ग्रहण किये जानेवाले आहारकशरीरकी नामनिरुक्ति कहते हैं। यथा- निपुण अर्थात्. अण्हा ओर मृदु यह उक्त कथनका तात्पर्य है। स्निग्ध अर्थात् धवल, सुगन्ध, सुष्ठु और सुन्दर यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अप्रतिहतका नाम सूक्ष्म है। आहारद्रव्योंमें से आहारकशरीरको उत्पन्न करने के लिए निपुणतर और स्निग्धतर स्कन्धको आहरण करता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए आहारक कहलाता है।
शंका-- निपुण और स्निग्ध सूक्ष्मतर कैसे हो सकता है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, प्रथम अवस्थाको देखते हुए तर और तम प्रत्ययके विषयभूत पदार्थों के सूक्ष्मतर हाने में कोई विरोध नहीं आता ।
अथवा आहारकद्रव्य प्रमाण है। उनमेंसे निपुणोंमें अतिनिपुण. निष्णातोंमें अतिनिष्णात और सूक्ष्मों में अतिसूक्ष्मको आहरण करता है अर्थात् जानता है. इसलिए आहारक कहलाता है।
शंका-- आहारकशरीरके परमाणु पाँच वर्णवाले हैं। उनमें केवल शुक्लपना कैसे बन सकता है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, विस्रसोपचयके वर्णकी अपेक्षा धवलपना उपलब्ध होता है। तेज और प्रभारूप गुणसे युक्त है इसलिए तैजस है ।। २४० ॥ शरीरस्कंधके पद्मराग मणिके समान वर्णका नाम तेज है । तथा शरीरसे निकली हुई
* अप्रतो ' अण्णहा मउआ ' इति पाठः 1 0 म०प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' सुहुमदरं तण्ण इति
पाठः । अ-आ-प्रत्यो: ' विनिर्गत ' इति पाठ 1
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