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५, ६, २३५ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा
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पर निर्णय कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। निश्चित नियम यह है कि जीव विग्रहगतिम अनाहारक होता है। वर्तमान पर्यायका वियोग होकर उत्तर पर्यायके शरीरके ग्रहणके लिए जीवकी गति दो प्रकारकी होती है- एक ऋजुगति और दूसरी विग्रहगति । ऋजुगतिका अर्थ मोडे रहित गतिसे है और विग्रहगतिका अर्थ मोडेवाली गतिसे है। जो जीव वर्तमान पर्यायका त्याग कर ऋजुगतिसे दूसरी पर्यायके शरीरको ग्रहण करनेके लिए गमन करता है वह अनाहारक नहीं होता, क्योंकि, यहां पर शरीरका त्याग होकर उत्तर पर्यायके शरीरके ग्रहणमें कालभेद उपलब्ध नहीं होता । अब रहा मोडवाली गतिका विचार, सो उसमें पूर्व पर्यायके त्यागके साथ ही यद्यपि उत्तर पर्यायकी प्राप्ति हो जाती है परन्तु उत्तर पर्यायको अवस्थितिके लिए शरीरका ग्रहण जब तक जीव मोडोंको पार नहीं करता तब तक नहीं होता, इसलिए यह सिद्धान्त स्थिर होता है कि जीव विग्रहगतिमें कमसे कम दो शरीरवाला होता है । उन दो शरीरोंके नाम तैजसशरीर और कार्मणशरीर हैं और ये ही अनादि सम्बन्धवाले हैं । हम पहले कह आये हैं कि विग्रहगतिमें जीव अनाहारक रहता है। यहां अनाहारकसे तात्पर्य है कि ऐसा जीव औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको नहीं ग्रहण करता । विग्रहगतिमें स्थित जीव एक तो इन तीन शरीरोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण नहीं करता, इसलिए उसके इनमेंसे किसी भी एक शरीरकी सत्ता नहीं होती। दूसरे, पूर्व पर्यायमें ग्रहण किये गये शरीरका उसी पर्यायके त्यागके साथ त्याग हो जाता है, इसलिए भी उसके इन तीन शरीरोंमेंसे किसी एक शरीरकी सत्ता नहीं होती। अब यह देखना है कि ये तीन शरीर किस जीवके किस क्रमसे उपलब्ध होते हैं। इस सम्बन्धमें साधारण नियम यह है कि तिर्यंचों और मनुष्योंके जब औदारिकशरीर नामकर्मका उदय होता है, तब इन पर्यायोंके मिलने पर आहारक होने के प्रथम समयसे इस जीवके औदारिकशरीर पाया जाता है। देवों और नारकियोंके वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदय होता है, इसलिए इनके भवग्रहण करने पर आहारक होने के प्रथम समयसे लेकर वैक्रियिकशरीर उपलब्ध होता है। तथा प्रमत्तसंयत जीवके आहारक ऋद्धिकी प्राप्ति होनेपर आहारकशरोर नामकर्मके उदयसे कारण- विशेषके सद्भावमें अन्तर्मुहुर्त काल तक आहारक शरीर उपलब्ध होता है। इसप्रकार अधिकारी भेदसे यह तो ज्ञात हो जाता है कि किसके कबसे लेकर कितने शरीर होते हैं। यदि तिर्यंच और मनुष्य है तो आहारक होनेके पूर्व उसके तैजस और कार्मण ये दो शरीर उपलब्ध होंगे और आहारक होने के प्रथम समयसे लेकर उसके औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर ये तीन शरीर अवश्य ही उपलब्ध होंगे। यदि देव और नारकी है तो आहारक होनेके पूर्व उसके तैजस और कार्मण, ये दो शरीर उपलब्ध होंगे और आहारक होनेके प्रथम समयसे लेकर वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर उपलब्ध होंगे । इस प्रकार अधिकारी भेदसे तीन शरीर किस प्रकार पाये जाते हैं इसका विचार किया । अब चार शरीर किसके किस प्रकार सम्भव हैं इसका विचार करना है। पहले हम यह तो कह ही आये हैं कि किसी प्रमत्तसंयत जीवके योग्य सामग्रीके सद्भावमें अन्तर्मुहूर्त काल तक आहारकशरीरकी प्राप्ति संभव है । इसका यह अर्थ हुआ कि मनुष्य होनेके नाते उसके औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर तो पाये ही जाते है साथ ही उसके चौथा आहारकशरीर भी हो जाता है। यह कैसे होता है
इसका खुलासा इस प्रकार है- कि जब किसी प्रमत्तसंयत जीवकी तत्त्वविषयक सूक्ष्म शंका होती Jain Education International
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