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बंधाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए संतपरूवणा
( २४७
परिहारसुद्धिसंजदेसु कुदो णत्थि चदुसरीरा ? परिहारसुद्धिसंजदस्स विउव्वणरिद्धीए आहाररिद्धीए च सह विरोहादो । सेसं सुगमं । असंजदा ओघं ॥ १५८ ॥
सुगमं ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी
५, ६, १६२.)
ओघं ।। १५९ ।। सुगमं ।
केवलदंसणी अत्थि जीवा तिसरीरा ॥ १६० ॥
सुगमं ।
लेस्साणुवादेण किणण णील- काउलेस्सिया तेउ-पम्म सुक्कलेस्सिया ओघं ॥ १६१॥
सुगमं ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभवसिद्धिया ओघं ॥ १६२ ॥
सुगमं ।
शंका- परिहारशुद्धिसंयत जीवोंमें चार शरीरवालें क्यों नहीं होते ?
समाधान- परिहारशुद्धिसंयत जीवके विक्रियाऋद्धि और आहारकऋद्धिके साथ इस संयम होने का विरोध है ।
शेष कथन सुगम है ।
असंयत जीवोंमें ओघ के समान भंग है ॥ १५८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी जीवों में ओघ के समान भंग है ।। १५९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
केवलदर्शनवाले जीव तीन शरीरवाले होते हैं ॥ १६० ॥
यह सूत्र सुगम है ।
श्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्लले श्यावाले जीवों में ओघके समान भंग है ।। १६१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
भव्यमार्गगाके अनुवादसे भव्य अभव्य जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥ १६२ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
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