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५, ६, १४६.)
धाणियोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए संतपरूवणा
( २४३
कायत्तादो । ण च ओरालियसरीरणामकम्मोदयजणिदस्स विक्किरिय सरुवस्स ओरालियसरीरत्तं फिट्टदि, विरोहादो ।
कायजोगी ओघं ॥ १४५ ॥
कुदो ? तत्थ विग्गहगदीए विसरीराणं विउव्विदेसु उट्ठाविदआहारसरीरेसु च चदुसरीराणमण्णत्थ तिसरीराणमुवलंभादो ।
ओरालियमस्सकायजोगि - वेडव्वियकायजोगि - वेडव्वियमिस्सकायजोगी अस्थि जीवा तिसरीरा ॥ १४६॥
सुबिसरी पत्थि, विग्गहगदीए अभावादो । चदुसरीरा वि णत्थि आहारसरीरस्स उदयाभावादो, अपज्जत्तकाले विउव्वणसत्तीए अभावादो च । विउव्वमाणदेव - णेरइएस वि ण चत्तारि सरीराणि, ओरालियसरीरस्सेव वेउब्वियसरीरस्स विउव्वणाविउव्वणभेदेण दुविहभावाणुवलंभादो । पारिसेसेण तिसरीरा चेव ।
दारिकशरीर नामकर्मके उदयसे पैदा हुए विक्रियास्वरूप शरीरका औदारिकपना नहीं रहता सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता है ।
विशेषार्थ - मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंमें औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण अथवा औदारिक, अहारक, तैजस और कार्मण इस तरह दो प्रकार से चार शरीर संभव हैं किन्तु औदारिककाययोगी जीवोंमें औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये चार शरीर ही संभव हैं, क्योंकि आहारकशरीर के समय औदारिककाययोग नहीं होता, किन्तु मनोयोग व वचनयोग संभव है ।
काययोगी जीवोंका भंग ओघके समान है ।। १४५ ॥
क्योंकि वहां विग्रहगति में दो शरीर, विक्रिया करनेपर और आहारकशरीरके उत्पन्न करने पर चार शरीर तथा अन्यत्र तीन शरीर उपलब्ध होते हैं ।
औदारिक मिश्रकाययोगी, वैश्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में तीन शरीरवाले जीव होते हैं ॥ १४६॥
इनमें दो शरीर नहीं होते, क्योंकि विग्रहगतिका अभाव है । चार शरीर भी नहीं होते, क्योंकि आहारकशरोरका उदय नहीं है. तथा अपर्याप्त कालमें विक्रिया करनेकी शक्तिका अभाव है । विक्रिया करनेवाले देव और नारकियों में भी चार शरीर नहीं होते, क्योंकि जिस प्रकार औदारिकशरीरका विक्रिया और अविक्रियाके भेदसे द्विविधदना उपलब्ध होता है उस प्रकार वैक्रियिक शरीरका विक्रिया और अविक्रियाके भेदसे द्विविधपना नहीं होता । पारिशेषन्याय से ये तीन शरीरवाले ही होते हैं ।
तातो' उट्ठाविद (जा) आहारसरीरेस' अप्रतौ 'उठ्ठविदजा आहारसरीरेसु' इति पाठः ।
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