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५, ६, १३१.)
बंधणाणियोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा (२३७ ___एदेण अट्ठपदेण तत्थ इमाणि अणुयोगद्दाराणि णादवाणि भवंति-संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि ।। १२९॥
___ सरीरिसरीरपरूवणाए एदाणि अट्ठ अणुओगद्दाराणि होति । अणियोगद्दारेहि विणा सरीरिसरीरपरूयणा किण्ण कीरदे ? ण, तेहि विणा सुहेण अत्थावगमाणुववत्तीदो।
संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण ॥१३०॥
एवं दुविहो चेव णिद्दे सो होदि, दवट्ठियपज्जवट्ठियभेदेण दुविहाणं चेव सोदाराणमुवलंभादो । तत्थ दवट्ठियजणाणुग्गहट्ठमोघेण पज्जवट्ठियजणाणुग्गहटुमादेसेण परूवणा कीरदे । तत्थ संक्खित्तवयणकलावो ओघो णाम । असंक्खित्तवयणकलावो
आदेसो ।
ओघेण अस्थि जीवा बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा असरीरा ॥१३१॥ विग्गहगदीए वढमाणा जीवा चदुगदिया बिसरीरा णाम, तेसिं तत्थ तेजा-कम्मइय
इस अर्थपदके अनुसार यहां ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं- सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ।।१२९॥
शरीरिशरीरप्ररूपणाकी अपेक्षा ये आठ अनुयोगद्वार होते हैं। शंका- अनुयोगद्वारोंके बिना शरीरिशरीरप्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनके बिना सुखपूर्वक अर्थका ज्ञान नही हो सकता है। सत्प्ररूपणाको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश ॥१३०॥
इस प्रकार दो प्रकारका ही निर्देश है, क्योंकि, द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदसे श्रोता दो ही प्रकारके उपलब्ध होते हैं । उनमें से द्रव्यार्थिक जनोंका अनुग्रह करनेके लिए ओघसे और पर्यायाथिक जनोंका अनुग्रह करने के लिए आदेशसे प्ररूपणा करते है। उन दोनोंमेसे संक्षिप्त वचन कलापका नाम ओघ है और असंक्षिप्त वचन कलापका नाम आदेश है।
ओघसे दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले और शरीररहित जीव हैं ॥१३१॥
विग्रहगतिमें विद्यमान चारों गतिके जीव दो शरीरवाले हैं, क्योंकि, उनके वहां तैजसशरीर
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