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२४० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १३७ मणुसअपज्जत्ता अत्थि जीवा बिसरीरा तिसरीरा ॥१३७।। एदस्स अत्यो सुगमो, तिरिक्खअपज्जत्तएसु परूविदत्तादो। देवगदीए देवा अस्थि जीवा विसरीरा तिसरीरा ॥१३८॥
विग्गहदीए विसरीरा, अण्णत्थ तिसरीरा । चदुसरीरा णत्थि, देवेसु ओरालियआहारसरीराणमुदयाभावादो । मणुस्सेसु पंचसरीरा किण्ण परूविदा ? ण, पत्तविउव्वणाणमिसीण, माहारलद्धीए अभावादो।
एवं भवणवासियप्पहूडि जाव सवठ्ठसिद्धियविमाणवासियदेवा ॥१३९॥
कुदो? विसरीरत्तणेण तिसरीरत्तणेण च भेदाभावादो।
इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरेइंदिया तेसि पज्जत्ता पंचिदियों पंचिदियपज्जत्ता ओघं ॥१४०॥
मनुष्यअपर्याप्त दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले होते हैं ॥१३७॥
इम सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि तिर्यच्च अपर्याप्तकोंके कथनके समय इसका कथन कर आये हैं।
देवगतिकी अपेक्षा देव दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले होते हैं ॥१३८॥ - विग्रहगतिमें दो शरीरवाले और अन्यत्र तीन शरीरवाले होते हैं । चार शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि देवोंमें औदारिकशरीर और आहारकशरीरका उदय नहीं होता ।
शंका- मनुष्योंमें पाँच शरीरवाले जीव क्यों नहीं कहे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि वैक्रियिक ऋद्धिको प्राप्त हुए ऋषियोंके आहारकलब्धिका अभाव है।
इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी तकके देवोंमें जानना चाहिये ॥१३९॥
क्योंकि वहाँ दो शरीरपने और तीन शरीरपनेकी अपेक्षा भेद नहीं है।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंका भङ तथा पन्चेन्द्रिय और पन्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंका भङ ओघके समान है ॥१४०॥
*ता०प्रती पज्जत्ता (पज्जत्ता) 'पंचिदिय-'
ता०प्रतौ 'पत्तविउव्वमिसीण-' इति पाठः। अका०प्रत्यो: 'पज्जतापज्जत्ता पंचिदिय-' इति पाठः ।
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