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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे अवहारपरूवणा
( १९३ आगमो अस्थि, विप्पडिसेहादो।
एत्थ धण-रिणरासीयो आणिय रिणदो धणमवणिय सेसेण हाणी परूवेदव्वा । सा वि संकलणासंकलणसुत्तेण एत्तिया होदि ०८ १६४ । एदेसु पक्खेवेसु जबमज्झपमाणेण कदेसु एत्तियाणि जवमज्झाणि
अद्धगुणहाणिमेत्तजव
मज्झेसु अवणिदेसु एत्तियं होदि |
संपहि पढमगणहाणिदव्वाणयणं वुच्चदे। तं जहा- रूवाहियगुणहाणिमेत्तपक्खेवेसु गुणहाणीए वग्गेण गुणिदेसु थोरुच्चएण पढमगुणहाणीए दव्वं होदि ० १८८८ ।
इस प्रकार २+६+१२ = २० प्रक्षेप आते हैं । ये २० प्रक्षेप ऊपर व नीचे दोनों स्थानोंमें हीन हैं, अतः २० द्विगुण प्रक्षेप हुए। इन २० द्विगुण प्रक्षेपों (२०४८x२ = ३२०) को ९९८४ में से कम करनेपर (९९८४ - ३२०) = ९६६४ द्वितीय गुणहानिके प्रदेशाग्र का प्रमाण होता है।)
यहाँपर धनराशि और ऋणराशिको लाकर तथा ऋणमेंसे धनको कम करके शेषका अवलम्बन लेकर हानिका कथन करना चाहिए। वह भी संकलनासंकलनसूत्रके अनुसार इतनी होती है- ८।। ( यह २० की सहनानी है ) । इन प्रक्षेपोंको यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर इतने यवमध्य होते हैं- 1८४ | (यह २० की सहनानी है । ) उक्त प्रमाणको अर्धगुणहानिप्रमाण यवमध्योंमेंसे कम करनेपर इतना होता है | ८ | १३ | । ( द्वितीय गुणहानिके प्रदेशाग्र १५६४४ = ६२४; ६२४ - २० = ६०४ = १३४४६, द्विगुणप्रक्षेप ) ।
अब प्रथम गुणहानिके द्रव्यको लानेकी विधि कहते हैं। यथा- एक अधिक गुणहानिमात्र प्रक्षेपों को गुणहानिके वर्गसे गुणित करनेपर स्तोक मानसे प्रथम गुणहानिका द्रव्य होता है- १८८८ | (प्रथम गुणहानिका प्रदेशाग्र = गुणहानि ८ से एक अधिक (८+१) = ९ को गुणहानिका वर्ग (८४८) =६४ से गुणा करनेपर ५७६ आता है । प्रक्षेपका प्रमाण १६ है । ५७६४१६ = ९२१६ । अथवा १६४९४८४८ = ११५२४८ अर्थात् प्रथम गुणहानिके अन्तिम आठ प्रदेश (११५२)४८ । किन्तु अन्य ७ निषेकोंके प्रदेशाग्र अन्तिम प्रदेशाग्रसे प्रक्षेपहीन हैं, अतः प्रथम गुणहानिके प्रदेशाग्रसे ११५२४८ में कुछ प्रक्षेप बढे हुए हैं। )
४म० प्रतिपाठोऽयम् | ता० प्रती ०८८८, अ.काप्रत्योः। कर
। इति पाठ:1
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