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५, ६, ९३. )
बंधणाणुयोगद्दारे दव्वबंधपरूवणा
( १०७
तत्तियमेत्तेण । केत्तिया पुण तत्थ जीवा अस्थि ? अणंता । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण अणंतेसु जीवेसु भागे हिदेसु तत्थ अणंताणं चेव जीवाणमुवलंभादो। एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमाग मेत्तेसुदुचरिमवग्गणउक्कस्सविसेसजीवेसु अवणिदेसु सेसअणंतजीवा फड्डयंतरं होदि । असंखेज्जलोममेत्ताणि जिगोदसरीराणि । एक्के कम्हि णिगोदसरीरे अगतागंता जीवा च उत्थअंतरे अस्थि । एत्तियमंतरिदूण तदिफड्डयस्स आदी होदि । पुणो एत्थ पुत्वविहाणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोगला अणंताणंतविस्तासुवचयहि सह वड्डावेदव्वा । एवं वडिदे तदियफड्डयमुक्कस्संतरं होदि । एवं च उत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमअट्ठमणवम-दसमादिफड्डयाणमंतरपमाणं विस्सासुवचयपरमाणणं जीवाणु च पवेसणविहाणं जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव असंखेज्जगुणसेडिमरणपढमसमयो ति। एवं वड्डिदू - णच्छिदे तदो अण्णो जीवो खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण विसेसाहियमरणचरिमसमए अच्छिदो । ताधे जीवेहि अंतरिदूण अण्णं फड्डयमुप्पज्ददि । पुणो एत्य अंतरपमागपरूवणं कस्सामो। तं जहा-गुणसेडिमरणपढमसमयजहण्णफड्डयादो तस्सेव उक्कसफड्डयं. विसेसाहियं । विसेसो पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता जीवा । आलियाए असंखेज्जदिभागमेतकड्डएसु वड्डिदसव्वे जीवा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव होंति ति कुदो णव्वदे? अविरुद्धाइरियवयणादो। तेणेत्थ विसेसे एगणिगोदकितने जीव हैं? अनन्त जीव है, क्योंकि, पल्यके असंख्यातवें भागका अनन्त जीवों में भाग देने पर वहां अनन्त जीव उपलब्ध होते हैं। यहाँ पर पल्यके असख्यातवें भागमात्र द्विचरम वर्गणाके उत्कृष्ट विशेष जीवों के निकाल देने पर शेष अनन्त जीव प्रमाण स्पर्धकका अन्तर होता है । निगोद शरीर असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं और एक एक निगोद शरीरमें अनन्तानन्त जीव चौथे अन्तरमें होते हैं । इतना अन्तर देकर तीसरे स्पर्धककी आदि होती है । पुनः यहाँ पूर्व विधिके अनुसार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंके औदारिक, तेजस और कार्मणशरीरके परमाणु पुद्गल अनन्तानन्त विनसोपचयोंके साथ बढाने चाहिए। इस प्रकार बढाने पर तीसरे स्पर्धकका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इस प्रकार चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नौवें और दसवें आदि स्पर्धकों के अन्तर प्रमाणको तथा विस्रसोपचयसहित परमाण और जीवोंकी प्रवेशविधिको जानकर असंख्यात गुणश्रेणि मरणके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। इस प्रकार बढाकर स्थित होने पर तब अन्य जीव क्षपितकर्माशिक विधिसे आकर विशेषाधिक मरणके अन्तिम समयमें स्थित है तब जीवोंसे अन्तर होकर अन्य स्पर्धक उत्पन्न होता है । पुनः यहां अन्तर प्रमाणका कथन करते हैं । यथा-गुणश्रेणिमरणके प्रथम समयके जघन्य स्पर्धकसे उसीका उत्कृष्ट स्पर्धक विशेष अधिक है। विशेष पल्यके असंख्यातवें भागमात्र जीव प्रमाण है।
शंका-आवलिके असंख्यातवें भागमात्र स्पर्धकोंमें बढे हुए सब जीव पल्यके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
समाधान-अविरुद्ध आचार्योंके वचनसे जाना जाता है। इसलिए यहां पर विशेष में एक निगोद शरीर भी नहीं है। इस अधिक द्रव्यको अलग
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