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( ५, ६, ९४.
पत्सिंगादो | ण च एवं; अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो त्ति आइरियपरंपरागबुवदेसबलेण सिद्धत्तादो | अथवा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो fuगोदाणं इदि एत्थतणणिगोदसद्दो अंडराणमावास्याणं वा वाचओ त्ति घेत्तव्वो; उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणाए असंखेज्जलोगमेत्तपुलवियाओ एगबंधणबद्धाओ अस्थि त्ति वक्खाणण्णहाणुववत्तोदो । ण च रस रुहिर- मांससरूवंडराणं खंधावयवाणं तत्तो पुधभावेण अवद्वाणमत्थि जेणेगक्खंधे अणेगबंधणबद्धाणमसंखेज्जलोगमेत्तपुलवियाण संभवो होज्ज तेणेसो चेवत्थो पहाणो त्ति घेत्तव्वो । एदम्मि अत्थे घेपमाणे अकसायगुणसे डिमरणद्वार वृत्तगुणगारो ण विरुज्झमदे; असं वेज्जगुणकमेण मदावसिट्टीआवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तणिगोदेसु वि असंखेज्जलोगमेत्तपुलवियाणमुव - भादो । एवमेसा एगूणवीसदिमा वग्गणा परूविदा ।। १६ ।। बादरणिगोददव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णामं । ६४
उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणाए उवरि एगरूवे पविखत्ते तदियाए ध्रुव सुष्णवग्गणाए सव्वजहणिया धुवसुण्णवग्गणा होदि । पुणो एदिस्से उवरि पदेसुत्तरकमेण सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तमद्वाणं गंतूण तदियधुवसुण्णवग्गणाए सव्वुक्कस्सवग्गणा होदि ।
लक्खंडागमे वग्गणा-खंड
सूक्ष्मनि गोदवर्गणाकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि गुणकार अङ्कल के असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा आचार्य परम्परासे आये हुए उपदेशके बलसे सिद्ध है अथवा 'आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं' इस प्रकार यहां पर निगोद शब्द अण्डरों और आवासकों का वाचक लेना चाहिए, क्योंकि, ऐसा ग्रहण किये बिना उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा में एक बन्धनबद्ध असंख्यात लोकमात्र पुलवियाँ पाई जाती हैं यह व्याख्यान नहीं बन सकती है । और स्कन्धों के अवयवस्वरूप रस, रुधिर तथा मांसरूप अण्डरोंका उससे पृथक् रूपसे अवस्थान पाया नहीं जाता जिससे एक स्कन्ध में अनेक बन्धनबद्ध असंख्यात लोकप्रमाण पुलवियों की सम्भावना होवे; इसलिए यही अर्थ प्रधान है ऐसा ग्रहणा करना चाहिए। इस अर्थ के ग्रहण करने पर अकषाय गुणश्रेणि मरण कालका उक्त गुणकार विरोधको नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, असं - ख्यात गुणित क्रम से मृत जीवोंसे अवशिष्ट रहे आनलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निगोदों में भी असंख्यात लोकप्रमाण पुलवियां उपलब्ध होती हैं । इस प्रकार यह उन्नीसवीं वर्गणा कही गई है । बादरनिगोदवर्गणाओंके ऊपर ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणा होती है ॥ ६४ ॥
उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणामें एक अंकके मिलाने पर तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणाकी सबसे जघन्य ध्रुवशून्यवर्गणा होती है । पुनः इसके ऊपर प्रदेश अधिक के कनसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान जाकर तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणाकी सबसे उत्कृष्ट वर्गणा होती है । अपनी जघन्य से
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( ता० प्रती 'मधा (दा) व सिट्ठ' अ० आ० प्रत्योः मधावसिद्ध इति पाठ 1 ता० प्रतो 'वग्गणा ( णभुवरि ध्रुवसुण्णदव्ववग्गणा ) णाम' अ० का० प्रत्मोः 'वग्गणागमुवरि धुवसुण्ण णाम' आ० प्रतौ 'वग्गणाणमुवरि ध्रुवसुण्णवग्गणा णाम इति पाठः ।
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