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१०० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५. ६ ९३. अविरुद्धाइरियवयणादो। पुणो एदे जीवे अणंताणंतकम्मणोकम्मपोग्गलेहि उचिये अवणिय पुध टुविदे अवणिदसे पो जहण्गबादरणिगोदवग्गणापमाणं होदि । पुणो खीणकसायचरिमसमयजहण्णबादरणिगोददव्वग्गणजीवेहितो तस्सेव दुचरिमसमयजहण्ण-- बादरणिगोदवग्गणजीवा विसेसाहिया। केत्तियमलेग? खीणकसायवरिमसमयजहण्णबादरणिगोदवग्गणजीवेसु अणंताणतेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खडिदेसु एयखंडमेत्तेण। तम्मि एगखंडे बिदियफड्डयादो अवणिदे उभयत्थ सेसजीवपमाणं सरिसं होदि । संपहि चरिमसमए अवणिदजीवेहितो दुचरिमसमए अवणिदजीवा अणंतगणा। कुदो ? चरिमवग्गणजीवाणमसंखेज्जदिभागे दुचरिमविसेसे सव्वजीवरासिस्स अणंत. पढमवग्गमलवलंभादो । जेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तजीवसहिदचरिमविसेसादो दुचरिमसमयत्थखीणकसायविसेसो अणंतगणो तेण तत्थ विसेसे असखेज्जलोग - मेत्तसरीराणि । एककेक्कम्हि सरीरे टिदअणताणंतजीवा अत्थि। एदेसु चरिमविसेस - जीवेसु अवणिदेसु जं सेसं तमणताणि सव्वजोवरासिपढ़मवग्गमलाणि होदि । एत्तियमंतरिय उप्पण्णत्तादो बिदियं फड्डयं जादं । जदि अंतरं णस्थि तो एगं चेव* फड्डयं होज्ज; कमवडिदंसगादो। एवं फड्डयंतरं जीवाणं चेव ण बादरणिगोदढाणाणं ; तेसि
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अविरुद्वभाषी आचार्यों के वचनसे जाना जाता है।
पुनः अनन्तानन्त कर्म और नोकर्म पुद्गलोंसे उपचित हुए इन जीवोंको अलग करके पृथक् स्थापित करनेपर अलग करनेसे जो शष बचता है वह जघन्य बादर निगोद वर्गणाका प्रमाण होता है ।
पुनः क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य बादरनिगोद द्रव्यवर्गणाके जीवोंसे उसीके द्विचरम समयमें जघन्य बादर निगोद द्रव्यवर्गणाके जीव विशेष अधिक होते हैं । कितने विशेष अधिक होते हैं ? क्षीण कषायके अन्तिम समयमें जवन्य बादर निगोद वर्गणाके अनन्तानन्तजीवोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने विशेष अधिक होते हैं । इस एक भागको दूसरे स्पर्धक मेंसे घटा देनेपर उभयत्र शेष जीवोंका प्रमाण समान होता है । यहाँ चरम समयमें घटाए हुए जीवोंके द्विच रम समयमें घटाये हुए जीव अनन्तगुणे होते है; क्योंकि, चरम वर्गणाके जीवोंसे असंख्यातवें भागप्रमाण द्विचरम विशष में सब जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमल उपलब्ध होते हैं । यतः पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंसे युक्त अन्तिम विशेषसे द्विचरमसमय सम्बन्धी क्षीणकषायका विशेष अनन्तगणा होता है, इसलिए उस विशेषमें असंख्यात लोकमात्र शरीर होते हैं। तथा एक एक शरीर में अनन्तानन्त जीव स्थित होते हैं। इनमें से चरमविशेष जीवोंके घटा देनेपर जो शेष रहता है वह सब जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमल प्रमाण होता है । इसने अन्तरसे उत्पन्न होने के कारण द्वितीय स्पर्धक हुआ है । यदि अन्तर नहीं मानें तो एक ही स्पर्धक होवे, क्योंकि, क्रमवृद्धि देखी जाती है । यह स्पर्द्धकों का अन्तर जीवोंका ही होता है, बादर निगोद स्थानोंका नहीं, क्योंकि, जघन्य स्थानसे लेकर
अ० आ० का0 प्रतिषु — पमाणसरिसं' इति पाठ:1 * ता० अ० प्रत्योः ‘एवं चेव ' इति पाठः ।
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