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प्रथम अध्याय
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- एकान्तवाद और अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) . वस्तु का साक्षात्कार करने के लिए अनेक दृष्टिया हैं । एकान्तवादी उन मे से किसी एक दृष्टि का समर्थन करते है, जैसा.कि उन के नाम से ही स्पष्ट है । ये वाद सदा दो विरोधी रूपो मे दिखाई देते हैं। कभी नित्य और अनित्य के रूप मे इनके दर्शन होते है, तो कभी सामान्य और विशेष के रूप मे, कभी सत्. और असत्- के रूप मे, कभी निर्वचनीय और अनिर्वचनीय के रूप मे और कभी हेतु और अहेतु के रूप मे परिलक्षित होते है। एकान्त मान्यता के- आग्रह के कारण दोनो वाद सदा आपस मे टकराते रहते है। वे निरन्तर एक दूसरे का विरोध करने मे ही सलग्न रहते हैं।
नित्यवादी आत्मा मे किसी तरह का परिवर्तन ही नही स्वीकार करते; तो अनित्यवादी पर्यायो की वदलती हुई स्थिति को ही देख पाते है, वे उस पर्याय परिवर्तन को सभी स्थितियो मे स्थित रहने वाले आत्मा की अनुभूति करते हुए भी उसे मानने से इन्कार करते है। कुछ विचारक अद्वैतवाद को जगत का मौलिक तत्त्व मानते हैं, द्वैत या भेद-जो स्पष्ट दिखाई देते है,उ,हे मिथ्या कहकर ठुकरा देते हैं,इस तरह वे केवलसामान्य को ही स्वीकार करते है। तो दूसरे भेदवाद के समर्थक एकान्त भेद को ही एकमात्र प्रमाण मानते है। उनकी दृष्टि मे वस्तु का विशेष स्वरूप ही वास्तविक है, सामान्य स्वरूप है ही नही । सद्वाद को माननेवाले किसी भी द्रव्य मे होने वाले उत्पाद और विनाश को सही नही मानते । इस के विपरीत असद्वादी प्रत्येक कार्य को अभिनव मानते है। उनके विचारानुसार कारण मे कार्य नहीं रहता, प्रत्युत उस से सर्वथा - भिन्न एक अभिनव तत्त्व उत्पन्न होता है। कुछ-एकान्तवादी विचारक दुनिया को अनिर्वचनीय मानते है। उन के मत मे दुनिया-जगत को न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही अथवा उसके लिए हम किसी
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