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प्रश्नो के उत्तर
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की हानि होती है, अधर्म की वृद्धि होती है पाप का भूत जाग उठता है, और धर्म का देव सो जाता है, तो धर्म के देव को जगाने के लिए और अधर्म के असुर का नाश करने के लिए तथा साधु जीवन का सरक्षण और पापियो का विनाश करने के लिए ईश्वर अवतार धारण करता है। परम पिता परमात्मा वैकुण्ठधाम मे मृत्युधाम में पा जाता है। धर्म की सस्थापना करने के लिए भगवान से इन्सान बनता
अवतारवाद की इस वैदिक मान्यता पर यदि गभीरता से विचार किया जाए तो इस मान्यता मे कोई सार दृष्टिगोचर नही होता। कितने आश्चर्य की बात है कि जो परमात्मा सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, सर्व गक्तिसम्पन्न है, जिसके स्मरण से मानस शान्ति के सरोवर मे डुबकिया लेने लगता है, आनन्दानुभूति करता है, उस परमपिता परमात्मा को कभी कछुया वना देना, कभी मछली और कभी सूअर बना देना कहां की शिष्टता है ? ईश्वर क्या हुमा, एक अच्छा खासा बहुरूपिया बन गया, जिसे न जाने कितने स्वाग धारण करने पड़ते हैं।
किसी अवतारवादी से पूछा जाए कि इस समय भारत में इतना अनर्थ हो रहा है, सर्वत्र पापाचार का दानव नग्न नृत्य कर रहा है, सत्य का जनाजा निकाला जा रहा है, धर्म, कर्म सब बदनाम हो रहे हैं, ऐसी स्थिति मे भगवान मौन क्यो बैठे है ? कान मे तेल डालकर क्यो सो रहे हैं ? इस भीषण और भयावह युग मे भी वह अवतार क्यो नही लेते ? तव वह एक पेटेण्ट (Patent) घडाघडाया जवाब देता है कि अभी पाप का घड़ा भरा नही है । खूब रही, घडा भी बड़ा अनो
अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम् । धर्मसस्थापनार्थाय, सभवामि 'युगे युगे ॥