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प्रश्नो के उत्तर
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केवल परमेश्वर का ही गुण नहीं है । यह गुण समस्त जीवों में पाया जाता है, परन्तु वह कर्मों के कारण श्राच्छादित हो रहा है, जब कर्मों का ग्रावरण दूर हो जाता है, तब वह प्रकट हो जाता है ।
जैनधर्म इस संसार मे दो पदार्थ मानता है- जड़ और चेतन । जड़ पदार्थ वे है जिन मे ज्ञान, दर्शन, मुख आदि गुण नही पाए जाते हैं और चेतन पदार्थ वे हैं जिन मे ज्ञानादि गुण अवस्थित हैं । खान से निकले सोने मे जैसे मल अनादि काल मे मिला रहता है वसे ज्ञानवान श्रात्मा अनादि काल से कर्मप्रवाह मे प्रवाहित होता चना म्रा रहा है । इस कारण इसकी समस्त शक्तिया ग्राच्छादित हो रही हैं, और ज्ञान यादि गुण प्रकट नहीं हो रहे हैं किन्तु जिस समय श्रहिंसा, सयम और तर द्वारा कर्म श्रात्मा से सर्वथा छूट जाते हैं, उस समय श्रात्मा मे ज्ञानादि गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं । ग्रज्ञानजनक कर्म के प्रात्यन्तिक क्षय हा जाने पर यह श्रात्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्गी दशा को प्राप्त कर लेता है । सर्वज्ञ बनने के लिए किसी व्यक्ति विशेष की कोई बात नहीं है । जो भी जीव कर्म-म्वनो को तोड़ देता है, वही सर्वज्ञ पद उपलब्ध कर लेता है । वस्तुनः सिद्ध और ससारी जीव मे केवल कर्मों का ही अन्तर है । दानी के मध्य मे कसं खड़ा है, जो दोनो को सदा से अलग रख रहा है । जब इस कर्म को नष्ट कर दिया जाता है तो परमात्मा और ग्रात्मा से कोई अन्तर नहीं रहता। इसीलिए कहा हैश्रात्मा परमात्मा में कर्म का ही भेद हैं । काट दो यदि कर्म को फिर भेद है ना खेद है ॥
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पाठशाला मे पढने वाला प्रत्येक छात्र प्रोफेसर बन सकता है । पाठशाला की पढाई किसी व्यक्ति-विशेष के लिए निश्चित नहीं होती ।