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सप्तम अध्याय नही मिलता जैसा कि सर्व प्रकार के रसो का उपभोग करने से मिलता है। अतः जीव जब मुक्ति-सुख से तृप्त हो जाता है, तो वह ससार के वैषयिक सुख भोगने के लिए मुक्ति को छोड कर ससार मे आ जाता है।" सर्वथा भ्रान्त और औचित्य-रहित है । भौतिक,सुख और आत्मिक सुख दोनो सुखो मे महान अन्तर रहता है। इन को एक समान नही कहा जा सकता । भौतिक मुख मे भौतिक साधन अपेक्षित होते हैं, जवकि आत्मिक मुख मे किसा भौतिक साधन की आवश्यकता हो नही होती । भौतिक सुख अस्थायी है. और आत्मिक सुख स्थायी है। भौतिक सुख दुख-मिश्रित होता है, और यात्मिक सुख मे दुख का चिन्ह भो नही हं ता भौतिक सुख इन्द्रियजम्य है, और आत्मिक सुख मे इन्द्रियो को कोई अपेक्षा नहीं होती। इतनो भिन्नता होने पर दोनो को एक समान कसे कहा जा सकता है ? आत्मिक सुख के सामने भौतिक सुख का महत्त्व भी क्या है ? कहा सूर्य का प्रकाश और कहा खद्योत का? दोनो मे जैसे समानता नही है, वैसे ही भौतिक सुख और आत्मिक सुख इन दोनो मे भी काई समानता नही है । अत मुक्तजोव को जो आत्मसुख हाता है वह मिष्टान्न जन्य सुख से उपमित नही किया जा सकता । मिठाई खाने से जी उकता सकता है, किन्तु आत्मसुख प्रात्मा का स्वभाव होने से आत्मा की व्याकुलता का कारण नहीं बन सकता।।
मनुष्य प्रतिदिन रोटी खाता है, कभी उसका मन व्याकुल नही होता, कभी उसे वह छोडने का तैयार नहीं होता। अत लगातार सेवन करने से सभी वस्तुग्रो से जी उकता जाता है, यह कोई सिद्धात नही है। मनुष्य सदा वस्त्र पहनता है,किन्तु कभी उसे नग्न हो जाने का विचार नहीं पाता, किसी मनुष्य ने कभी किसी से चोट नहीं खाई तो