Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 378
________________ ३५५ का परिवर्तन | इस अपेक्षा से प्रात्मा श्रनित्य भी मानी गई है। वह द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय को अपेक्षा श्रनित्य है । ससारी मात्मा कर्मों से प्रावद्ध होने के कारण शरीर से भी युक्त है। जब तक वह सपूर्ण कर्मों का नाश नहीं कर देता, तब तक वह शरीर से छुटकारा नही पा सकता है । मृत्यु के समय स्थूल-प्रदारिक शरीर यही छूट जाता है और अपने आगामी जन्म के स्थान तक पहुचने के लिए उसे श्या३या४ समय लगते है। उतने काल तक वह स्थूल शरीर मे रहित रहता है, फिर भी अशरीरी नहीं होता । क्योकि, कार्मण शरीर सदा उसके साथ रहता है । उस समय भी वह शरीर श्रात्मा से सबद्ध रहता है और उसी कार्मण शरीर के माध्यम से वह अपने बांधे हुए श्रायुष्य के अनुरूप स्थान मे पहुच जाता है और वहा पहुच कर सबसे पहले प्रहार ग्रहण करता है और उसके बाद प्रौदारिक या वैक्रियस्थूल शरीर बनाता है । यह शरीर प्रति समय परिवर्तित होता है और श्रात्मा के बाघे हुए कर्मों मे भी प्रतिक्षण परिवर्तन आता रहता है । श्रात्मा शरीर से संबद्ध होने के कारण शरीर श्रादि पर्यायों के परिवर्तन की अपेक्षा से भी अनित्य कहलाता है । इस तरह हमने देखा कि ग्रात्मा अपेक्षा विशेष से नित्य भी है और अनित्य भी । परन्तु एकान्त रूप से नाशवान नहीं है । शरीर के विनाश के साथ ही उसका अस्तित्व समाप्त नही हो जाता । एकान्त क्षणिकवाद को मानने वाले बौद्धो ने भी शरीर के नाग के साथ-साथ प्रात्मा का विनाश नही माना है । अतः शरीर के साथ आत्मा का विनाश मानना भारतीय संस्कृति के किसी भी आस्तिक विचारक को स्वाकार नही है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक दर्शन एव जैन दर्शन मे सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जैन दर्शन श्रात्मा की स्वतन्त्र सत्ता एव उसके परिणामी नित्यत्व 1 नवम अध्याय PANIPA ইছক *

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