Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 385
________________ फ उत्तर .................... प्रश्ना पदार्थो को इकट्ठा करके मुख भोग किया जाए। यह हम पहले ही पता चुके है कि त्याग निष्ठा से रहित केवल भोग की भावना पतन के गर्त मे गिराने वाली है। यह मानव को मानवता से बहुत दूर,दानवता की प्रोर ले जाने वाली है। प्रस्तु,अनंतिकता के पोषण का स्वर इनसान का नही, शैतान का हो हो सकता है / इसलिए अनंतिक तरीको से भोगों में आसक्त रहनेकी प्रेरणा देना संसारको नरक बनाना है और जनदर्शन ससार को जीवित नरक बनाने के पक्ष में नहीं है। वह तो मानव को भोग के कीचड से उपर उठा कर त्याग के शिखर पर पहुचाने का प्रयत्न करता है / और वह चार्वाक की इस बात से भी सहमत नहीं है कि शरीर के नष्ट होने क साथ प्रात्मा का नाश हो नाता है, उस का पुनर्जन्म नहीं होता। हम इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि जैन दर्शन प्रात्मा को परिणामी नित्य मानता है। और ससार में स्थित प्रात्मा एक योनि में प्राप्त स्थूल शरीर के नाग होने पर वह दूसरी योनि मे जन्म ग्रहण करता है। यह नितात सत्य है कि मोक्ष मे जाने के वाद आत्मा पुन ससार मे नही आता या जन्म ग्रहण नहीं करता। परन्तु वहा भी आत्मा का अस्तित्व सदा बना रहता है, उसरे स्वरूप का लोप नहीं होता। इतने विस्तृत विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक और जैन दर्शन मे आकाश-पाताल का-सा अन्तर है। चार्वाक पुण्यपाप, नरक-स्वर्ग आदि के अस्तित्व को नही मानने वाला एकान्त भौतिकवादी दर्शन है और जैन पुण्य-पाप, नरक-स्वर्ग आदि के अस्तित्व मे विश्वास रखने वाला अध्यात्मवादी दर्शन है / चार्वाक नास्तिक दर्शन है और जैन दर्शन आस्तिकवाद से परिपूर्ण है।

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