Book Title: Prashno Ke Uttar Part 1
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकप्राचार्य श्री पात्माराम जैन प्रकाशन समिति जैन स्थानक, लुधियाना। प्रथम प्रवेश १००० वीर सम्वत् २४८५ विक्रम सम्वत् २०१५ १रु ७५न.पै. मूल्य जैन प्रिंटिंग प्रेस प्रो० मा० किशन चन्द जैन एण्ड सन्ज स्यालकोटी हजूरी रोड लुधियाना। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस को ? जिन की अध्यात्म साधना, तथा आदर्श ज्ञान - श्राराधना के अनुपम प्रकाश को पाकर, मैं अपनी जीवन - यात्रा में, चलता चला आ रहा हूँ । उन परम श्रद्वेय श्राचार्य - संम्राट् गुरुदेव पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज के पवित्र चरण-कमलों में सविनय स भक्ति समपित ज्ञान मुनि Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुस्तक में प्रयुक्त की गई ग्रन्थों की सूची १ अमोलक मूक्ति रत्नाकर २ अहिंसा दर्शन ३ आचाराग सूत्र ४ आचाराग सूत्र [सटीक कल्याण ऋपि जी महाराज उपाध्याय कवि श्री अमर चन्द्र जी महाराज सन्तबाल मुनि श्री सौभाग्य मल जी महाराज रत्नलाल जैन मोती लाल वाड़ी शाह ५ आत्मरहस्य । ६ इजील [वाईबल] ७ ऐतिहासिक नोध ८ कवीर वाणी ९ कल्पसूत्र १० गणधर-वाद ११ गहरे पानी पैठ १२ गोतम कुलक १३ चन्द्र ज्योति हिन्दी प० दलसुख भालवणिया श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय १४ जैनतत्त्वादर्श १५ जैन तत्त्व प्रकाश जीवन चरित्र महासती श्री चन्दा जी महाराज श्री विजयानन्द सूरि पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज उपाध्याय कवि अमर चन्द १६ जैनत्व की झाकी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी महाराज १७ जैनदर्शन मुनि न्याय विजय जी १८ जैन दर्शन पं० महेन्द्र कुमार दर्शना चार्य १९॥ ॥ डा० मोहनलाल मेहता, एम. ए. २० जैनदर्शन में श्वेताम्बर तेरहपन्थ २१ जैन धर्म श्री सुशील मुनि जी २२ जैनधर्म कैलाश चन्द्र जी २३ जैनशासन सुमेरु चन्द्र जी २४ जैन सिद्धात बोल सग्रह ८ भाग भैरोदान सेठिया बीकानेर २५ तत्त्वनिर्णय प्रसाद श्री विजयानन्द सूरि २६ तत्त्वार्थ सूत्र पण्डित सुखलाल जी २७ दशवकालिक सूत्र आचार्य पूज्य श्री प्रात्मा राम जी महाराज २८ दिगम्बर मत समीक्षा मुनि मिश्रीमल जी महाराज २९ दीघ-निकाय अनुवादक राहुल साकृत्यायन ३० नयवाद श्री फूलचन्द्र जी म०, श्रमण ३१ निग्रंथ प्रवचन जैमदिवाकर श्री चौथमल जी महाराज ३२ प्रश्न प्रकाश मुनि धनराज जी ३३ भगवती सूत्र हिन्दी मदन कुमार मेहता ३४ भगवद्गीता ३५ भगवान महावीर [उर्दू श्री काशीराम बावला Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ भ्रमविध्वंसन श्री जयाचार्य ३७ भारतीय संस्कृति की दो धाराएं श्री इन्द्रचन्द्र शास्त्री ३८ मुखवस्त्रिका सिद्धि श्री रत्न लाल डोशी ३९ शास्त्रार्थ नामा शास्त्रार्थ-महारथी गणी श्री उदयचन्द्र जी महाराज ४० शृङ्गार शतक [भर्तृहरि] ४१ श्रमण भगवान महावीर श्री कल्याण विजय जी ४२ श्रमण सूत्र उपाध्याय कवि श्री अमर चन्द्र जी महाराज ४३ श्रावक धर्म महासती श्री उज्ज्वल कुमारी जी महाराज ४४ श्रीमद्भीषण के विचार रत्न श्री चन्द रामपुरिया ४५ सिक्खशास्त्र (गुरु ग्रन्य साहिव) ४६ स्थानकवासी आचार्य पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ४७ स्थानकवासी और तेरहपस्थि यो में अंतर ४८ स्थानांग सूत्र ४९ स्यावाद-मंजरी अनुवादक श्री जगदीश चन्द्र जैन, एम. ए पी. एच.डी. ५० स्वर्ण जयन्ती अन्य स्थानकवासी जैन कान्स द्वारा प्रकाशित ५१ नात गगा भारतीय ज्ञानपीठ कांशी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यवाद "प्रश्नो के उत्तर" के प्रकाशन में जिन जिन दानी महानुभावो ने दान देने की कृपालुता की है । उन दानी सज्जनों के शुभ नाम इस प्रकार हैं SHAY श्री वस्तीमल नवरत्न जी मूथा श्री त्रिलोक चन्द जी लोहटिया श्री हंस राज जी लोहटिया श्री दुर्गादास जी वजाज श्री अमर चन्द जी लोहटिया श्री रव्वी राम जी बजाज गाधी चौक, रायचूर घुरी मण्डी घुरी मण्डी घुरी मण्डी " धुरी मण्डी श्री पन्ना लाल जी जैन सैक्टरी जैन सभा घुरी मण्डी चौधरी देसराज जी बज्राज धुरी मण्डी चौघरी वारूमल जी जैन बज्राज श्री रामनाथ सीता राम जी श्री मती वदाम वाई धनी बाई श्री हेमराज गिरधारी मल जी श्री शादी राम श्याम लाल जैन श्री बाबू राम ज्ञान चन्द जैन नाभा नाभा श्री श्री नौराता राम जी जैन जैन वूट हाऊस, नाभा गुलाव चन्द पूनम चन्द धूपिया झालेवाड़ श्री. तेजपाल जी जैन हकीम भाईरूपा ( भटिण्डा ) श्री जसराज मोहन लाल जी श्री गुलाव चन्द चौथ मल जी श्री बलीराम जी लोहटिया, धुरी मण्डी घुरी मण्डी रायचूर कलकत्ता मालेरकोटला Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कावली राम केसरी चन्द्र जो मालेरकोटला श्री बदरी दास जी श्री रामदास वाला मल जैन धन के स्वामी तो लाखो मिल जाते पर धन का सदुपयोग करने वाले,उसे आध्यात्मिक साहित्य के प्रकाश मे लगाने वाले विरले होते है । वस्तुतः ममता का परित्याग करना बड़ा काठन कार्य माना गया है। कोई भाग्यशालो जीव हो यह पुनीत कार्य कर सकता हैं। ऐन हो भाग्यशाली दानी सज्जनो को कृपा से हम यह नूतन प्रकाशन करने में सफल हो सके है। मैं समिति को सोर से इन दानो सज्जनो का धन्यवाद करता हू और आशा करता हूं कि आप सब भविष्य मे भी धार्मिक साहित्य के प्रकागन के लिए सहयोग देते रहेगे। समाज के जितने धार्मिक कार्य हैं, वे सब सहयोग पर निर्भर हैं। विना सहयोग के कोई समाज आगे नहीं बढ़ सकता । अत. सामाजिक उन्नति के लिए सहयोग देना अत्यावश्यक है। हमारे दानी सज्जनो से विनोत प्रार्थना है कि वे दान देते समय आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना को सहयोग देने का अवश्य ध्यान रखें । लुधियाना। ३० ५ ६२): आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति जैन स्थानक, लुधियाना। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय हम सहर्ष पाठको के कर-कमलो मे श्रद्धेय श्री ज्ञान मुनि जी महाराज कृत यह रचना प्रस्तुत कर रहे हैं । हर्ष की वास्तविकता तो विशेषकर इस लिए है कि इस पुस्तक का प्रकाशन हमारा प्रथम साहस है । ऐस०ऐसजन बिरादरी द्वारा निर्वाचित इस समिति को अभी दो मास ही हुए है कि इसने इतने अल्प समय मे यह अनुपम रत्न पाठको के समक्ष ला दिया है। इस समिति का मूल उद्देश्य आचाय-सम्राट् पूज्य श्री प्रात्माराम जी महाराज द्वारा लिखित, अनुवादित तथा सम्पादित ग्रन्थो को पाठको के लिए प्रकाशित करना है । समिति का क्षेत्र इतना ही नही, अपितु विशाल है । यह समिति अन्य सुप्रसिद्ध मनोनीत लेखको को कृतियो को भी प्रकाशित सामग्री में परिवर्तित करेगी। पाठक अनुमान लगा सकेगे कि हमारा ध्येय तो मानव जाति के लिए साहित्य द्वारा ऐसा सुगम सुमार्ग प्रस्तुत करना है जिस पर चलने से मानव सुन्दर, सुखद और स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सके । प्रस्तुत पुस्तक “प्रश्नो के उत्तर" दो खण्डो मे है। जिसका प्रथम खण्ड आप की सेवा मे उपस्थित है । प्राचार्यदेव के सुशिष्य श्री ज्ञान मुनि जी महाराज ने इस पुस्तक मे समय-समय पर सामने आने वाले प्रश्नो को लिखकर उनके उत्तर तैयार किए हैं । आजके हिन्दी-युग मे ऐसीपुस्तक की महान आवश्यकता थी । असीम प्राभार की बात है कि मुनि श्री ने इस आवश्यकता को अपने अनवरत परिश्रम द्वारा पूरा किया है। प्रधान- श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात एक वार मुझे जण्डियाला गुरु (अमृतसर) जाने का अवसर मिला। वहां रात्रि को युवक-मण्डल को जन-धर्म-सम्बन्धी जानकारी कराने का मौका भी प्राप्त हुा । यह जानकारी प्रश्नोत्तर के रूप में चलती थी। कभी मैं स्वय उनसे प्रश्न पूछता फिर उन को उनके उत्तर समझा देता, कभी वे मुझ मे अपने प्रश्नो का समाधान मागते। इस प्रकार जान-चर्चा करने से वडा अच्छा हचिपूर्ण वातावरण बन जाता था। एक दिन एक युवक ने कहा कि इस प्रकार की जानचर्चा से जो हमे जानकारी प्राप्त होती है उसे चिरस्थायी बनाए रखने के लिए एक ऐसी पुस्तक होनी चाहिए, जिस मे जैनधर्म-सम्बन्धी मोटे मोटे सभी प्रश्नो का समाधान किया गया हो और जिसके स्वाध्याय से हम, क्षेत्र मे साधु मुनिराजो के विराजमान न होने पर भी ज्ञानचर्चा का लाभ प्राप्त कर सके । मुझे भी उस युवक की वात पसन्द आई। मैंने भी सोचा कि साहित्य के विना समाज का कभी विकास नही हो सकता, उस के सैद्धांतिक विचारो तथा आचारो को जनमानस तक पहुंचाने के लिए योग्य साहित्य की नितान्त आवश्यकता हुया करती है। परिणामस्वरूप मैंने उस युवक को आश्वासन दिया और साधुभाषा मे कहा कि मैं इस काम की पूर्ति के लिए यथाशक्य प्रयास करूगा। जण्डियाला से विहार होने पर अमृतसर, पट्टी, जीरा आदि क्षेत्रो मे भ्रमण करते हुए अन्त मे श्रद्धेय जनधर्म-दिवाकर, आचार्य-सम्राट गुरुदेव पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के चरणो मे लुधियाना पहुच गए और यही आचार्य श्री की सेवा मे चातुर्मास हो गया। जण्डियाला को बात मुझे भूली नही थी और लुधियाना आने पर तो उस मे और Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी दृढ़ता प्रा गई । अन्त मे, मैंने जैनधर्म-दिवाकर प्राचार्य-सम्राट पूज्य गुरुदेव श्री के चरणो का आश्रय ले कर इस काम को चाल कर दिया। और लगभग सात महीनो मे एक पुस्तक तैयार करली । जो "प्रश्नो के उत्तर" इस नाम से आप के सामने है। इस पुस्तक मे जैनधर्म-सम्बन्धी प्रश्नो के उत्तर लिखे गए है। पहले प्रश्न और फिर उस का उत्तर,इस पद्धति से इसकी रचना की गई है। इसलिए इस पुस्तक का "प्रश्नो के उत्तर" यह अन्वर्थ नामकरण किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक दो खण्डो मे विभक्त है। पहले खण्ड मे दार्शनिक एवं तात्त्विक चर्चा और द्वितीय खण्ड मे धार्मिक एव सैद्धातिक वि. चार चर्चा है । प्रत्येक खण्ड मे नव-नव अध्याय हैं । इस तरह पूरी पुस्तक मे निम्न १८ अध्याय हैं१ जेनधर्म २ तत्त्व-मीमामा ३ बन्ध-मोक्ष मोमासा ४ जैनधर्म का अनादित्व ५ आस्तिक-नास्तिक समीक्षा ६ ईश्वर-मीमासा ७ जैनधर्म और वैदिक धर्म ८ जैनधर्म और वौद्धधर्म ९ जैनधर्म और चार्वाक १० सप्त-कुव्यसन-परित्याग ११ ग्रागार धर्म १२ अनगार धर्म १३ चौवीस तीर्थकर १४ स्थानकवासी और अन्य जैन सम्प्रदाए १५ जैनपर्व १६ भाव पूजा १७ जैनधर्म और विश्व समस्याए १८ लोक स्वरूप इस पुस्तक के उक्त अध्यायो मे जिन वातो, का विवेचन दिया गया है, उनको सकलित करने मे मुझे अनेको ग्रन्थो और पुस्तको को देखना पडा है। उन सब का नामनिर्देश इसी पुस्तक मे अन्यत्र किया जा रहा है । मैंने इन ग्रन्थो और पुस्तको के कही भाव लिए हैं कहा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यों की त्यो पक्तियां उठाई है । वस्तुतः इन्ही पुस्तको के सहयोग से मैं इस पुस्तक की रचना कर सका है। अतः मैं इन ग्रन्थो और पुस्तकों के लेखक महानुभावो का हृदय से आभार मानता हू। जिनके सतत परिश्रम से लिखी पुस्तको का सहयोग पा कर मैं अपने मनोरथ को मूर्तरूप देने में सफल हो सका है। मैं हृदय से उनका अपने को अाभारी पाता है। इस पुस्तक के दूसरे खण्ड के एक अध्याय मे आपको विशेष रूप से स्थानकवासी परपरा द्वारा मान्य दृष्टि का परिचय मिलेगा। इस अध्याय मे यह दृष्टि जान बूझ कर रखो गई है । इस अध्याय को लिखने का मेरा उद्देश्य केवल स्थानकवासी युवको, युवतियो को स्था. नकवासी परम्परा की मान्यताप्रो और शिक्षाओ से शिक्षित करना है। इसलिए इस पुस्तक मे साम्प्रदायिकता की भावना देख कर चौकने की आवश्यकता नही है। अपनी मान्यताप्रो तथा मर्यादाओ से अपने सा. माजिक लोगो को परिचित कराना मेरी दृष्टि मे कोई बुराई नहा है। इस पुस्तक की प्रेस कापो बनाने मे धर्मोपदेष्टा श्रद्धेय महासती श्री चन्दा जी महाराज को सुयोग्य शिष्यानुशिष्याए विदुपो महासती श्री लज्जावती जी महाराज तथा तपस्विनी श्री सौभाग्यवती जी महाराज की शिष्याए श्री सीता जो महाराज, श्री कौशल्या जी महाराज, श्री महेन्द्रा जी महाराज इन पूज्य साध्वियो का प्रर्याप्त सहयोग प्राप्त रहा है। इनमे भी श्री महेन्द्रा जी महाराज का सहयोग चिरस्मरणीय रहेगा, जो अस्वस्थ होते हुए भी इस कार्य मे आशातीत अपना सहयोग देती रहो हैं । मैं इस महासती-मण्डल का हृदय से ग्राभारी हूँ। इस पुस्तक के सम्पादक हमारे मान्य लेखक पण्डित मुनि श्री समदर्शी जी हैं। श्री समदर्शी जी के पास बनारस में मैंने सामग्री भेज Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड दी थी, वही से उन्होंने इस कार्य को चालू कर दिया था । समदर्शी जी को सम्पादन कला की विशेषता के सम्बन्ध मे मै क्या कहूं ? सक्षेप में इतना ही निवेदन किए देता हू कि समदर्शी जी की लेखनी का स्पर्श पा कर प्रश्नो के उत्तर' इस पुस्तक का कायाकल्प हो हो गया है। श्री समदर्शी जी के इस प्रेम भरे श्रम के लिए मै इनका आभारी हू । अन्त से, मै परम श्रद्धेय जैनधर्म - दिवाकर आचार्य सम्राट् गुरुदेव पूज्य श्री आत्माराम जो महाराज के पावन चरणो का आभार मानता हू क्योकि इन्ही के परम प्रताप से, तथा कृपाभाव से हो मै इस पुस्तक को लिखने की क्षमता प्राप्त कर सका हू । जैनदर्शन एक प्रथाह सागर है, जिसका किनारा प्राप्त करना मेरे जैसे ग्ररूप- बुद्धि के वश की बात नही है । तथापि मै इस पुस्तक मे जैनधर्म के सम्बन्ध मे जो कुछ लिख सका हू, उस के पीछे मेरे धर्माचार्य ग्राचार्य सम्राट् पूज्य गुरुदेव श्री श्रात्माराम जी महाराज का प्रबल अनुग्रह हो काम कर रहा है । मेरा अपना इसमे कुछ नही है । इसके मूल स्रोत तो श्रद्धेय गुरुदेव प्राचार्य - सम्राट् ही है । - ज्ञान मुनि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी दृष्टि में algh ले० - संस्कृत - प्राकृत- विशारद पण्डित श्री हेमचन्द्र जी म० "प्रश्नों के उत्तर” नामक ग्रन्थ को मैंने ध्यानपूर्वक पढ़ा है । मैं अपने अध्ययन के आधार पर निःसन्देह यह कह सकता हूं कि प्रश्नोत्तर के रूप में यह बहुत उपयोगी बहुमुल्य ग्रन्थ लिखा गया है । इसके प्रारम्भ मे पवित्रतम 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति दो गई है । इस के ७,८ पृष्ठो पर धर्म की परिभाषा का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है । स्याद्वाद और सप्नभगो जैसे गहन विषय का इस मे सरल किन्तु तात्त्विक विवेचन किया गया है। जैन दर्शन मे नयवाद का जो विस्तृत एव स्वतन्त्र प्रतिपादन पाया जाता है, वह जैनेत र दर्शनो मे प्रायः समुपलब्ध नहीं है । इस नयवाद का भी इस विशालकाय ग्रन्थ मे बहुत सुन्दर सकनन किया गया है। जैन सिद्धान के प्राणभूत नव तत्त्व और आठ कर्मो का उपयोगो वर्णन भी इस में उपलब्ध है । अनन्त की अनन्तता को समझाने के लिए इस ग्रन्थ के ८५ और ८१ पृष्ठ पर गणित का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, जो पाठको के लिए पुन पुन. मननीय है । ईश्वर जगत्कर्ता एव कर्म फल प्रदाता है या नहीं? इस प्रकार की ईश्वर-सम्बन्धी अनेक शकाए जनसाधारण और विद्वानो के मस्तिष्को मे चक्कर काटती रहती हैं । इस ग्रन्थ के सम्पूर्ण छठे अध्याय मे ईश्वर विषयक अनेक शकाप्रो का जो सरल और मार्मिक समाधान किया गया है. उसके लिए लेखक मुनि महोदय धन्यवादाई है । यह ग्रन्थ वडे परिश्रम से लिखा गया है । पाठक इसके अध्ययन, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन और मनन से लेखक के परिश्रम को सफल करे, यही मेरी हार्दिक कामना है। इस अत्युत्तम एव अत्युपयोगी ग्रन्थ के लेखक श्री ज्ञान मुनि जो को मैं अनेकश. धन्यवाद देता हूँ। x x x x मैंने जो समझाले०- जैनभूषण, पजाब केसरी श्री विमल मुनि जी म. ___ मनुष्य का मस्तिष्क कुछ ऐसे विशिष्ट तत्त्वो का सम्मिश्रण है, जिनके प्राचार पर वह प्रत्येक समग्या का समाधान मागता है, समस्या का समाधान प्राप्त करना ही वह अपना ध्येय समझता है । जब तक समस्या का समाधान नही होता तब तक उसे सन्तोप नहीं होता। आज हमारे सामने जितने भी शास्त्र, सूत्र, स्मृतियां है, वे सब मनुष्य की इसी समाधान-वृत्ति का सत्सरिणाम है । आज विज्ञान का युग है। आज किसी भी तथ्य को स्वीकार करने से पूर्व मनुष्य उसको विज्ञान की कसौटी पर स्वरा देखना चाहता है। यही कारण है आज ऐसा क्यो है ? यह सब से पहले पूछा जाता है । प्रश्न मानो तूफान का रूप लेकर मनुष्य के सामने आ खडे होते हैं । इनका समाधान प्राप्त किये बिना मानव हृदय शा त एव स्वस्थ नही हो पाता। 'प्रश्नो के उत्तर' मे प्रश्नो का समाधान किया गया है । अनेकविध तथ्यो को लेकर जो प्रश्न सामने आते है, उनको सगृहीत करके फिर उनका इस पुस्तक मे समाधान कर रखा है। मैंने इस पुस्तक का Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त विहंगम दृष्टि से देखा है, उसके आधार पर में कह सकता हू कि यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । जिस प्रकार एक रोगी व्यक्ति को इजैक्शन द्वारा शीघ्र लाभ होता है उसी तरह उलझे हुए मस्तिष्क को सुलझाने में यह ग्रन्थ इजैक्शन का काम करेगा। इसके अध्ययन से मनुष्य को शीघ्र ही आध्यात्मिक और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त हो सकेगा । इस ग्रन्थ के दो खण्ड हैं । दोनो मे ९, ९ श्रध्याय हैं । प्रत्येक अध्याय मे स्वतन्त्र रूप से एक विषय को लेकर प्रकाश डाला गया है। इसमें भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से सभी कुछ उत्तम है। यदि चिन्तन पूर्वक एक वार समस्त ग्रन्थ का ग्रध्ययन कर लिया जाए तो मैं विना सन्देह के कह सकता हू कि पाठक को जैन वर्म के मूलभूत सिद्धातों को सन्तोषजनक बोत्र हो जायगा, और जैनधर्म के मन्तव्यो को लेकर उसके हृदय मे जो प्राशंकाए चक्र काटती हैं, वे सब एकदम शान्त हो जाएगी । इस पुस्तक के लेखक मेरे मित्र श्रद्धेय श्री ज्ञान मुनि जी महाराज हैं। महाराज जी ने वडे गम्भीर चिन्तन-मनन के साथ इसे लिखा है और हमे अधिक से अधिक प्रामाणिक तथा हितावह बनाने के लिए इन्होने पूर्ण प्रयास किया है । मुझे पूर्ण विश्वास है कि आध्यात्मिकता को छाया तले रहने वाले सहृदय जिज्ञासु इससे अवश्य लाभ उठायेंगे। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर [प्रथम खण्ड विषयानुक्रमणिका जैन धर्म=प्रथम अध्याय विषय पृष्ठ विषय जैन शब्द का अर्थ जिन, जैनसमाज का अर्थ २ जैन हिन्दू है या नहीं? ३ जैनधर्म का अर्थ धर्म की परिभाषा. ७ दर्शन चारित्र का अतर स्याद्वाद या अनेकातवाद १३ विभज्यवाद अनेकातवाद १७ एकातवाद और अनेका- २१ न्तवाद स्याद्वाद और सप्तभगी २३ आक्षेप और समाधान २७ राजनैतिक सघर्षों का ३९ विचारको की दृष्टि मे ४२ समाधान-स्याद्वाद स्याद्वाद नयवाद नय और प्रमाण द्रव्य और पर्याय द्रव्य और प्रदेश व्यवहार मोर निश्चय नय के भेद नैगम नय संग्रह नय व्यवहार नय ऋजुसूत्र नय शब्द नय ४५ ५३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "नामक नय समभिरूढ़ नय ५७ एवभूत नय सप्त नयो का पारस्परिक ५९ स्याद्वाद और नयवाद का ६० सम्बन्ध सम्बन्ध तत्व मीमांसा द्वितीय अध्याय तत्त्व कितने हैं ? ६१ प्रात्म मीमासा भूतवादी प्राणात्मवादी मनोमय प्रात्मा उपनिषदो का पात्मवाद ७३ एव तथागत बुद्ध का अना स्मवाद दार्शनिको का आत्मवाद ७८ । आत्मा एक है या अनेक? ७९ वेदांत में विचार-भेद ८० [शंकर का मायावाद] सत्योपाधि वाद विशिष्टाद्वैतवाद द्वैताद्वैत-भेदाभेदवाद भेदवाद अविभागाद्वैतवाद शैवमत जैनो का द्वैतवाद जीव एक है, अनेक हैं आत्मा का परिमाण यह कैसे? जीव नित्यानित्य है.सांख्य ९३ । नैयायिक वैशेषिको का ९४ का कटस्थवाद नित्यवाद बौद्धों का प्रनित्यवाद वेदान्त का परिणामी १५ नित्ययाद प्रात्मा का कर्तृत्ववाद ९७ और भोक्तृत्ववाद दार्शनिको की मान्यता ९८ अजीव-मोमासा ११५ धर्म और अधर्म द्रव्य, ११५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ १३८ १४४ प्राकाश द्रव्य ११९ पुद्गल द्रव्य १२३ वैशेषिक दर्शन की १२९ स्कन्ध की उत्पत्ति पदार्थ मान्यता श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा शब्द वन्ध १३७ सोक्षम्य १३८ स्यौल्य सस्थान भेद १३९ तम १३९ छाया,आतप पोर १३९ कालद्रव्य उद्योत बन्ध-मोक्ष-मीमांसा-तृतीय अध्याय जीव और कर्म सवध १४३ पुण्यतत्त्व क्यो और उसका अत कैसे होगा? पापतत्त्व १४८ प्रास्त्रवतत्त्व सम्बर तत्त्व १५२ बन्ध तत्त्व कर्मविचार का मूल कालवान १५७ स्वभाव यदृच्छावाद १५९ नियतिवाद अज्ञानवाद जैनो का समन्वयवाद १६२ ।। कर्म का स्वरूप नैयायिक,वैशेषिक और १६४ जैन योगदर्शन और जैन १६६ साख्य और जैन . १६७ बौद्ध दर्शन भीमासक दर्शन १७० कर्म के भेद १७० कर्म की मूल और उत्तर १७२ प्रकृतिया १५० १५३ १५४ १५८ १६९ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ज्ञानावरणीय कर्म १७२ दर्शनावरणीय कर्म १७३ वेदनीय कर्म मोहनीय कर्म - आयु कर्म १७४ नाम कर्म १७४ गोत्र कर्म १७७ अन्तराय कर्म १७७ प्रकृतियो का वन्व १७८ कर्मबन्ध का कारण १७८ कर्मफल का स्थान १८२ परिणाम और प्रकृति १८४ का सम्बन्ध सामूहिक बन्ध का १८६ वन्ध और विपाक को १८५ कारण प्रक्रिया आत्मा और कर्म का १९० अमूर्त आत्मा पर मूर्त १९० सम्बन्ध कर्म का प्रभाव कैसे? कर्म स्वय फलप्रदाता है १९३ परमाणुप्रो का वैचित्र्य १९४ कर्मो की विभिन्न १९६ बन्ध अवस्थाए उद्वर्तन और अपवर्तन १९७ सक्रमण १९७ उदय १९८ उदीरणा १९८ उपशमन निधति निकाचित कर्मफल का सविभाग २०० निर्जरा तत्त्व २०२ मोक्ष तत्त्व २०७ मोक्ष शाश्वत है . २०७ जैनधर्म का अनादित्व चतुर्थ अध्याय जैनधर्म के उद्भव, २१० जैनधर्म प्राचीन है या २१० सस्थापक मधो प्रश्न अर्वाचीन ? जैनधर्म बौद्ध मत की २२२ 'हिन्दी साहित्य का २२६ सत्ता १९९ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखा नही आलोचनात्मक इतिहास' की भ्रान्ति जनवर्म के धारक राजा २३० मी है आस्तिक नास्तिक समीक्षा=पर्चम अध्याय . आस्तिक-नास्तिक शब्द २३३ जनदर्शन नास्तिकदर्शन',२३५ का व्याकरणसम्मत अर्थ है या आस्तिक दर्शन ?' आस्तिक, नास्तिक की २३८ मूल परिभाषा मे परिवर्तन का कारण ईश्वर मीमांसा=१ष्टम अध्याय ईश्वर के सम्बन्ध मे २४७ जैनदर्शन को अनीश्वर २४९ दार्शनिको की मान्यता वादी क्यो कहा जाता है? . ईश्वर को जगत्कर्ता २५२ ससार किसी की रचना २५४ मानना चाहिए? है? रचयिता कौन है ? प्रत्येक कार्य इश्वरेच्छा २५८ ईश्वर को भाग्य का वि- २५९ से होता है,यह सत्य है? धाला मानना चाहिए? ईश्वर को कर्म-फल- २६३ कर्म का फल कौन देता' २७२ प्रदाता मानना चाहिए? . . है? ईश्वर के भजन की क्या २७६ ईश्वर अवतार धारण २७९ आवश्यकता है? करता है? ईश्वर एक है या अनेक? २८३ जैनधर्म और वैदिकधर्म =सप्तम अध्याय जनधर्म और वैदिकधर्म २८४ अंहिंसा २८९ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म में आचार विचारगत मतभेद स्वावलम्बन साम्यवाद २९४ वेदों की पौरुषेयता २९७ ईश्वर का अकर्तृत्व ३०१ बगत को महाप्रलय ३०२ श्राद्ध को प्रयथार्थता ३०७ नहीं होती अपुत्रस्य गतिर्नास्ति ३११ मनुप्य सर्वज्ञ हो सकता है ३१३ मुक्ति से जीव वापिस ३१५ कर्मवाद नहीं माता हृदय का परिवर्तन ३२० मृतक को गति ३२० जैन धर्म और बौद्ध धर्म अष्टम अध्याय जैनधर्म और बौद्धधर्म ३२४ जैन और बौद्ध दोनो ३२४ समकालीन हैं धर्मो मे कौन प्राचीन ? जैनदर्शन और बौद्ध ३२६ बौद्ध दर्शन दर्शन में दार्शनिक अंतर जैन दर्शन ३३७ जनधर्म और बौद्धधर्म ३४४ जैन धर्म और बौद्धधर्म ३४५ मे समानता मे भिन्नता जैनदर्शन और चार्वाक दर्शन-नवम अध्याय चार्वाक और जैन दर्शन ३५० चार्वाक दर्शन में अन्तर जैन दर्शन 's Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर [प्रथम खण्ड] Page #23 --------------------------------------------------------------------------  Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर *जैन - धर्म प्रथम अध्याय प्रश्न- 'जैन' शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है ? उत्तर- 'जन' जिन शब्द से निष्पन्न होता है। 'जिन' शब्द जि= जये घातु से बना है!, अर्थात् जो जीतता है, विजय प्राप्त करता है, वह जिन है और उस विजेता का उपासक जैन कहलाता है।। . प्रश्न- क्या जिन भी दूसरे पर विजय प्राप्त करता है ? उस के भी कोई शत्र है ? उत्तर- हाँ,जिन एक महान् विजेता है । वह अपने असाधारण शत्रु ओ को परास्त कर के जगन्नाथ बनता है। परन्तु, उस की यह विजय किसी मानव पर नही होती। वह किसी इन्सान को नहीं पछाड़ता। उसका सघर्ष किसी जीवधारी से नही, राग-द्वष से, काम-क्रोध से, मनोविकारो से होता है। वह अनन्त काल से ससार चक्र में परिभ्रमण जि जये, जयतीति जिन ,जिनो देवताऽस्य इति जैन.। - +lt is also applicable to all those men and women who have conquered their lower nature & who have by means of a thorough victory over all attachments and anti-pathies realised the Highest. Dr. Radha Krishanan, Indian Philosophy 1, P.286. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २ कराने वाले, नरक के महागर्त मे गिराने वाले राग - द्वेष को परास्त करता है । वस्तुत राग-द्वेष ही आत्मा के असली शत्रु है । मानवमानव मे शत्रुता का भाव पैदा करने वाले ये ही है । इन्ही के कारण मनुष्य बाह्य शत्रुओं की कल्पना करता है, एक इन्सान दूसरे इन्सान को अपना दुश्मन समझने लगता है । राग और द्वेष मानव-मन के विकारी भाव है । मन पसन्द वस्तु पर मोह या आसक्ति को राग और नापसन्द वस्तु से नफरत, घृणा" एव तिरस्कार करने की वृत्ति को द्वेष कहते हैं । राग और द्वेप ही ससार परिभ्रमण के मूल कारण हैं । इनसे मन मे मोह जागता है | मोह से कर्म का वन्ध होता है । कर्म-बन्ध ही जन्ममरण का मूल कारण है । और जन्म-मरण ही वास्तविक दुख है । अस्तु, राग-द्वेप ही दुख-दैन्य के मूल कारण और आत्म-विकास के प्रतिबन्धक है। इन अन्तरग महाशत्रुओ को जीतने वाले महा-पुरुष को जिन कहते है | प्रश्न- जिन कौन होते हैं ? उत्तर- जिन किसी व्यक्ति विशेष का नाम नही है । न उस पर किसी सम्प्रदाय, धर्म, पथ या मजहब का ही आधिपत्य है । जिनत्व देश, जाति, पंथ, मज़हव, रग एवं वर्गभेद के खूटों से बंधा हुआ नही होता भगवान् महावीर के शब्दो मे, राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने वाला प्रत्येक मानव जिन वन सकता है चाहे वह किसी जाति का हो, किसी देश का हो, किसी पथ का हो, किसी लिंग मे हो, किसी वेश-भूषा में " रागो य दोसोविय कम्मवीयें, कम्म च मोहप्पभव वयति । कम्म च जाइमरणस्स मूल, दुवख च जाइमरण वयति ॥ ——उत्तरा..., न ३२,गा · ७ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय हो || राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-माया आदि मनोविकारो का उन्मूलन करने वाला जिन होता है । जिसे सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हन्त, परमात्मा, तीर्थकर आदि अनेक नामो से स्मरण किया जाता हैं । AAAAA प्रश्न- 'जैन समाज ' किसे कहते हैं ? .7 1 उत्तर- इस वाक्य मे जैन + समाज दो शब्द हैं । जैन उस व्यक्ति को कहते हैं - जो जिन का उपासक है । समाज का अर्थ है व्यक्तियों का समुदाय । ग्रस्तु, जिन भगवान् के उपासक व्यक्तियो, या यो कहिए जिनत्व को साधना के पथ पर गतिशील व्यक्तियो के समूह को जैन समाज कहते हैं । जेन कोई जाति नहीं, समाज है, धर्म है। किसी भी जाति का, रग का, देश का व्यक्ति जैन वन सकता है । भगवान् महावीर के शासन मे सभी जाति के मुनि एव गृहस्य सम्मिलित थे । भगवान् महावीर स्वय क्षत्रिय थे, गौतम स्वामी ब्राह्मण थे, जम्बू स्वामी वैश्य थे और हरिकेगी मुनि चाण्डाल (हरिजन ) थे । सद्गृहस्था मे गकटाल पुत्र कुम्हार थे, आनन्द पटेल (जाट) थे ओर सुलसा वढई जाति को थो | सव के साथ समान व्यवहार होता था, घृणा एव तिरस्कार को भावना नही थी । काश। प्राज के जैन जातिगत सहिष्णुता को कायम रख सकते, तो जैनधर्म उन्नति के शिखर से कभी नहीं गिर पाता ।' प्रश्न- जैन हिन्दू हैं या नहीं ? उत्तर- यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिसपर हमे जरा गहराई से सो. 1⁄2 १५ प्रकार के सिद्ध होते हैं, १ - नीर्थ-सिद्धा, २-अतीर्थ-सिद्धा, ३-तीर्थकर सिद्धा, ४-प्रतीर्थंकर सिद्धा, ५ स्वयबुद्ध-सिद्धा, ६ प्रत्येक बुद्ध-सिद्धा, ७ बुद्ध-बोधित सिद्धा, स्वलिंग (जैन मुनि वेश में ) सिद्धा, ९ - अन्य - लिंग- सिद्धा (जैनेतर सन्यासियो के वेश में), १० -गृह-लिंग-सिद्धा (गृहस्य के वेग में), ११ - स्त्रीलिंग सिद्धा १२पुरुषलिंग सिद्धा, १३-नपु मकलिंग सिद्धा, १४- एकसिद्धा, १५ - अनक मिद्धा । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर mari mmmmmmmam चना-विचारना एवं समझना है। आज अनेको व्यक्ति जनों को हिन्दूधर्म के अन्तर्गत समझने की भूल कर बैठते हैं। जनगणना के समय का मेरा निजी अनुभव है कि कई अधिकारी वर्म के खाने मे जैन-धर्मावलम्वी को हिन्दूधर्म मे लिख लेते थे। कई बार कहने पर भी वे सरलता से समझ ही नही पाते थे कि जैन धर्म हिन्दूधर्म से अलग धर्म है । इससे भी अधिक दुःख हमे यह जान कर हुआ कि कई जैन अपने आप को हिन्दू लिखाते थे। यह उनके अज्ञान का परिचायक ही है। मैं इस प्रकरण मे इस प्रश्न पर ज़रा स्पष्टता से प्रकाश डालने का प्रयत्न करु गा कि जैन हिन्दू है या उनसे भिन्न ? हिन्दू शब्द के आज तीन अर्थ हमारे सामने है। एक भौगोलिक, दूसरा धार्मिक एव तीसरा राष्ट्रीय। भौगोलिक दृष्टि से सिन्धु नदी के इस और वसने वाले लोग सिन्यु कहलाते थे । जव फारसी इधर पाए तो वे उन्हे हिन्दू कहने लगे । क्योकि फारसी मे 'स'का उच्चारण 'ह' होता है। इस से पहले पहल सिन्धु नदी के मैदान मे बसने वाले लोगो के लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग शुरू हुया और धीरे - धीरे सारे भारतोयो के लिए इसका प्रयोग होने लगा। इसी के आधार पर भारत को भी हिन्दुस्तान के नाम से पुकारने लगे। __कुछकाल के बाद वैदिक परपरा ने हिन्दू शब्द को अपना लिया। फलत वैदिक परम्परा मान्य क्रियाकाण्ड करने वाले व्यक्ति को हिन्दू कहने लगे। इस तरह हिन्दू शब्द एक सम्प्रदाय-विशेष के लिए प्रयुक्त होने लगा। जब देश मे राष्ट्रीयता का विकास हुआ तो उस के साथ - साथ हिन्दू शब्द के अर्थ का भी विस्तार हो गया। राष्ट्रीय दृष्टि से हिन्दू वह है, जो हिन्दुस्तान को अपनी मातृभूमि मानता है, जो राष्ट्र के प्रति इमानदार है और अपना राष्ट्रीय दायित्व निभाता है। भौगोलिक एव राष्ट्रीय परिभाषा के अनुसार जैन भी हिन्दू है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय वे भारत के निवासी हैं, भारत को अपना देश मानते है और राष्ट्रहित के लिए अपनी सेवाएँ देते रहे हैं और दे रहे है । 1 हिन्दू शब्द का जब "वैदिक धर्मावलम्वी" अर्थ किया जाता है, तव जैन अपने आपको हिन्दू नही समझते । धर्म के सबंध में अब यह भ्रम दूर हो गया है कि जैनधर्म वैदिक धर्म या किसी अन्य धर्म की शाखा नही है । वह वैदिकधर्म से भिन्न एक स्वतंत्र और मौलिक धर्म है । उसका धार्मिक प्रचार-विचार वैदिक आचार-विचार से सर्वथा भिन्न है । त धार्मिक दृष्टि से जैन जैन हैं, हिन्दू (वैदिक) नहीं । वास्तव मे हिन्दू एक जाति (राष्ट्रीय जाति) है, न कि धर्म । राष्ट्र के दुर्भाग्य से कुछ लोगो ने हिन्दू शब्द को धर्म की साम्प्रदायिक कारा में कैद कर लिया। इस से राष्ट्र को समय- समय पर अनेको कठिनाईयो का सामना करना पडा । राष्ट्र के अन्य धर्म जैन, बौद्ध, सिक्ख, मुसलमान आदि जिन को वैदिक धर्म पर विश्वास नही था, अलग हो गए। इस से राष्ट्र की प्रातरिक शक्ति कमजोर हो गई और वह परतत्रता की बेडी मे जकडा गया । समय ने करवट ली और देश मे फिर से राष्ट्रीयता की भावना उद्धृद्ध हुई जिससे हिन्दू शब्द को साप्रदायिकता की काल - कोठरी से मुक्त करके विशुद्ध राष्ट्रीय क्षेत्र मे लाने का प्रयास किया जा रहा है । परिणामस्वरूप भारत मे रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को हिन्दू मानने मे गौरव का अनुभव करने लगा है । सदियो से बिखरे मनके फिर से एक माला में इकट्ठे हो रहे है | यह राष्ट्र का सद्भाग्य ही है । AMA Exp www. प्रश्न- जैन धर्म का क्या अर्थ है ? उत्तर - जैनधर्म का अर्थ समझने से पहले यह समझ लेना श्रावश्यक * इस विषय पर आगे के पृष्ठो मे विस्तारपूर्वक विचार करेंगे । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर mmmmmmmmmmmmmmmmmia होगा कि धर्म के उद्भव होने का क्या कारण रहा है ? मनुष्य के सामने ऐसी कौनसी कठिन एव जटिल समस्याएँ आई जिन्हें सुलझाने के लिए उसे धर्म का सहारा लेना पड़ा? ऐसी कॉन सो परिस्थितिएं उपस्थित हुई जिनके कारण उसके मन मे धर्म की प्रखर ज्योति उद् कुछ विद्वानो का अभिमत है कि प्रकृति के अनोखे कार्यों को देख कर मनुष्य के मन मे एक विचारणा प्रस्फुटित हुई और उसने चिन्तन का रूप लिया। चिन्तन को गहराई मे गोता लगाते-लगाते उस की विचारधारा वहाँ जा पहुचो जिस के आगे तर्क एव बुद्धि को पहुँच नही थो । इसी चिंतन-धारा मे से धर्म को भावना का उद्भव हुआ । दूसरे विचारको-को यह कल्पना ठोक नही जचो ! उन की विचार-धारा के अनुसार वर्म की उत्पत्ति मानव जीवन मे आने वाले भय एव आकांक्षाओ के कारण हुई । कुछ विचारको ने केवल भय को ही धर्म का जनक माना। उनका विश्वास है कि भय ही एक ऐसा कारण था, जिस से बचने के लिए मनुष्य ने ईश्वर के अस्तित्व मे विश्वास किया। कुछ चितको ने इस विचारधारा का खण्डन किया कि धर्म-ग्राश्चर्य, भय एव आकाक्षानो के कारण उत्पन्न हुआ है। हो सकता है उसने धर्म के प्रकाश मे भय से बचने का मार्ग खोजा हो, परन्तु वह उस की उत्पत्ति का कारण नहीं हो सकता । धर्म को उत्पत्ति का कारण है- मानव जीवन मे रही हुई नैतिकता की भावना। .. विभिन्न विचारको ने धर्म की उत्पत्ति के सबंध में विभिन्न दृष्टियों से सोचा - विचारा है और भिन्न - भिन्न विचारो का समर्थन किया है। इन समस्त विचारधाराग्रो का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म की उत्पत्ति का कारण प्रकृति की विचित्र Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ता, आश्चर्य एव आकाक्षा नही है । यह माना जा सकता है कि मनुष्य की ग्रसहाय प्रवस्था के साथ भय का मिश्रण रहा हो । समस्त भारतीय चितन धारा ने धर्म की उत्पत्ति का मूल कारण दुख माना है । जैन विचारको का भी यही अभिमत रहा है कि धर्म का उद्भव भव-भ्रमण के दुःखों से छुटकारा पाने के हेतु हुया है । धर्म का महत्त्व - पूर्ण कार्य मनुष्य को जन्म-मरण के दुःखो से मुक्त करना है । दुखो का मूल कारण राग-द्वेष है । राग-द्वेष कर्म के बीज हैं. कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं । कर्म ही जन्म और जन्म-मरण हो दुख है ।। ऋत. धर्म का को क्षय करना । इसलिए जो धर्म राग-द्वेष के क्षय करने का, कामक्रोध को जीतने का मोह अधकार को हटाने का मार्ग बताता है, वह जेनवर्म है । अथवा यो कहिए कि राग - द्वेप विजेता जिन के द्वारा प्ररूपित वर्म जेनधर्म है । मरण के मूल कारण हैं मुख्य उद्देश्य है-राग-द्वेष J प्रश्न- धर्म की परिभाषा क्या है ? उत्तर- धर्म शब्द' घृ'वारणे वातु से वना है । अत धर्म का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ हुआ "धारणात् धर्म. " अर्थात् जो धारण किया जाय, वह धर्म है । जैनागमो मे वस्तु के स्वभाव को भी धर्म कहा है § । प्रत्येक वस्तु का अपना स्वतंत्र स्वभाव होता है । वही स्वभाव उस का धर्म माना जाता है । जैसे— प्रति का स्वभाव उष्ण है, पानी का स्वभाव शोतल है । ऋत. अग्नि का धर्म उष्णता है और पानी का धर्म शीतलता । अनि का सयोग पा कर पानी भी उष्ण हो जाता है । उस का स्पर्श उष्ण प्रतीत होता है। अधिक उष्ण हुआ तो हाथ आदि शरीर 3 उत्तरा, अ. ३२, गा ७ । Sवत्युमहावो धम्मो । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर के अवयवो पर गिरने से उन्हें भी जला देता है । अग्नि के ससर्ग से इतनी विकृति आने पर भी वह अपने मूल स्वभाव को नहीं त्यागता । पानी चाहे जितना गर्म क्यों न हो श्राग पर डालने पर वह उसे बुझा देगा । गर्म होने पर भी आग को बुझाने का उसका स्वभाव नष्ट नहीं हुआ । इसी तरह आत्मा के अहिंसा, सयम, तप आदि गुणों को या निजी स्वभाव को भी धर्म माना है। इस के अतिरिक्त नियमोपनियम, विधि निषेध, विधान, परपरा, व्यवहार, ग्राचरण, कर्तव्य, अधिकार, न्याय, सद्गुण, नैतिकता, क्रिया - काण्ड, सत्कर्म यादि अर्थो में वर्म का इस्तेमाल होता रहा है । वैदिक परम्परा मे वेद - विहित विधि-विधान या क्रिया - काण्ड को वर्म माना गया है । वौद्ध परम्परा में धर्म का अर्थ वह नियम, विधान या तत्त्व है, जिस का बुद्ध प्रवर्तन करते है, जिने धर्म-प्रवर्तन भी कहते हैं । - इस तरह धर्मं शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। सभी विचारक अपनी-अपनी वारणा या मान्यता के अनुरूप विभिन्न स्थानों पर अनेक तरह से अर्थ करते हैं । अत धर्म की कोई एक सर्व सम्मत व्याख्या उपलब्ध नही होती है । उस का ऐसा कोई लक्षण नहीं है, जो सभी परम्पराओ को मान्य हो । फिर भी हम इतना कह सकते हैं कि समस्त विचारक इस बात से सहमत हैं कि वर्म मानव विचार योर आचार की आवश्यक अंग है । दोनों अग जीवन विकास के लिए ग्रावश्यक है । एक को हम अन्तरग कहते हैं और दूसरे को बाह्य । ग्रन्तरंग विचार प्रधान होता है ओर वाह्य चारित्र प्रधान । इसे हम दर्शन और चारित्र के नाम से भी जान सकते हैं । 'धम्मो मंगलमृक्किट्ठ, अहिसा संजमो तवो" । दशनैकालिक, अ.१, गा. १ Panv Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ~ प्रश्न- दर्शन और चारित्र में क्या अन्तर है? दोनों में समानता है या नहीं ? है तो किस रूप में? उत्तर- दर्शन और चारित्र मे कितना साम्य है और कितना वैषम्य है? इसे समझने से पहले दर्शन और चारित्र के अर्थ को समझ लेना आवश्यक होगा। उसकी जानकारी के बिना दोनो का भेद और अभेद समझ मे नही आ सकेगा । अत पहले हम दोनो की परिभाषा पर विचार करेंगे। - दर्शन का शाब्दिक अर्थ होता है-दृष्टि । जिसे अंग्रेजी मे विजिन " (Vision) कहते हैं । यो तो प्रत्येक व्यक्ति देखता ही है । जिस व्यक्ति को आखे मिली है, वह उसका उपयोग करता ही है। उनसे ससार के पदार्थो को देखता-परखता ही है। परन्तु हम यहा जिस 'दृष्टि' का प्रयोग कर रहे हैं, उसका अर्थ आखो से देखना मात्र नहीं । जन-साधारण की दृष्टि मे और दार्शनिक की दृष्टि मे अन्तर रहा हुआ है । दार्शनिक दृष्टि का उद्भव स्थान आंखे न होकर, बुद्धि है, विवेक है, तर्क है, विचार एव चिंतन-मनन है। सामान्य व्यक्ति जहा आँखो से देखता है, वहाँ दार्शनिक उसी पदार्थ को विचार और चिन्तन-मनन की अतदृष्टि से देखता है। दूसरे शब्दो मे यो कह सकते है कि साधारण दृष्टि बाह्य अांखो से काम लेती है और दार्शनिक दृष्टि अन्तर आखो से अवलोकन करती है। विवेक, विचार, तर्क एव चिन्तन - मनन इन प्रान्तरिक आखो के ही पर्याय हैं। . प्रत्येक व्यक्ति अपने आस-पास के विविध पदार्थो को देखता है। वह अपने आप को सामाजिक प्राणी समझता है अत वह अपने आप को दुनियावी पदार्थों से घिरा हुआ पाता है । वह ऐसा सोचता है कि इन चीज़ो से मेरा कोई न कोई सवध अवश्य जुड़ा हुआ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAAAAAAFArrrrr प्रश्नो के उत्तर है। परन्तु मैं किस रूप मे ससार के पदार्थों के साथ संवद्ध हूँ? जव मानव मन मे यह जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, तव उम मे विवेक जागृत होता है। उसकी बुद्धि कार्य मे प्रवृत्त होती है, चिन्तन-मनन का प्रवाह प्रवहमान हो उठना है। इसी को दर्शन कहते है। दर्शन का मुख्य काम है जीवन और जगत का परिनान करना । दार्गनिक जीवन और जगत को खण्डा नही देवता। वह दोनो के अखण्ड स्वरूप का अध्ययन करता है, चिन्तन - मनन एव दर्शन करता है । वह अपनी बौद्धिक एव वैचारिक शक्ति का उपयोग प्रत्येक तत्त्व की गहराई तक पहुँचने मे करता है। उसका अन्वेषण समय या स्थान विशेष से वधा हया नहीं होता है। सच्चा दार्गनिक सम्पूर्ण काल और सत्ता का द्रष्टा होता है। उसके सोचने-विचारने का क्षेत्र एव चिंतन-मनन की दृष्टि विशाल एवं विस्तृत होती है । इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ज्ञान की अपेक्षा दर्शन का क्षेत्र अविक विस्तृत है। विचार-शक्ति की सभी गाखाएं, जान-विजान की सभी धाराएँ दर्शन के अन्तर्गत आ जाती हैं। वह ज्ञान की प्रत्येक वारा का चिन्तन-मनन एव अवलोकन करता है। विश्व के सभी तत्त्वो का दर्शन करता है। इससे हमारे कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि वह सारे विश्व को प्रत्यक्ष रूप से देखता है । जव हम यह कहते है कि दर्शन सपूर्ण विश्व का चिन्तन करता है, तव इस का अर्थ यह समझना चाहिए कि वह विश्व के मूलभूत सिद्धान्तो का, तत्त्वो का दर्शन करता है या जानकारी करता है । जगत के मूल मे कौन सा तत्त्व काम कर रहा है? जीवन का उस के साथ क्या संबंध है ? प्राध्यात्मिक और भोतिक तत्त्वो की सत्ता मे क्या अन्तर हे? दोनो मे सामन्जस्य बैठ सकता है या नहीं? वास्तविक तत्त्व या सत्य की कसौटी क्या है?ज्ञान और बाह्य पदार्थ के बीच क्या सबंव है? इत्यादि तथ्यो का अन्वेषण करना दर्शन का मुख्य The spectator of all times and existence Plato. wwwm Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ११ प्रयोजन है । ग्रन्वेषण का काम भौतिक विज्ञान भी करता है । परन्तु दर्शन को विशेषता यह है कि वह भौतिक विज्ञान की तरह केवल जगत - का या पदार्थों (तत्त्वों) का विश्लेपण ही नही करता प्रत्युत उसकी उपयोगिता पर भी चिन्तन-मनन करता है, सोचता- विचारता है। उपयो-गितावाद ही दर्शन को अपनी विशेषता है । इसी सूझ-बूझ के आधार पर वह जीवन के सही तथ्य को जानने-समझने की घोषणा करता है । यह नितान्त सत्य है कि जीवन र जगत का घनिष्ट सवध है । हम जीवन को जगत से सर्वथा पृथक् नही कर सकते, उसे एक दम झुठला नही सकते । श्रत जगत के स्वरूप को समझने के पूर्व जीवन के स्वरूप को समझने की आवश्यकता है । जीवन की वास्तविकता को समझने वाला व्यक्ति जगत के सही स्वरूप का भी परिज्ञान कर लेता है, यह सहज समझ मे ग्राने वाला सत्य है । चारित्र का सरल और सीधी भाषा मे अर्थ होता है- आचरण । मनुष्य अपने विचारो के ग्रनुरूप जो प्रवृत्ति करता है, उसे ग्राचरण कहते हैं । साधारणत प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप मे आचरण करता ही है । क्योकि प्रवृत्ति जीवन का एक ग है । उस का प्रवाह जीवन मे सतत रूप से प्रवहमान रहता है । फिर भी सभी मनुष्यो के ग्राचरण को चारित्र नही कहते । किसी भी कार्य मे प्रवृत्त होने का नाम चारित्र नही है | चारित्र शब्द का प्रयोग हम उस श्राचरण या प्रवृत्ति के लिए करते है, जिससे श्रात्मा का अभ्युदय होता हो या नि श्रेयस् (मुक्ति) की साधना सकती हो। प्रत. वे सारी प्रवृत्तियाँ चारित्र है, जो आध्यात्मिक प्रगति मे सहायक है या यो कह सकते है कि वे सभी प्रवृत्तिये चारित्र हैं, जिनके द्वारा महापुरुषो ने मुक्ति को प्राप्त किया है या मुक्ति § जे एग जाणइ, से सव्व जाणइ । आचाराग ३ ތ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर के पथपर बढ़ने का मार्ग वताया है। इसके अतिरिक्त,सामाजिक नियमो रीति-रिवाजो, परम्परायो, विधि-विधानो एव जीवन की नैतिकता को भो चारित्र या आचरण के नाम से पुकारते हैं। नैतिक जीवन से भटक जाने वाले व्यक्ति को आचार या चारित्र भ्रष्ट या भ्रष्टाचारी कहना वोलचाल को भाषा वन गई। इतनी लम्बी चर्चा के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुचे कि जीवन को उन्नत बनाने वाली, ऊपर उठाने वाली प्रवृत्ति का नाम चारित्र है। यह हम देख चुके है कि दर्शन और चारित्र पृथक्-पृथक है। दोनो का विपय स्वतत्र है। दोनों का कार्य क्षेत्र एक दूसरे से भिन्न है। दर्शन का क्षेत्र विचार प्रधान है और चारित्र का आचार प्रधान । दर्शन का काम पदार्थों के स्वरूप को जानना-समझना है । जीव और जगत के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान करना है । और चारित्र का काम निःश्रेयस (मुक्ति) के मार्ग मे प्रतिवन्धक प्रवृत्तियों का परित्याग करना तथा ससार के बन्धन से छुड़ाने वाली प्रवृत्तियो का आचरण करना है । इस दष्टि से दर्शन और चारित्र दोनो का विपय भिन्न है । विषय की दृष्टि स भिन्न होते हुए भी दोनो का परस्पर घनिष्ट सबंध है। दोनो एक दूसरे के सहयोगी हैं, परिपूरक हैं। चारित्र रूप धर्म मुक्ति का रास्ता है, परन्तु उस पथ पर गति करने के पहले यह जानना भी अत्यावश्यक है कि ससार क्या है? कर्म क्या है? कर्मवन्ध का कारण क्या है तथा उस से छुटकारा पाने का उपाय क्या है ? इन सव का परिज्ञान हुए विना चारित्र का परिपालन करना कठिन ही नही, असभव है । और ससार के पदार्थो एव उसके स्वरूप का परिजान करके उस से छटकारा पाने देत चारित्र का पालन न हो तो उस ज्ञान या जानकारी मात्र से आत्मा का विकास होना भी असभव है। अत भगवान् महावीर की भाषा मे सिर्फ पदार्थों को जानकारी कर लेने से भी मुक्ति नहीं होती और न केवल Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Harina ...१३... प्रथम अध्याय चारित्र से ही मुक्ति की साधना सघती है । मुक्ति की प्राप्ति के लिए दोनो का समन्वय होना ज़रूरी है। क्योकि दर्शन प्राख है तो चारित्र पैर है। दर्शन के अभाव मे चारित्र गति तो कर सकेगा परन्तु दृष्टि का अभाव होने से वह सही एव गलत मार्ग को नही समझ सकेगा। इससे वह गलत मार्ग पर भटक जायगा, नरक के गर्त मे गिर जायगा। इसी तरह चारित्र के अभाव मे दर्शन देख तो सकता है परन्तु गति नही कर सकता। वह मुक्ति पथ का अवलोकन करता है, पर पहुच नही सकता। अपने लक्ष्य पर पहुचने के लिए दोनो के समन्वय की आवश्यकता है । दर्शन से चारित्र निखरता है और चारित्र से दर्शन की प्रतिष्ठा है। अत दोनो का सवध सहज ही समझ मे आ जाता है। स्याहाद या अनेकान्त प्रश्न- जैन परंपरा में विचारों को अभिव्यक्त करने का, तत्त्वनिरूपण का क्या तरीका रहा है? कुछ दार्शनिकों ने एकान्त नित्यत्व की भाषा का प्रयोग किया है, तो कुछ विचारकों ने एकान्त अनित्यत्व की भाषा का सहारा लिया है, जैनों ने कौन सी भाषा में विश्लेषण किया है? उत्तर- जैन विचारको ने दुनिया के सभी पहलूओ पर गहराई से चिन्तन - मनन किया है । उन को तत्त्व-निरूपण की शैली अपूर्व रही है । जहा अन्य दार्शनिको ने एकागी दृष्टि से वस्तु के स्वरूप का चिन्तन - मनन एव निरूपण किया, वहा जैनो ने अनेकागी दृष्टि से , ज्ञान-क्रियाभ्या मोक्ष , या, सम्यदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष-मार्ग - -तत्त्वार्थ सूत्र १, १ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर अवलोकन किया। भगवान महावीर एवं उनके पूर्व से हुए अन्य सभी तीर्थकरों ने वस्तु के स्वरूप का वर्णन एका दृष्टि से नहीं, प्रत्युत ग्रनेकान्त दृष्टि से किया है। क्योंकि दुनिया मे स्थित प्रत्येक पदार्थ अनन्तगुण युक्त है | अन उसके एक गुण को पकट कर ग्रन्थ गुणी की उपेक्षा करना वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझता है । उनके वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान करने के लिए, प्रत्येक वस्तु मे अन्तर्निहित अनेक गुणो का अवलोकन एवं प्रत्यक्षीकरण करने के लिए अनेकान्त अर्थात् अनेक तरह से समझने की दृष्टि होनी चाहिए । श्री भगवती सूत्र ( विवाह - प्रज्ञप्ति सूत्र ) तथा कल्पसूत्र की टीका में वर्णन श्राता है कि भगवान् महावीर ने छदमस्थ अवस्था में ( केवलज्ञान प्राप्त करने के पहले) १० स्वप्न देते* । उन दस स्वप्नों मे भगवान् महावीर ने एक विचित्र पख युक्त कोयन्द का भी एक स्वप्न देखा § । उक्त स्वप्न के फल का वर्णन करते हुए आगम मे बताया गया है कि भगवान् महावीर स्वपर मिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले विचित्र द्वादशाग का उपदेश देंगे । ग्रागम के इन पृष्ठो वा ग्रनु* " समणे भगव महावीरे छउमत्य - कालियाए अतिमराइयनि उमेद महामुवि पानित्ता ण परिबुद्धे । 39 भगवती सूत्र (प बेचग्दान दोसी) १६, उ ६ पृष्ठ १३ $ ''एग चा मह चित्तविचित्तपक्पग पुंनकोकिल - सुविणे पामित्ताणं पदिबुद्धे । ” - भगवती सूत्र, वही ↑ "जण्ण नमणे भगव महावीरे एग मह चित्तविचित्त- जाव- पडिवुद्धे तण्ण समणे भगव महावीरे विचित्त सममयपरसमइय दुवालमग-गणिपिङग माघवेनि, पन्नवेति परवेति, दमेति, निदसेनि, उवदंमेति । " - भगवती सूत्र, वही पृष्ठ १८ J Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ प्रथम अध्याय शीलन करने से यह स्पप्ट हो जाता है कि आगमकार ने कितने सुन्दर सरस और सरल ढग से सिद्धांत का निरूपण किया है । चित्रविचित्र पख वाले पुसकोकिल का अर्थ स्याद्वाद या अनेकान्तवाद ही है । हादगाग सूत्रो मे आदि से अन्त तक स्याद्वाद भाषा का ही प्रयोग हुया है । भगवान् की वाणी एक वर्ण के पख वाली कोकिल के समान नही, चित्रविचित्र पख युक्त कोकिल की तरह है। जहा एक ही वर्ण के पख होते है वहा एकात होता है और एकातवाद वस्तु के वास्तविक स्वरूप का वर्णन करने में असमर्थ है, अत भगवान् महावीर को एकान्त इप्ट नहीं था। दूसरी बात यह है कि वस्तु अनेक गुण युक्त है और उसके अनेक गुणो को एक दृष्टि से नहीं अपितु अनेक अपेक्षानो से ही जाना जा सकता है। वस्तु अनेक गुण युक्त हे अत. उस को जानने वाला ज्ञान भी अनेक अपेक्षाओं से युक्त होता है। तीर्थकर सर्वन बनने के बाद केवलज्ञान ने दुनिया में स्थित सभी वस्तुओं को भलीभाति जानते-देखते हैं। अत. केवलनान अनेकान्त या स्याद्वाद पूर्वक होता है और यह स्वप्न भी भगवान् ने केवलजान होने के पूर्व ही देखा था। अस्तु, इस उदाहरण के द्वारा यह बताया गया है कि भगवान् महावीर ने तत्त्वो का निस्पण अनेकान्त दृष्टि से किया है । प्रागमो मे जो त्रिपदी- उत्पाद, व्यय और प्रौव्य का वर्णन अाता है, यह अनेकान्तवाद ही है। ऐसा माना जाता है कि तीर्थकरी को केवलजान होने के बाद जब गणवर अपनी गकारो का समाधान प्राप्त करके उनके पास दीक्षित होते हैं तब पहले उन्हें उक्त विपदी का उपदेश देते हैं और उसी के आधार पर वे गणवर चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर लेते है । अस्तु, चौदह पूर्व या यों कहिए ममस्त पदार्थों के जान का मूल त्रिपदी मे सन्निहित है 1 भगवान महावीर ने इसी का प्रतिपादन किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दो मे कहा कि प्रत्येक द्रव्य Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ प्रश्नों के उत्तर उत्पाद, व्यय और प्रौव्य युक्त है । ससार मे कोई भी द्रव्य (पदार्थ) ऐसा नही है कि जो एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य हो । जहां नित्यता की प्रतीति होती है वहा अनित्यता की अनुभूति भी अवश्य होती है और जहां अनित्यता दिखाई देती है वहां नित्यता का भी अस्तित्व स्पष्ट परिलक्षित होता है । दोनो अवस्थाएँ सापेक्ष हैं। एक अनुभव में दूसरे अनुभव की प्रतीति अवश्य होती है। जव किसी द्रव्य मे नित्यता की प्रतीति होती है तो उसी क्षण उसी पदार्थ मे अनेक तरह की अनित्यता का भी अनुभव होता है। इसी तरह जव अनित्यता की प्रतीति होती है तब उसी समय उस पदार्थ मे नित्यता की अनुभूति भी होती है। यही वस्तु की अनेकरूपता है । इसी अपेक्षा को ध्यान मे रखकर द्रव्य पदार्थ को उत्पाद, व्यय और प्रौव्य युक्त कहा है। जैसे स्वर्ण का ककण बनाया और उस ककण को तोड़ कर बटन बनाए। इस तरह हम देखते हैं कि स्वर्ण की डली रूप का नाश हुआ और ककण रूप का उत्पादन हुआ तथा फिर ककण रूप नाश और बटन रूप का उत्पाद हुआ। इस प्रकार आकार-प्रकार बदलता रहा परन्तु उन सभी बदलने वाले आकारो मे स्वर्ण का स्वर्णत्व कायम रहा, उसका नाग नही हुआ । अत. हम कह सकते हैं कि द्रव्य (स्वर्णत्व) की अपेक्षा से सोना नित्य है और कंकण आदि पर्यायो की अपेक्षा से अनित्य । इसी तरह संसार का प्रत्येक द्रव्य द्रव्यत्व रूप से नित्य है और पर्याय रूप से अनित्य । प्रत्येक द्रव्य की पुरातन पर्यायो का नाश होता है और नई पर्यायो का उत्पाद होता है और इस परिवर्तन की स्थिति मे भी द्रव्य का नाश नही होता, उसका अपना स्वरूप सदा स्थित रहता है । अत. प्रत्येक द्रव्य नित्यानित्य है। कोई भी द्रव्य न एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्यं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय विभज्यवाद और अनेकाननवाद - तथागत बुद्ध ने भी अनेकान्त का सहारा लिया है । मज्झिमनिकाय में माणवक के -गृहस्थ आराधक होता है या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर एकान्त हा या न के स्वर में न देकर इस प्रकार दिया है कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यावादी है तो वह निर्वाणमार्ग का आराधक नही हो सकता और श्रमण भी यदि मिथ्यावादी है तो वह भी उस मार्ग की अराधना - साधना नही कर सकता। उभय साधक यदि सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न है तो दोनो आराधक हो सकते हैं। यहां बुद्ध ने अपने आप को विभज्यवादी कहा है । किसो प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देना कि यह ऐसा ही है या ऐसा नहीं है, एकागवाद है और बुद्ध को यह एकांगवाद इष्ट नहीं है । अत. उस ने माणवक के प्रश्न का उत्तर विभाजनपूर्वक दिया है। भगवान् महावीर ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है । श्रमणनिर्ग्रन्य को कैसी भाषा बोलनी चाहिए; इसका उत्तर देते हुए कहा है कि श्रमण विभज्यवाद की भाषा बोले । इस का अर्थ स्याद्वाद या अनेकान्तवाद किया है। इसे स्याद्वाद, अपेक्षावाद, अनेकान्तवाद और विभज्यवाद भी कहते है। सब का तात्पर्य यही है कि वस्तु सापेक्ष है, अतः प्रत्येक वस्तु को अपेक्षा से समझना चाहिए। तथागत बुद्ध ने भी विभज्यवाद का उल्लेख किया है और भगवान् महावीर ने भी उसका उपदेश दिया है, फिर दोनो में अन्तर क्या रहा, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है? यह सत्य है कि तथागत बुद्ध ने कई प्रश्नों का उत्तर विभज्यवाद की भाषा मे दिया है, परन्तु उन के __ "भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा" - : : - __... - सूत्रकृताग-सूत्र, १, १४,२२. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर विभज्यवाद का उतना विस्तार नहीं हुआ जितना भगवान् महावीर के विभज्यवाद या स्याद्वाद का हुआ है । बुद्ध ने विभज्यवाद का प्रयोग सीमित दायरे मे किया है, जबकि महावीर ने सभी प्रश्नों का उत्तर देते समय अनेकान्तवाद का प्रयोग किया है । तथागत बुद्ध और श्रमण भगवान् महावीर के विभज्यवाद सिद्धात मे यही अन्तर है कि एक सकुचित दायरे मे ही रहे तो दूसरे ने उस का उपयोग, विस्तृत क्षेत्र मे किया । 1 माणवक और बुद्ध की तरह भगवान् महावीर के साथ गौतम, जयन्ती, जमाली, खधक, गांगेय ग्रनगार आदि कई श्रमण एवं गृहस्यो के प्रश्नोत्तर हुए हैं । भगवती सूत्र इन प्रश्नोत्तरी से भरा पडा है । उन मे से हम कुछ उदाहरण यहा देंगे, जिम मे श्रमण भगवान् महावीर, र तथागत बुद्ध के वीच रहा हुआ अन्तर स्पष्ट हो जाए । जयन्ती ने भगवान् महावीर से पूछा कि भगवन् ! जीव का सोना अच्छा है या जागना ? बलवान होना अच्छा है या निर्वल ? भगवान् महावीर ने इसका उत्तर एकान्त हा या न, में न देकर, उभयात्मक रूप से दिया है। एक अपेक्षा से जीव का सोए रहना अच्छा है, तो दूसरी अपेक्षा मे जागते रहना श्रेयस्कर है इसी तरह एक दृष्टि दृष्टि से निर्बल होना । । से जीवो का सवल होना श्रेष्ठ है, तो दूसरी 1, इस के कारण का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो जीव अवामिक हैं, अधर्मानुगामी है, अमिष्ठ है, अवर्माख्यायी हैं, अधर्म-प्रलोको हैं, ग्रवर्म-प्ररंज्जन हैं, अधर्म - समाचार हैं, अधर्म वृत्ति वाले हैं वे सुषुप्त रहे यह अच्छा हैं, क्योकि वे जवमक सोते रहेंगे तब तक छ काय के जीव त्रास एवं उत्पीडन से बचे रहेंगे और वे स्व, पर और उभय को धार्मिक प्रवृत्ति मे प्रवृत्त नही करेंगे। जो जीव धार्मिक आदि हैं उन का जागना श्रेयस्कर है। क्योकि वे जगत के जीवो का कल्याण करने * श् Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~... प्रथम अध्याय . वाले है, उन से सब प्राणियो को सुख - शाति मिलती है। इसी तरह अधार्मिक जीवो का निर्वल होना अच्छा है, जिस से वहुत से जीव सताप से बचे रहेंगे। धार्मिक वृत्ति वाले व्यक्तियो को संवल होना अच्छा है । क्योकि वे अपनी ताकत से अनेक प्राणियो को सुख देगे । इसी तरह भगवान् महावीर से जमाली ने यह पूछा कि लोक नित्य है या अनित्य ६.? खधक ने पूछा कि लोक सान्त है या अनन्त है ? जीव की नित्यता - अनित्यता पर भी पूछा गया । इस तरह के और भी अनेक प्रश्न पूछे-गए, जिन का महावीर ने स्याद्वाद की भाषा मे उत्तर दिया। परन्तु बुद्ध ने इन प्रश्नो को अव्याकृत-कह कर टाल दिया। इसलिए बुद्ध का विभज्यवाद विस्तार नही पा सका। उन्होने लोक को नित्यता-अनित्यता, सान्तता-अनन्तता तथा जीव की नित्यता-अनित्यता जैसे गभीर एव महान् प्रश्नो का विभज्यवाद की भाषा मे उत्तर न देकर उनकी उपेक्षा कर-दी। परन्तु भगवान् महावीर ने किसी भी प्रश्न की उपेक्षा नहीं की। उन्होने जमाली के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-जमाली । लोक शाश्वत-नित्य भी है और अशा श्वत-अनित्य भी। क्योकि वह सदा बना रहता है। अतीत, अनागत और वर्तमान तीनो कालो मे कोई भी ऐसा समय नही मिलता,जवकि लोक का अस्तित्व नही रहा हो या नही-रहेगा, इसलिए वह शाश्वतनित्य है । और लोक हमेशा एक रूप में स्थित नहीं रहता। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप काल चक्र , मे परिवर्तित होता रहता है, * भगवती सूत्र १२, २,४४३ ।। $ भगवती सूत्र ८, ३३, ३६७।.. - भगवती सूत्र २,१८०/४।। + भगवती सूत्र ७, २, २७३ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रटनी के उत्तर maaan ~~im...२० AAAAAAAAAA अत. वह अनित्य भी है। इसी प्रकार लोक की सान्तता-अनन्तता का उत्तर देते हुए कहा गया है कि लोक चार प्रकार का है- १-द्रव्य लोक,२- क्षेत्र लोक,३-काल लोक,४- भाव लोक । द्रव्य की अपेक्षा लोक द्रव्य एक है, अत वह सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक असख्यात योजन कोटा-कोटि विस्तार और परिक्षेप वाला कहा गया है, अत वह सान्त है । काल से मदा विद्यमान है, अत. वह घ्र व, नित्य, गाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित है। उस का कही अन्त नहीं है। भाव की अपेक्षा से लोक के अनन्त वर्णपर्याय, गवपर्याय, रसपर्याय, और स्पर्गपर्याय हैं, अत वह अनन्त है। इस तरह द्रव्य और क्षेत्र से लोक सान्त है, तो काल और भाव की अपेक्षा से अनन्त है। इसी तरह जीव की नित्यता-अनित्यता के सवव मे गौतम द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा कि हे गौतम! जीव नित्य भी है और अनित्य भी है। द्रव्य की अपेक्षा से जीव नित्य है. गाश्वत है, क्योकि वह कभी भी जीव से अजीव नही होता । परन्तु उसकी ज्ञान, दर्शन आदि पर्यायें प्रतिक्षण वदलती रहती है,अत. पर्यायपरिवर्तन की अपेक्षा से वह अनित्य है। इस तरह जीव नित्यानित्य है। अन्य प्रश्नो के उत्तर में भी भगवान महावीर की यही भापा रही है । उन्होने बुद्ध की तरह किसी भी प्रश्न को अव्याकृत कह कर उस की उपेक्षा नहीं की। प्रत्येक प्रश्न- का सापेक्ष भापा मे समाधान किया और सारी दार्शनिक गुत्थियो को सुलझाने के लिए समन्वय का मार्ग प्रस्तुत किया। इस तरह हम देख चुके हैं कि तथागत बुद्ध के विभज्यवाद से श्रमण भगवान् महावीर का विभज्यवाद अधिक विस्तृत और स्पष्ट था । उसमे सशय, अस्पष्टता का जरा भी धुंधलापन नही था। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय - ~ - एकान्तवाद और अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) . वस्तु का साक्षात्कार करने के लिए अनेक दृष्टिया हैं । एकान्तवादी उन मे से किसी एक दृष्टि का समर्थन करते है, जैसा.कि उन के नाम से ही स्पष्ट है । ये वाद सदा दो विरोधी रूपो मे दिखाई देते हैं। कभी नित्य और अनित्य के रूप मे इनके दर्शन होते है, तो कभी सामान्य और विशेष के रूप मे, कभी सत्. और असत्- के रूप मे, कभी निर्वचनीय और अनिर्वचनीय के रूप मे और कभी हेतु और अहेतु के रूप मे परिलक्षित होते है। एकान्त मान्यता के- आग्रह के कारण दोनो वाद सदा आपस मे टकराते रहते है। वे निरन्तर एक दूसरे का विरोध करने मे ही सलग्न रहते हैं। नित्यवादी आत्मा मे किसी तरह का परिवर्तन ही नही स्वीकार करते; तो अनित्यवादी पर्यायो की वदलती हुई स्थिति को ही देख पाते है, वे उस पर्याय परिवर्तन को सभी स्थितियो मे स्थित रहने वाले आत्मा की अनुभूति करते हुए भी उसे मानने से इन्कार करते है। कुछ विचारक अद्वैतवाद को जगत का मौलिक तत्त्व मानते हैं, द्वैत या भेद-जो स्पष्ट दिखाई देते है,उ,हे मिथ्या कहकर ठुकरा देते हैं,इस तरह वे केवलसामान्य को ही स्वीकार करते है। तो दूसरे भेदवाद के समर्थक एकान्त भेद को ही एकमात्र प्रमाण मानते है। उनकी दृष्टि मे वस्तु का विशेष स्वरूप ही वास्तविक है, सामान्य स्वरूप है ही नही । सद्वाद को माननेवाले किसी भी द्रव्य मे होने वाले उत्पाद और विनाश को सही नही मानते । इस के विपरीत असद्वादी प्रत्येक कार्य को अभिनव मानते है। उनके विचारानुसार कारण मे कार्य नहीं रहता, प्रत्युत उस से सर्वथा - भिन्न एक अभिनव तत्त्व उत्पन्न होता है। कुछ-एकान्तवादी विचारक दुनिया को अनिर्वचनीय मानते है। उन के मत मे दुनिया-जगत को न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही अथवा उसके लिए हम किसी Marathi Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---NV A N _ प्रन्ना के उत्तर.. २२... शब्द का प्रयोग ही नहीं कर सकते, तो कुछ विचारको ने कहा कि हम जगत के प्रत्येक पदार्थ का निर्वचन कर सकते हैं । हेतुवादियो का कहना है कि दुनिया के प्रत्येक तत्त्व को तर्क से जाना जा सकता है और अहेतुवादी तर्क के सर्वथा विरोधी हैं। उन का कहना है कि किसी भी तत्त्व का निर्णय करने मे तर्क समर्थ नहीं है। इस तरह एकान्तवाद पर आधारित मत सदा परस्पर टकराते रहते है । क्योकि जहाँ एक विचार का समर्थन और दूसरे की उपेक्षा या विरोध होता है, वही टक्कर होती है। पुरातन काल से चले आ रहे दार्शनिक सघर्ष एव कलह - कदाग्रह तथा वर्तमान में चल रहे सामाजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय एव अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ो का मूलकारण एकान्तवाद ही है । अपने विचारो का एकान्त आग्रह और दूसरे के विचारो का तिरस्कार करने की दुर्भावना ही सघर्ष की जननी है। - यह हम ऊपर वता पाए है कि वस्तु अनेक वर्म युक्त है। उस में एकान्तता जैसी कोई बात नहीं है । अस्तु, अपेक्षा दृष्टि से देखते हैं तो सभी विचारक सत्य के एक अग का प्रत्यक्ष करते हुए दिखाई देते हैं। जैन दर्शन में इसे नयवाद कहते हैं, उस मे कोई नय वस्तु का सामान्य दृष्टि से अवलोकन करता है, तो कोई विशेष स्वरूप को ध्यान में रख कर वस्तु का विश्लेषण करता है और दोनो दृष्टिये सही हैं। क्योकि दोनो दृष्टिये वस्तु का अवलोकन अपनी-अपनी दृष्टि से करती हैं और साथ में दोनों एक - दूसरे विचारों का आदर भी करती हैं। सामान्य दृष्टि विप को सर्वथा तिरस्कार नहीं करती और विशेष दृष्टि सामान्य की एकान्तत उपेक्षा नहीं करती। यही कारण है कि एक दृष्टि का समर्थन करने पर भी वे सत्य के निकट है, वस्तु को जानने में समर्थ है और उनमे परस्पर टक्कर भी नहीं होती। और जब यह नय अपनी दृष्टि के समर्थन के साथ दूसरी दृष्टि का तिरस्कार करने लगता है, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय तव वह सत्य का अनुसधानकर्ता न रहकर संघर्ष का कारण है और उस स्थिति में उसे जैन परिभाषा मे दुर्नय कहा है । अस्तु, एकान्तवाद असत्य है, वस्तु का निर्णय करने में असमर्थ है और संघर्ष का कारण है । इसलिए भगवान महावीर को एकान्तवाद स्वीकार नहीं है । वे वस्तु को सापेक्ष दृष्टि से देखते है। " स्याद्वाद और सप्तभंगी . . हम इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि वस्तु मे स्थित अनेक धर्मो का सापेक्ष दृष्टि से विवेचन करने का नाम-स्याद्वाद है । स्याद्वाद मे किसी भी विचार या मत का तिरस्कार नही किया जाता अपितु अपेक्षा से वस्तु के स्वरूप का अवलोकन किया जाता है । उदाहरण के तौर पर जब हम यह विचार करते हैं कि वस्तु सत्-है, उस समय उसका दूसरा पहलू असत् भी हमारे सामने आ जाता है। हम उसका एक दम तिरस्कार नही कर सकते । क्योकि असत् भी वस्तु मे मौजूद है । यदि हम एकान्तत सत् या असत् को ही स्वीकार करते है और उसके दूसरे पक्ष को नही स्वीकार करते हैं तो वस्तु के वास्तविक स्वरूप को प्रत्यक्ष कर ही नहीं सकते। यदि वस्तु एकान्त सत् . रूप है तो फिर पदार्थों मे स्थित वैचित्र्य एव पृथक्त्व घटित ही नही होगा। उदाहरण के तौर पर घट-पट का पृथक् अस्तित्व ही नही रह जाएगा। क्योकि घट भो सत् है और पट भो सत् है । अत घट, पट बन जायगा या पट,घट बन जायगा । इस तरह.दुनिया के सभी पदार्थ एक ही स्वरूप को प्राप्त हो जाएंगे..परन्तु ऐसा होता नहीं है। सब पदार्थो का अपनाअपना स्वतत्र अस्तित्व है। इस से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि वस्तु सत् भी है और असत् भो । घट घट रूप से सत् है, तो पट रूप से असत् भी है । पट पट रूप से सत् और घट रूप से असत् है,इस तरह वह सद Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २४ mameramanamarana... wwww सद् है और उभय रूप से प्रवक्तव्य है। इसी तरह वह सत् प्रवक्तव्य, असत् अवक्तव्य और उभय रूप अवक्तव्य है । ऐसे वस्तु का सात भगो से विवेचन किया जा सकता है। कुछ विचारकों का कहना है कि एक ही पदार्थ में दो विरोधी धर्म नहीं पाए जा सकते। परन्तु उनका यह कयन सत्य से परे है । उन का विरोध केवल विरोध के लिए है, क्योकि वस्तु मे स्थित दो या दो । से अधिक विरोधी धर्म स्पष्टतः प्रतीत होते हैं। कई एकान्तवादी विचारको के ग्रन्यो मे इसका उल्लेख मिलता है । सत् असत् और अनुभय अर्थात् न सत् और न अंसत् इन तोन पक्षों का झलक हमें ऋग्वेद के नारदीय सूक्त मे मिलती है। दो विरोधी पक्षों का एक वस्तु मे होना तो उपनिषत्कार को भी मान्य है। उदाहरण के तौर पर हम यहा उपनिषदों से कुछ वाक्य उद्धृत करते हैं'तदेजति तन्नै नति*, अणोरणीयान् महतो महीयान् ।' 'सदसद्वरेण्यम् ।। इत्यादि वाक्यो मे एक हो वस्तु में दो विरोवो धर्मों का उल्लेख . मिलता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में हमें तीसरा अनुमय मंग भी मिलता है । उपनिषदो एवं बौद्ध ग्रंयो मे चतुभंगी का उल्लेख भी मिलता है। तथागत बुद्ध ने चारो पक्षो को अव्याकृत कहा है। बुद्ध से पूछा गया कि मरणान्तर तथागत है? ___ * -इशोपनिषद् ५. . . . . . . . * कठोपनिषद् १,२,२०. . . . .- 1 मुण्डकोपनिषद् २,२,१. . .. - - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५....... प्रथम अध्याय मरणान्तर तथागत नही है? मरणान्तर तथागत है और नही है? मरणान्तर न तथागत है, न नही है? बुद्ध ने इन चारो पक्षो को अव्याकृत कहकर टाल दिया। सजयवेलट्टिपुत्त भी इस प्रकार के चार पक्ष युक्त प्रश्नो का उत्तर नहा की भाषा मे देता है और न 'नकार' की भाषा में। इससे हम इस निर्णय पर पहुचे कि एक ही वस्तु मे अनेक धर्मो का होना अनुभव गम्य है । भगवान् महावीर संजयवेलद्विपुत्त की तरह सशयवादी नहीं है और न वे बुद्ध की तरह सकुचित दायरे मे ही आवद्ध है। वे प्रत्येक प्रश्न का निश्चयात्मक (सन्देहरहित)भाषा में उत्तर देते हैं। उनका उत्तर एकान्तवाद की भाषा मे नही,अनेकान्तवाद की भाषा मे होता है । वे प्रत्येक वस्तु का अपेक्षा से विश्लेषण करते हैं, जिस के सात विकल्प वनते हैं, उसे सप्तभगी कहते है। सप्तभगी का विस्तृत वर्णन भगवती सूत्र में देखा जा सकता है। जैन दार्शनिको ने भो आगम की सप्तभगी को स्वीकार किया है। उसी को आधार मानकर उन्होने तत्त्व का विश्लेषण किया है। सात भग निम्न हैं १-स्यात् अस्ति, २-स्यात् नास्ति, ३-स्यात् अस्ति नास्ति, ४स्यात् अवक्तव्य (न अस्ति, न नास्ति), ५-स्यात् अस्ति अवक्तव्य, ६स्यात् नास्ति अवक्तव्य, और ७-स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य । उक्त सात भगो में मौलिक अस्ति और नास्ति दो भग है । शेष चार या सात भग अस्ति-नास्ति की ही अवस्थाए विशेष हैं। अस्ति और नास्ति एक नही हो सकते हैं। क्योंकि दोनो विरोधी धर्म हैं । उपरोक्त सात भगो मे पहला भंग विधि के आधार पर है। इस मग मे घट के अस्तित्व का विधि-पूर्वक विवेचन किया गया है। दूसरे भंग मे निषेध की भाषा का व्यवहार किया गया है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ~~ ~ ~~ ~ ~~ ~ प्रश्नों के उत्तर ...... ormmmmmmmmmmm पहले भग मे विधि की स्थापना की गई है और दूसरे मे उसका प्रतिपेध किया गया है। तीसरे भग मे क्रमश दोनो का प्रतिपादन किया गया है। चौथा भग विधि और निषेध को युगपत् प्रतिपादन करता है। और युगपत् प्रतिपादन करना वाणी की शक्ति से बाहर है, अत इस भग को अवक्तव्य भग कहते है। पाचवॉ भग विधि और युगपत् विधि - निषेध का प्रतिपादन करता है । यह भग पहले और चौथे भग के सयोग से वना है। छठा भग निषेध और अवक्तव्य का प्रतिपादन करता है । अत. वह दूसरे और चौथे के सयोग से बना है। सातवां भग उभयात्मक और प्रवक्तव्य का प्रतिपादन करता है। अत वह तीसरे और चौथे के सयोग से बना है। . . इस तरह जब हम कहते हैं कि कथचित् घट है तो उसका यह अर्थ नही है कि घट के पूरे रूप के सबध मे हमे सशय है। यह कथन समय की भाषा मे नही, निश्चय की भाषा मे है । जैनो ने वस्तु का विवेचन स्याद्वाद की भाषा मे किया है। अत वे एक अपेक्षा को ले कर प्रतिपादन करते हैं । परन्तु उस अपेक्षा मे उन्हें किसी तरह का सशय नही है। पूरे निश्चय के साथ वे वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं । घट कथचित् है,इसका अर्थ इतना ही है कि वह किसी अपेक्षा से है । क्योकि 'है' के साथ नही है' यह भी जुडा हुआ है। यदि 'है' केवलं इतना ही मानेगे, नही है' का सर्वथा तिरस्कार कर देगे तो ससार के सभी पदार्थ घट रूप हो जाएंगे। फिर घट-पट का भेद रह ही नही जायगा। अत. कथचित् या स्यात् कहने का तात्पर्य यह है कि घट स्वरूप की अपेक्षा से है और पर रूप की अपेक्षा से नही है, इसी बात को दार्शनिक भाषा मे यो कह दीजिए कि घट घटत्व रूप से सत् है और पटत्व रूप से असत् Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७............ प्रथम अध्याय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से स्वरूप और पररूप का विवेचन करना भी अप्रासगिक नही होगा । जैसे घट का द्रव्य मिट्टी है, वह मिट्टी से बनता है। अत. जिस द्रव्य से घट बना है उस द्रव्य की अपेक्षा से सत् है और शेप द्रव्य की अपेक्षा से असत् है। जिस क्षेत्र मे घट स्थित है उस क्षेत्र की अपेक्षा से वह सत् है और अन्य सभी क्षेत्रो को अपेक्षा से असत् है। जिस काल मे घट मौजूद है उस काल की अपेक्षा से सत् है,गेप काल की अपेक्षा से असत् है । भाव का तात्पर्य हैपर्याय या आकारविशेष। जिस पर्याय या आकारविशेष का घट है, उस पर्याय एव आकार की अपेक्षा से वह सत् है, शेष पर्यायो एवं आकारो को दृष्टि से असत् है । अस्तु, प्रत्येक पदार्थ स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से सत् है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से असत् है । इसलिए कथचित् या स्यात् शब्द का प्रयोग इस बात को सूचित करने के लिए किया जाता है, न कि सशय के कारण। स्यात् शब्द लगा देने से वस्तु को सापेक्षता का पता लग जाता है । इस के अभाव में एकान्तवाद के प्रयोग होने का भय वना रहता है । अत. अनेकान्त या स्याद्वाद को भाषा मे स्यात् या कथचित् का प्रयोग होना ज़रूरी है। अानेप और समाधान 'कुछ, विचारक स्याद्वाद की आलोचना करते हुए उसे पागेलो का प्रलाप कहते है । यह उनके अंजान या साम्प्रदायिक अभिनिवेष का ही कारण हो सकता है। अन्यथा वे ऐसा कहने का साहस नही करते । हमे यह खेद के साथ कहना पड़ता है कि दार्शनिको ने स्याद्वाद को समझने का प्रयत्न हो नहीं किया । उन्होने जो स्याहाद की आलोचना को वह भो सुने - सुनाये विचारो पर से ही की है, ऐसा प्रतीत होता Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २८ है। किसी भी दार्शनिक ने जैनों के स्याद्वाद का अनुशीलन करके आलोचना की हो ऐसी सभावना कम ही लगती है। यदि ऐसा होता तो उनकी आलोचना का दूसरा रूप होता। उस दार्शनिक युग की बात छोड़िए, आज भी जैन दर्शन के ग्रन्थो का प्रकाशन हो गया और वे सर्वत्र उपलब्ध भी है, फिर भी बहुत से विद्वान् दूसरे दार्शनिको द्वारा विरोधी के रूप मे व्यक्त किए गए विचारों को पढ कर ही जैन दर्शन एव स्याद्वाद पर अपने विचार बना लेते हैं। यही कारण है कि स्याद्वाद के सवध मे उन्हें भ्रम वना रहता है । क्योकि विरोधी दर्शन मे स्याद्वाद के संबंध मे जो कुछ कहा गया उस मे पूरी वास्तविकना हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक दर्शन की वास्तविक मान्यता का यथार्थ ज्ञान करने के लिए उसी दर्शन के ग्रथ पढना आवश्यक है। अत स्याद्वाद के स्वरूप को समझने के लिए जैन दर्शन एव जैनागमो का अध्ययन करना आवश्यक है । अन्यथा स्याद्वाद के सही रूप का ज्ञान नहीं हो सकेगा। - बौद्ध दर्शन के प्रमुख विचारक धर्मकीर्ति ने स्याद्वाद को उन्मत्तोपागलो का बंकवाद कहा है और जैनों को निर्लज्ज कहा है। आचार्य शान्तिरक्षक ने भी तत्त्व-सग्रह मे ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया है। उसने कहा है- स्याद्वाद जो सत और असत, एक-अनेक, भेद-अभेद सामान्य-विशेष जैसे विरोधी विचारो का सुमेल करता है, वह उन्मत्तो की बौखलाहट है * । इसी प्रकार शकराचार्य जैसे विद्वान् ने भी स्याद्वाद को एक तरह का पागलपन माना है । ६ प्रमाणवातिक १, १८२-१८५॥ * तत्त्व-सग्रह ३११-३२७ । ६ शाकर-भाष्य २,२,३३। । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ प्रथम अध्याय स्याद्वाद की आलोचना करते हुए इन विचारको ने जिन युक्तियो का आश्रय लिया है, उन का निर्देश करते हुए हम आगे की पक्तियो मे एक-एक का समाधान करेंगे। १- कुछ विचारको का कहना है कि विधि और निषेध दो विरोधी धर्म हैं । अत वे एक ही वस्तु मे युगपत् नही पाए जा सकते । जैसे एक ही वस्तु मे नील और अनील वर्ण नहीं देखे जाते । अत यह कहना गलत है कि एक ही वस्तु मे भिन्न-अभिन्न, सदसत्, वाच्यावाच्य धर्म युगपत् पाए जाते हैं। इस तरह अन्य विरोधी धर्म भी एक वस्तु मे युगपत् नही पाए जा सकते । परन्तु स्याद्वाद इस बात को अभिव्यक्त करता है कि दो विरोधी धर्म एक ही वस्तु मे युगपत् रह सकते है । इसलिए वह दोषयुक्त है। हमारा रात-दिन का अनुभव इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि एक ही वस्तु मे युगपत् दो विरोधी धर्म देखे जाते है। एक अपेक्षा से किसी द्रव्य मे एकत्व का आभास मिलता है तो दूसरी अपेक्षा से अनेकत्व का परिज्ञान भी होता है। यह सत्य है कि एकत्व अनेकत्व से भिन्न है, न एकत्व अनेकत्व बनता है और न अनेकत्व एकत्व बनता है। पर दोनो विरोधी धर्म एक वस्तु मे युगपत् पाये जाते है, इसमे विरोध जैसी वात नही । वौद्धो ने भी चित्रज्ञान माना है । जब एक ज्ञान मे चित्रवर्ण का प्रतिभास होता है और उस के होने में किसी तरह की बाधा एव विरोध नही है, तब फिर एक पदार्थ मे दो विरोधी धर्म की की सत्ता मानने में क्या आपत्ति है ? नैयायिक भी चित्रवर्ण को सत्ता को स्वीकार करते है। उनको मान्यतानुसार एक ही वस्त्र मे सकोच ६ द्रव्य की अपेक्षा से सुवर्ण में एकत्व है और वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, सस्थान इन पर्यायो की अपेक्षा से उसमें अनेकत्व है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर Corrwwwwwwwwwwmar rrrrrrram विस्तार हो सकता है । एक हो वस्त्र रक्त - अरक्त, पीत - अपीत हो सकता है, तब फिर एक हो वस्तु मे एक और अनेक, नित्य और अनित्य आदि की सत्ता को मानने से इन्कार करने का क्या कारण है ? हमे लगता है कि इसके पोछे एक मात्र असनो मान्यता का प्राग्रह एव साप्रदायिक अभिनिवेग हो कारण है, जिसके कारण दार्शनिक एक वस्तु में विरोधी धर्मों को सत्ता को स्वीकार करते हुए भी स्याद्वाद पर दोषारोपण करते हैं। परन्तु उनका यह प्रयास मूर्य पर धूल फेक कर उसे प्रच्छन्न करने जैसा वाल-प्रयास हो कहा जा सकता है । क्योकि वस्तु का स्वल्प ही ऐसा है कि उसमे अनेक धमों को स्वीकार किये विना उसका स्वरूप स्पष्ट ही नहीं हो सकता और न हमारा व्यवहार ही चल सकता है। २-कुछ विचारको का तर्क है कि यदि वस्तु को भेदाभेद उभयात्मक मानेंगे तो उस मे यह दोप पाएगा कि वस्तु की एकरूपता नहीं रह पाएगी। क्योकि भेद का आश्रय अलग होगा और अभेद का आश्रय अलग। इस तरह उसको एकरूपता नष्ट हो जायेगी ! ' यह तर्क भी गलत है। क्योकि भेद और अभेद अलग-अलग वस्तु या वस्तु-अगों में नही है। वे एक हो वस्तु में है । जो वस्तु एक अपेक्षा से भेदात्मक है, वही वस्तु दूसरी दृष्टि से अभेदात्मक है। जैसे हम एक ही वस्त्र को सकोच पोर विकासशील कहते हैं तो उस का यह अर्थ नही है कि उसका एक कोना सकोचशील है और दूसरा कोना विकासशील। परन्तु उसका तात्पर्य यह है कि वह पूरा वस्त्र सकोचशील अोर विकासशील है। अयवा जो भाग सकाचशील है वहीं विकासशील है और जो भाग विकासशील है वही सकोचशील । इसी तरह भेद-अभेद विरोधी धर्म एक ही वस्तु मे रहते है, विभिन्न वस्तुओ मे नही, अतः उन का आश्रय भिन्न मानने की आवश्यकता नही । एक ही वस्तु के Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३१ प्रथम अध्याय आश्रय मे अनेक धर्म अनुभव सिद्ध है, इस के लिए किसी अपर प्रमाण की आवश्यकता नही है। ३-वह धर्म जिस मे भेद माना जाता है तथा वह धर्म जिस मे अभेद स्वीकार किया जाता है, दोनो का परस्पर क्या सबध है ? यदि भिन्न है तो पुन यह प्रश्न उठता है कि वह भेद जिसमे उठता है उससे भी वह भिन्न है या अभिन्न ? इस प्रकार अनवस्था दोष होगा और यही दोप अभिन्न मानने पर आयेगा। ___ स्याहाद पर अनवस्था का दोषारोपण करना गलत है । क्योकि जैन दर्शन यह नही मानता कि भेद और अभेद भिन्न है और भेद और अभेद जिस मे रहता है वह धर्म अलग है । वस्तु के परिणामी (परिवर्तनशील) स्वभाव को भेद कहते है और अपरिणमनगील स्वभाव को अभेद कहते है। भेद और अभेद कोई वाहर से आकर वस्तु के साथ नही जुड़ते। परन्तु वस्तु स्वय भेदाभेदात्मक है। द्रव्य की अपेक्षा वस्तु अभेदात्मक है तो पर्याय की अपेक्षा भेदात्मक है। ऐसी स्थिति में इस तरह के सवध का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। जब उस के भद और अभेद के सवध का प्रश्न ही नही उठता तब उस पर अनवस्था का दोप लगाना तो स्वत ही व्यर्थ सिद्ध हो जाता है । ४-जहा भेद है वहा अभेद है और जहा अभेद है वहा भेद है। भद और अभेद का भिन्न-भिन्न आश्रय न होने से दोनो एक बन जाएँगे। इस तरह सकट दोष उत्पन्न होगा। यह कथन भी सत्य से परे है। आश्रय एक होने का तात्पर्य यह नहीं है कि आश्रित भी एक हो जाए। बौद्ध भी तो इस बात को मानते है कि एक ही-ज्ञान मे चित्रवर्ण का आभास होता है, फिर भी सभी वर्ण एक नहीं होते। न्याय-वैशेषिको की मान्यतानुसार एक ही वस्तु मे सामान्य और विशेष रहते है, फिर दोनो एक रूप नही हो Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर जाते । जव उनमे एकरूपता नहीं आती तो क्या कारण है कि स्याद्वाद के द्वारा मान्य एक ही वस्तु मे स्थित दो विरोधी धर्मों का आश्रय एक होने से भेद और अभेद मे एक रूपता आ जायगी ? अस्तु, यह मानना भ्रम है कि आश्रय एक होने पर दोनो विरोधी धर्म एक हो जाते हैं । क्योकि भेद और अभेद दोनो एक नही, भिन्न हैं । दोनो की अलगअलग प्रतीति होती है। अत दोनो का आश्रय एक होने पर भी दोनो को पृथक्-पृथक् मानना चाहिए। ५-कुछ दार्गनिक स्यावाद पर यह दोप लगाते है कि जहाँ भेद है, वहाँ अभेद है और जहां अभेद है, वहा भेद है। इस तरह भेद और अभेद आपस में वदले जा सकते है । इससे व्यतिकर दोष लग जायगा। यह कथन भी स्याद्वाद एव वस्तु के स्वरूप को नहीं समझने का परिणाम है। स्याहाद व्यतिकर दोप से दूपित नही है । भेद और अभेद दोनो धर्म वस्तु मे स्वतन्त्र रूप से रहते हैं। दोनों का अपनाअपना अस्तित्व है । फिर दोनो को अपने-अपने स्वरूप मे प्रतीति होती है । अत. एक दूसरे का एक दूसरे मे परिवर्तन होने की कल्पना करना मिथ्या है । स्याद्वाद भेद को भेद रूप से ओर अभेद को अभेद रूप से स्वीकार करता है। ६-तत्त्व भेदाभेदात्मक होने से किसी निश्चितं धर्म का निर्णय नही हो पाएगा। और निश्चित निर्णय के अभाव में सशय उत्पन्न हो जायगा । सगय तत्त्व ज्ञान का विरोधी है। इस तरह स्याद्वाद से तत्त्व जान नही हो सकेगा? स्याहाद को सशय ज्ञान समझना भारी भूल है। भेदाभेदात्मक ज्ञान का होना सगय नही है। सशय तब होता है, जब किसी धर्म का निर्णय न हो। यह समझ मे न आ रहा हो कि वस्तु भेदात्मक है या अभेदात्मक,वहाँ सशय ज्ञान होता है और उस स्थिति मे तत्त्व का सही Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रथम अध्याय निर्णय नही हो पाता है। परन्तु स्याद्वाद मे ऐसे ज्ञान को अवकाश नही है । उस मे तो वस्तु का स्पष्ट रूप परिलक्षित होता है । वस्तु का भेद रूप भी निश्चित है और अभेद रूप भी निश्चित है । जैन दर्शन में वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए जो स्यात् शब्द का व्यवहार होता है, कई दार्शनिक उसे गायद के अर्थ मे समझकर उसे सगयात्मक ज्ञान मानने लगते हैं। गकराचार्य जैसे विद्वान् ने भी स्यात् शब्द के अर्थ को समझने मे भारी भूल की है । स्यात् शब्द का अर्थ शायद नही है। उस का अर्थ अपेक्षा या दृष्टि है । जव हम यह कहते हैं कि वस्तु स्यात् भेदात्मक है, स्यात् अभेदात्मक है। हमारा कहने का अभिप्राय यह नह कि वस्तु शायद भेदात्मक है या शायद अभेदात्मक । हमारा तात्पर्य यह है कि वस्तु द्रव्य की अपेक्षा से अभेदात्मक है और पर्याय की अपेक्षा से भेदात्मक है । और दोनो विवक्षा मे ज्ञान निश्चयात्मक है। जैन दर्शन को वस्तु के भेदामद होने मे ज़रा भी सगय नही है । अत स्याद्वादपूर्वक होने वाला ज्ञान निश्चात्यात्मक है। अत सशय के आश्रय मे रहे हुए जितने भी दोष हैं, वे इस पर लागू नहीं होते। - सुप्रसिद्ध विद्वान् आनन्दगकर ध्रुव की भी मान्यता है कि स्याद्वाद सशयवाद नहीं है। वे वजनदार शब्दो मे कहते हैं- स्याद्वाद का सिद्धांत सशयवाद तो नही ही है। वह मनुष्य को विशाल-उदार दृष्टि से पदार्थ को देखने के लिए प्रेरित करता है और विश्व के पदार्थों का किस प्रकार से अवलोकन किया जाए यह सिखाता है * । यह वस्तु का एकान्त अस्तित्व नहीं मानता और न वह उस प्रकार के स्वीकरण को सर्वथा अस्वीकार ही करता है । वह कहता है कि वस्तु है या नही,यह दोनो आपेक्षिक दृष्टि से कहे जा सकते हैं। भारत के माने हुये दार्शनिक उपराष्ट्र पति डा० राधा कृष्णन ने भी उसी बात को पुष्ट करते हुए * कन्नोमल, सप्तभंगी न्याय, प्रस्तावना पृ ८ ammmmmmmmmmmmmmmmmarrrrrr Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर - ~ ~ ~~~ Mum m ar लिखा है-- "वास्तविकता का सच्चा और मचोट प्रतिपादन तो मात्र आपेक्षिक और तुलनात्मक ही हो सकता है और उस प्रतिपादन की शक्यता वह स्वीकार करता है। प्रत्येक सिद्धांत सत्य होता है,परन्तु कुछ निश्चित संयोगो मे ही अर्यात् परिकल्पना मे ही । वस्तु अनेक वर्मी होने के कारण कोई भी वात निश्चय न मे नही कही जा सकती है। वस्तु के विविध धर्मों को अभिव्यक्त करने के लिए विधि - निषेध सवधी शब्द प्रयोग सात प्रकार से होता है । यही स्याहाद सिद्धांत है। इस तरह भारतीय एव पाश्चात्य दार्शनिको का भी अभिमत है कि स्याहाद सगयवाद नहीं, प्रत्युत वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने का एक प्रगस्त मार्ग है। ७- कुछ विद्वान यह तर्क देते हैं कि स्याद्वाद एकान्तवाद के आधार पर ही स्थित रह सकता है । स्याद्वाद को मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु सापेक्ष है। उन सापेक्ष धर्मों के मूल मे जब तक कोई एक ऐसा तत्त्व न हो कि जो सर्व सापेक्ष धर्मों को एक सूत्र में बांध सके, तब तक वे धर्म स्थित नहीं रह सकते । अत उन सव को एक सूत्र में प्रावद्ध रखने वाला धर्म होना चाहिए, जो स्वय निरपेक्ष हो। और ऐसे निरपेक्ष तत्त्व की सत्ता स्वीकार करने पर स्याद्वाद का महल वरागावी हो जायगा। स्यावाद को एकान्तवाद कहना उसके अर्थ को नहीं समझना है। स्याहाद एक सापेक्ष दृष्टि है । वह वस्तु के वास्तविक स्वरूप को देखती है। स्याहाद वस्तु के सामान्य स्वरूप को भी स्वीकार करता है और विशेष स्वरूप को भी। वह यह नहीं कहता कि वस्तु मे एक रूपता है ही नही । वह वस्तु की एक रूपता को भी स्वीकार करता है । परन्तु mns History of Indian Philosophy. Dr Radha Krishnan Part I. Page 302. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय उससे वह एकान्तवादी नही हो जाता। क्योकि जब वह एक अपेक्षा से एक रूपता स्वीकार करता है, तव दूसरी अपेक्षा से उस मे अन्तनिहित अनेक रूपता को भी ध्यान मे रखता है, वह उस का तिरस्कार नही करता। जैसे स्थानाग सूत्र मे 'एगे आया' एक आत्मा है कहा गया, वहा अनेक प्रात्मा के तथ्य को आखो से अोझल नही किया है। एक आत्मा है कहने का तात्पर्य इतना ही है कि आत्म द्रव्य की अपेक्षा से सभी आत्माए समान हैं, उनमे सामान्य की अपेक्षा से एक रूपता होने के कारण एक कहा गया। परन्तु इस का यह अर्थ समझना भारी भूल है कि एक यात्मा का निरूपण करते समय अनेक प्रात्मा के सिद्धात को भूला दिया गया या अनेक आत्मा की मान्यता के विरुद्ध कहा गया। । 'एगे पाया' की मान्यता मे अनेक आत्मवाद का जरा भी विरोध नहीं है। क्योकि दोनो मान्यताएँ सापेक्ष हैं, अत वे आपस मे कभी नही टकराती है। सामान्य-द्रव्य समानता को दृष्टि से एक प्रात्मा है तो विगेप- व्यक्ति की दृष्टि से अनेक प्रात्मा है । एक के उच्चारण के साथ अनेक जुडा हुआ है और अनेक के साथ एक । अत स्याद्वाद एक को मानता है वहा अनेक का तिरस्कार नही करता है, इस कारण उस पर एकान्तवादी होने का दोषारोपण करना गलत है । ८-कुछ तार्किको का यह तर्क है कि वस्तु कथचित् यथार्थ है और कथचित् अयथार्थ है । इस मान्यता से स्याद्वाद. स्वय कथचित् सत्य और कथचित् मिथ्या हो जायगा और इस स्थिति मे स्याहाद के द्वारा तत्त्व का.वास्तविक ज्ञान हो सकेगा,,यह कैसे माना जा सकता है ? क्योकि जो प्रमाण कथचित् मिथ्या है, वह सही ज्ञान कराने मे वाधक ही होता है। ___यह हम ऊपर बता चुके है कि स्याद्वाद तत्त्व विश्लेषण करने की एक सापेक्ष दृष्टि है। अनेक धर्मयुक्त तत्त्व को उसी रूप में देखने का Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर नाम स्याद्वाद है। जो वस्तु जिस रूप मे स्थित है उसे तद् यथार्थ स्वीकार करना, तथा तदितर रूप मे अयथार्थ मानने का नाम स्याहाद है । इस अपेक्षा से स्याद्वाद भी यदि एक दृष्टि से अयथार्थ या असत्य है, तो वैसा मानने में हमे कोई आपत्ति नहीं है । हम इस बात को मानते है कि स्याद्वाद भी कयचित् सत्य है और कथचित् मिथ्या। अनेकान्त दृष्टि से स्याद्वाद सत्य है, यथार्थ है और एकान्त की अपेक्षा से वह अयथार्थ है, मिथ्या है। जिस वस्तु का जिस दृष्टि से प्रतिपादन हो सकता है, उस दृष्टि से उसका विवेचन करने मे स्याद्वाद सदा तत्पर है। स्याद्वाद को समझने के लिये स्याद्वाद की दृष्टि से देखने पर ही उस का यथार्थ रूप समझ मे आ सकता है । अत स्याद्वाद अनेकान्त दृष्टि की अपेक्षा से यथार्थ है । क्योकि वस्तु अनेक धर्मयुक्त है, इसलिए उसका विवेचन अनेकान्त दृष्टि से ही हो सकता है, एकान्त दृष्टि से नही । इस कारण अनेकान्त की अपेक्षा वह सत्य है, यथार्थ है और उस से वस्तु का यथार्थ ज्ञान होने मे किसी तरह की वाधा उपस्थित नही होती और एकान्त दृष्टि से वह अयथार्थ है । इसलिए एकान्त दृष्टि से तत्त्व का विश्लेषण करना जैनो को इष्ट नही है। ९-कुछ विचारको का कथन है कि सप्तभगी में प्रयुक्त पीछे के तीन भग व्यर्थ हैं । यदि एक दूसरे के सयोग से सख्या बढ़ाना हो तो सात ही क्यो अनन्त भग बना सकते हो ! हम ऊपर इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि मौलिक भग दो हैं- १ अस्ति और २ नास्ति । शेष सभी भग विवक्षाभेद से बनते है। यहा तक कि तीसरा और चौथा भग भी पूर्ण स्वतन्त्र नही कहा जा सकता । यह ठीक है कि जैनाचार्यों ने सात की सख्या को स्वीकार किया है, और सात भंग मानने का कारण भी विस्तार से बताया है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७..........प्रथम अध्याय परन्तु जैन दर्शन की मौलिक मान्यता सात की नही, दो की है। और भगवती सूत्र मे अस्ति और नास्ति दो भग के आधार पर सात भग बनाए हैं और गागेय अनगार के प्रश्नोत्तर के आधार पर आचार्यों ने सैकडो भग बनाए है और आगे कहा गया कि इस तरह हम सख्यात, असख्यात, अनन्त भग बना सकते है। परन्तु मूल भग दो ही हैं। वौद्धो एव कुछ वैदिक दर्शनो मे भी चार भग माने हैं । वे चारो भग अस्ति और नास्ति इन दो पर ही आधारित है। और इस का कारण यह है कि वस्तु न एकान्त रूप से अस्ति रूप है और न एकाततः नास्ति रूप । क्योकि वस्तु उभयात्मक है । एक अपेक्षा से वह अस्ति रूप दिखाई देती है और दूसरी अपेक्षा से देखने पर नास्ति रूप से प्रतीत होती है। और दोनों रूप समान है। न अस्ति नास्ति से बलवान है और न नास्ति अस्ति से अधिक वलिष्ठ है। दोनो समान रूप से वस्तु की यथार्थता को प्रकट करते है। इसलिए वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान करने के लिए दोनो की सत्ता को स्वीकार करना जरूरी है। अत अस्ति और नास्ति दो भग मुख्य है, गेष भग उसी के आधार पर स्थित हैं । वस्तु को समझने की कोटिये-श्रेणिये सात है, इसलिए सात भग माने गए है। १०-दर्शन ग्रन्थो मे स्याद्वाद पर यह भी आक्षेप किया गया है कि स्याद्वाद को स्वीकार करने वाले केवलज्ञान के अस्तित्व को नहीं मान सकते । क्योकि केवलज्ञान एकान्त रूप से पूर्ण होता है ! उसको उत्पत्ति के लिए बाद मे किसी की अपेक्षा नही रहती ! तत्त्व की दृष्टि से स्याद्वाद और केवलज्ञान मे अन्तर नही है । वस्तु का ज्ञान जिस रूप मे केवली करते है, उसी रूप मे स्याद्वादी भी करता है । पदार्थ का ज्ञान करने की दृष्टि दोनो की भिन्न नही है। दोनो में भेद सिर्फ इतना ही है कि केवलज्ञानी जिस वस्तु को प्रत्यक्ष ज्ञान से Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रश्नो के उत्तर जानेगा, स्याद्वादी छद्मस्थ उसे परोक्ष-श्रुत ज्ञान से देखेगा। केवलजान पूर्ण है, वह साक्षात् आत्मा से होता है, उसमे किसी तरह का प्रावरण नहीं होता, परन्तु इसका पूर्ण होने का यह अर्थ नहीं है कि वह एकान्तवादी होता है। केवली भी वस्तु के स्वरूप को सापेक्ष दृष्टि से ही जानेगा। क्योकि वस्तु सापेक्ष है, अनेक धर्म युक्त है और केवली उस वस्तु के द्रव्य एव पर्याय सभी रूपो का प्रत्यक्षत अवलोकन करते है। वे वस्तु मे रहे हुये सामान्य और विशेष उभय.धर्मो को देखते है, अत केवल ज्ञान को.अनेकान्त से भिन्न एकान्त मानना युक्ति सगत नही कहा जा सकता। दूसरे मे केवलज्ञान भी उत्पाद्, व्यय और प्रौव्य युक्त है। वह भी परिणामी नित्य है। उसकी पर्यायो मे परिवर्तन होता रहता है। जैसे काल अन्य पदार्थों पर वर्तता है, वैसे वह केवलज्ञान पर भी वर्तता है। जैन केवलज्ञान को कूटस्थ नित्य नही, परिणामी नित्य मानते है.। काल की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु की तीन -- अतीत, वर्तमान और अनागत अवस्थाये है । केवलज्ञान वस्तु की तीनो काल की अवस्थाओ को जानता-देखता है । परन्तु वह इन तीनो अवस्थाओ को जिस.रूप में आज देखता है, कल उन्ही तीनो अवस्थाओ को भिन्न रूप से जानेगादेखेगा। क्योकि आज का जो वर्तमान है.वह कल.का अतीत बन जायगा और कल का जो अनागत था वह वर्तमान हो जाएगा। इस तरह वस्तु की पर्यायों को आज उसने वर्तमान रूप से जाना था, कल उन्हे ही अतीत रूप से जानेगा और जिन्हे आज भविष्य रूप से देखता है उन्हे कल वर्तमान रूप से देखेगा। इस तरह काल, भेद से केवलजान मे भी अतर होता है और इस अतर के साथ-साथ अथवा वस्तु की अवस्थामो के परिवर्तन के साथ-साथ ज्ञान की अवस्था-पर्यायो मे परिवर्तन होता Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय ३९ है । अस्तु केवलज्ञान एकान्तवादी और कूटस्थ नित्य नही, प्रत्युत परिणामी नित्य है । इसलिए स्याद्वाद और केवलज्ञान में कोई मौलिक अन्तर- या विरोध नही है । छद्मस्थ और केवली का दोनो ही ज्ञान स्याद्वाद पूर्वक होते हैं और दोनो ज्ञान वस्तु का प्रकान्त दृष्टि से अवलोकन करते है | इतने लम्बे विवेचन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुचे कि स्थाद्वाद पागलो का प्रलाप या उन्मत्तो को वौखलाहट नही । वस्तु के सही • रूप को जानने का यथार्थ सावन है । दार्शनिक ग्रन्थों मे हम स्पष्ट रूप से देखते है कि एकान्तवाद का आग्रह रख कर चलने वाले दार्गनिको को भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्याद्वाद का सहारा लेना ही होता है 1 इस को माने विना वस्तु के पूर्ण रूप को न जाना जा सकता है ओर न दुनिया का व्यवहार ही चल सकता है । हम यह प्रत्यक्ष मे देखते हैं कि हमारे सभी व्यवहार सापेक्ष के प्रावार पर हो चलते है । यदि हम एकान्त को स्वीकार कर ले तो व्यवहारिक जगत मे एक क्षण भी नही टिक सकते, हमारा सारा व्यवहार हो समाप्त हो जायगा । इस ससार की एव संसार मे स्थित पदार्थों तथा व्यवहार की सापेक्षता को देखकर वैज्ञानिको ने भी सापेक्षवाद को स्वीकार किया - है । अत जैनो का सापेक्ष सिद्धात कपोल कल्पित नही, प्रत्युत् वैज्ञानिक आधार पर आधारित है । । राजनैतिक संघर्षो का समाधान -- स्याद्वाद स्याद्वाद दार्शनिक समस्याओं का सही समावान रहा है । जैनाचार्यो ने सभी दर्शनों का, विचारों का समन्वय करके दार्शनिक सघर्षो को समाप्त करने का प्रयत्न भी किया है । परन्तु वर्तमान मे दार्शनिक युग प्राय समाप्त हो गया है । दार्शनिक संघर्ष भी धीरे-धीरे समाप्त Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० प्रश्नो के उत्तर moon mamman होते जा रहे हैं। वर्तमान युग वैज्ञानिक युग है । और इस युग में राजनीति की प्रमुखता है। इसलिए आज हमे दार्शनिक सघर्षों की जगह राजनैतिक संघर्ष दिखाई देते हैं। राष्ट्रीय एव अन्तर्राष्ट्रीय दोनो दृष्टियो से राजनैतिक संघर्ष के अखाड़े बने हुए हैं और जिनमे राष्ट्रीय एव अन्तर्राष्ट्रीय राजनेता एक दूसरे को परास्त करने के लिए जी जान से व्यस्त रहते हैं । कुछ दिन पूर्व केरल मे कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार को अपदस्थ करने के लिए लडी गई लडाई,जिसमे विरोधी पार्टी के नेता सफल रहे तथा अन्य प्रातो मे सरकारी पार्टी एव गैर सरकारी पार्टियो मे विधान सभा एव उसके बाहर चलने वाला संघर्ष इस बात का ज्वलन्त उदाहरण है कि पार्टी के नेता राष्ट्र हित की अपेक्षा पार्टी के स्वार्थ को सर्वोपरि महत्त्व देते है । यही कारण है कि सरकारी पार्टी के सदस्यो पर यह पावन्दी लगा दी जाती है कि वे सरकार से विरोधी विचार रखते हुए भी उसके विरोध मे मत नही दे सकते। चाहे सत्य हो या असत्य पार्टी का समर्थन करना एव उस के वहुमत की प्रतिष्ठा को बनाए रखना प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है और , विरोधी पार्टी का लक्ष्य यह रहता है कि हर बात मे सरकार का विरोध करना, भले ही वह सत्य भी क्यो न हो । यही कारण है कि इन पार्टियों के एकागी दृष्टि कोण एव स्वार्थो की चक्की मे जनता कुचली जाती है। यही स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में है। विश्व में अभी रूस और अमेरिका दो विशेष शक्तिशाली गुट माने जाते हैं । एक साम्यवादी विचारों का समर्थक और परिपोषक है, मो दूसरा पूजीवादी एवं साम्राज्यवादी विचारधारा का। दोनो विश्व को अपनी दृष्टि से चलाना चाहते हैं। उन्हें अपने दृष्टिकोण के सिवाय अन्य का दृष्टिकोण नज़र ही नही आता। कुछ दिन पूर्व रूस के प्रधान मन्त्री ख्रुश्चेव ने अमे Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmm प्रथम अध्याय रीका की यात्रा की। उन्होने U. N. O (सयुक्त राष्ट्र संघ) मे भाषण दिया था। अपने उक्त भाषण मे निश्शस्त्रीकरण के संवध मे रूस की तरफ से एक प्रस्ताव रखने की घोषणा करते हुए खुश्चेव ने कहा "सभी देश चार वर्ष के अन्दर - अन्दर पूर्ण निश्शस्त्रीकरण करले । सभी स्थल, जल और नभ सेनाए समाप्त कर दी जाए, विदेशी सैन्य प्रधान कार्यालय और युद्ध मन्त्रालय खत्म कर दिये जाए, सैनिक शिक्षा के संस्थान वन्द कर दिये जाएं, विदेशो सैनिक अड्डे समाप्त कर दिये जाए अणुवम्ब नष्ट कर दिए जाए और उनका उत्पादन आगे से निपिद्ध • कर दिया जाए * । विश्व गान्ति के लिए प्रस्तुत किए गए खुश्चेव के विचारो से हम पूर्णत. सहमत है । गाँधी और विनोवा की अहिसामय भाषा मे खुश्चेव ने भी वोलना शुरु किया है, इस के लिए हम उन्हें बधाई देते है । परन्तु अपने इन विचारो को मनाने के लिए उन्होंने जो अपने भाषणों मे धमकिये दी है, उस से हम सहमत नही है। विश्व के सामने अपने विचार रखने का हमे पूरा अधिकार है, परन्तु उन्हे मनाने के लिए किसो पर दबाव डालना तथा उस के लिए आग्रह करना उपयुक्त नहीं कहा जा सकता । अमेरीका मे दिए गए अपने एक भाषण मे खुश्चेव ने धमकी भरे शब्दो मे कहा- “यदि - आप लोग निम्नस्त्रीकरण के लिए तैयार नही और आप गस्त्रो की - घुडदौड जारी रखना चाहते है,तो ठीक है। हम इस चुनौती को स्वीकार करते हैं। हम मे भी ताकत है और हम आधुनिक से आधुनिक हथियार तैयार कर सकते है। इस तरह के वाक्यो मे यह सदेह वना रहता है कि सेना आदि को समाप्त करने की बात केवल प्रचार मात्र . * The Times of India (daily) '19-9-59,Page,1 Col 4 * हिन्दुस्तान (दैनिक) सितम्बर २१, १९५९ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदनो के उत्तर wwwAWAN तो नही है !. हम यह देख चुके हैं कि संघर्ष का मूल कारण एकांगी दृष्टि है। खुश्चेव के पक्ष के समर्थक राष्ट्र उन के प्रस्ताव को महत्त्व देते हैं, तो अमेरिकन गुट के राष्ट्र उसके विरोध की तैयारी में लगे हैं। प्रत्येक राजनेता अपने विचारों को सही और दूसरे के विचारो को गलत सिद्ध करने का प्रयत्न करता है । अस्तु सघर्ष का अन्त केवल उच्च आदर्गों का प्रदर्शन करने मात्र से नहीं होगा, उसके लिये आवश्यकता इस बात की है कि अपने विचारों को रखने के साथ हम अपने विरोधी विचारों का भी पादर करे। उनकी सर्वथा उपेक्षा न करके उनके विचारो को । उनकी दृष्टि से परखने का प्रयत्न करे । आज आवश्यकता इस वात की है कि सापेक्षवाद को दार्शनिक एव वैज्ञानिक क्षेत्र मे ही सीमित न रखकर उस का राजनैतिक, सामाजिक एवं परिवारिक जीवन मे भी विस्तार करे। जव सभी क्षेत्रो में स्याहाद या सापेक्षवाद का प्रयोग करने लगेगें तो सारी समस्याएं सुलझते देर नहीं लगेगी, वर्तमान में - राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय एव सांप्रदायिक क्षेत्रों में बढ़ रहा तनाव स्वय ही निर्मूल हो जायगा। विचारकों की दृष्टि में - स्याद्वाद इस तरह हमने देखा स्याद्वाद सभी दृष्टियों से सत्य या वास्तविकता को जानने का साधन है। अब हम स्याहाद के सवध मे कुछ विचारको के विचार प्रस्तुत करेंगे -मो०. हर्मन जेकोबी , ___ "जैन धर्म के सिद्धांत प्राचीन भारतीय तत्त्वज्ञान और धार्मिक ; पद्धति के अभ्यासियो के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस स्याद्वाद सिद्धांत । से सर्वसत्य विचारो का द्वार खुल जाता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय . इण्डिया आफिस लण्डन के प्रधान पुस्तकालय के अध्यक्ष डॉ. थामत _ न्याय शास्त्र मे जैन न्याय का बहुत ऊंचा स्थान है। स्याद्वाद का विषय वडा गंभीर है। वह वस्तुओ की भिन्न - भिन्न परिस्थितियो पर अच्छा प्रकाश डालता है। श्राचार्य आनंद शंकर बापू भाई ध्रुव स्याहाद मनुष्य को विशाल और उदार दृष्टि से पदार्थ को देखने के लिए प्रेरित करता है और विश्व के पदार्थो का किस प्रकार से अवलोकन किया जाए यह सिखाता है। स्याहाद का सिद्धात बौद्धिक अहिसा है। वुद्धि या विचारो से भी किसी का न अनिष्ट चिन्तन करना और न किसी को बुरा कहना ही स्याद्वाद का सुखद परिणाम है । उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन वास्तविकता का सच्चा और सचोट प्रतिपादन तो मात्र आपेक्षिक और तुलनात्मक ही हो सकता है। वस्तु अनेकधर्मी होने के कारण कोई, भी वात निश्चय रूप मे नही कही जा सकती। वस्तु के विविध धर्मों को अभिव्यक्त करने के लिए विधि-निषेधं सवधी शब्द का प्रयोग सात कार से होता है-जिसे जैन परिभाषा मे सप्त भगी कहते है। यही स्याद्वाद सिद्धात है। महात्मा गांधी जिस प्रकार स्याद्वाद को मैं जानता हू, उसी प्रकार मै उसे मानता हू। मुझे अनेकान्त बड़ा प्रिय है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर - ४४ - ~ - ~ श्री काका कालेलकर अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद अहिसा धर्म का एक उज्ज्वल रूप है । इस की तात्त्विक, दार्शनिक और तार्किक चर्चा वहुत हो चुकी है। इसमे अव किसी को दिलचस्पी नहीं रही है । परन्तु सास्कृतिक क्षेत्र मे, अन्तर्राष्ट्रीय राज्य मे, गोरे, काले, पीले या गेहू वर्णी भिन्न-भिन्न वर्णो के सवध के वारे मे अगर हम समन्वयवाद को चलायेगे और स्याद्वाद को नया रूप देंगे, तो जैन संस्कृति फिर से सजीवन और तेजस्वी बनेगी। अगर इस क्षेत्र मे जैन समाज ने कुछ पुरुषार्थ करके दिखलाया तो विना कहे दुनिया भर के मनीपी जैन शास्त्रों का अध्ययन करेंगे और इस नव प्रेरणा का उद्गम कहा है उसे ढूढेगे! महामहोपाध्याय प राम मिश्र शास्त्री . स्याद्वाद जैन धर्म का अभेद्य किल्ला है। जिस के अन्दर प्रतिवादियो के मायावी गोले प्रवेश नही करते। स्व. प. महावीर प्रसाद द्विवेदी प्राचीन ढर्रे के हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े-बडे शास्त्री तक अव भी नही जानते कि जैनियो का स्याहाद किस चिडिया का नाम है? धन्यवाद है जर्मनी, फ्रास और इग्लैड के कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञो को . जिन की कृपा से इस (जैन) धर्म के अनुयायियो के कीर्ति कलाप की . खोज की और भारतवर्ष के इतर जनो का ध्यान आकृप्ट किया । यदि . ये विदेशी विद्वान् जैनो के धर्म ग्रथो की आलोचना न करते, उन के प्राचीन लेखको (ग्रन्थो) की महत्ता प्रकट नही करते, तो हम लोग शायद आज भी पूर्ववत् अज्ञान के अन्धकार मे ही रहते। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..४५.............प्रथम अध्याय ~ ~ ~ ~~ ~- ~ ~ ~ नयवाद प्रश्न- हम देखते हैं कि जैनों ने भी कई जगह एकांतवाद का सहारा लिया है । जैनों का मान्य नयवाद एकांतबाद का ही एक रूप है । क्योंकि हरेक नय एकांत दृष्टि से सोचता है । अतः फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि जैन एकांतवादी नहीं अनेकांतवादी है ? ___ नयवाद को एकान्तवाद समझना उसके यथार्थ ज्ञान का नही होना है ऐसा कहना चाहिए । नयवाद एकान्तवाद नहीं है। वह एकान्त दृष्टि से नही प्रत्युत, एक अपेक्षा से या एक दृष्टि से सोचता है और उस के एक दृष्टि से सोचने मे दूसरी दृष्टि का अस्तित्व भी उस के सामने बना रहता है । अत हम यो कह सकते हैं कि वह अपनी दृष्टि से विचार करता है, परन्तु दूसरी दृष्टि की सर्वथा उपेक्षा नही करता या दूसरी दृष्टि को सर्वथा मिथ्या नही कहता। अत नयवाद एकान्त नही अनेकान्त मूलक है। स्याद्वाद-अनेकान्तवाद और नयवाद मे कोई विरोध नही है। नय और प्रमाण वस्तु का परिज्ञान दो तरह से होता है-- सकलादेश और विकलादेश से। जिस ज्ञान से वस्तु के पूरे रूप का परिवोध होता है उसे सकलादेश कहते हैं, आगमिक एव दार्शनिक भाषा मे उसे स्याद्वाद या प्रमाण कहते है। वस्तु मे स्थित अनेक धर्मो मे से जो एक धर्म की विवक्षा करता है, उसे विकलादेश कहते है और आगमिक भाषा मे नय कहते है। स्याद्वाद या प्रमाण वस्तु के सम्पूर्ण रूप को देखता है Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर और नयवाद वस्तु के एक अश का अवलोकन करता है । नयवाट वस्तु के किसी एक अश को लेकर उसका प्रतिपादन करता है। उसके दूसरे अश से उसका कोई मतलब नहीं रहता। वह दूसरे पहलू का न विधान करता है और न निषेध ही। यदि वह वस्तु के दूसरे अगो का-जो उसकी परिधि से बाहर है, वर्णन करने लगे तो फिर वह नय नहीं रह कर प्रमाण या स्याद्वाद वन जायगा । और यदि वह वस्तु के दूसरे अग का निषेध करने लगे तो वह नयाभास हो जायगा, क्योकि वस्तु मे दूसरे प्रश (धर्म) का अस्तित्व है, फिर भी उस अस्तित्व का निषेध करना मिथ्या वकवास करना है । इस मिथ्या दूषण से वह नय भी सम्यक् नय न रहकर मिथ्या नय या असम्यक् नय वन जायगा । अस्तु नयवाद वस्तु के एक धर्म का ही विवेचन करता है, वह वस्तु के दूसरे धर्मों का न प्रतिपादन करता है और न निषेध करता है । इस का अर्थ यह नहीं है कि नयवाद वस्तु के एक धर्म को ही जानता है, अन्य को नही जानता। वह भी वस्तु को अनेक धर्म युक्त जानता-मानता है। वस्तु को अनेक धर्म युक्त जानकर ही वह उस के एक अश-धर्म की विवक्षा करता है। क्योकि उसके विवेचन की मर्यादा एक अश तक ही सीमित है, फिर भी वह दूसरे अशो-धर्मो का तिरस्कार नही करती हैं, इसलिए नयवाद भी सम्यक् है और वस्तु को जानने का-चाहे अश रूप से ही, यथार्थज्ञान है। द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य और विशेष ___ वस्तु अनेक धर्म युक्त है । अत. उसका विवेचन अनेक दृष्टियो से किया जा सकता है। वे अनेक दृप्टिएँ दो भागो मे विभक्त की जा सकती है.-सामान्य दृष्टि और विशेष दृष्टि -या द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । इन दो दृष्टियो मे सारी दृष्टियो का समावेश हो जाता है। - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ प्रथम चध्याय क्योकि वस्तु द्रव्य और पर्याय युक्त है । अत सामान्य - प्रभेद मूलक जितनी दृष्टिया हैं उन सवका द्रव्य में और भेदमूलक जितनी दृष्टियाँ हैं उनका पर्याय मे समावेश हो जाता है। दो दृष्टियाँ मे सभी दृष्टियों समाविष्ट हो जाती है । इसलिए नय के भी मुख्य दो भेद माने है 素 - द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । शेष सभी इनके ही भेद-उप- भेद है । भगवान् महावीर ने तत्त्वों का विश्लेषण करते समय इन दोनो नयो का आधार लिया है । भगवती सूत्र मे वस्तु की नित्यता - अनित्य-ता का जो विवेचन मिलता है, वह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि से ही किया गया है । द्रव्य की अपेक्षा से जीव नित्य- शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य- अशाश्वत है । इसी तरह स्थानाग सूत्र के - प्रथम स्थान मे जो 'एंगे आया' का तथा भगवती आदि अन्य आगमों - अनन्त जीवो का जो उल्लेख किया गया है, वह भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि से ही किया गया है । सामान्य दृष्टि से आत्मा एक है, तो विशेष दृष्टि से आत्माएँ अनन्त है । द्रव्यार्थिक नय आत्म द्रव्य की अपेक्षा से सबको अभेदात्मक मानता है और पर्यायार्थिक नय विभिन्न पर्यायो एवं सब आत्माओ के स्वतंत्र अस्तित्व की अपेक्षा से सब के भेद का ज्ञान करता है । इन दोनो दृष्टियो को सामने रख कर ही भगवान् महावीर ने कहा कि "आत्मा एक भी है और अनेक भी । दोनो दृष्टियाँ अपनी-अपनी दृष्टि से वस्तु में रहे हुए अनेक धर्मों मे से एक धर्म को स्वीकार करती है, परन्तु दूसरे का विरोध नही करती इसलिए इन मे आपस में सघर्ष नही होता और इसी कारण इन को । सम्यक् नय कहा गया है । 37 **** Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर द्रव्य और प्रदेश । द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दृष्टि की तरह द्रव्यार्थिक और प्रदेगार्थिक दृष्टि से भी वस्तु का विवेचन किया जा सकता है । यह हम बता चुके है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि एकता की सूचक है और प्रदेशार्थिक दृष्टिकता को व्यक्त करती है । पर्यायार्थिक दृष्टि भी अनेकता का सूचन करती है । फिर भी पर्यायार्थिक और प्रदेशार्थिक दृष्टि एक नही है । पर्याय और प्रदेश मे अन्तर यह है कि पर्याय - द्रव्य की देश और कालकृत अनेक अवस्थाएँ है और प्रदेश द्रव्य के अवयव है । परमाणु जितने स्थान को घेरता है वह एक प्रदेश । जेनदर्शन की मान्यतानुसार कुछ द्रव्यो के प्रदेश नियत हैं और कुछ द्रव्यो के अनियत । जीव-प्रमाके प्रदेश सर्व देश और सर्व काल मे नियत है । उन की संख्या मे न अभिवृद्धि होती है और न ह्रास ही। यह बात अलग है कि वे जिस शरीर मे स्थित रहते है, उसके अनुरूप छोटे वडे हो सकते है, परन्तु ग्रात्म प्रदेशो की सख्या मे कोई परिवर्तन नही होता । वे सकोच - विस्तार वाले है. जैसा छोटा या बडा शरीर मिलता है उसी के अनुरूप श्रात्म प्रदेशो का सकोच या विस्तार कर लेते है । जैसे दीपक छोटे कमरे मे अपने जितने प्रदेशो को फैलाता है, उतने ही प्रदेगो को बड़े कमरे मे फैला देता है । कमरे के छोटे और बड़े होने मात्र से दीपक के प्रदेशो में कोई अन्तर नही पड़ता, उसी तरह शरीर के छोटे - वडे होने से ग्रात्म प्रदेशों की संख्या में कोई अन्तर नही आता । श्रात्म प्रदेशो की तरह धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और लोकाकाश के प्रदेश भी नियत है । पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश प्रनियत हे स्कन्ध के अनुसार उसके प्रदेशो मे अन्तर होता रहता है। पर्याय हमेशा ग्रनियत रहती है । क्यो कि उसमे सदा परिवर्तन होता रहता है । 1 ४८ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय श्रमण भगवान महावीर ने जिस तरह पर्याय दृष्टि से वस्तु का विवेचन किया है, उस तरह प्रदेश दृष्टि से भी निरूपण किया है । उन्होंने अपना उदाहरण देते हुए कहा है कि मै द्रव्य की दृष्टि से एक हूं, ज्ञान और दर्शन रूप पर्यायो की दृष्टि से दो हू और प्रदेशो की दृष्टि से अक्षय, अव्यय और नित्य हू । क्योकि यात्म प्रदेशो को सख्या मे कभी भी न्यूनाधिकता नहीं होती। वस्तु को अनेकता को सिद्ध करने के लिए भी प्रदेश दृष्टि का उपयोग किया गया है । द्रव्य दृष्टि से आत्मा एक है, परन्तु प्रदेश दृष्टि से प्रात्मा अनेक है, क्योकि यात्म प्रदेश असल्यात है। इसी तरह धर्मास्तिकाय द्रव्य दृष्टि से एक है और प्रदेश दृष्टि से अनेक है, क्योकि वह असख्यात प्रदेशी है। अन्य द्रव्यो के सवध में भी ऐसा ही समझना चाहिए । इस तरह द्रव्य और प्रदेश दृष्टि से भी वस्तु के स्वरूप का परिबोध होता है। व्यवहार और निश्चय __ वस्तु जिस रूप में परिलक्षित हो रही है, तद्रूप ही है या उससे भिन्न रूप मे है ? यह प्रश्न प्राचीन काल से दार्शनिको के संघर्ष का कारण बना रहा है। कुछ दार्शनिक वस्तु के दो रूप मानते हैं-प्रातिभासिक और पारमार्थिक । चार्वाक आदि भूतवादी विचारक परमार्थ और प्रतिभास रूप मे कोई भेद नहीं करते । उनके विचार से इन्द्रिय से दिखाई देने वाला तत्त्व ही पारमाथिक-सत्य है । भगवान महावोर ने उभय रूपो को स्वीकार किया है । इन्द्रिय को सहायता से दिखाई देने वाला वस्तु का स्थूल स्वरूप है, इसके अतिरिक्त वस्तु का सूक्ष्म स्वरूप भी होता है, वह अांखो से दिखाई नहीं देता। श्रुत या आत्म प्रत्यक्ष से देखा जाता है। वस्तु का स्थूल रूप व्यवहार दृष्टि से सत्य है और सूक्ष्म रूप निश्चय दृष्टि से सत्य है। व्यवहार दण्टि इन्द्रिय आश्रित Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anamaina प्रश्नों के उत्तर ५०... होने से स्थूल है और निश्चय दृष्टि इन्द्रियातीत होने से सूक्ष्म है। परन्त दोनो दष्टिएं सम्यक है। - भगवती सूत्र में गौतम भगवान महावीर से पूछते हैं कि पतले गुड (फाणित) मे कितने वर्ण, गध, रस और स्पर्श होते हैं ? भगवान महावीर ने इस का उत्तर निश्चय और व्यवहार दृष्टि से दिया है। उन्होने कहा-व्यवहार दृष्टि से गुड मधुर है, मीठा है और निश्चय दृष्टि से उसमें ५ वर्ग २ गव, ५ रस और ८ सो पाए जाते हैं * । इसी तरह गव, रस से युक्त अन्य पदार्थों के संबंध मे भी दोनो दृष्टियो से उत्तर दिया है । इस तरह निश्चय के साथ उन्होंने व्यवहार को भी सत्य माना है। उन्होंने निश्चय-परमार्थ के आगे व्यवहार को झुठलाया नहो । यहो नयवाद एव स्याद्वाद दृष्टि का महत्त्व है। .. नय के भेद स्थानाग सूत्र के सातवे स्थान मे और अनुयोग द्वार सूत्र मे सात नयो का उल्लेख मिलता है । अनुयोग द्वार सूत्र मे शब्द, समभिरूढ ओर एवंभूत नय को शब्द नय माना है । शेष चार के लिए कोई नाम निर्देश नहीं किया। पीछे के आचार्यों ने सात नयो को स्पष्टत दो भागो मे वाट दिया- १-अर्थ नय और २-शब्द नय । अन्तिम तीन नयों को आगम मे शब्द नय कहा गया है, अत. पहलो चार नयो को अर्थ नय मान लिया गया। १ नंगम,२ संग्रह,३ व्यवहार और ४ ऋजू सूत्र नय अर्य को विषय करते हैं, अतः वे अर्थ नय हैं और शब्द को अपना विषय बनाने वाले गन्द, समभिरूढ़ और एवंभूत शब्द नय हैं। आचार्य सिद्धसेन के मतानुसार वचन के जितने प्रकार हो सकते. -- * भगवती सूत्र, २०१८, उ०६। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय - है, नय के भी उतने ही भेद होते हैं और जितने नय के भेद है उतने ही मत है । इस दृष्टि से नय के अनन्त भेद हो सकते हैं। परन्तु अनन्त भेदो का वर्णन करना हमारी शक्ति के बाहर है। यो द्रव्य और पर्याय इन दो रूपो में सारे भेद समाविष्ट हो जाते है । परन्तु द्रव्य और पर्याय को अधिक स्पष्ट करने के लिए उनके अवान्तर भेद किए गए हैं। इस सवध मे हमे तीन विचारधाराए दिखाई देती है। आगम और दिगम्बर परम्परा सीधे तौर पर नयो के सात भेद मानती है- १ नंगम २ सग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र, ५ शब्द, ६ समभिरूढ और ७ एव भूत । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ६ नय मानते है, वे नैगम नय को स्वतत्र नही स्वीकार करते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र मे नय के ५-भेद किए है-१ नैगम, २ सग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र और ५ शब्द । इस मे पहली नैगम नय के दो भेद किए है- देश परिपेक्षी और सर्व परिपेक्षी और शब्द नय के साप्रत, समभिरुढ और एवभूत तीन भेद माने है। परन्तु इन सब मे सात भेद वाली आगम परम्परा अधिक प्रसिद्ध है। नैगम नय नेगम नय वस्तु को सामान्य और विशेष उभयात्मक दृष्टि से स्वीकार करता है । क्योकि सामान्य और विशेष एक दूसरे से संबद्ध है । जावइया वयणवहा, तावइया चेव होति नयवाया। , जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया ।। -सन्मति तर्क, प्रकरण ३, ४७ * स्थानाग सूत्र ७, ५५२, तत्त्वार्थ राजवर्तिक १, ३३ ६ सन्मति तर्क मे नय प्रकरण । * तत्त्वार्थ १,३४-३५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर एक के अभाव मे दूसरे का अस्तित्व घट ही नहीं सकता। इसलिए नंगम । नय उभयात्मक स्वरूप की विवक्षा करता है । कभी वह सामान्य को मुस्य मानकर विवक्षा करता है, तो कभी विशेप को मुख्य मानकर। जिस समय सामान्य को मुख्य मानकर विवक्षा करता है, उस समय विगेप गौण हो जाता है और जब विशेष को मुख्य आधार मानता है, तव सामान्य गीण हो जाता है । उस के विवेचन मे एक मुख्य और दूसरा गौण रहता है, परन्तु वह ग्रहण उभयात्मक स्वरूप का करता है। यह वात अलग है कि कभी सामान्य की प्रधानता होती है और विगेष की अप्रवानता, तो कभी विनेप का प्रधान स्थान होता है और सामान्य का अप्रधान । परन्तु, नैगमनय उभय स्वरूप का ग्रहण करता है, एक का नहीं। इस से यह प्रश्न उठता है कि जव वस्तु को उभयात्मक रूप से जानता है, तव फिर वह विकलादेश-नय कैसे रहा? वस्तु के उभयात्मक स्वरूप को स्वीकार करने वाला ज्ञान सकलादेन होता है। अत इस दृष्टि से नैगम को नय नही, सकलादेश-प्रमाण मानना चाहिए ! - नैगम सकलादेग-प्रमाण नही विकलादेश-नय ही है। क्योकि सकलादेश मे वस्तु के सब धर्मो का समान रूप से ग्रहण होता है। उस मे प्रमुखता और गौणता का भाव नही होता और नैगम वस्तु के उभय धर्मों को प्रमुख और गौण रूप से ही स्वीकार करता है । अत वह सकलादेश नही, विकलादेश-नय ही है, ऐसा मानना चाहिए । ___ कुछ आचार्य नैगम को सकल्पमात्र ग्राही भी मानते हैं। किसी + नैगमो मन्यतें वस्तु, तदेतदुभयात्मकम्, . निर्विशेष न सामान्य, विशेषोऽपि न तद विना ।। -नय कर्णिका * अर्थ संकल्पमात्र ग्राही नगमः। -तत्त्वार्थ राजवार्तिक १, ३,२ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय VANA Vw व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले कार्य का सकल्प मात्र नैगम नय है। जैसे कोई व्यक्ति वाजार मे कागज खरीदने जाता है, मार्ग मे उससे कोई पूछे कहा जा रहे हो, तो वह कहता है कि जरा लेख लिखना है। जबकि अभी तो वह कागज लाने जा रहा है, लेख लिखने मे तो अभी वहुत समय पडा है, उस बीच मे और कोई बाधा भी उपस्थित हो सकती है। फिर भी उस का वचन सत्य कहा जाता है । क्योकि लेख लिखने का सकल्प करके ही वह कागज खरीदने चला है । इस तरह सकल्प मात्र को भी नैगम नय कहते है। संग्रह नय सग्रह नय सामान्य ग्राही होता है । वह वस्तु के अभेद स्वरूप को ग्रहण करता है। यह हम देख चुके है कि वस्तु भेदाभेद-सामान्यविशेष उभय रूप है । परन्तु, सग्रह नय सामान्य को ही अपना विषय बनाता है । यह नय पर और अपर के भेद से दो प्रकार का है । पर में वह अस्तित्व रूप से सभी पदार्थों का संग्रह कर लेता है। क्योकि जीव अजीव आदि जितने भी पदार्थ है, सवका अस्तित्व-सत्ता है। अत सत्ता रूप से वह सभी पदार्थो को एक मानता है $ । क्योकि सत्ता सव मे समान रूप से है। जैसे नीलादि आकार वाले सभी जान'ज्ञानसामान्य' के भेद है, उसी तरह जीवाजीवादि सभी पदार्थ सत् होने से सत्ता सामान्य की दृष्टि से एक है। यह हम देख चुके हैं कि द्रव्य मे रहने वाली सत्ता पर सामान्य है । परन्तु द्रव्य मे स्थित जो द्रव्यत्व सामान्य है, वह अपर सामान्य है। इसी तरह गुण मे जो सत्ता है वह पर सामान्य है और जो गुणत्व ६ सामान्य मात्र नाही परामर्श सग्रह । -प्रमाण नय तत्त्वालोक ७,१३ ६ सर्वमेक सद्विशेषात् Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ~ ~ ~~ ~ ~ ~ ~ ~~ ~ ~ ~ ~ ~ प्रश्नो के उत्तर सामान्य है वह अपर सामान्य है। द्रव्य के और भी कई भेद-प्रभेद होते है। जैसे जीव द्रव्य सत्ता की दृष्टि से पर सामान्य है, तो जीवत्व की दृष्टि से अपर सामान्य है । सत्ता की दृष्टि से सभी द्रव्यों के साथ उस का भी संग्रह हो जाता है। परन्तु जीवत्व की अपेक्षा से वह अन्य सभी द्रव्यो से भिन्न है, फिर भी अपर सामान्य की दृष्टि से वह एक भी है। क्योकि सभी जीव जीवत्व की दृष्टि से समान हैं। इसी सग्रह नय को ध्यान में रख कर कहा गया कि प्रात्मा एक है ।। इस तरह द्रव्यत्व, गुणत्व आदि अपेक्षानो से जितने अपर सामान्य है तथा सत्ता की दृष्टि से जो पर सामान्य हे अथवा यो कहिए जितने भी प्रकार के सामान्य या अभेद हो सकते हैं, उन सवका ग्रहण करने वाला सग्रह नय है। व्यवहार नय सग्रह नय ने जिस अर्थ को ग्रहण किया है, उस का विधि पूर्वक अवहरण-पृथक्करण करना व्यवहार नय है । सग्रहं नय अभेद को ग्रहण करना है और व्यवहार नय भेद को स्वीकार करता है। सग्रहनय द्वारा स्वीकृत सामान्य किस रूप मे है, इस तथ्य का विश्लेषण करने के लिए व्यवहार नय विशेष को स्वीकार करता है। ये दोनों नय द्रव्य कोही' ग्रहण करते है। परन्तु, सग्रह नय द्रव्य को अभेद रूप से स्वीकार करता है और व्यवहार नये भेद रूप से । सग्रह नये सत्ता की अपेक्षा से सभी पदार्थों को पर सामान्य रूप से ग्रहण करता है। व्यवहार नय उसी का पृथक्करण करते हुए कहता है कि सत् क्या है ? वह । एगे आया।-स्थानाग सूत्र, १,१ . . , , $ अतो विधिपूर्वकमवहरण व्यवहार । -तत्त्वार्थ राजवार्तिक, १, ३३ '६ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ प्रथम अध्याय द्रव्य है या गुण? द्रव्य है तो जीव द्रव्य है या अजीव द्रव्य ? जीव द्रव्य में भी नरक है, देव है, मनुष्य है, तिर्यञ्च है या मुक्त-सिद्ध जीव है । नरक मे प्रथम नरक का नारक है या दूसरी, तीसरी यावत् सातवी नरक का ? 'इस तरह वह अभेद पूर्वक स्वीकृत पदार्थों को भेद पूर्वक विवक्षा करता है । क्योकि लोक व्यवहार भेद पूर्वक ही चल सकता है, अभेद पूर्वक नहीं । और इस नय का मुख्य उद्देश्य व्यवहार सिद्धि है $ | इस लिए यह भेद को अपना विषय बनाता है । उक्त तोनो नये द्रव्य को अपना विषय बनाते हैं, अत द्रव्यार्थिक नय है और आगे कहे जाने वाले चारों नय पर्याय को अपना विषय बनाते हैं, इसलिए पर्यायार्थिक नय हैं । ऋज़ सूत्र नय भेद - पर्याय को दृष्टि से जो पदार्थ का विश्लेषण करता है, वह ऋजुसूत्र नय है* । यह नय भूत और भविष्य का ग्रहण न करके मात्र वर्तमान का ग्रहण करता है । क्योंकि पर्याय वर्तमान मे हो अवस्थित रहती है । भूत और भविष्य मे द्रव्य स्थित रहता है, परन्तु पर्याय स्थित नहीं रहती । मनुष्य कई वार वर्तमान को हो स्वीकार करता है, भूत और भविष्य को देखता तक नहीं । इसका यह अर्थ नहीं है कि भूत और भविष्य सर्वथा असत्य है । वह भूत और भविष्य को सत्ता तो मानता है, परन्तु जब वह वर्तमान का हो ww $. व्यवहारानुकूल्यांत् प्रमाणानां प्रमाणता, नान्यया बाध्यमानाना ज्ञानाना तत्प्रसंगतः ॥ * भेदं प्रावान्यतोऽन्विच्छन् ऋजुमूत्रनयो मत' ।' लघीपस्त्रय ३, ६, ७०-७१ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर .... ५६. अपना प्रवृत्ति क्षेत्र बनाता है, तव ऐसा समझना चाहिए कि उसका प्रयोजन वर्तमान से होता है । क्योकि वस्तु की पर्याय प्रति क्षण बदलती रहती है। अत. जिस क्षण मनुष्य कार्य मे प्रवृत्त है, उस क्षण की पर्यायों मे और अगले क्षण की पर्यायो मे अतर हो जाता है । वर्तमान की अवस्था वर्तमान तक ही सीमित है। इसीलिए वर्तमान की स्थिति एक समय की कही गई है और पर्याय भी अपने स्वरूप मे एक समय तक स्थित रहती है, दूसरे समय मे उसमे परिवर्तन हो जाता है । अस्तु काल की अपेक्षा से अवस्थाएँ भिन्न है, यदि उन पर्यायो मे भिन्नता नही हो, तो सभी काल की अवस्थाए एक हो जायगी। इसी तरह वस्तु को भिन्नता से भी अवस्था मे भेद होता है। एक वस्तु की अवस्था दूसरी वस्तु की अवस्था से भिन्न होती है। जैसे हस श्वेत-सफेद है इस वाक्य मे हस मे और श्वेतपन में जो विभिन्नता नही दीख रही है उसे बताने के लिए ऋजू सूत्र नय कहता है कि हस अलग है और उसका श्वेतपन या उज्ज्वलपन अलग है । यदि ऐसा न माना जाए तो हंस और बुगला एक हो जाएगे।क्योकि दोनो श्वेत हैं,अत. श्वेत वर्ण के जितने भी पशु-पक्षी होगे वे एक हो जाएगे । इस तरह ऋजू सूत्र नय क्षणिकवाद को स्वीकार करता है। उसकी दृष्टि मे प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है। क्योकि प्रत्येक वस्तु की पर्याये प्रतिक्षण बदलती रहती है। काल और वस्तुभेद की तरह यह नय देश-क्षेत्र भेद से भी वस्तु मे भेद मानती है। शब्द नय उपरोक्त चारो नय अर्थ को अपना विषय बनाते हैं, अत. अर्थ नय है। प्रस्तुत शब्द नय और इसके बाद के दो नय भी शब्द को अपना विषय बनाते हैं, अतः तीनो शब्द नय है। शब्द नय-काल, कारक, लिंग, संख्या आदि के भेद से अर्थ का Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ प्रथम अध्याय. भेद मानता है $ । काल तीन हैं- भूत, वर्तमान और भविष्य | कारक सात हैं- कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सवध, अधिकरण । लिग तीन है - पुलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग । सुख्या के भी तीन -भेद हैं- एकवचन, द्विवचन और बहुवचन । इत्यादि भेद से शब्द के अर्थ मे भी भेद हो जाता है । काल की अपेक्षा से अर्थ भेद का उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है- "काशी नगरी थी और काशी नगरी -है" उक्त दोनों वाक्यो मे जो अर्थ भेद परिलक्षित होता है, वह शब्द नय की दृष्टि से है । इस तरह कारकादि के भी उदाहरण दिए जा सकते है । कहने का तात्पर्य इतना ही है कि शब्द नय कालदि के भेद से अर्थ मे भेद मानता है । परन्तु वह शब्द भेद से अर्थ भेद नही मानता है । जैसे कुभ और कलश दो भिन्न शब्द है, फिर भी शब्द नय उस के अर्थ मे भेद नही मानता है । शब्द नय अनेक पर्याय- अनेक शब्दो द्वारा सूचित वाच्यार्थ को एक हो पदार्थ समझना है " । अस्तु वह कालदि के भेद से ही अर्थ भेद मानता है, शब्द भेद से नही । समभिरू नय शब्द नय कालादि के भेद से अर्थ भेद मानता है । एक काल या एक लिंग वाले पर्यायवाची शब्दो मे वह भेद नही करता है । परन्तु जव यह भेद बुद्धिं कुछ आगे बढ़ती है, तो वह शब्द भेद से भी अर्थ भेद मानने लगती है, यह दृष्टि समभिरूढ नय के नाम से जानी जाती है । § कालादि-भेदेन ध्वनेरर्थ भेद, प्रतिपद्यमान शब्द | - प्रमाणनय तत्त्वालोक, ७, ३२ * अर्थ शब्दनयोऽनेकै पर्यायैरेकमेव च । मन्यते कुम्भ-कलश-घटाद्येकार्थ वाचक. ॥ -नयकर्णिका, १४ " Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ५८... वह व्युत्पत्ति के भेद से पर्यायवाची शब्दो के अर्थ मे भी भेद स्वीकार करता है । यह नय केवल कालादि के भेद पर ही अर्थ भेद मानना प्रर्याप्त नही समझता । इस की दृष्टि मे जहां शब्द भेद हे वहा अर्थ भेद अवश्य है ।। उदाहरण के लिए निर्ग्रन्थ, श्रमण और मुनि तीन शब्द ले । शब्द नय की दृष्टि से इन तीनो शब्दो के अर्थो मे कोई अन्तर नही है, क्योकि तीनो का लिंग एक है । परन्तु समभिरूढ़ को यह बात मान्य नही है। वह कहता है कि यदि व्युत्पत्ति भेद से अर्थ भेद नही मानेंगे तो तीनो शब्द एक हो जाएगे। अस्तु तीनों शब्दो के अर्थ मे अन्तर है, क्योकि तीनो शब्दो की व्युत्पत्ति भिन्न है। 'निर्गतौ ग्रयीर्यस्य स निर्ग्रन्थ' । 'श्रमं करोतीति श्रमण.' । 'मौन धारयतीति मुनि.'। इस तरह तीनों शब्द अपने-अपने भिन्न अर्थों को लिए हुए हैं, अत. वे एक नहीं हो सकते । द्रव्य और भाव ग्रथि- गाठ का त्याग करने वाले का अर्थ निग्रंथ है, श्रम-तपस्या करने वाला यह श्रमण शब्द का अर्थ है और मौन धारण करने वाला यह मुनि शब्द का अर्थ है । इस तरह समभिरूढ नय शब्द भेद से अर्थ मानता है। एवंभूत नय य . प्रस्तुत नय समभिरुढ नय से भी एक कदम आगे रखता है । समभिरूढ़ि नय व्युत्पत्ति भेद से अर्थ मानता है, परन्तु एवभूत नय कहता है कि जिस समय व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ घटित होता हो उस समय ही उस 8- पर्याय-शव्देषु निरुक्ति भेदेन, भिन्नमर्थ समभिरोहन समभिरुढ. । -प्रमाण नय तत्त्वालोक, ७, ३६ । पर्यायशब्द भेदेन भिन्नार्थस्थापिरोहणात्, नय. समभिरुढ स्यात्, पूर्ववच्चास्य निश्चय.॥ -श्लोकवार्तिक vR Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय शब्द का अर्थ ग्रहण करना चाहिए । । यथा-जिस समय वाह्य एव प्राभ्यान्तर , प्रन्थि-परिग्रह की गाँठो से रहित हो उस समय ही निर्ग्रन्थ कहना चाहिए, परन्तु जिस समय राग-द्वेप मे परिणति हो रही हो या वाह्य पदार्थो के सग्रह मे प्रवृत्ति कर रहा हो, उस समय निग्नन्थ नही कहना चाहिए। जिस समय श्रम या तपश्चर्या कर रहा हो, उस समय श्रमण और जिस समय मौन धारण कर रखी हो, उस समय मुनि कना चाहिए। सप्त नयों का पारस्परिक संबंध यह हम देख चुके हैं कि पीछे की नय का विषय पहले की नय के विषय से सकुचित होता जाता है। नैगम नय का दायरा सबसे विस्तृत है। क्योकि वह सामान्य एव विशेष उभय को ही अपना विषय बनाता है। कभी सामान्य को प्रमुखता देता है और विशेष को गौणता, तो कभी विशेष को प्रधानता देता है और सामान्य को अप्रधानता । सग्रह नय का क्षेत्र पूर्व नय से सीमित हो जाता है। वह केवल सामान्य को ही स्वीकार करता है । व्यवहार नय सग्नह द्वारा स्वीकृत विषय का ही कुछ विशेषताओं के आधार पर विभाजन करता है। ऋजुसूत्र नय का विषय व्यवहार नय से भी कम है,क्योकि व्यवहार नय त्रिकालिक विपय का अस्तित्व स्वीकार करता है, परन्तु ऋजुसूत्र नय केवल वर्तमान को ही स्वीकार करता है । शब्द नय का क्षेत्र उससे भी सीमित है, क्योकि वह कालादि के भेद से ही शब्द के अर्थ मे अतर मानता है । समभिरूढ नय व्युत्पत्ति भेद से अर्थ मानता है और एवभूत नय शब्द की व्युत्पत्ति के अनुरूप जिस समय प्रवृत्ति हो रही हो उस समय ही उस व्यु"क्रिया परिणतार्थ चेदेवम्भूतो नयो वदेत् । --द्रव्यानुयोग तर्कणा rammmmmon - ~ ~ ~ ~ ~ ~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ६० त्पत्ति सिद्ध अर्थ को मानता है । इस तरह एवंभूत नय का दायरा सव से छोटा है । इस तरह सातो नय एक दूसरे के साथ सवद्ध है। उत्तरउत्तर नय पूर्व-पूर्व नय पर ग्राधारित है । और पूर्व-पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता जाता है । स्याद्वाद और नयवाद का सम्बन्ध I जैनदर्शन के चिन्तन की दृष्टि काफी विस्तार से पाठको के सामने आ गई है । इतने विस्तृत विवेचन के बाद यह स्पष्ट हो गया कि नयवाद एकान्तवादी नही है । नयवाद, स्याद्वाद दृष्टि को सामने रख कर ही विवेचन करता है । यह तो एक विवेचन करने की शैली है कि वह कभी सामान्य की दृष्टि से वस्तु का विवेचन करता है, तो कभी विशेष की अपेक्षा से । कभी उसकी दृष्टि मे द्रव्य की प्रमुखता होती, तो कभी पर्याय की प्रमुखता रहती है । इसी अपेक्षा से सातो नय को द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो भागों मे विभक्त किया गया है । प्रथम के तीन सामान्य की ओर अधिक झुके हुए हैं, तो पीछे के चार नयो मे विशेष की और अधिक झुकाव है । सामान्य और विशेष या द्रव्य और पर्याय ये दोनो ही वस्तु मे स्थित हैं । स्याद्वाद भी दोनो को स्वीकार करता है और नयवाद भी दोनो दृष्टियो को सामने रखता है । अतर सिर्फ विवेचन करने का है, दोनों की विवेचन शैली - पद्धति मे अन्तर है । वह यह कि स्याद्वाद वस्तु के समग्र रूप का विवेचन करता है और नयवाद वस्तु के एक अश का विवेचन करता है । परन्तु दोनो की दृष्टि सापेक्ष है । अत स्याद्वाद एव नयवाद मे कोई सैद्धातिक भेद नही है । *** Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व-मीमांसा द्वितीय अध्याय प्र० - संसार में तत्त्व (पदार्थ) कितने हैं ? उ० जैन दर्शन मे तत्त्वो की संख्या नव मानी है । ग्रागम मे नव तत्त्वो का उल्लेख मिलता है । और तत्त्वार्थ सूत्र मे सात तत्त्वो का उल्लेख किया है। परन्तु, इस से मान्यता मे कोई अन्तर नही आता । केवल संख्या गिनने का अन्तर है । जीव, जीव, पुण्य, पाप, ग्रास्रव, सवर, निर्जरा, वध और मोक्ष ये नव तत्त्व है । सात तत्त्व स्वीकार करने वाले पुण्य-पाप को अलग नही गिनते । इसका अर्थ यह नही है कि वे पुण्य-पाप को मानते ही नही । वे भी पुण्य-पाप को स्वीकार करते है । परन्तु उस की गणना श्रास्रव या बंध तत्त्व मे कर लेते है। शुभ और अशुभ परिणामो से शुभ-अशुभ कर्मो का वन्ध होता है । ये शुभाशुभ परिणाम भाव पुण्य-पाप है । और उन से वन्धने वाले शुभाशुभ कर्म द्रव्य पुण्य - पाप हैं । प्रत सैद्धांतिक दृष्टि नव और सात तत्त्व मानने मे कोई अन्तर नही पडता । यदि मूल तत्त्व नव मान लेते है तो फिर किसी तत्त्व के अवान्तर भेद नही करने पडतें है और सात की सख्या मानते हैं तो वन्ध के दो अवान्तर भेद करके नव की गणना को पूरा कर दिया जाता है । चाहे किसी भी तरह से माने जैन मान्यता के अनुसार तत्त्वो की संख्या नव है । इस में ससार के सभी + शुभ पुण्यस्य, अशुभ पापस्य । -तत्त्वार्थ सूत्र, ६,३-४. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर annarramamman पदार्थो का समावेश हो जाता है। इसमे भी मूल तत्त्व दो ही है- एक जीव और दूसरा अजीव या यो भी कह सकते हैं, एक जड और दूसरा चेतन । शेष सात तत्त्व इन्ही के अवान्तर भेद हैं। सभी पदार्थो का सरलता से वोध हो सके इसलिए तत्त्वो का वर्गीकरण किया गया है । अन्यथा विश्व का कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो जड़-चेतन से पृथक् किसी तीसरी किस्म का हो। सभी पदार्थ चेतन या जड दो ही रूपो मे पाए जाते है। आत्म मीमांसा भारतीय चिन्तनधारा का विकास प्रात्म तत्त्व को केन्द्र मान कर हुआ है। चार्वाक का विचार,चिन्तन-मनन एव सिद्धात भी इसमे वाधक नही है। चार्वाक दर्शन का गहराई से अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है, कि उसने आत्मा की चेतना शक्ति को मानने से इन्कार नही किया है किन्तु उसने सिर्फ चेतन के स्वरूप की व्याख्या अपने ढग से की है। उसने आस्तिक माने जाने वाले सभी भारतीय दर्शनो से विपरीत दिशा मे सोचा है । उसे नास्तिक एव अनात्मवादी कहने का यही कारण है कि उसने आत्मा को चेतन तो माना है, परन्तु उस चेतन (आत्मा) की स्वतत्र एव पृथक सत्ता को नहीं माना । इस तरह सभी भारतीय दर्शन प्रात्मा को आधार मानकर चले है । अत प्रत्येक भारतीय के लिए यह आवश्यक है कि वह आत्मा के सवध मे भी सोचेसमझे एव जाने। इस विचार को सामने रखते हुए हम जरा विस्तार से भारतीय दर्शनो की आत्मा विषयक मान्यता पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। किसी वस्तु के स्वरूप का परिज्ञान करने के पहले उसके Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ द्वितीय अध्याय अस्तित्व के विषय मे यह जान लेना अत्यावश्यक है । इस दृष्टि से ग्रात्मा के स्वरूप का विचार करने के पहले हम इस वात पर विचार करेंगे कि आत्मा के अस्तित्व के विषय में भारतीय चिन्तको की क्या दृष्टि रही है । भारतीय चिन्तनधारा मे ग्राज श्रमण एवं ब्राह्मणो का साहित्य उपलब्ध है । श्रमणो एवं ब्राह्मणो की वढती हुई प्राध्यात्मिक प्रवृत्ति एव ग्रध्यात्म चिन्तनधारा के प्रवाह मे ग्रात्म विरोधी चितको की विचारधारा एव साहित्य प्रवाहमान हो गया । ब्राह्मणो ने अनात्मवादियो के विषय मे प्रासंगिक रूप से जो कुछ कहा उसी का वेदो से ले कर उपनिपयो तक मे उल्लेख मिलता है । जैनागमो एव पिटको ( वौद्धग्रन्थो ) में भी विरोधी विचार धारा के खण्डन के रूप मे अनात्मवादियो के सिद्धांत का उल्लेख किया गया है । अनात्मवादियो केसिद्धांत की सही जानकारी देने वाला कोई ग्रन्थ नही है । दार्शनिकटीका ग्रन्थो से इतनी जानकारी मिलती है कि दार्शनिक ग्रंथो के रचना काल मे ग्रनात्मवादियो ने अपने विचार वृहस्पति सूत्र के रूप मे रखे थे । किन्तु दुर्भाग्य से आज वह ग्रथ भी उपलब्ध नही है । अत: आत्मा के सम्बध मे उनकी मान्यता क्या रही है, इस की जानकारी आत्मवादी विचारको के शास्त्रो एव दार्शनिक ग्रन्थो मे उल्लिखित आधार पर ही की जा सकती है । 4 अनात्मवादी चार्वाक यह नही कहता है कि आत्मा नहीं है, वह आत्मा का या उसकी चेतना शक्ति का अभाव नही मानता । 'उसको मान्यता यह है कि एक या एकाधिक ( अनेक ) जितने भी पदार्थ या तत्त्व हैं, उनमे ग्रात्मा नाम का कोई स्वतत्र या मौलिक तत्त्व नही है । कई तत्त्वो के सयोग से आत्मा मे चेतना शक्ति का प्रादुर्भाव होता है । वह उन्ही तत्त्वो का एक रूप है, उनसे भिन्न कोई स्वतत्र शक्ति नही है । इसी बात को लक्ष्य मे रखते हुए उद्योतकर ने न्यायवार्तिक मे कहा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर www.meri main है कि आत्मा के अस्तित्व के सबंध मे दार्गनिको मे सामान्यत मतभेद नहीं है । मतभेद यां विवाद है तो वह छात्मा के स्वरूप को मानने के सवंध में है। कोई गरीर को ही यात्मा मानते हैं,कोई बुद्धि को,कोई इन्द्रियों को, कोई मन को और कोई सघात को आत्मा समझते हैं । कुछ ऐसे विचारक भी है कि जो इन सबसे पृथक यात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को मानते हैं । * इससे स्पप्ट है कि भारतीय संस्कृति के सभी विचारको ने आत्मा को मानने से इन्कार नही किया। आत्मा के विषय मे उनका कोई मतभेद नहीं है, मतभेद है उसके स्वरूप को लेकर। मानव जव तक चिंतन की गहराई मे नहीं उतरता, अपने अंदर नही झांकता-देखता, तब तक उसकी दृष्टि, उसकी विचारधारा, उस की सोचने-समझने की शक्ति चाह्य पदार्थो तक ही सीमित रहती है । और जब तक मनुष्य बाहरी पदार्थों की ओर ही देखता - विचारता है तव तक वह उन्हे ही मौलिक तत्त्व के रूप मे स्वीकार करता है। क्योंकि उनके अतिरिक्त उसके सामने अन्य कोई द्रव्य है ही नही जिस पर वह कुछ सोचे - विचारे। यही कारण है कि उपनिषदो मे कई ऐसे विचारको का अभिमत देखने को मिलता है, जिन्होने जलवायु जैसे इन्द्रिय ग्राही पदार्थो को विश्व के मूल तत्त्व के रूप मे स्वीकारा है। उन की विचार शक्ति आत्मा के अमूर्त स्वरूप तक पहुची ही नहीं । आत्मा : की बात तो दूर रही, भौतिक तत्त्वो मै भी वे सूक्ष्म शक्तियो का सा क्षात्कार करने मे असफल रहे। उन की निगाह मूर्त और उस मे भी - स्थूल पदार्थो को ही देख सकी और वे उन्ही की अनुभूति कर सके। पर इतना तो मानना होगा कि यह उन के चिन्तन की पहली भूमिका • * न्यायर्वातिक पृ. ३६६. . $ वृहदारणयक ५, ५, १ - * छान्दोग्योपनिषद,४, ३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय .६५ थी। विश्व को जानने की जिज्ञासा मानव मन मे जग चुकी थी। उस का मन-मस्तिष्क चिन्तन के क्षेत्र मे अगडाई लेने लगा था। जव मानव मनन के क्षेत्र मे आगे वढा,, ज़रा गहराई मे उतरा तो उसने मूर्त पदार्थो को मौलिक तत्त्व न मान कर असत् $, सत्, ग्राकाग आदि सूक्ष्म एव वुद्धिग्राह्य पदार्थों को स्वीकार किया। वह कुछ आगे तो वढा,परन्तु अभी तक भौतिक पदार्थो से ऊपर नही उठा । उसका चिन्तन जडत्व पर ही अटक गया। ऐसा प्रतीत होता है कि उस ने इन वाह्य तत्त्वो को ही मौलिक माना हो और इन्ही अतीन्द्रिय तत्त्वो में से ही आत्मा की उत्पत्ति की हो। - जव चिन्तक की चिन्तन धारा वाह्य पदार्थों से हट कर अदर की ओर मुड़ी, या यो कहिए कि जब साधक विश्व के मूल को बाहर नही,अपितु अपने भीतर ही गोधने लगा, तब उसने प्राण $ तत्त्व को मौलिक तत्त्व के रूप में स्वीकारा । और प्राण तत्त्व से विकास करके वह ब्रह्म या आत्माद्वैत तक पहुच गया हो, ऐसा लगता है। - आत्मिक चिन्तन की उत्क्राति के इस स्वरूप का समर्थन आत्मा से संबद्ध मिलने वाले विभिन्न नामो से होता है। प्राचारांग सूत्र में जीव के लिए भूत, सत्व. प्राण जैसे शब्दो का जो व्यवहार देखने को मिलता है, वह चिन्तन धारा के आत्मा तक पहुचने के इतिहास को प्रस्तुत करता है । प्राचीन विचारक किसी एक तत्त्व को ही विश्व का मूल या मौलिक तत्त्व मानते थे। उन्होने दो या दो अधिक मौलिक तत्त्वो को कभी नही स्वीकारा । अत उन्हें हम आत्म अद्वैतवादी कह सकते हैं। इस आत्म अद्वैत विचार धारा के समय मे एवं उससे भी पहले ई छान्दोग्य उपनिषद्,३,१९,१. छान्दो०६,२. । छान्दो० १,९,१;७,१२. ६ छान्दो०,१,११,५४,३,३,३,१५,४. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर द्वैत विचारवारा भी प्रवाहमान थी । इस के प्रमाण पाली त्रिपिटक, जैन ग्रागम एव सांख्य दर्शन आदि ग्रन्थो मे भरे पड़े है । बोद्ध, जैन और साख्य के विचार में विश्व के मूल में केवल एक ही जड या चेतन मौलिक तत्त्व नही, बल्कि जड़ और चेतन ऐसे दो मौलिक तत्व हैं, जिसके आधार पर यह विश्व खडा है । जैनो ने उसे जीव और जीव के रूप मे स्वीकार किया, साख्य ने पुरुष और प्रकृति के रूप में माना और बौद्धों ने उसे नाम और रूप कहकर पुकारा । सांख्य जैनो की तरह व्यक्ति भेद से अनेक जीव चेतन मानता है । परन्तु यह प्रकृति- जड़ को एक मूल तत्त्व मानता है । जैन चेतन की तरह जड़ को भी एक नहीं, अनेक तत्त्व स्वीकार करते हैं। न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन भो जड प्रौर चेतन दो तत्त्व मानते हैं श्रीर जड को सांख्य की तरह एक मौलिक तत्त्व न मान कर जेनों को तरह अनेक तत्त्व स्वीकार करते है । ये सभी बहुवादी आत्मा को मानते हैं, परन्तु कुछ ऐसे बहुवादियों का वर्णन भी मिलता है, जो आत्मा को स्वतन्त्र एव मौलिक तत्त्व नही स्वीकार करते । दार्शनिक टीका ग्रन्थो एव आगमो मे चार्वाक, नास्तिक, वार्हस्पत्य और लोकायत आदि मतो का खण्डन करते हुए लिखा है कि इन लोगो की मान्यता है कि इस लोक मे पृथ्वी, आप, तेज, वायु और आकाश ये पाच महाभूत है और इन से एक ग्रात्मा उत्पन्न होता है और उनके नाश के साथ आत्मा का भो नाश हो जाता है, आत्मा नाम का कोई मौलिक एव स्वतन्त्र तत्त्व नही है 8 । ६६. - इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि आत्म स्वरूप की मान्यता win § सूत्रकृताग १, १, १, ७-८ 1 " Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय मे जो विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है, उस मे चिन्तन का एक विकास क्रम सन्निहित है । उपनिषद् मे यह विकास क्रम और स्पष्ट हो जाता भृतवादी मनुष्य ने पहले वाह्य शक्तियो की महान् ताकत को देख कर उन्हे विश्व का मूल कारण माना हो ऐसा लगता है । परन्तु मनुष्य को इतने मात्र से सतोष नही हुया, उसने अपना ध्यान दुनिया के भौतिक पदार्थों पर से हटा कर अपने अदर लगाया, तो उसे जीवन मे महान् स्फूर्ति का दर्शन हुआ । उस ने अन्य भौतिक पदार्यों को अपेक्षा अपने अन्दर अधिक स्फूर्ति का अनुभव किया। और वह इस निर्णय पर पहुँचा हो कि मेरा शरीर ही आत्मा है । देह के अतिरिक्त कोई आत्म तत्त्व हो ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। छान्दोग्य उपनिषद् मे एक कथा दी है कि असुरो मे वैरोचन और देवो मे से इन्द्र प्रजापति के पास आत्म स्वरूप जानने को गए। प्रजापति ने उन के सामने दो पानी से भरे वर्तन रख कर उस मे देखने को कहा और फिर पूछा कि तुम क्या देख रहे हो? दोनो ने उत्तर दिया कि नख से ले कर शिखा तक अपना ही स्वरूप । प्रजापति ने कहा, बस यही आत्मा है। इस से असुरों को तो सतोष हो गया, वे देह का परिपोषण करने मे व्यस्त रहने लगे, परन्तु इन्द्र को इस उत्तर से सतोप नही हुआ । देहवादियो की मान्यता है कि अन्न से ही शरीर वना है और अन्न से ही वह वढता है, अत. आत्मा अन्नमय ही है "अन्नमय एव प्राणा"*। जैन और बौद्ध दोनो के शास्त्रो मे इस मत को तज्जीवतज्छरी* तैत्तरीय २,१,२। wrimum mmmmmmam Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नों के उत्तर ६५ anmmmmmmmmar रवादी कहा है। वौद्धो के दीघनिकाय और जनो के रायपसणीय मूत्र मे नास्तिक राजा प्रदेशी का विस्तृत वर्णन मिलता है कि वह अात्मा को देह से भिन्न नही मानता था। उस ने आत्मा को खोजने के लिए अनेक प्रयत्न किए फिर भी वह उस में असफल रहा। इस का कारण स्पष्ट है कि वह आत्मा को देह या भौतिक तत्त्व मान कर ही अन्वेपण करता रहा, उस को साकार रूप में पाने का प्रयत्न करता रहा । यदि वह आत्मा को चेतन, अमूर्त एव शरीर से पृथक मान कर उस का अन्वेषण करता, तो उस के अन्वेषण की प्रक्रिया और ही होती। फिर वह उसे देह मे नही शोधता, बल्कि अपने अदर झाक कर देखता, चिंतन की गहराई मे पहुचने का प्रयत्न करता । जैसा कि केगो घमण के प्रतिवोध के बाद उसने प्रयत्न किया था और वह उस मे सफल भी रहा। इस तरह कुछ विचारक देह को ही प्रात्मा मानते थे। उन को स्थूल दष्टि शरीर के आगे नहीं देख सकी और न उनका चिन्तन ही आत्मस्वरूप तक पहुच सका। प्राणात्मवादी कुछ विचारको ने देह को ही आत्मा माना । परन्तु, कई चिंतको को इतने मात्र से सतोष नही हुआ। वे जरा चिन्तन की गहराई में उतरे, तो उन का ध्यान-सवसे पहले प्राण की तरफ गया । निद्रा के समय गरीर और इन्द्रिए सो जाती है, तव-भी प्राण जागृत रहता है अर्थात् श्वोसोच्छवास निरन्तर चलता रहता है, उसका कार्य-उस समय भी बन्द नही होता । अत. उनकी दृष्टि प्राण तक पहुची और उन्होने प्राण को आत्मा स्वीकार किया। शरीर का बहुत कुछ कार्य इन्द्रियो पर आधारित है । इसलिए Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय कुछ साधको की दृष्टि इन्द्रियो पर भी गई और उन्होने इन्द्रियो को श्रात्मा माना । बृहदारण्यक मे इस का स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि इंन्द्रिया स्वय कार्य करने में समर्थ है। इस तरह इन्द्रियो को आत्मा मानने की परपरा चली । इस का खण्डन दार्शनिक एव टीका ग्रन्थो मे मिलता है। इस से यह स्पष्ट है कि किसी समय किसी व्यक्ति की यह मान्यता रही हो। इस मत के विचारकों का यह विश्वास था कि मृत्यु प्राण की नहीं, बल्कि इन्द्रियो की होती है । मृत्यु इन्द्रियो को थका देती है, शिथिल कर देती है और निष्प्राण बना देती है। इस तरह इन्द्रियो के मध्य मे निवसित प्राण का मृत्यु कुछ 'नही विगाडती। इन्द्रियों की गति बन्द होने के कारण प्राण रुक जाता है और मनुष्य मर जाता है। इस प्रकार इन्द्रियो ने ही प्राण का स्थान ले लिया और' ये ही आत्मा मानी जाने लगी । जैनागमो मे भी दस प्राण मे इन्द्रियो को भी प्राण माना है, परन्तु उन्हे आत्मा से भिन्न स्वीकार किया है। - मनोमय आत्मा । . मानव चिन्तन इन्द्रियो और प्राण तक ही सीमित नही रहा। वह आगे भी सोचता रहा और उसी चिन्तन की गहराई मे उसने मन को देखा। वह सोचने लगा मन इन्द्रियो एव प्राणो से भी महत्त्वपूर्ण है । इन्द्रियो एव प्राण का सचालक मन ही है। मन का सम्पर्क होने पर ही इन्द्रिया अपने विषय को ग्रहण कर सकती है, उस के अभाव मे कोई इन्द्रिय किसी विषय को ग्रहण करने मे स्वतन्त्र नही है, अत मन ही आत्मा है या विश्व का मूल तत्त्व है। - यह नित्तात सत्य है कि इन्द्रिय एव प्राण की अपेक्षा मन सूक्ष्म है। परन्तु वह भौतिक (जड) है या अभौतिक (चैतन्य) इस विषय Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर rrammarrrrrrram को लेकर दार्शनिको मे काफी मनभेद रहा है। फिर भी इतना तो मानना होगा कि कुछ विचारक मन को अभौतिक मानते थे । न्यायवैशेषिक दर्शन मे मन को अणु मानते हुए भी उसे पृथ्वी आदि भूतो के अणु से विलक्षण माना है । साख्य दर्शन ने ऐसा माना है कि जीवन मे भूतो की निप्पति होने से पहले ही प्राकृतिक अंहकार मे से मन का उद्भव हो जाता है, इस से भूतों की अपेक्षा मन की मूढमता का सवेत मिल ही जाता है । वैभाषिक बौद्धो ने तो मन को विज्ञान का समनन्तर कारण स्वीकार किया है । तैत्तरीय उपनिपद् मे "अन्योन्तरात्मा मनोमय.” इस वाक्य से मन को आत्मा माना है। बृहदारण्यक* एव छान्दोग्य उपनिषद् मे मन को परम ब्रह्म सम्राट और ब्रह्म कहा है। इस तरह कुछ विचारक मन को अभौतिक तत्त्व के रूप मे स्वीकारते थे । जैनो ने इन्द्रियो की तरह मन को भी प्राण माना है और १० प्राणो मे उसका भी समावेश किया गया है।। और उसे सव से सूक्ष्म माना है फिर भी उसे भौतिक ही माना है। क्यो कि अन्य इन्द्रियो की तरह उसका निर्माण भो. परमाणु के समूह रूप स्कधो से होता है। * न्याय सूत्र, ३, २. ११; वैशेषिक सूत्र, ७, १,२३ । ६ पण्णामनन्तरातीन विज्ञानं यद्धि तन्मन । - -अभिधर्मकोष, १, १७ . * वृहदा० ४, १,६। ६ छांदो० ७,३,१। । श्रुत इन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय, घ्राण इन्द्रिय, रसना इन्द्रिय, मन, वचन, काया, श्वासोच्छवास और आयुष्य बल प्राण । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RARAM unarwase n - - -- - - ------ -- ७१.wwwww द्वितीय अध्याय जब विचारकों ने मन के आगे सोचना शुरु किया तो उन्हे लगा कि मन भी स्वय निर्णय करने में समर्थ नहीं है, वह भी किसो के द्वारा संचालित है । मन और प्राण प्रज्ञा के द्वारा ही अपने - अपने विपय की जानकारी कर सकते है । अत कौषीतको उपनिषद् मे प्राण को प्रजा या प्रजा को प्राण कहा गया हैं *। इसी तरह तैत्तरीय उपनिषद् में विज्ञानात्मा को मनोमय प्रात्मा कहा है और ऐतरेय उपनिपद् में प्रज्ञान ब्रह्म की जो पर्याये गिनाई गई हैं, उस में मन भी शामिल है । इस से स्पष्ट होता है कि मन के साथ प्रजा, प्रज्ञान और विज्ञान का सवध रहा हुआ है । उक्त तीनो गन्द एकार्थक हैं । मन भी सूक्ष्म है, परन्तु उसे कुछ दार्गनिक भौतिक मानते हैं और कुछ अभौ-- तिक । पर जव से प्रजा, प्रज्ञान या विज्ञान को प्रात्मा माना जाने लगा तव से आत्मा को भौतिक से अभौतिक मानने लगे। ____ प्रज्ञा को इन्द्रियो का अधिष्ठाता अवश्य माना गया परन्तु अभी तक प्रजा के स्वयं प्रकाशक रूप की ओर किसी का ध्यान नही गया। वह सव इन्द्रियो का स्वामी है, फिर भी इन्द्रियो को सहायता के विना किसी विषय की जानकारी नहा कर सकता। सुषुप्तावस्था मे इन्द्रिय सुप्त रहती है, अत. उस समय ज्ञान नहीं होता। इसी तरह दूसरे जन्म मे जब तक इन्द्रियो की प्रांति नहीं हो जाती,तबतक प्रज्ञा अपना काम नहीं कर सकती । इन्द्रिया प्रज्ञा के आधीन है,ऐसा मानने पर भी यह कहा जाता है कि वह इन्द्रियो के सहयोग विना कुछ भी नहीं कर सकती। इस का कारण यह है कि उन्होंने प्रज्ञा और प्राण को एक माना है और जव तक प्राण को ही प्रज्ञा मानने का आग्रह है, तब तक * यो वै प्राण, सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राण mm . . -- - - . .. कौषीतकी, ३, २, ३,३। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMAVAN प्रस्नो के उत्तर ७२.. उन्हे प्रजा का स्वय-प्रकाशक रूप ध्यान में न पाए, यह स्वाभाविक जैनो ने प्राण और प्रजा को नित्र माना है । प्राण परमाणु के समूह से दना स्कय है और प्रना चा जान यात्मा का गुण है। प्राणो की मस्या बदल भी सकती है, कभी कम - ज्यदा भी हो सकता है और कभी उसका अभाव भी हो सकता है (निन्द्ध अवस्था में) परन्तु जान आत्मा में सदा काल बना रहता है, उम का प्रभाव कभी नहीं होता । अत. प्राण एव प्रना एक नही, भिन्न तत्त्व हैं। प्रज्ञा का काम जानना है। इसलिए वह स्वय प्रकागक है । जो जान स्वयं को नही जानता वह पर को भी नहीं जान सकना । जैसे दीपक दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी तरह अपने को भी प्रकागित करता है। जैसे दीपक या सूर्य को देखने के लिए दूसरे दीपक या सूर्य को लाने की आवश्यकता नहीं होती है। इसी तरह स्वय को जानने के लिए दूसरे के जान को भी आवश्यकता नहीं है। उस का अपना जान स्वयं को भी देखता-जानता है और पर को भी। जो ज्ञान पर को जान सकता है पर स्वय को नहीं जानता, वह ज्ञान नहीं हो सकता। क्योकि जो पर को जानेगा वह स्वयं को भी देखेगा ही अर्थात् यो भी कहा जा सकता है कि स्वय को जाने विना पर का ज्ञान नही होता। - इतना होते हुए भी अन्वेषण चलता रहा और जब आत्मा के शुद्ध चैतन्य एवं आनन्द रूप तक पहुंचे तो कहा गया कि आत्मा- अन्नमय प्रात्मा अर्थात् जिसे शरीर कहते है,उससे पृथक है। शरीर रथ है और उस रथ को चलाने वाला रथी रथ से भिन्न है। उसी तरह इस शरीर का संचालक ही प्रात्मा है । आत्मा और शरीर दोनो पृथक हैं। आत्मा के अभाव मे इन्द्रिए एवं प्राण कुछ नहीं कर सकते। इसलिए आत्मा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www ७३ द्वितीय अध्याय प्राण का भी प्राण है। प्रश्नोपनिषद मे यहां तक कहा गया कि प्राण का जन्म आत्मा से ही होता हैं। इस तरह आत्मा को शरीर, प्राण, मन और इन्द्रियो से पृथक और उन सव का सचालक माना गया । और उसे पुरुष, चेतन, ब्रह्म, आनन्द आदि नामो से पहचाना गया है । - उस पुरुष या आत्मा को अजर, अक्षर, अमृत, अमर अव्यय, अज, नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अनन्त माना है । और यह भी माना है कि वह अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, अरस, नित्य, अगन्धवत्, अनादि, अनन्त, महत् तत्त्व से परे, घ्र व है । ऐसे आत्मा को जानसमझ कर मनुष्य मृत्यु के मुख मे से मुक्त हो जाता है। उपनिषदों का आत्मवाद एवं तथागत बुद्ध का अनात्मवाद जब हम आत्मा के विकास क्रम पर दृष्टि डालते है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि पहले पहल विचारको की दृष्टि वाह्य पदार्थों पर अटकी रही। उसके बाद चिन्तन बढता गया और विचारको ने शरीर, प्राण, इन्द्रिय एव मन से अतिरिक्त आत्म तत्त्व को स्वीकार किया। और यह भी माना कि वह इन्द्रिय ग्राह्य नही बल्कि अंतीन्द्रिय है । इस बात को मानने के बाद उसके स्वरूप को जानने की इच्छा जागृत हुई और सभी विचारको ने आत्मा के स्वरूप को जानने एव उस की व्याख्या करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी । और उस मे वे इतने तल्लीन हो गए कि आत्मानन्द के सामने उन्हे सारे सुख फीके लगने लगे । यहा तक कि आत्म विद्या के सामने स्वर्ग के सुख भी तुच्छ प्रतीत होने लगे। अत. आत्मा की शुद्ध ,ज्योति का दर्शन करने के लिए उन्होने ससारिक ऐश्वर्य एव सुख साधनो को त्याग कर कठोर तपश्चर्या ommmmmmmm ६ कठोपनिषद्, ३,२। M ~ ~ ~ ~ * वही, १, ३, १५। . Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ७४ के मार्ग को सहर्ष स्वीकार किया। नचीकेता जैसा सुकुमार वालक भी मृत्यु के बाद आत्मा की क्या स्थिति होती है,इसे जानने के लिए इतना व्याकुल हो उठा कि उसे धन-सपति एवं स्वर्ग का विपुल एश्वर्य भी भुलावे मे नही डाल सका । आत्म विद्या को जानने के लिए वह यमराज के सारे प्रलोभनो को ठुकरा देता है । मैत्रेयी के सामने भी- जव अपने पति की सपति का अधिकार लेने का प्रसग पाया, तो उसने उस प्रस्ताव को ठुकरा कर आत्म विद्या की शोध में अपना जीवन लगाना चाहा । उसने स्पष्ट शब्दो मे कहा कि जिस धन-वैभव से मैं अमर नही वन सकती उसे लेकर क्या करू? उसने अपने पति से कहा कि आप मुझे वह विद्या सिखाएं, जो मुझे अजर-अमर बना सके। ____ इस तरह वाह्य सुखो से हटकर आत्म तत्त्व को जानने की प्रवल जिज्ञासा विचारको मे बढने लगी। और परिणाम स्वरूप वैदिक क्रिया-काण्ड के प्रति विचारकों की अरुचि होने लगी। वे अपना ध्यान शुष्क-क्रिया काण्ड से हटा कर आत्मा के प्रत्यक्षीकरण मे लगाने लगे। परन्तु आत्मा के अमूर्त स्वरूप-को प्रत्यक्ष में न देख सकने के कारण विचारको में आत्म स्वरूप के विषय मे एक रूपता नहीं रही। जिस विचारक के चिन्तन में जो कुछ सूझा उसी का उस ने प्रतिपादन किया। इससे कुछ विचारकों के मन में आत्म तत्त्व के विरुद्ध प्रतिक्रिया होने लगी। तथागत बुद्ध के विचारो-मे-यह प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। क्योकि सभी उपनिषदों का सार यह है कि विश्व के मूल में एक शाश्वत आत्मा - ब्रह्म तत्त्व है, और कुछ नहीं । उपनिषद् के ऋपियो ने यहा तक कह दिया कि जो व्यक्ति अद्वैत तत्त्व को न मान कर द्वैत या भेद की कल्पना करते हैं, अपने सर्वनाश को निमन्त्रण देते Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ द्वितीय अध्याय 1 हैं । इस तरह के एकान्त नित्य- शाश्वत और अद्वैत ग्रात्म स्वरूप की मान्यता वढने लगी । और विचारक स्पष्ट दिखाई पडने वाले द्वैत को मिथ्या वताने लगे, तब उस का विरोध होने लगा । तथागत बुद्ध विरोधी के रूप में सामने आए। यह बात अलग है कि उन्हे अनात्मवाद के सिद्धात को फैलाने में कितनी सफलता मिली। इसका मूल्यांकन करना ऐतिहासिको का काम है । हम तो यहा इतना ही वताना चाहते है कि तथागत बुद्ध ग्रात्म विरोधी चिन्तन लेकर मैदान में उतरे और उनने वजनदार शब्दों में अद्वैतवाद एवं नित्यवाद का खण्डन किया । . तथागत बुद्ध आत्म तत्त्व को विल्कुल स्वीकार नही करते है । परन्तु उपनिषदो मे आत्मा को जिस प्रकार से एकान्त नित्य, अद्वैत और विश्व का एकमात्र मौलिक तत्त्व माना गया है, बुद्ध ने उस का वि रोध किया है और उन्होने वजनदार शब्दो मे वहा है कि आत्मा एकान्त नित्य नही है | यदि उसे एकात नित्य माना जाए तो उस मे कार्यकारित्व भाव घट नही सकेगा । 1 आगमो एव दार्शनिक ग्रन्थो मे वर्णित भूतवादियो एव चार्वाक आदि के अनात्मवाद और बुद्ध के अनात्मवादके सिद्धात मे - इतना हो साम्य है कि दोनो पक्ष आत्मा को सपूर्ण रूप से स्वतन्त्र द्रव्य और नित्य या गाश्वत नही मानते । उभय पक्ष इस बात मे भी सहमत है कि आ त्मा उत्पन्न होता है । परन्तु बुद्ध और चार्वाक की मान्यता मे भेद. यह है कि बुद्ध पुद्गल - आत्मा, जीव या चित्त नाम की एक स्वतन्त्र मनसैवानुद्रष्टव्य नेह नानास्ति किंचन । § मृत्योस मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ っ – वृहदा ०.४, ४, १९, कठो० ४, ११ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर - वस्तु भी मानते है और भूतवादी चार या पाच भूत से अतिरिक्त श्रात्मा नाम की किसी स्वतन्त्र वस्तु को नही मानते । बुद्ध भी जीव या पुद्गल को अनेक कारण से उत्पन्न होने वाला मानते हैं और इस कारण उसे परतंत्र भी मानते हैं परन्तु उसकी उत्पति मे विज्ञान (चैतन्य) और विज्ञानेतर दोनों प्रकार के कारण मौजूद रहते हैं । जबकि भूतवादियो का कहना है कि चार या पांच भूतो के अतिरिक्त कोई भी चैतन्य कारण नही है, जिससे ग्रात्मा की उत्पत्ति होती है । बुद्ध चार या पांच भूतो की तरह विज्ञान को भी एक मूल तत्त्व मानते हैं और वह जन्य होने से अनित्य है, अशाश्वत है । और वे चैतन्य - विज्ञान की सन्तति को ग्रनादि मानते हैं । जलवार की तरह वह एक रूप से परिलक्षित होने पर भी एक दूसरे जल विन्दु की तरह भिन्न है । ऐसी विज्ञान धारा कोबुद्ध ने माना है, परन्तु भूतवादियो को किसी भी तरह की भूतेतर चैतन्य शक्ति मान्य नही है और न वे विज्ञानवारा को ही मानते हैं । ७६ तथागत बुद्ध ने रूप, वेदना, सजा, सस्कार, विज्ञान, इन्द्रियो, इन्द्रियो के विषय और उन से होने वाले ज्ञान, मन, मानसिक धर्म और मनोविज्ञान इन सभी विषयो पर सोचा- विचारा है और अन्त मे सभी को अनित्य, दुख और अनात्म रूप से बताया हैं । वे अपने मे पूछते हैं कि उक्त विषय नित्य है? तो उत्तर मिलता कि नही अर्थात् - दुनिया मे कोई भी वस्तु नित्य नहीं है । तब फिर पूछते कि अनित्यं वस्तु सुख रूप होती है या दुख रूप ? उत्तर मे कहते हैं - दुख रूप । तब फिर प्रश्न होता क्या दुःख रूप तत्त्वं आत्मा हो सकते हैं ? उत्तर निषेव की भाषा में होता अर्थात् ये सारे विषय ग्रनात्मा है । ससार में शाश्वत सुख रूप आत्मा जैसी कोई चीज ही नही है, यह वात वे Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ द्वितीय अध्याय ~ ~ श्रोताओं को समझा देते थे। तथागत बुद्ध अनात्मवादी है परन्तु उच्छेदवादी नही, क्योकि वे चार्वाक आदि की तरह एकान्तत आत्मा का उच्छेद नहीं करते। बुद्ध को चार्वाक का एकान्त देहात्मवाद भी मान्य नही और उपनिषद का एकान्त सर्वान्तर्यामी नित्य, घ्र द, शाश्वत आत्मा भी मान्य नहीं । उन के विचार मे पात्मा शरीर से एकान्त अभिन्न है ऐसा भी कहना उचित नहीं और एकान्त भिन्न ऐसा मानना भी उपयुक्त नहीं। उन्हे भूतवादियों का भौतिकवाद भी एकान्त प्रतीत होता है और उपनिषद् का कूटस्थ नित्य पात्मवाद भी एकांत दिखाई देता है । इसलिए उन का मार्ग दोनों वादों के बीच का या मध्यम मार्ग है । जिसे वे 'प्रतीत्यसमुत्पादवाद'- अमुक वस्तु की अपेक्षा से अमुक वस्तु का निर्माण हुआ ऐसा कहते हैं। बुद्ध के मत में संसार में सुख-दुख आदि अवस्थाएं, कर्म, जन्म, मरण, वन्ध-मुक्ति आदि सभी बातें हैं। परन्तु इन सब का कोई स्थिर आधार नहीं। ये सव अवस्थाए पूर्व पूर्व के कारणों से उत्पन्न होती हैं और एक अभिनव कार्य को उत्पन्न करके नष्ट हो जाती है। बुद्ध को न तो पूर्व के कार्य का सर्वथा उच्छेद इप्ट है और न नित्यत्व ही इष्ट है। पदार्थ की उत्तर अवस्था पूर्व से सर्वथा- असर्वद्ध है, अपूर्व है ऐसा भी नही कहा जा सकता । क्योकि उभय अवस्थाएं कार्य-कारण को शृखंला में आवद्ध है। पूर्व की पर्यायो का संस्कार उत्तर की पर्यायो को मिल जाता है, इस से वे तद्रूप ही हैं अथवा उत्तर पूर्व से अभिन्न है, ऐसा भी उन्हें इष्ट नहीं हैं, क्योकि इस सिद्धांत को मानने से द्रव्य का नित्यत्व सिद्ध हो जाता है। इससे बुद्ध के क्षणिकवाद को गहरा धक्का पहुचता है । अतः बुद्ध ने यह कर इस प्रश्न को टाल दिया कि पूर्व * देखो सयुनिकाय १२ ७०, दीघनिकाय-महानिदानसुत, १५ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर अवस्था उत्तर अवस्था से न तो सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न है, परन्तु अव्याकृत है $ | दार्शनिकों का आत्मवाद उपनिषद् काल के वाद अनेक वैदिक दर्शनो की परपरा स्थापित हुई है । और आत्मा के सबध मे उन का दृष्टिकोण उपनिपदों से भिन्न रहा है। उपनिषदों मे भी अनेक विचार पपराए सुरक्षित है, परन्तु उन सव में एक-वात सामान्य रूप से पाई जाती है, वह है अद्वैतवाद | भले ही भूतवादी हो या चेतनवादी, सभी विश्व के मूल मे भूत या चेतन एक ही तत्त्व मानते हैं । ऋगवेद मे भी विश्व के मूल तत्त्व को एक माना है, परन्तु उन्होने उसका भूत या चेतन नाम नही रखा । ब्राह्मण काल मे उसे प्रजापति का नाम दिया गया और उपनिपदो मे उसे सत् असत्, आकाश, जल, वायु, प्राण, मन, प्रज्ञा, ग्रात्मा, ब्रह्म आदि अनेक नाम से जाना-पहचाना गया । परन्तु सभी विचारको ने अद्वैतवाद को नही छोडा। परन्तु वैदिकं दर्शन मे सभी को अद्वैतवाद स्वीकार नही है । न्याय-वैशेषिक, साख्य, पूर्व मीमासा आदि दर्शनो ने विश्व के मूल मे जड़ और चेतन दो मूल तत्त्वो को स्वीकार किया है और आत्मा को भी एक नहीं, अनेक माना है तथा जड से भिन्न चेतन स्वरूप स्वीकार किया है । जैन दर्शन ने भी विश्व के मूल मे जीव और अजीव या जड़ और चेतन दो मौलिक तत्त्वो को स्वीकार किया है | चेतन के शुद्ध स्वरूप को अमूर्त माना है। फिर भी सासारिक आत्माओ को मूर्त और अमूर्त दोनो $ मिलिन्द प्रश्न २, २५-३३ ।_ * तदेक । ' - ऋगवेद १०,१२९ ७८ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ द्वितीय अध्याय रूप मे स्वीकार किया है । ज्ञानादि गुणो की अपेक्षा या आत्म द्रव्य की अपेक्षा वह अमूर्त है, परन्तु कर्म के साथ सवद्ध होने से वह व्यवहार दृष्टि से मूर्त भी है। बुद्ध ने भी पुद्गल (आत्मा) को मूर्त और अमूर्त कहा है। परन्तु अन्य सभी दार्शनिको ने चेतन को अमूर्त ही माना है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के मूल मे भूत (जड़) या चेतन एक ही तत्त्व नहीं, बल्कि जड़ और चेतन दो मौलिक तत्त्व हैं और दोनो ही तत्त्व स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अात्मा एक हैं या अनेक . यह हम ऊपर स्पष्ट वता आए हैं कि उपनिषद् काल मे अद्वैतवाद का महत्त्व रहा है। वेदात में भी अद्वैतवाद ही देखने को मिलता है। आचार्य शकर ने भी ब्रह्मसूत्र भाष्य में अद्वैतवाद को हो परिपुष्ट किया है। सभी ने एक प्रात्मा के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है, परन्तु दुनिया में जो अनेक आत्माएं स्पष्ट परिलक्षित हो रही थी, उन का वे एकदम तिरस्कार नही कर सके। इस की झलक हमे ब्रह्मसूत्र की विभिन्न व्याख्यानो मे स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। परन्तु इन सब व्याख्याकारो मे एकमत नहीं रहा, इस से वेदात दर्शन मे हमें विचार भेद से अनेक परपराए दृष्टिगोचर होती है। अन्य वैदिक दर्शनो ने भी आगम के रूप में वेद और उपनिषदो को माना है। परन्तु उन्ही को अक्षरश. आधार मान कर अपने दर्शन शान स्त्रो की रचना नही की। इससे उन दार्गनिको ने भी जैनो की तरह जड. और चेतन दो तत्त्वो तथा अनेक प्रात्माओ के सिद्धांत को माना । इस से स्पप्ट है कि ये वैदिक दर्शन वेद वाह्य विचारधारा से प्रभावित हुए. हैं। इन पर प्राचीन साख्य एवं जैनो का असर मालूम होता है। प्राचीन साख्य दर्शन जैन दर्शन के काफी निकट था। उस समय वह वेद बाह्य । दर्शन गिना जाता था। बाद के विचारकों ने उसे वैदिक विचाराधार Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर का कुछ पुट देकर वैदिक दर्शन का रूप दे दिया। यह एक ऐ हासिक तथ्य है औ सभी इतिहासवेता इस बात से भली-भाति परिचित है। वेदान्त में विभिन्न विचार भेद .. शंकराचार्य का मायावाद . आचार्यगकर का मानना है कि वास्तव मे ब्रह्म एक ही है, ससार में और कोई मूल तत्त्व नही है। एक ब्रह्म होते हुए जो अनेक जोवात्मा दिखाई देती है, वह अज्ञान एव माया के कारण परिलक्षित होती है। जैसे रज्जू मे सर्प का ज्ञान भ्रम से होता है, उसी तरह अनेक जीवो का जो भान होता है, वह भी भ्रम है। जवकि रज्जू सर्प नही, न सर्प रूप से उत्पन्न ही हो सकती है और न वह-सर्प को उत्पन्न हो करती है. फिर भी उसमे सर्प का भ्रम होता है । इसी तरह ब्रह्म न तो अनेक . जीव रूप से उत्पन्न होता है और न अनेक जोवो को उत्पन्न करता है, फिर भी संसार मे अनेक जीव दृष्टिगोचर होते है, यह अविद्या है, माया है। इस प्रकार अनेक जीव मायिक है, मिथ्या हे । इसी कारण उन्हे बह्य का विवर्त कहते हैं। जव तक अज्ञान है,तव तक अनेक जीव दिखाई देते है। अज्ञान का पर्दा फटते ही जीव ब्रह्म स्वरूप मे मिल जाता है, फिर द्वैत नहीं रह जाता। इस तरह प्राचार्य शकर के मत को 'केवलाद्वैतवाद' कहते हैं। क्योकि यह केवल ब्रह्म को ही सत्य मानता है,और किसी को नही । आचार्य गकर की दृष्टि से सारा संसार मिथ्या है, भ्रम है, माया है । 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या यह इनकी मान्यता है। इसलिए इन के मत को मायावाद भी कहते हैं। - - - - - mmmmmmmmmmmmmmmmmm. ६एको ब्रह्मा द्वितीयो नास्ति। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय व्याय सत्योपाधिवाद भास्कराचार्य ने आचार्य शकर से विपरीत दिशा मे सोचा है । भास्कराचार्य भी एक ब्रह्म को मानते है, परन्तु प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले अनेक जीवो को प्राचार्य शंकर की तरह मिथ्या नही मानते । श्राचार्य भास्कर की मान्यता है कि निरुपाधिक ब्रह्म अनादि कालीन सत्य उपाधि के कारण अनेक जीव रूप में प्रकट होता है । नित्य, शुद्ध, मुक्त और कटस्य ब्रह्म जिस कारण से अनेक जोवो के रूप में अवतरित होता है, उसे उपाधि कहते हैं । उस उपाधि के कारण से ब्रह्म ग्रनेक जीवो के रूप में दिखाई देता है, इस से उन्हे श्रीपाविक रूप से जीव समझना चाहिए । अर्थात् जब वे निरूपाधिक हो तब उन्हे ब्रह्म और सोपाधिक हो तब जीव कहना मानना चाहिए। प्राचार्य भास्कर इस उपाधि को सत्य मानते हैं, इस कारण उनके मत को भी 'सत्योपाधिक' कहते हैं । ८१ 3 WWWWW विशिष्टाद्वैतवाद प्राचार्य रामानुज के विचार से ब्रह्म-कारण और कार्य दोनों है । सूक्ष्म चिद् और ग्रचिद् की दृष्टि से विशिष्ट ब्रह्म कारण र स्थूल चिद् और अचिद् की अपेक्षा से वह कार्य है । दोनो विशिष्टो को एक्य मानने के कारण रामानुज के मत को विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं । क्योकि ब्रह्म के सूक्ष्म चिद् के विभिन्न स्थूल परिणाम स्वरूप अनेक जीव हैं और उस का सूक्ष्म चिद्रूप स्थूल जगत के रूप में प्रकट होता है । जीव अनेक हैं, नित्य हैं, अणुपरिमाण हैं और जीव एत्र जगन ब्रह्म का ही कार्य होने से मिथ्या नही, सत्य है । मुक्त अवस्था में जीव ब्रह्म रूप बन कर उसके सान्निध्य मे रहता है । जीव और ब्रह्म दोनो कार्य-कारण रूप से भिन्न होते हुए भी एक हैं। क्योंकि कार्य कारण का ही परिणाम Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर है । दोनो एक हैं, अद्वैत है । द्वैताद्वैत- भेदाभेदवाद श्राचार्य निम्बार्क की दृष्टि से चित् और अचित् ये ब्रह्म के दो रूप है । उक्त दोनो रूप ब्रह्म से भिन्न भी हैं, और अभिन्न भी है । जिस तरह वृक्ष और पत्तों में, दीप और प्रकाश मे भेदाभेद है, उसी प्रकार ब्रह्म और चिद् एव प्रचिद् रूप दोनो मे भेदाभेद संबंध है । जगत ब्रह्म की शक्ति का रूप है, अत सत्य है । जीव ब्रह्म का ग्रश है और ग्री का भेदाभेद सवध है । ऐसे जीव अनेक है, नित्य है और अणुपरिमाण है । यह भी रामानुज की तरह मुक्त दगा में जीव का भेद मानते हैं, पर उसे ब्रह्म से भिन्न नही, ग्रभिन्न ही मानते है । अत इनके मत को द्वैताद्वैत या भेदाभेदवाद कहते हैं । भेदवाद · श्राचार्य माध्व वेदान्ती है, फिर भी उन का विचार अन्य वेदान्तियो से भिन्न दिशा मे प्रवहमान हुआ है । ब्रह्म सूत्र की व्याख्या उन्हो ने अपने विचार के अनुरूप की है । उन्होने ग्राचार्य गकर आदि के विचारो के खूटे से अपने दिमाग को बाध कर नही सोचा । यह सत्य है कि रामानुज यादि आचार्यो ने शंकर की तरह अनेक जीवो एव जगत को मिथ्या नही कहा है । परन्तु अद्वैत की सुरक्षा सब ने की है और सबने अद्वैत का ही समर्थन किया है । परन्तु आचार्य माध्व ने द्वैत का समर्थन किया है। उन्हो ने ब्रह्म को निमित कारण और जीव को उपादान कारण माना है । वे जीवो मे हो परस्पर भेद है इतना ही नही, परन्तु यह भी मानते हैं कि जीव ब्रह्म से भी भिन्न है । उन के विचार से जीव अनेक हैं, नित्य हैं, अणु परिमाण हैं । ब्रह्म की तरह जीव भी सत्य है, केवल वह उस के अधीन है ! २ www. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय AAAAAAw अविभागाद्वैतवाद विज्ञान भिक्षु का कहना है कि प्रकृति और पुरुष-जीव ब्रह्म से अलग दिखाई देने पर भी उससे विभक्त-अलग रह नहीं सकता। जीव अनेक है, नित्य है, व्यापक है। जीव और ब्रह्म का सवध पितापुत्र का-सा सवध है। जैसे जन्म के . पहले पुत्र पिता मे ही समाविष्ट था, उसी तरह जीव पहले ब्रह्म मे समाहित था। जन्म के समय वह ब्रह्म मे से प्रकट होता है और प्रलय के समय फिर से उसी मे लीन हो जाता है । ब्रह्म की इच्छा-याकाक्षा से जीव का प्रकृति के साथ सवध होता है और जगत की सृष्टि होती है। शैवमत वेदान्त एव उपनिषद् को मानने वालो के अतिरिक्त एक और दर्शन है, जो वेदान्त को न मानते हुए भी अद्वैतवाद को मानता है। वे शिव के उपासक शैव है और उनके दर्शन को 'प्रत्यभिज्ञा'दर्शन कहते है उनके विचार से ब्रह्म के स्थान में अनुत्तर नाम का एक तत्त्व है । यह तत्त्व सर्वशक्तिमान और नित्य है। उसे शिव और महेश्वर भी कहते है । जीव और जगत ये दोनो शिव की इच्छा से उसमे से प्रकट होते है। इस कारण जीव और जगत दोनो मिथ्या नही, सत्य है। जीव को एक और अनेक मानने के सवध मे समस्त दार्शनिको मे दो विचार धाराए काम कर रही है। उपनिषद्, वेदान्त-माध्वाचार्य को छोडकर और गैव अद्वैतवाद को मानते है और शेष न्याय-वैगेषिक, साख्य, पूर्व-मोमासक श्रादि वैदिक दार्शनिक और बौद्ध, प्राजीविक, जैन आदि अवैदिक दार्शनिक अनेक जीव मानते हैं अर्थात् द्वैतवाद को मानते है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. प्रश्नों के उत्तर जैनों का द्वैतवाद जैनो ने विश्व की रचना मे जीव और अजीव दो मूल तत्त्व माने है और जीव भी एक नही, अनेक माने हैं । विशेषावश्यक भाष्य में भगवान महावीर का शिष्यत्व स्वीकार करने के पहले इन्द्रभूति गौतम की शकाप्रो का निराकरण करते हुए भगवान महावीर ने विश्व के मूल मे एक ब्रह्म मानने की बात को तात्त्विक एव व्यवहारिक दृष्टि से अनुचित बताया और अनन्त जीवो के स्वतत्र अस्तित्व को वास्तबिक बताया। गौतम ने प्रश्न किया था कि जैसे लोक मे सर्वत्र एक आकांश व्याप्त है, उसी तरह नारक, देव, मनुष्य और तिर्यञ्च गतियो मे स्थित विभिन्न जीवो में एक ही आत्मा मान लें, तो क्या आपत्ति है ? इस का स्पष्टी करण करते हुए भगवान महावीर ने कहा- हे गौतम ! ऐसा होना संभव नहीं है। आकाश सर्वत्र एक इसलिए मान्य है कि उस मे सर्वत्र एक समान लक्षण पाया जाता है। परन्तु जीव या आत्मा के सवध मे ऐसी बात नहीं है। प्रत्येक जीव एक दूसरे से विलक्षण है। इसलिए उन्हे सर्वत्र एक है, ऐसा नही माना जा सकता। क्योकि लक्षण भेद से वस्तु का भेद स्वतः सिद्ध हो जाता है । इसका साधक प्रमाण इस प्रकार दिया जा सकता है- जीव अनेक-भिन्न हैं, क्यो कि उनमे लक्षण भेद है, जैसे-घट-पट आदि । क्योकि जो वस्तु भिन्नअनेक नही होती उसमे लक्षण भेद भी नही होता, जैसे- आकाश । यदि जीव को एक ही माना जाए तो फिर ससार-मोक्ष आदि की व्यवस्था वन ही नही सकेगी। और जो हम एक व्यक्ति को दुखी और दूसरे को सुखी तथा किसी को वन्धन युक्त और किसी को मुक्त-सिद्ध अवस्था मे देखते या अनुभव करते हैं, यह प्रत्यक्ष व्यवहार भी गलत Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ८५ ठहरेगा। क्योकि एक ही समय मे एक जीव सुखी और दूसरा दुखी रह नही सकता। इसी तरह एक वन्धन युक्त और दूसरा मुक्त भी नही बन सकता । क्योकि एक ही जीव मे, एक ही समय मे एक सुखी, दूसरा दुःखी यह विरुद्ध ग्रनुभूति नही हो सकती । परन्तु प्रत्यक्ष मे ऐसा देखा जाता है, प्रत जीव एक नही, विभिन्न हैं, अनेक हैं, ग्रनन्त हैं, ऐसा मानना चाहिए । इन्द्रभूति द्वारा दिया गया यह तर्क भी विचारणीय है कि आप ( महावीर ) जीव का लक्षण उपयोग मानते हैं और यह उपयोग लक्षण दुनिया के समस्त जीवो मे एक-सा है, तो फिर उन विभिन्न जीवो मे विलक्षणता एव अनेकता मानने का क्या कारण है ? उत्तर मे कहा गया कि सामान्य रूप से उपयोग लक्षण सभी जीवो मे समान है, फिर भी प्रत्येक जीव मे उपयोग भी विशेष विशेष प्रकार का परिलक्षित होता है या यो कह सकते हैं कि उपयोग का उत्कर्ष एव अपकर्ष जीवो मे ग्रनन्त प्रकार का देखा जाता है, इससे स्पष्ट है कि सभी जीवो का उपयोग अलग-अलग है । यदि सब जीवो को एक जीव रूप माना जाय तो सवका ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग एक समान होगा, परन्तु हम प्रत्यक्ष मे अनुभव करते हैं कि एक जीव का ज्ञान दर्शन रूप उपयोग दूसरे जीव से भिन्न है अर्थात् किसी मे ज्ञान का उत्कर्ष देखने को मिलता है, तो किसी मे पकर्ष | - 1 दूसरी बात यह है कि जीव को एक मान ले तो फिर उसे सर्व व्यापक भी मानना होगा, जैसे कि आकाश । और उसे सर्वं व्यापक मानने से यह दोष आएगा कि उसमे सुख-दुःख, वध-मुक्ति आदि बाते घटित नही होगी । एक जीव के दुखी होने पर सभी दुखी और एक के सुखी होते ही सव सुखी हो जाएगे। ऐसा कहना चाहिए कि आत्मा को एक मान लेने पर ससार में सुख रह ही नही जाएगा, समस्त ससारी जीव दुखी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ८६ ही नजर ग्राएगे। क्योकि संसार मे नारकी और तिर्यश्व जीव ही अधिक है और प्रायः ये सब दुखी होते हैं, प्रत. फिर तो सारा ससार दुःखी ही होना चाहिए। क्योकि किसी व्यक्ति के सारे शरीर मे रोग फैला हुआ हो और मात्र एक गुली ही रोग मुक्त रही हो, तो भी उस का साग शरीर रोग युक्त ही कहा जाता है । ग्रत ससार के अधिक भाग के जीव दु ख ग्रस्त होने से सभी जीव दुखी प्रतीत होने चाहिए, परन्तु व्यवहार मे ऐसा नही देखा जाता। एक के सुखी होने पर या मुक्त होने पर न दूसरा सुखी या मुक्त होता है और न एक के दुखी होने पर दूसरा दुखी ही होता है । इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि जगत के सभी जीव एक नही, अनेक हैं. स्वतन्त्र है । 1 AAMAN प्रश्न- जैन दर्शन जीवों को श्रनेक मानता है, परन्तु स्थानांग सूत्र में 'एग्गे श्राया' अर्थात् आत्मा एक है, ऐसा माना है । एक जगह आत्मा को एक मानना और दूसरी जगह अनेक मानना, क्या यह इस बात का प्रतीक नहीं कि जैनागमों में भी आत्मा के सम्बन्ध में एक मान्यता नहीं है । उत्तर- जनो की मान्यता एक रूप ही है । उसमे विरोध जैसी कोई वात नही है । श्रात्मा को जो एक और अनेक माना गया है उस मे केवल अपेक्षा भेद है, सैद्धान्तिक भेद या विरोध नही हैं। सिद्ध श्रोर ससारी सभी आत्माए प्रसख्यात् प्रदेशी है और सब का उपयोग लक्षण है । ऋत समान गुण की अपेक्षा से उन्हे एक कहा है और वह भी समान स्वरूप की अपेक्षा से न कि व्यक्ति की अपेक्षा से । यह हम $ विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १५८१ से १५८४ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय ग्रध्याय पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि जीव का उपयोग लक्षण सामान्य रूप से एक है, परन्तु विशेप दृष्टि से सब जीवो का उपयोग लक्षण उत्कर्ष एव अपकर्ष की अपेक्षा से अनेक प्रकार का है, अत. जैनो द्वारा मान्य एक एव अनेक ग्रात्मा के सिद्धात मे कोई विरोध नही है । स्वरूप मे समानता होने पर भी सव को अनुभूति पृथक पृथक है । अत जैनो का 'एग्गे आया' का सूत्र अनेक जीववाद को भी परिपुष्ट करता है । ७ - यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि यदि जीवो को एक नही अनेक मानेगे, तो फिर यह भी मानना होगा कि ससार एक दिन जीव रहित हो जायगा ? क्योकि जीव अनादि काल से मोक्ष जाते रहे है, अभी भी जाते है और भविष्य मे भी जाते रहेंगे । इस से एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि सारे जीव मुक्ति मे चले जाए और दुनिया खाली हो जाएं । इसका समाधान यह है कि ससार मे जीव अनन्त है और अनन्त सख्या का अर्थ ही यह है कि उसका कभी अन्त नही होता । अनन्त मे से अनन्त घटाने पर भी वह अनन्त ही रहता है । जैसे उदाहरण के तौर पर प्याज के छोटे से छोटे टुकड़े को लेते है, उस मे प्रसख्यात गोले है, प्रत्येक गोले में सख्यात पर्त हैं, प्रत्येक पर्त मे सख्यात शरीर है और प्रत्येक शरीर मे श्रनन्त जीव है । यह एक प्याज के टुकड़े की बात है, इस तरह पूरे प्याज मे भी अनन्त जीव है और पूरे प्याज मे ही नही समस्त निगोद योनि के जीव भी अनन्त हैं । परन्तु सभी अनन्त ग्रापस मे तरतम भाव वाले हैं । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अनन्त का कभी अत नही आता । अनन्त काल तक अनन्त जीव मोक्ष जाते रहेगे, फिर भी ससार के जीव अनन्त ही रहेगे । गणित ने इस बात को और स्पष्ट कर दिया है । दशमलव के तरीके से आप एक अक मे से 3 1 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर 1 1 1 10, 100, 1000 यदि सरयाओ को हजारो, लाखो, करोडो वर्षो तक घटाते रहे, फिर भी एक का अंक समाप्त नही होता । यह बात गणित का विद्यार्थी भली-भांति जानता है, फिर भी सर्व साधारण की समझ मे सरलता से आ जाए, इसलिए हम यहां एक गणित का उदाहरण भी दे देते हैं । 1 1 हम एक (Unity) का दसवा भाग लेवे, फिर 100, फिर 1000 1 1- (10 + 100 . 1. 1 और इसी प्रकार 10000 आदि आप अपनी इच्छानुसार भाग ले सकते हैं। हजारो वर्षो तक एक को उक्त भागो से विभक्त कर सकते हैं । एक मे से आप सव रकमो ( Terms) को घटाते ( Subtract ) चले जाए तव भी एक (Unity ) समाप्त नहीं होगा अर्थात् कभी भी शून्य (Zero) नही आयगा । यह पद्धति इस प्रकार है 1 + 10000+. I I +103 +10 - 1 + 4 10 1 + 1 ... 1 1000 2 +....... 1 1 1 क्योकि I 100-10, 1000 103 10000 अर्थ है अधिक से भी अधिक ( Infinity ) । इन को हम Terms in the Geometrical progression or in short G. P. series कहते हैं | आप F. A के Standard की Algebra की पुस्तक में G P. series to infinity का sum देख सकते हैं, इस का For a -1 ? و • (Infinity times' . ∞ times Ι FITO -- = mula ( हल करने का तरीका ) इस प्रकार है, Jo= और ० का Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ द्वितीय अध्याय Where fo=sum to infinity (सारे भागो की जोड़) . , a=G. P. series मे पहली रकम r=Common ratio of any two Successive terms of the G P. series परन्तु यहां a= पहली रकम = . _r= Common rato=1 - 1I a . ... ... [-10 -10 . 10 परन्तु हमें चाहिए 1-[to+TE +10 + .....] या 1-10 क्योकि 1 = 1+10+ या 1-1क्योकि Ja= ऊपर देखे और 1-3-3 edico इस से यह स्पष्ट हो गया एक (Unity) मे से उपरोक्त हिस्से घटाते रहने पर भी एक को सख्या समाप्त नही होती है। भले ही उसमे से infinity -(अनन्त) वार ही क्यो न Subtract कर दिया जाए। अस्तु हम ऐसा कह सकते हैं कि एक मे से थोड़ा-थोड़ा करके हजारो वर्षों तक घटाने रहने पर भी एक Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ९० समाप्त नही होता। इसी तरह अनन्त भी एक ऐसी संख्या है कि उसमे से अनन्त निकाल लेने पर भी उसका अत नही आता । अतः जीवो को अनन्त मान लेने से कोई दोष नही आता । इसलिए अनुभव यह सिद्ध हो गया हैं कि जीव एक नही, अनन्त ही है । आत्मा का परिमाण से आत्मा के आकार के संबध मे उपनिषदों में अनेक कल्पनाएं दिखाई देती हैं । इन सब परिकल्पनाओ के बाद सभी ऋषियों का झुकाव जीव को व्यापक मानने की ओर रही है । इस तरह अधिकाश वैदिक दर्शन-जीव को व्यापक मानने के पक्ष में हैं । रामानुजाचार्य आदि कुछ विचारक जिन्होंने आचार्य शंकर के बाद ब्रह्म सूत्र की व्याख्या की है, उन्होने ब्रह्म-आत्मा को व्यापक और जीव-आत्मा को माना है । चार्वाक चैतन्य को देह परिमाण मानता है और वौद्धो ने भी पुद्गल (आत्मा) को देह परिमाण माना है। जैन तो आत्मा को देह परिमाण मानते ही हैं । उपनिषदों से भी आत्मा को देह परिमाण- मानने का उल्लेख मिलता है । कोपोतकी उपनिषद्, ४, २० में कहा है कि जिस तरह म्यान में तलवार व्याप्त है, उसी तरह आत्मा शरीर मे नख से ले कर चोटी तक व्याप्त है । इसी तरह तैतरीय उपनिषद् में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये सब आत्मा शरीर प्रमाण बताएं हैं । आत्मा को शरीर से सूक्ष्म मानने वाले. मत भी थे । कुछ . आदरणीय प्रोफैसर श्री के० वी० चावला, M. A Malwa Engineering College, Sanewal. (Ludhiana) के सौजन्य से । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय विचारकों का मानना था कि ग्रात्मा चावल या जव के दाने जितना वडा है * | कुछ का कहना था कि वह गुष्ट परिमाण है । । कुछ की दृष्टि मे यह आया कि वह बेंत जितना वडा है। कुछ चिन्तक उसे मणु से भी श्रणु मानने लगे । और आखिर मे जब यह माना जाने लगा कि आत्मा अवर्णनीय है, तब ऋषियों ने उसे "अणोरणीयान महतोमहीयान" कह कर सन्तोष माना । mw WWWW जैनों ने संसार में स्थित ग्रात्मा को देह परिमाण मानने के साथसाथ उसे व्यापक भी माना है । यो तो ग्रात्मा देह परिमाण ही है, परन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा से उसे व्यापक माना है । जिस समय केवली समुद्घात करता है उस समय वह अपने आत्म प्रदेशों को सम्पूर्ण लोकाकाश मे फैला देता है । अस्तु इस दृष्टि से ग्रात्मा भी व्यापक है, अन्यथा आत्मा देहं परिमाणं ही है । 1 जीव की सर्व व्यापक न मानकर देह व्यापक मानने का कारण यह है कि उसके गुण शरीर मे ही प्रत्यक्ष देखे जाते है । जिस प्रकार घट के गुण घट से बाहर न होने से वह सर्व व्यापी नही माना जाता, उसी तरह ' आत्मा के गुण भी गॅरीर से बाहर परिलक्षित नही होते हैं, इस कारण वह देह से बाहर नही मानी जा सकता। क्योकि जहा जिस वस्तु की अनुपलब्धि होती है, वहां वह पदार्थ नही माना जाता है । जैसे पट को घट रूपं नही माना जा सकता, क्योकि वहा घटत्व की अनुपलब्धि है । " * वृहदा ० ५, ६, १ । Î कठो० २,२, १२ । + छान्दो० ५, १८ ! § मैत्री उपनिषद् ६, ३८ । $ कठो० १, २२० । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ९२ इसी प्रकार देह के बाहर ग्रात्मा नही पाई जाती, क्योकि वहा ग्रात्मत्व की अनुपलब्धि है । किसी भी प्रमाण से ग्रात्मा के गुण देह के बाहर दिखाई नही देते, इसलिए उसे सर्व व्यापक मानना उपयुक्त नहीं है। इस के अतिरिक्त जीव का कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध, मोक्ष, सुख, दुख यादि सत्र उसमे तभी घटित हो सकते हैं, जबकि उसे सर्वगत - देहव्यापी और अनेक माना जाए। आत्मा ग्रणु या चावल या जव के दाने या अगुप्ठ या वेत परिमाण भी नही है । यदि ग्रात्मा ऋणु रूप है, तो वह सारे शरीर मे नही रहकर शरीर के किसी एक खास विभाग मे रहेगा । इस से वह शरीर के किसी भी भाग में होने वाली सुख-दुखानुभूति को नही वेद सकेगा । क्योकि यह हम प्रत्यक्ष मे देखते हैं कि शरीर के किसी ग्रग में लक्वा आदि बीमारी होने से चेतना विलुप्त हो जाती है, तो उस आग मे ठडे या गर्म किसी भी तरह के स्पर्ग की या सुई चुभाने पर उस की वेदना की नुभूति नही होती है । उसी तरह यदि ग्रात्मा श्रणुरूप है तो वह शरीर के जिस भाग में है, उसे छोडकर ग्रन्य भाग में किसी तरह के स्पर्ग आदि की अनुभूति नही होनी चाहिए | परन्तु गरीर के हर भाग में स्पर्ग आदि की अनुभूति होती है । इस से स्पष्ट है कि श्रात्मा ऋणु रूप नही, वल्कि शरीर परिमाण है, शरीर के चप्पे-चप्पे में व्याप्त है । चावल,जव,अगुष्ठ या वेंत परिमाण माना जाए तो मनुष्य श्रादि कई बड़े शरीरवारी प्राणियो के पूरे शरीर में व्याप्त न होकर उसके एक भाग में ही प्राप्त होगी । इससे उसमे उपरोक्त दोष श्रायगा । और सूक्ष्म - छोटे जीवो के शरीर मे समा नही सकने से वह शरीर के वाहर रहेगी और यह अनुभव से विरुद्ध है । क्योकि ग्रात्मा के गुण शरीर के विशेषावश्यक भाष्य, १५८५-१५८७ । www 1 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ द्वितीय अध्याय बाहर उपलब्ध नही होते । अत. आत्मा को सर्वव्यापक एव अणु आदि परिमाण मानना अनुभव एव प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाणो से विरुद्ध है । शुद्ध ग्रात्मा का इन्द्रियगोचर कोई ग्राकार नही है । क्योकि वह अरूपी है । परन्तु कर्मों के साथ सवद्ध होने से उसे जिस तरह का सावन मिलता है, उसमे अपने ग्रात्म प्रदेशो को फैला देती है। जैसे-एक दीपक अपने प्रकाश से पूरे कमरे को जगमगा देता है, परन्तु जब उसी दीपक को छोटी-सी कटोरी के नीचे रखा जाता हैं, तो वह उतने से स्थान को ही प्रकाशित कर पाता है । जैसे- दीपक का प्रकाश साधन के अनुसार थोडे एव विस्तृत भाग मे फैलता रहता है । इसी तरह ग्रात्म प्रदेश भी स्वभाव से सकोच - विस्तार वाले होते हैं । इसलिए उन्हे जैसा साधन मिलता है, उसी के अनुरूप फैल एव सिकुड़ जाते है । अस्तु ससारी ग्रात्मा शरीर व्यापी है, ऐसा मानना चाहिए । आत्मा-जीव नित्यानित्य है सांख्य का कूटस्थवाद आत्मा अर्थात् जीव को नित्य माना जाए या अनित्य, इस सबंध मे दार्शनिको में काफी मतभदे है । भूतवादी तो ग्रात्मा - चेतना को अनित्य मानते हैं । क्योंकि वे शरीर को ही आत्मा मानते हैं, त शरीर के नाग के साथ आत्मा का भी विनाश हो जाता है । परन्तु, जो दार्शनिक भूतो एव शरीर से आत्मा को अतिरिक्त मानते है, उनमे भी नित्यानित्य के सबंध मे विभिन्न मान्यताए है । साख्य दर्शन ग्रात्मा को कूटस्थ नित्य मानता है । जबकि साख्य दर्शन परिणामवादी है । वह प्रकृति को परिणामी मानता है, परन्तु आत्मा को अपरिणामी ही मानता है । वह आत्मा मे किसी भी तरह की Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ૪ 1 परिणति नही मानता । उस का कहना है कि आत्मा सदा शुद्ध-बुद्ध एव उज्ज्वल है, उसमें किसी तरह का विकार पैदा नहीं होता । यहां तर्क कि मोक्ष भी श्रात्मा का नहीं प्रकृति का होता है । क्योकि सुख-दुख, ज्ञान आदि पुरुष ( श्रात्मा ) के धर्म नही, प्रकृति के धर्म है । इस तरह सात्य दर्शन ने आत्मा को कर्त्ता तो नही माना, पर उसे भोवता अवश्य माना है $ । परन्तु इस भोग को लेकर श्रात्मा में परिणामीत्व घटित हो जाने की सभावना होने से कुछ सास्य विचारको ने भोग की भी ग्रात्मा का धर्म स्वीकार करने से इन्कार कर दिया । । इस तरह उन्होने ग्रात्मा के कूटस्थ नित्यंवाद को पूर्ण सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया । नैयायिक-वैशेषिकों का नित्यवाद नैयायिक - वैशेषिक द्रव्य और गुण को भिन्न मानते है । वे सुखदुख, ज्ञान आदि गुणो को आत्मा में मानते है और उन स्व गुणो को अनित्य मानते हैं । परन्तु उन ज्ञानदि गुणो की अनित्यता के कारण आत्मा की अनित्यता उन्हें स्वीकार नही है । उन की दृष्टि से ग्रात्मा नित्य ही है । जैन दर्शन ज्ञानादि गुणों को आत्मा से प्रभिन्न मानता है और उनकी अनित्यता की अपेक्षा से आत्मा को भी अनित्य मानता है। बौद्धों का नित्यवाद तथागत बुद्ध ने पुद्गल - जीव को एकान्त नित्य माना है । प्रत्येकं समय में विज्ञान आदि चित्क्षण नए-नए उत्पन्न होते है । और ये अभिनव विज्ञानक्षण उस पुद्गल से सर्वथा भिन्न नही है । इस तरह थे साख्यकारिका ६२ । साख्यकारिका १० $ सारयकारिका १७ । T साख्यतत्त्वकौमुदी १७ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.ru द्वितीय अध्याय पुद्गल-जीव उन की दृष्टि से नित्य नही है, परन्तु उसकी सन्तति अनादि काल से चली आ रही है और आगे भी प्रवहमान रहेगी । इस तरह द्रव्य रूप से नित्यता तो नहीं, परन्तु सन्तति नित्यता तो वोद्धो को भी अभीष्ट है , मान्य है। कार्य-कारण की परपराको सतति कहते है । यह परपरा कभी विशृ खिलित नहीं हुई और भविष्य में भी नहीं होने वाली है । कुछ बौद्ध चिन्तको की दृष्टि में निर्वाण - मुक्ति के समय यह परपरा समाप्त हो जाती है, परन्तु कुछ विचारको का मानना है कि निर्वाण दशा में भी विशुद्ध चित्त की परपरा विद्यमान रहती है । इस अपेक्षा से ऐसा लगता है कि सतति नित्यता बौद्धो को भी मान्य है। वेदान्त का परिणामी नित्यवाद __ वेदान्त में ब्रह्म को एकान्त नित्य माना है । जीव के संबंध मे व्याख्याकारो मे कुछ विचार भेद है । आचार्य शकर ब्रह्म को सत्य और जीवात्मा को मिथ्या, माया मानते हैं। वह मायिक होते हुए भी आनदि कालीन अज्ञान के कारण अतादि तो है , परन्तु नित्य नहीं है। क्योकि अज्ञान का नाश होते ही वह जीवात्मा ब्रह्म रूप मे.लोन हो जाता है और उसके जीव भाव का नाश हो जाता है ! इससे ऐसा लगता है कि मायिक जीव ब्रह्म रूप से नित्य है और माया रूप से अनित्य है। प्राचार्य शकर के अतिरिक्त वेदान्त के सभी व्याख्याकार जीवात्मा को ब्रह्म का परिणाम मानते हैं । इस दृष्टि से भी जीवात्मा को परिणामी नित्य मानना चाहिए। जैन और मीमासक Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 प्रश्नो के उत्तर ९६ भो जीव को परिणामी नित्य मानने है । वेदान्त और इनके परिणामी नित्यवाद में अन्तर यह है कि जैन और मीमासक के मत मे जीव स्वतंत्र हैं और उसमें परिणमन होता रहता है, परन्तु वेदान्तीयो की दृष्टि से जीव स्वतंत्र नहीं वल्कि ब्रह्म का ही अग है, अत उसमे जीव और ब्रह्म की अपेक्षा से परिणामीत्व समझना चाहिए । ❤ р कुछ दानिको ने श्रात्मा को एकान्त नित्य माना है, तो कुछ ने एकान्त ग्रनित्य । नित्य या ग्रनित्य मानने वालो ने भी नर्क- स्वर्ग- मोक्ष आदि की कल्पना की है । ग्रत यदि आत्मा को एकान्त नित्य मानते है, तो उनमे सर्वथा एकरूपता या जायगी भेद जैसी कोई वात रह ही नही जायगी । इससे लोक - परलोक, स्वर्ग नर्क एव मोक्ष की व्यवस्था घट नही सकेगी और एकान्त अनित्य मानने पर एकरूपता का सर्वथा नागं हो जायगा, भेद ही भेद अवशेष रह जायेगा । दोनों अवस्थाओ मे आत्मा मे कृतकारित्व घट नहीं सकेगा, लोक- परलोक की व्यवस्था भी बैठ नही सकेगी । प्रत. जीव को एकान्त नित्य माननो भी दोप युक्त है और एकान्त श्रनित्य मानना भी दोप युक्त है । प्रत जैनों ने जीव (आत्मा) को नित्या नित्य माना है । आत्म द्रव्य की अपेक्षा से वह नित्य है । क्योकि अनात्म तत्त्वों से आत्मा का निर्माण नही होता है तथा आत्मा अपने स्वरूप का परित्याग करके कभी भी अनात्मा नहीं वनती । आत्मा में ज्ञानादि गुण भी अभेद रूप से है और उन ज्ञानादि की पर्यायों मे प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । पुरातन पर्यायों का नाश होता है और नई पर्यायों का उत्पाद होता है, इस दृष्टि से आत्मा नित्य भी है । क्योकि वे वदलने वाली पर्याय आत्मा से अभिन्न है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ द्वितीय अध्याय अत. अपेक्षाकृत आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है । वह न तो सांख्य की तरह कूटस्य नित्य है और न बौद्धो की मान्यतानुसार एकान्त अनित्य है । यह सत्य है कि उसकी पर्यायो मे परिवर्तन होता है । वह परिवर्तन द्रव्य की नित्यता को सुरक्षित रखते हुए होता है । अत आत्मा परिणामी नित्य है अर्थात् नित्यानित्य है । मीमासक दर्शन के प्रमुख विचारक कुमारिलभट्ट को भी यह परिणामी नित्यवाद स्वीकार है । आत्मा का कर्तृत्व और भोक्तृत्ववाद ~ श्रात्मा कर्ता एवं भोक्ता है या नहीं, इस सवव मे सभी दार्शनिक एक मत नहीं है । उअनिवदो मे आत्मा का कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो उपलब्ध होते हैं । वहा जीव को फल प्राप्ति के लिए 'कर्म का कर्ता और उस कृत कर्म की भोक्ता भी कहा है । और यह भी माना है कि जीव न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुसक है । परन्तु अपने कर्म के अनुसार जिस-जिस योनि के शरीर को धारण करता है, वह उसके साथ सवद्ध हो जाता है और सकल्प, विषयो का स्पर्ग, दृष्टि और मोह तथा इसी तरह अन्न-जल आदि से शरीर की उत्पत्ति एव अभिवृद्धि होती है । शरीर युक्त जीव स्वकर्म के अनुसार विभिन्न स्थानो मे परिभ्रमण करता है और कर्म के कारण ही प्रत्येक जन्म मे वह शरीर की अपेक्षा से भिन्न परिलक्षित होता है । $ वृहदारण्यक में भी कहा है कि अच्छा कार्य करने वाला अच्छा और बुरा कार्य करने वाला बुरा होता है | "पुण्यो वै तत्त्व संग्रह, कारिका, २२३-२२७ । श्वेताश्वर, ५, ७ । S श्वेताश्वर, ५, १०-१२ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ९८ main पुण्येन कर्मणा भवति पाप पापेन।" * इस तरह जीव को कर्ता एव भोक्ता मानते हुए भी उपनिपत्कार ब्रह्म को - यह जीव जिसका अग है- अकर्ता एव अभोक्ता ही मानते है, वह केवल अपनी लीला का दर्शक है, इसके अतिरिक्त वह कुछ नहीं है । दार्शनिकों की मान्यता सांख्य पुरुष को अकर्ता मानता है। वह ब्रह्म को नहीं मानता है। अत निरीश्वरवादी साख्य ने ब्रह्म के समान पुरुप को भी अकर्ता माना है। उसकी मान्यता है कि सुख-दुख,स्वर्ग-नरक,पुण्य-पाप आदि कर्म पुस्प के नही होते है । यहां तक कि मोक्ष भी पुरुप का नही होता है । बन्ध-मोक्ष प्रादि सभी कार्य प्रकृति के होते है । वह पुरुप मे कर्तृत्व मानने से सर्वथा इन्कार करता है, परन्तु पुरष मे भोक्तृत्व तो वह भी मानता है। कुछ साख्य विचारक पुरुष मे भोग भी नही मानते। क्योकि भोग मानने से फिर उसमे एकान्त नित्यता नही रह जाएगी। इसलिए वे पुरुष-प्रात्मा को कर्ता एव भोक्ता न मान कर, मात्र दृष्टा ही मानते है। नैयायिक-वैशेपिक ने आत्मा मे कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो माने है। वे आत्मा को एकान्त नित्य मानते हुए भी कर्म का कर्ता और कर्म जन्य फल का भोक्ता मानते है, यहा तक कि परमात्मा मे भी कर्तृत्व मानते है । क्योकि वह जगत का कर्ता है। यहा यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि नैयायिक - वैशेपिक आत्मा को नित्य मानते है । अत इनके मत मे आत्मा NNNNNN * वृहदा० ३, २, १३ । $ मैत्रायणी, २, १०-११॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ द्वितीय अध्याय कर्ता एवं भोक्ता दोनों कैसे हो सकती है ? यदि वह कर्ता है, तो सदा-सर्वदा कर्ता ही बनी रहेगी और भोक्ता है, तो वह सदा के लिए भोक्ता ही वनी रहेगी । कर्ता के बाद भोक्ता या भोक्ता के वाद कर्ता दोनो कैसे हो सकती है? यदि उसमे एक के बाद दूसरा रूप या धर्म पाया जाएगा, तो फिर वह एकान्त नित्य न रहकर परिणामी हो जाएगी? फिर उसमे अनित्यता भी या जाएगी ? इस शका का समाधान इस प्रकार किया गया है- ग्रात्म द्रव्य नित्य है, फिर भी ज्ञान, चिकीर्षा और प्रयत्न यादि जो समवाय हैं, वह कर्तृत्व है अर्थात् आत्मा मे ज्ञानादि का समवाय सवव होना यही श्रात्मा का कर्तृत्व है । क्योकि ग्रात्मा में जो ज्ञान का सबंध होता है, वह उससे अलग भी हो जाता है । कारण कि ज्ञान स्वयं उत्पन्न भी होता है और विनाश को भी प्राप्त हो जाता है । इसी तरह सुख-दुख के सवेदन का जो समवाय है, वह आत्मा का भोक्तृत्व है IT यह सवेदन या सुख-दुख का अनुभव भी ज्ञान रूप होने से यह भी श्रात्मा में स्वभावत. विनिष्ट होता है । इतना होने पर भी आत्मा स्वय विकृत नही होता । क्योकि उत्पत्ति और विनाग अनुभव के होते हैं, आत्मा के नही । मात्र समवाय सवध होने से आत्मा को भोक्ता कहते हैं, परन्तु इतना मानने मात्र से उसमे कर्तृत्व नही या जाता है । क्योकि उस सवध के छूट जाने के बाद वह भोक्ता नही रह जाता है। इनकी दृष्टि मे द्रव्य और गुण में भेद है । त. गुण. मे परिवर्तन होने पर भी द्रव्य मे परिवर्तन नही होता है । परन्तु आत्मा को परिणामी नित्य मानने वाले जैनो को दृष्टि + ज्ञानचिकी प्रिपत्नाना समवाय. कर्तृत्वम् । –न्यायवार्तिक, ३,१,६. सुख-दुखसवित्समवायो भोक्तृत्वम् । - न्यायवार्तिक, ३,१,१. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १०० से आत्मा की ज्ञानादि पर्यायो मे सदा एकरूपता नही रहती । वही आत्मा कर्ता रूप से परिणत होकर भोक्ता रूप से भी परिणत होता है । दोनो परिणतिया भिन्न होते हुए भी, दोनो ग्रवस्थाओ मे आत्मा का अस्तित्व है । अत परिणति होने मात्र मे ग्रात्म द्रव्य मे एकान्त ग्रनित्यता नही या जाती । ग्रात्मा का मूल रूप परिवर्तनीय सभी अवस्था मे सुरक्षित रहता है । परन्तु ज्ञानादि पर्याये भी ग्रात्मा से भिन्न है, इसलिए पर्याय परिवर्तन की अपेक्षा से श्रात्मा को अनित्य भी मानते हैं । नैयायिक-वैशेषिक ज्ञानादि पर्यायो को ग्रात्मा से भिन्न मानते हैं, परन्तु यह मान्यता बुद्धिगम्य नही कही जा सकती । यह सत्य है कि गुण और गुणी दो है, परन्तु यह भी सत्य है कि गुण गुणी से प्रभिन्न भी है । ऋत गुणो मे होने वाला परिवर्तन गुणी मे भी मानना चाहिए । इस दृष्टि से ग्रात्मा एकान्त नित्य नही, वल्कि परिणामी नित्य ही सिद्ध होता है । वौद्ध भी पुद्गल - श्रात्मा को कर्त्ता श्रीर भोक्ता मानते है । उन के सिद्धातानुसार नाम-रूप का समुदाय पुद्गल - ग्रात्मा है । एक नामरूप से दूसरा नाम-रूप उत्पन्न होता है । जिस नाम-रूप ने कर्म किया है वह तो नष्ट हो जाता है, परन्तु जो दूसरा नाम रूप उत्पन्न होता है वह पूर्व कृत कर्म का भोक्ता है । इस प्रकार सन्तति की अपेक्षा से पुद्गल-ग्रात्मा मे कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो पाए जाते है। इस सबध मे बोद्धो की यह कारिका सुप्रसिद्ध है "यस्मिनेव हि सतानो श्राहिता कर्मवासना, फलं तत्रैव सन्धते कर्पासे रक्तता यथा ।"* जिस सन्तान मे कर्मवासना मानी है, उसी सन्तान में कपास की स्याद्वाद मजरी में उद्धृत, कारिका १८. * Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१०१ रक्तता वत् फल भी उपलब्ध होता है । 1 धम्मपद मे भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि ग्रात्मा ने स्वयं पाप किया है और वह ग्रात्मा से ही उत्पन्न हुआ है । और जो पाप करता है, उसे उस कटुक फल को भोगना ही पडता है * । इस ससार मे ऐसा कोई स्थान नही है, जहा पहुच कर मनुष्य कृत पाप के फल को विना भोगे ही छूट जाए अर्थात् मनुष्य दुनिया के किसी भी भाग मे चला जाए, फिर भी उसे पाप का फल अवश्य भोगना होता है । बुद्ध ने एक ज़गह अपने विषय मे भी कहा है कि ग्राज से ९१ कल्प पहले मैंने अपनी ताकत से एक पुरुष को मारा था और उसी कर्म विपाक के परिणाम स्वरूप मेरे पैर मे काटा चुभा है। इससे स्पष्ट है कि बौद्ध आत्मा मे कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो मानते है । वे पुद्गल-ग्रात्मा को भले ही अनित्य कहे, परन्तु सतति की दृष्टि से उसे नित्य माने विना उनका भी काम नही चलता । इतने लम्बे विवेचन के वाद हम इस निर्णय पर पहुचे कि सबको घूम फिर कर परिणामी नित्यवाद पर ही आना पडता है । भले ही वे उसे शब्दो मे माने या न माने । द्वितीय अध्याय जैनो ने तो आत्मा मे कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्पष्ट रूप से माना है | आगमो मे कहा गया है कि आत्मा अनेक तरह के कर्म करता है । कर्म से ही जीव नर्क, स्वर्ग, असुर आदि योनियो को ९ प्रत्तनाव कत पाप ग्रत्तज अत्तसभव । * करोन्तो पापक कम्म य होती कटुकफल । ++ - धम्मपद, १६१. - धम्मपद, ६६. पविस्स, न अन्तलिक्खे, न समुद्दमज्झे, न पव्वतान विवरं न विज्जती सो जगतिप्पदेसो यत्यठ्ठितो मुञ्चेय पापकम्मा । -धम्मपद १२७ कम्मा णाणाविहा कट्टु । - उत्तरा० ३,२ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww प्रश्नों के उत्तर १०२ प्राप्त करता है । और कर्म के ससर्ग से वह अनेक दुःख एव वेदना को वेदता है । कृत कर्म को भोगे विना मुक्ति नही हो सकती। कर्म, करने वाले (कर्ता) का अनुगमन करता है । आत्मा ही कर्म का कर्ता है और वहो उसका नाश करने वाला है। इस तरह अनेक वाक्यों से प्रात्मा को कर्म का कर्ता और भोक्ता सिद्ध किया है। जिस तरह उपनिषद् मे जीवात्मा को कर्म का कर्ता और भोक्ता कहने पर भी परमात्मा को उससे रहित माना है। उसी तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने भी जीव को व्यवहार दृष्टि से कर्ता और भोक्ता माना है, निश्चय दृष्टि से नही अर्यात् हम यो कह सकते हैं कि ससारी जीव कर्ता और भोक्ता है, परन्तु सिद्ध जीव कर्म के कर्तृत्व और फल के भोक्तृत्व से रहित है। क्योकि वहां कर्म वन्ध का कारण कपाय और योग नही है, इसलिए वहा कर्तृत्व-भोक्तृत्व का अभाव है। ___ इस तरह हमने देखा कि अनेक विचारक आत्मा को अनेक तरह से मानते हैं। कुछ विचारक आत्मा को एकान्त भौतिक मानते हैं और कुछ अभौतिक । अभौतिक मानने वाले विचारको मे भी आत्मा के स्वरूप को मानने मे एक रूपता नहीं है। कुछ विचारक आत्मा को एकान्त नित्य मानते हैं, कुछ एकान्त अनित्य मानते हैं, तो कुछ उसे परिणामी नित्य या नित्यानित्य मानते हैं। जिस को चर्चा हम ऊपर बहुत विस्तार से कर चुके हैं । सत्र विचारका ने अपनी-अपनी मान्यता के . ६ उत्तरा०३,३३,६। । . , कडाण कमाण न मोक्ख अत्यि । -उत्तरा० १३,१० । ६ उतरा० १३,२३ । उत्तरा० २०,३७ । * समयमार, ९३-९८ . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय अनुसार आत्मा मे कर्तृत्व एव भोक्तृत्व घटाने का प्रयत्न किया है। एक वात मे हम सभी आस्तिक विचार को को एकमत पाते है । वह यह कि सभी विचारक शुद्ध आत्मा अर्थात् निर्वाण अवस्था मे आत्मा को कर्म का कर्ता एवं भोक्ता नही मानते है । इस से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि सव दर्शनो का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने का रहा है। , जैन दर्शन का इस सवध मे अपना मौलिक चिन्तन है। यहा अधिक विस्तार मे न जाकर , इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जहां अन्य दार्गनिक अपने-अपने पक्ष के सर्मथन एव दूसरे पक्ष का खण्डन तथा विरोध करने मे अपनी सारी गक्ति लगा रहे थे, वहा जैन विचारक समन्वय की भावना लेकर सामने आए। उन्होने अपने पक्ष को, अपने विचारो को सप्रमाण रखा और दूसरे पक्ष की कमजोरियो को भी दिखाने का प्रयास किया, परन्तु किसी विचार की उपेक्षा नही की। उन्होंने प्रत्येक पदार्थ को अनेक दृष्टि विन्दु से सोचा - विचारा और दार्गनिको मे चले रहे विवाद को दूर करने का प्रयत्न किया। जैनो ने स्पष्ट शब्दो मे कहा कि आत्मा को नित्य या अनित्य मानना अपेक्षा से सत्य है । जव तक इस मान्यता के साथ अपेक्षा लगी है, तव तक वह मान्यता सत्य है । क्योकि वह भी एक दृष्टि है, जिसे जैन परिभाषा मे नय कहते हैं । इसमे विचारक अपने विचारो की पुष्टि करता है, परन्तु साथ मे दूसरे के दृष्टि बिन्दु की सर्वथा उपेक्षा नही करता । उसे अपना मन्तव्य रखने का अधिकार है, परन्तु दूसरे पक्ष को एकान्त मिथ्या कहकर उसका तिरस्कार करना भी उचित नही है। जहा अपना मण्डन और दूसरे विचार की सर्वथा उपेक्षा या तिरस्कार किया जाता है, वहा दृष्टि मे विकार आ जाता है, इसलिए उसे नय नही कहकर नयाभास कहा है । अस्तु जब दार्शनिको की दृष्टि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १०४ एकागी बन गई, तव ही सघर्ष प्रारंभ हए । अन्यथा सघर्ष जैसी कोई वात नही थी । विचारभेद से एक दूसरे में काफी अन्तर होने पर भी सभी भारतीय दर्शन प्रापस मे मेल भी खाते हैं, वे एक दूसरे के सर्वथा विरोधी नहीं हैं। भक्त कवि आनन्दवन जी ने भी कहा है " पड् दर्शन जिन अंग भणीजे, न्यास पढंग जो माधे रे नमी जिणंद का चरण उपासक, पड़ दर्शन जो अराधे रे ।।" अस्तु जैनो का यह अाग्रह रहा है कि किसी भी वस्तु को एकान्त दृष्टि से नहीं, अनेकान्त दृष्टि से देखना चाहिए। आत्मा के सबंध मे भी उनका यही दृष्टि विन्दु रहा हैं कि वह न एकान्त नित्य है और न एकान्त रूप से अंनित्य । वह द्रव्य को दृष्टि से नित्य भी है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य भी है । इस अपेक्षावाद को मान लेने पर सारे संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। और वैज्ञानिक दृष्टि भी यही कहती है कि प्रत्येक वस्तु को अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योकि दुनिया मे सभी पदार्थ सापेक्ष हैं। इतनी विस्तृत विचार चर्चा के बाद हम यह स्पष्ट रूप से देख चुके हैं कि प्रात्मा गरीर से भिन्न है, असंख्यात प्रदेशी है और व्यक्तिग. अनन्त है। जैनागमो मे जोवो की गति एव जाति (एकेन्द्रियादि) की दृष्टि से विभाजन करते हुए लिखा है जीव के मूल भेद दो हैं- १ सिद्ध और २ ससारी * । जो जीव कर्म वन्वन से पाबद्ध है, जन्म, जरा और मृत्यु के प्रवाह मे प्रवहमान है, एक गति से दूसरी गति मे परिभ्रमण करते हैं, वे संसारी जीव है और जो इनसे मुक्त-उन्मुक्त हो चुके हैं, कर्म एव कर्म जन्य शरीर आदि आवरणो को हटा चुके हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्ध भगवान् के सिर्फ * उत्तराध्ययन मूत्र, ३६,४९ । wwww Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ द्वितीय अध्याय शुद्ध आत्मा होती है। सिद्धशिला मे स्थित अनन्त जीवो मे किसी तरह का भेद नहीं होता, सभी समान गुण-धर्म वाले. होते हैं । ससारी जीवों मे कर्मजन्य अनेक भेद-प्रभेद पाए जाते है। ससारी जीव के भी मुख्य रूप से दो भेद हैं - १ त्रस और २ स्थावर । त्रस वह हैं, जो त्रास-दुख से बचने के लिए सुख के स्थान पर आ-जा सके और स्थावर वह है, जो एक स्थान पर स्थित रहे । त्रस जीवो के भी चार भेद हैं-१ द्वीन्द्रिय,२ त्रीन्द्रिय३ चतुरिन्द्रिय और ४पञ्चेन्द्रिय। स्थावर जीवो के पाच भेद हैं-१पृथ्वीकाय,अपकाय-जल ३तेउकाय-- अग्नि,४वायुकाय, ५ वनस्पतिकाय । उत्तराध्ययन सूत्र मे अग्नि और वायु को त्रस काय मे गिना है । यह सापेक्ष दृष्टि से समझना चाहिए। अग्नि और वायु की योनि स्थावर नाम कर्म के उदय से प्राप्त होती है। अत. इस दृष्टि से ये स्थावर कहलाते है। परन्तु उक्त जीवो मे एक स्थान से दूसरे स्थान मे जाने की गति देखी जाती है ।. वायु एव अग्नि की दशो दिशामो मे गति है, पहुच है, इस अपेक्षा से इसे त्रस भी कहा गया है। प्रश्न पूछा जा सकता है कि पानी भी गतिशील है, प्रवहमान है, फिर उसे बस में क्यो नहीं गिना गया? इस का कारण यह है कि पानी की अपनी गति नहीं है । उसमे द्रवत्व होने के कारण वह उस दिशा मे बहता है, जिस दिशा की भूमि नीची है। वह सदा ऊपर से नीचे की ओर बहता है,किन्तु नीचे से ऊपर की ओर बहने की उसकी अपनी शक्ति नही है, अत उसे गति एव नाम कर्म दोनो अपेक्षा से स्थावर माना है । इस तरह से पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा एव वनस्पति ये पाचो स्थावर सजीव हैं, सचेतन हैं । आगम मे इस बात को विस्तार से समझाया गया है कि पृथ्वी आदि योनि मे सजीवता है, * उत्तराध्ययन सूत्र, ३६, ६९-७०। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर १०६ चैतन्य है । फिर भी कुछ लोगो को पृथ्वी आदि में जीवत्व है, इस पर विश्वास नहीं होता । उन लोगो का कहना है कि हीन्द्रिय यदि जीवो की चेतनता व्यक्त है, स्पष्ट है । क्योंकि उन्हें मुख-दुःख की अनुभूति होती है । परन्तु हमे पृथ्व्यादि एकेन्द्रिय जीवों में मुख-दुखादि की अनुभूति होती हुई स्पष्ट नजर नही ग्राती है, उन जीवो की चेतना व्यक्त रूप से परिलक्षित नही होती है । ऋत उनमे जीव है, यह कैसे माना जाए ? किसी प्राणी - जीव में अभिव्यक्ति होती है और किसी मे स्पष्ट रूप से अभिव्यक्ति नही होती हैं । परन्तु इतने मात्र से हम उनमे जीवत्व से इन्कार नहीं कर सकते। क्योंकि एक ऐसा व्यक्ति जिस के ग्राख नही है, कान और नाक मे सुनने-सूघने को तथा जवान मे बोलने की शक्ति नही है और उस के हाथ-पैर भी नही है या कट गए हैं, वह व्यक्ति न गति कर सकता है, न कोई हरकत कर सकता है और न बोल कर अपने विचारो को अभिव्यक्त भी कर सकता है, ऐसी स्थिति में हम उसे सजीव कहेंगे या निर्जीव ? उत्तर स्पष्ट है- सजीव । अभिव्यक्ति न होते हुए भी वह व्यक्ति सजीव है, तो क्या कारण है कि पृथ्यादि जीवो मे सजीवता को न माना जाए ? केवल चेतना को अभिव्यक्ति न होने मात्र से हम किसी भो जीव को निर्जीव नहीं कह सकते हैं । 1 पानी और वनस्पति को सजोवता तो वैज्ञानिकों ने भी मान लो है | विज्ञान वेताश्रो ने अपने प्रयोगो से प्रमाणित कर दिया है कि पानी की एक नन्ही सी वूद मे अनेकों, अनगिणत जीव है । वनस्पति पर काफी प्रयोग हो चुके है । मनुष्य एव पशु-पक्षियों की तरह उसे भी रोग के कीटाणु ा घेरते है । और वनस्पति चिकित्सक उसे श्रपवों के द्वारा पुन. स्वस्थ करने या स्वस्थ रखने का प्रयत्न करते हैं । दूसरे मे पानी एवं खाद के मिलने पर घास-फ्रूम एवं पोवो में अभिवृद्धि भो होती है । गौतम स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए - "वनस्पति Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय के जीव आहार कैसे करते हैं?"भगवान महावीर ने कहा कि "हे गौतम मूल मे स्थित जीव मूल को स्पर्श किए हुए है और वे पृथ्वीकाय से भी प्रतिवद्ध हैं, इसलिए वे पृथ्वीकाय का आहार करते है और उसे अपने शरीर रूप में परिणमन करते है। इसी तरह कद के जीव मूल से प्रतिवद्ध होने से उससे आहार ग्रहण करते है।इसी तरह स्कध के जीव कद से, शाखा के जीव स्कध से और आगे प्रतिगाखा, पत्र, पुष्प, फल एव बीज मे स्थित जीव अपने पूर्व के जीवो से संवद्ध है और वे उसी क्रम से उन से आहार ग्रहण कर के उसे अपने शरीर रूप में परिणत करते है।"रोग का होना तथा रोगिष्ट पौधे को निरोग करना एव उसके योग्य खुराक मिलने से पौधो की अभिवृद्धि होना, इस वात को प्रमाणित करता है कि उसमे जीवन है । ये सब चेतनता के, जीवन के लक्षण है। निर्जीव पदार्थ न कभी रोगी होते हैं, न उनके रोग का इलाज होता है और न उन मे अभिवृद्धि ही होती है। परन्तु, वनस्पति मे यह सव होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि उसमे आत्मा-चेतना है। . . वनस्पति मे सजीवता की प्रतीक एक वात यह भी है-उक्त जीवो मे क्रोध, ईर्षा, प्रसन्नता-अप्रसन्नता आदि विकार भी पाए जाते है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चन्द्र बोस ने अपनी प्रयोगशाला मे वनस्पति पर प्रयोग कर के तथा उस के वाद जनता के सामने उस का प्रदर्शन करके सारी दुनिया को यह दिखा दिया कि पेड़-पौधो मे मनुष्य की तरह सुख-दुख मे प्रसन्न एव अप्रसन्न होने के विकारी भाव मौजूद है। और इस तरह के प्रयोग कर के उस ने वैज्ञानिको को वनस्पति मे सजीवता मानने के लिए वाध्य कर दिया। उन्हो ने वैज्ञानिक साधनो के द्वारा विज्ञान, वेतामो एव जनता को स्पष्ट दिखा दिया कि वनस्पति $ भगवती सूत्र, शदक, ७, उद्देशक ३। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १०८ मे इर्षा, क्रोध, प्रसन्नता, नाराजगी ग्रादि विकारी भाव हैं । कुछ पेड पौधे ऐसे है कि उनकी तारीफ करने पर, उनकी प्रशंसा के पुल वाघने पर, वे खिल उठते हैं और निन्दा करने पर मुरझा जाते हैं । अशोक वृक्ष के लिए कहा जाता है कि वह कामदेव के ससर्ग से स्खलित गति वाली, चपल नयन सयुक्ता, सोलह श्रृंगारे सज्जिता नवयुवती के नुपुर से शब्दायमान सुकोमल चरण का सस्पर्श पा कर ही पल्लवितपुष्पित होता है । लाजवन्ती का विकसित पौधा पुरुष के हाथ का सस्पर्श पाते ही मुरझा जाता है। दक्षिण अफ्रीका के जगलो मे कुछ पौधे ऐसे हैं, जो अपने निकट आने वाले कीट-पतंगो को हजम कर जाते हैं । इन सब उद्धरणो एव वैज्ञानिक प्रयोगो से यह स्पष्टत सिद्ध हो जाता है कि वनस्पति सजीव है, चेतना युक्त है । 'उस में भी मनुष्य एव अन्य पशु-पक्षियों तथा कीडे -मकोड़ो की तरह ग्रात्मा है । 1 यह हम पहले बता चुके है कि पानी की सजीवता को वैज्ञानिको ने भी मान लिया है। फिर भी कुछ लोग पानी को उपयोगी होने के कारण घी- तैल की तरह सजीव नही मानते । परन्तु यह तर्क उपयुक्त नही कहा जा सकता । उपयोगी होने मात्र से ही कोई पदार्थ सजीव से निर्जीव नही हो जाता है । हाथी-घोड़े यादि बहुत से जानवर उपयोगी हैं, फिर भी हम उन्हें सजीव मानते है । दूसरी बात यह है कि घी तेलं एवं पानी मे अन्तर है । दुनिया के सभी तरल पदार्थ निर्जीव नहीं होते । जब कोई आत्मा हथनी के गर्भ में आती है तो वह पहले-पहल तरल रहती है । शरीर विशेषज्ञों की यह मान्यता है कि मनुष्य या पशु के गर्भ मे उत्पन्न होने वाली आत्माए सर्वप्रथम तरल रूप मे ही पैदा - होती हैं । उनमें सघनता एव अंगोपांगो का ग्राकार बाद में वनता है । डे मे रहा हुआ जीव भी कुछ काल तक तरल रहता है । और इन 4 i Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ द्वितीय अध्याय सव तरल पदार्थों को सजीव एव चेतन माना है । अस्तु तरल होने मात्र से पानी को निर्जीव नहीं, सजीव मानना चाहिए। पृथ्वी एव वनस्पति की तरह पानी भी बढ़ता है। ग्राप समझते होगे कि वर्षा से पानी वढता है । नही, वर्षा से तो पानी कम होता है । कारण यह होता है कि वर्षा के पहले सूयं समुद्र तथा सरिताओ मे से पानी को सोखता है । वह वाप्प बना कर ग्राकाश मे पहुचाता है और ठड़ी हवा का सहयोग पाकर वान फिर से पानी के रूप में परिवर्तित हो जाता है ओर वादल वन कर आकाश में इधर-उधर मडराता रहता है और किसी पदार्थ मे टकरा कर वरस पड़ता है। तो वर्षा का जल बाहर से नही पृथ्वी पर स्थित जल स्रोत मे से ही श्राता है। वाष्प रूप मे ऊपर उठते समय कुछ पानी हवा मे मिल जाता है, कुछ सूख जाता है, इस तरह पानी कम होता है, वढता नही । हा, तो एक तो पानी वादलो के रूप मे जाकर कम होता है और दूसरे मे प्रति दिन असख्य जल राशि मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधो आदि के काम मे आती है ! इस तरह हमेशा जल का इतना इस्तेमाल होने पर भी वह घटता नही, प्रत्युत वढ़ता ही जाता है। इस से स्पष्ट है कि समुद्र, सरिता आदि मे स्थित जल में अभिवृद्धि होती है । यह बात अलग है कि हम पत्थर एव पेड़पौधो की तरह उसे प्रत्यक्ष में बढ़ते हुए नही देखते । इस तरह उस में होने वाली श्रभिवृद्धि से यह प्रमाणित होता है कि पानी सजीव है । और उसकी चेतनता संव प्रमाणो से सिद्ध है । yo B अव देखना यह है कि पृथ्वी, अग्नि और वायु मे भी जीव-चेतनता है या नही ? कुछ लोगो का कहना है कि पत्थर ठोस एव गक्त होता है, अत उसमें आत्मा कैसे प्रवेश कर सकती है ? ग्रापं सदा देखते हैं कि शरीर में स्थित हड्डी शक्त एव सघन होती है । फिर भी उस के Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MPAN प्रश्नों के उत्तर ११० एक-एक अणु मे आत्म प्रदेश व्याप्त है। जीवित मनुप्य एव पशु की हड्डी का एक अणु भी ऐसा नहीं कि जिस मे आत्म प्रदेगो का अभाव हो। दूसरी बात यह है कि लोहा भी सघन होता है। परन्तु जब उसे आग मे डालते है तो अग्नि के परमाणु लोहे के गोले मे प्रविष्ट हो जाते हैं। जव सघन लोहे में भी अग्नि के साकार परमाणु प्रवेश कर जाते है, तो - पत्थर आदि सघन पदार्थो मे अमूर्त आत्म प्रदेशो के प्रविष्ट होने में सशय को अवकाश है ही नहीं। इस मे स्पष्ट हो गया है कि जब हड्डी में आत्म प्रदेश रहते है और इसे हम सदा-सर्वदा देखते हैं, तो फिर पत्थर आदि मे प्रात्मा-चेतनता मानने में किसी भी तरह का विरोध नही होना चाहिए। . अागमो में कहा गया है कि परमाणु की गति में कोई वाह्य पदार्थ वाधक नही बनता है। वह सघन एव स्थूल पदार्थों मे से भी गति कर लेता है। जव सूक्ष्म परमाणुयो के लिए यह बात है- जो कि साकार है, तो जो अात्म प्रदेश निराकार है, उनकी गति में रुकावट कैसे हो सकती है? वे सघन से सघन पदार्थो मे से भी विना किसी तरह की रुकावट के आ-जा सकते है, उन मे प्रवेश पा सकते हैं। इस तरह पत्थर में चेतनता सिद्ध होती है। केवल आगम एव तर्क से ही नहीं, हम इस बात को प्रत्यक्ष मे भो देखते हैं । आपने देखा होगा कि ख़ान मे स्थित पत्थर सदा वढता रहता है । उस के आकारप्रकार में भी परिवर्तन होता रहता है। परन्तु जो पत्थर खान से निकाल लिया गया है और बाहर के हथियारो-औजारो से तथा धूप-पानी की थपेडो से निर्जीव हो गया है, उस मे अभिवृद्धि नही होती । इस से ___ पएसी! जीवे वि अप्पडिहयगइ पुढवि भिच्चा, सिल भिच्चा, पव्वयं । मिच्चा अन्तोहितो बहिया निन्गच्छइ। ' -रायपसेणीय सूत्र,६३ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ द्वितीय अध्याय स्पष्ट है कि पत्थर मे भी सजीवता है । अत केवल आगम के प्राधार पर ही नही, पर अपने अनुभव के बल पर भी कह सकते हैं कि पत्थर या पृथ्वी में चेतनता है, आत्मा है । अग्नि की सजीवता तो प्रत्यक्ष दिखाई देती है । शरीर की उष्णता एव जुगुनु का प्रकाश सजीवता के प्रतीक है । शरीर मे उष्णता एव जुगनु मे चमक न हो तो वे सजोव नहीं रहेंगे। और अग्नि मे भो उष्णता एव प्रकाश होने से वह भी सजोव है । इस के अतिरिक्त जत्र उसे वायु एवं इधन मिलता रहता है, तो उसमे भी अभिवृद्धि होती है, वह भी फैलता है, वढती है । वायु के प्रभाव मे अनि किसी भो हालत में सचेतन नही रह सकती । प्रज्वलित दीपक एव श्रगारा को किसी वर्तन से बन्द करके बाहर से मिलने वाली हवा को प्रविष्टनही होने देते हैं, तो वह दीपक एव अगारे तुरन्त बुझ जाते हैं । यही कारण है कि किसो व्यक्ति के शरीर पर पहने हुए वस्त्रो में लंगी हुई आग को बुझाने के लिए डाक्टर उस पर पानो न डालकर गर्म कम्वल या मोटे वस्त्र से उसके शरीर को आवृत करने की सलाह देते है। क्योकि इससे उसे बाहर से वायु का मिलना वन्द हो जाता है और उसके प्रभाव मे वह तुरन्त वुझ जाती है । इस तरह खुराक एव वायु के अभाव में उसको जीवन लोला - समाप्त हो जाती है । इसलिए अग्नि भी सजीव है । ✓ यह तर्क दिया जाता है कि उष्णता मे जीव केसे जोवित रह सकता है? यह तो जीव के शरीर का स्वभाव वन जाता है कि वह जिस वायुमंडल मे रहता है, उस तरह की गर्मी - सर्दी को सहने का आदि हो जाता है । अत्यधिक ठंडे प्रदेश मे रहने वाले व्यक्ति यदि विना किसी साधन के गर्मी के मौसम मे अत्यधिक गर्म प्रदेश Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ११२ में या जाए तो एक मिन्ट मे वे घबरा जाते है, जव कि वहा के निवासी मस्ती से अपनी जिन्दगी वीता देते हैं। जवासा एव आक के पौधे गर्मी में फले-फूले रहते है । ग्रत इसमें कोई ग्राश्चर्य की बात नही कि उष्णता में भी जीव रह सकते है | भगवती सूत्र में गौत्तम स्वामी के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने फरमाया है कि हे गोत्तम । वनस्पति के जीव वर्षा ऋतु में अधिक आहार लेते हैं और ग्रीष्म ऋतु मे थोडा ग्राहार लेते हैं । इस पर गौत्तम ने पूछा कि जव गर्मी में वनस्पति के जीव थोडा ग्राहार लेते है,तो कुछ पौधे गर्मी में भी पल्लवित - पुष्पित एव हरे-भरे क्यों दिखाई देते है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान ने कहा कि हे गोत्तम ! बहुत से उष्णयोनि के जीव ग्राकर उसमें उत्पन्न होते हैं । इसलिए वे पौधे उस भीषण गर्मी मे भी हरे-भरे दिखाई देते है । ईससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि उष्णता में भी जीवन रह सकता है । - वायु की सजीवता भी स्पष्ट है । कुछ लोग आखो से दृष्टिगोचर न होने के कारण वायु को सजीव नही मानते है । परन्तु उन का यह तर्क उपयुक्त नही कहा जा सकता । वयोकि बहुत से ऐसे पदार्थ है, जो ग्रांखो से दिखाई नही देते, फिर भी हम उनके अस्तित्व को मानते 1 है । जैसे देवता का शरीर हमे प्रत्यक्ष दिखाई नही देता । कई, योगि, मत्र तत्र और श्रीषधि के प्रयोग से अपने स्थूल शरीर को छुपा लेते है, अदृश्य हो जाते हैं, फिर भी हम उन्हे सजीव मानते हैं । ग्रत वायु-हवा आखो से दिखाई न देने मात्र से ही निर्जीव नही कही जा सकती । प्रत्यक्षीकरण केवल ग्राखो से ही नही, श्रोत्र, घ्राण, रसना और स्पर्ग इन्द्रिय से भी होता है । जैसे फूल एव इत्र की सुगन्ध आखो + भगवती सूत्र, शतक, ७, उद्दे शक ३ । www 2 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३.wwwm द्वितीय अध्याय __ -से दिखाई नही देती है, फिर भी विचारको ने उसे साकार रूप में ... स्वीकार किया है । क्योकि ध्राण इन्द्रिय - नासिका से उसके अस्तित्व एव साकारता का पता लगता है । इसी तरह स्पर्श इन्द्रिय के द्वारा वायु-हवा का भी प्रत्यक्षीकरण होता है। अत. उसे अदृश्य कहना या मानना गलत है, मिथ्या है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि वायु दृश्यमान और सजीव है। स्थावर के बाद त्रस आते हैं । त्रस के चार भेद हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । द्वीन्द्रिय मे वे प्राणी हैं,जिनके शरीर और जिव्हा ये दो इन्द्रियो हैं । सीप, लट आदि जन्तु इस में लिए जाते हैं। जिन जीवो के शरीर, जिव्हा और घ्राण इन्द्रिय-नाक है, उन्हे त्रीन्द्रिय कहा जाता है । कीड़े-मकोड़े, खटमल, जू आदि जन्तु'त्रीन्द्रिय मे -गिने. जाते हैं । शरीर, जिव्हा, नाक और आंख इन चार इन्द्रियो से युक्त प्राणी को चतुरिन्द्रिय कहते हैं। मक्खी-मच्छर, बिच्छू,टीड, पतगा आदि जन्तु इसमे समाविष्ट किए गए हैं। जो प्राणी शरीर, जिव्हा, नाक, कान, और प्राख पाचो इन्द्रियो से युक्त होते हैं, उन्हे पञ्चेन्द्रिय कहते हैं । पञ्चेन्द्रिय के दो भेद होते हैं - १ सन्नी पञ्चेन्द्रिय और २ असन्नी पञ्चेन्द्रिय । सन्नी पञ्चेन्द्रिय के चार भेद है-१ नरक, २ तिर्यच, ३ मनुष्य और ४ देवता । नरक सात हैं - १ रत्न प्रभा, २ शर्करा प्रभा, ३ वालु प्रभा ४ पक प्रभा ५ धम प्रभा ६ तम प्रभा और ७ तमतमा प्रभा। तिर्यंच के पांच भेद है१ जलचर- जल मे विचरण करने वाले मत्स्य, मेढक, मगरमच्छ आदि। २ थलचर- जमीन पर चलने वाले घोडा, गधा, गाय भैस, कुत्ता, सिह, आदि । ३ खेचर- आकाश में उड़ने वाले हंस, । नरक और स्वर्ग पर 'लोक स्वरूप ' अध्याय में प्रकाश डालेंगे। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नी के उत्तर ११४ म्यूर, कोयल आदि ४ उरपुर - पेट के वल रेगने वाले सर्प यादि और ५ भुजपुर - भुजाओ के वल पर गतिशील, नेवला, गिलहरी यादि । मनुष्य - कर्मभूमि और अकर्मभूमि के भेद से दो प्रकार का माना गया है । कर्म भूमि मे भी जम्बू द्वीप, घातकीखण्ड, पुष्करार्ध और उसमें भरत, एरावत और महावदी क्षेत्र एव श्रार्य श्रनार्य आदि क्षेत्रो के भेद-उपभेद से तथा कर्मभूमि मे भी देवकुरु, उत्तरकुरु, हरिवास, रम्चकवास, हेमवय, घरणदय और ५६ अन्तरद्वीपा की अपेक्षा से अनेक भागो मे विभक्त है। देवता के भी चार भेद हैं १ भवनपति, २ वाण - व्यन्तर ३ ज्योतिष्क और ४ वैमानिक । सन्नी पञ्चेन्द्रिय के दो भेद हैं- १ तिर्यश्व और २ मनुष्य | सन्नी तिर्यश्व के सन्नी तिर्यश्व की तरह पाच भेद हैं और उन के नाम उसी प्रकार हैं । सन्नी मनुष्य के १४ भेद है - वे जीव १ टट्टी, २ पेगाव, ३ खखार, ४ कफ, ५ नाक के मैल, ६ वमन, ७ पित्त, पीप, ९ खून, १० मृत कलेवर, ११ वीर्य, १२ स्त्री-पुरुष के सयोग, १३ नाली र १४ समस्त प्रगुचि स्थानो मे उत्पन्न होते हैं । ८ इस तरह अनेक गति, जाति एव योनियो मे अनन्त जीव विद्यमान हैं। उनकी सजीवता को आगम, तर्क, अनुभव एव वैज्ञानिक दृष्टि के ठोस प्रमाणों से प्रमाणित किया गया है । इतनी लम्बी चर्चा - +9 से हम स्पष्टत. देख चुके हैं कि ग्रात्मा है और वह स्वतंत्र रूप से गति शील है। उसके विकास और पतन मे निर्मित अनेक मिलते हैं, परन्तु वस्तुत. विकास के शिखर को सस्पर्श करने तथा पतन के गर्त मे गिरने वाला वह स्वय है । न कोई उसे धक्का देकर नरक में भेज सकता है श्रौर न कोई हाथ पकड़ कर स्वर्गे मे पहुचा सकता है । इस तरह जैन दर्शन अनन्त आत्माओ के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करता है । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५..... द्वितीय अध्याय जड़-अजीव मीमांसा हम पहले बता चुके हैं कि ससार मे मूल द्रव्य दो हैं-जीव और अजीव या चैतन्य और जड़ । जिसे साख्य प्रकृति और पुरुष के नाम से पुकारते हैं और वेदान्ती ब्रह्म और माया के रूप मे उसका विवेचन करते है । जीव द्रव्य का विवेचन पिछले प्रकरण मे कर चुके हैं,प्रस्तुत प्रकरण मे अजीव द्रव्य के विषय मे कुछ विचार करेंगे। अजीव या जड़ चैतन्य से रहित होता है । जड परमाणु मे भी हरकत होती है, वह भी गति करता है । फिर भी वह जीव से भिन्न है। क्योकि जीव मे चेतवा है, ज्ञान है, उपयोग है और जड़ मे इनका अभाव है । इसके ( अजीव के ) पाच भेद माने गए है १ धर्म, २ अधर्म ३ आकाश ४ पुद्ग्ल और ५ काल ! . धर्म और अधर्म द्रव्य यहाँ धर्म और अधर्म का अर्थ आत्मा की शद्धाशुद्ध परिणति से नहीं है और न इनका अर्थ पुण्य-पाप के रूप मे भी अभीष्ट है। ये दोनो स्वतत्र द्रव्य हैं। और आकाश की तरह सम्पूर्ण लोक मे व्याप्त है, वर्ण, गध, रस, और स्पर्श से रहित हैं, अरूपी है, अमूर्त हैं । उनका कोई आकार नही है, फिर भी दोनो अखण्ड द्रव्य हैं। इनमे कोई हरकत नही होती । धर्म, अधर्म, आकाश और काल चारो निष्क्रिय द्रव्य है। पुद्गल मे हरकत होती है । वह जीव की तरह गतिशील है, सक्रिय है । कई आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य नही मानते । उनके विचार से धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीव के चार भेद है। विशेष जानकारी के लिए देखें तत्त्वार्थ सूत्र (प सुख लाल सववी) पृ. १८५. । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ११६ ' आकाश अनन्त है । वह लोक और लोक मे भी व्याप्त है । काग मे स्थित लोक के ग्राकार को या यों कहिए लोक की सीमा को निश्चित करने के लिए यह नितान्त जरूरी है कि कोई ऐसी विभाजक रेखा किसी वास्तविक श्राधार पर तय की जाए, जिम से लोक मर्यादा जानी जा सके और पुद्गल एव जीवो का गमन उस अक्षांश रेखा को लाघकर ग्रलोक मे नही हो सके। आकाश श्रखण्ड, मूर्त और अनन्त प्रदेशी द्रव्य है। उसकी अपनी सत्ता सब जगह एक समान है । वह जीव और पुद्गलो को सर्वत्र अवकाश देता है । परन्तु उस मे जीव और पुद्गलो को लोकाकाश मे ही रोक रखने की प्रतिवन्धक शक्ति नही है। उस मे लोक और अलोक ग्राकाश के प्रदेश हैं, परन्तु स्वभाव भेद नही है । उसका अवकाश देने का स्वभाव सर्वत्र एक-सा है । इसलिए जीव और पुद्गलों का लोक के बाहर गमन न हो, यह नियत्रण करने की शक्ति आकाश मे नही है । जीव एव पुद्गल स्वय गतिशील हैं और जव वे गति करते हैं तो फिर उन के ठहरने या स्थित होने का सवाल ही नही उठता । परन्तु यह भी निश्चित है कि जीव और पुद्गल लोक के बाहर गमन नही करते हैं। ग्रत उन्हे लोक मे ही रोक रखने वाला लोकाकाग के वरावर एक अमूर्त, निष्क्रिय और अखन्ड द्रव्य है । जो गतिशील जीव और पुद्गल की गति में साधारण कारण होता है। यह द्रव्य स्वयं हरकत नही करता है और न ही किसी पदार्थ को गति करने के लिए प्रेरित ही करता है । परन्तु जो पदार्थ अपने स्वभाव से गति करते हैं, तव उन की गति मे सहायक होता है । इस द्रव्य के अभाव मे कोई भी पदार्थ - भले ही वह जीव हो या पुद्गल गति नही कर सकता । इस द्रव्य का प्रभाव गतिशील द्रव्यो की गति का अवरोधक है और यह द्रव्य लोकाकाश परिणाम है, " Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७... द्वितीय अध्याय अलोक मे नहीं है। इस कारण जीव एवं पुद्गल गतिशील स्वभाव वाले होने पर भी अलोक मे नही जा सकते है। इस द्रव्य को जैनागमो मे धर्म द्रव्य माना गया है। - जीव और पुद्गल गति भी करते हैं और स्थित भी होते है। जैसे गति करने मे धर्म द्रव्य साधारण कारण है, उसी प्रकार स्थित होने वाले जीव और पुद्गलो के स्थित होने मे अधर्म द्रव्य साधारण कारण है। वह भी धर्म द्रव्य की तरह लोक व्यापी, निष्क्रिय, अखण्ड एव अमूर्त द्रव्य है। इस के अस्तित्व का परिज्ञान लोक- के अन्तिम प्रदेश तक ही होता है। क्योकि अलोक आकाश मे धर्म द्रव्य का अभाव होने के कारण जीव और पुद्गलो की गति नही होती। अत. जड़-चेतन सभी पदार्थो को लोक मे ठहरने के लिए इसके सहयोग की अपेक्षा रहती है। ये दोनो द्रव्य स्वयं गतिशील नहीं है, किन्तु चलने और ठहरने वाले जीव और पुद्गलो की गति एव स्थिति मे साधारण निमित होते हैं। दोनो द्रव्य लोक व्यापी; निष्क्रिय, अखण्ड और अमूर्त हैं तथा दोनो उत्पाद-व्यय रूप से परिणमन करते हुए भी नित्य है । लोकालोक का विभाग इन्हीं दो द्रव्यो के आधार पर आधारित है। यह एक तर्क है कि आकाश अवकाश देता है, तो उसे स्थिति का कारण क्यो न माना जाए? स्थित होने मे अधर्म द्रव्य को साधारण कारण मानने की क्या आवश्यकता है? यदि आकाश को स्थित होने का कारण मानते हैं, तो आकाश तो आलोक मे भी विद्यमान है। क्योकि वह अखण्ड द्रव्य है और अनन्त प्रदेशी है। लोकाकाश तो असंख्यात प्रदेशी है, उसका अनन्त भाग तो आलोक मे ही है और वहा वह किसी भी पदार्थ के ठहरने मे सहायक नही बनता, तब वह लोक नो उत्पाद-व्ययपाल, निष्क्रिय, अखण्डारण निमित होते Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ११८ - मे स्थित होने वाले पदार्थों का कैसे सहायक हो सकता है। वह चलने एव ठहरने के लिए स्थान (अवकाश) दे देता है, परन्तु स्थित होने मे सहायक नहीं होता। स्थित होने वाले जीव या पुद्गल किसी भी द्रव्य को स्थान दे देता पीर बात है और उसके ठहरने में सहायक बनना और बात है । स्थान देना और ठहरना एक नही,दो क्रियाए हैं। स्थान अर्थात् अवकाग देने का स्वभाव आकाग का है, तो ठहरते हुए को ठहरने में सहयोग देने का स्वभाव अवर्म द्रव्य का है। अत अधर्म द्रव्य ही जीव और पुद्गल के स्थित होने मे साधारण कारण है । जिस प्रकार मछली को गति करने के लिए पानी और थके हुए पथिक को विश्राम लेने के लिए वृक्ष की छाया सहयोगी होती है, उसी तरह धर्म और अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलो की गति एव स्थिति में सहायक होते हैं। प्रो० घासीराम जैन ने अपनी "कासमोलाजी प्रोल्ड ऐण्ड न्यू" पुस्तक मे धर्म द्रव्य की तुलना आधुनिक विज्ञान के इथर नामक तत्त्व से की है और अधर्म द्रव्य की तुलना 'सर आइजक न्यूटन' के आकर्षण सिद्धान्त से की है। वैज्ञानिको ने भी इथर तत्त्व को अमूर्त, व्यापक और निष्क्रिय मानने के साथ गति का आवश्यक माध्यम भी माना है। यह जैनो के धर्म द्रव्य के समान ही है । अवर्म द्रव्य और विज्ञान के आकर्षण सिद्धांत को तुलना करते हुए प्रो० जैन ने लिखा है-"यह जैनधर्म के अधर्म विषयक मान्यता की सब से बड़ी विजय है कि विश्व की स्थिरता के लिए विज्ञान ने अदृश्य आकर्षण शक्ति की सत्ता को स्वय सिद्ध प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है और प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टीन ने उस मे सुधार करके उसे क्रियात्मक रूप दिया है। अब आकर्षण सिद्धांत को सहायक रूप में माना जाता है, मूलकर्ता के रूप Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ द्वितीय- अध्याय मे नही । इसलिए व वह जैन दर्शन के ग्रधर्म द्रव्य की मान्यता के बिल्कुल अनुरूप बैठता है । 15 “ प्रकाश द्रव्य जिस द्रव्य मे जीव, जीवादि सभी द्रव्य युगपत अवकाश पाए हुए हैं. वह आकाश द्रव्य है । पुदगल भी परस्पर एक दूसरे पदार्थ को अवकाश देते हुए देखे जाते हैं, जैसे तरत पर घडी, शीशी मे तेल आदि । । फिर इसे प्रकाश का हो गुण कैसे कहा जा सकता है ? तख्त पर पुस्तक एव अन्य पदार्थो के आधार पर अन्य पदार्थ स्थित दिखाई देते हैं, वहा भी आकाश ही है और वे पदार्थ अमुक पदार्थ पर रहे हुए - होने पर भी प्रकाश मे ही स्थित हैं । क्योकि प्रत्येक पदार्थ मे जितना भाग खाली या खुला है, वह आकाश ही है और दूसरे पदार्थ उसी आकाश में स्थित होते हैं । प्रत यह कहना उपयुक्त नही जचता कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ को अवकाश देता है । यदि व्यवहार दृष्टि से ऐसा मान भी ले तब भी आकाश के लक्षण से कोई अन्तर नही पडता । क्योकि कोई भी पदार्थ विश्व के समस्त पदार्थों को युगपत ( एकसाथ ) अवकाश नही दे सकता । वह कुछ ही पदार्थों को ठहरने का स्थान देता है, परन्तु प्रकाश सभी द्रव्यों को एकसाथ स्थित होने का स्थान देता है 1' वह ग्रनन्त प्रदेश युक्त, निष्क्रिय, अमूर्त और प्रखण्ड द्रव्य है । इसके मध्य भाग मे चवदह राजू का पुरुषाकार लोक है । इसके कारण यह लोक आकाश और अलोक आकाश इन दो भागो मे विभक्त हो जाता है । लोक के चारो ओर अलोक आकाश फैला हुआ है । लोक आकाश असख्यात प्रदेशी है और शेष भाग अनन्त प्रदेशी है। झुलोक मे केवल आकाश ही है और अन्य कोई द्रव्य नही है । आकाश 2 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..१२० -AVaru प्रग्नों के उत्तर ............... के प्रदेश वन मे नन्तु की तरह पतिबद्ध है, एक परमाणु जितने आकाग को रोकता है उसे प्रदेश कहते हैं। उस नाम के अनुमार प्राकाश अनन्त प्रदेश वाला है ! लोकाकाग में सूर्योदय की अपेक्षा में पूर्व-पश्चिम आदि दिगानी की गणना होती है। परन्तु दिशा-विदिशा कोई स्वतत्र द्रन्य नहीं है । यदि पूर्व-पश्चिम आदि के व्यवहत होने के कारण दिशा को भी स्वतन द्रव्य मान लें, तो फिर दिशा को अपेक्षा से क्षणिण देग,उत्तर देश आदि का व्यवहार होने से देश को भी स्वतंत्र द्रव्य मानना होगा और फिर प्रान्त, गाव,जिला, तहसौल आदि अनेको स्वतंत्र द्रव्यों को स्वीकार करना होगा। अतः किसी अपेक्षा विशेष के कारण व्यवहार होने मात्र से दिगानो को स्वतत्र द्रव्य नही माना जा सकता है। उनका कोई स्वतत्र अस्तित्व नहीं है। क्योंकि ढाई द्वीप के बाहर जहां सूर्यादि गतिशील नही है तथा अलोक मे जहा मूर्यादि का अभाव है, वहा दिशा-विदिशात्रो का व्यवहार ही नहीं होता। यदि प्राकाम की तरह दिशा भी स्वतत्र द्रव्य होती तो ढाई द्वीप के बाहर एवं अलोक में जनका व्यवहार होता । परन्तु वहा दिशा-विदिशा का व्यवहार नहीं होता है, अत दिशा को स्वतंत्र द्रव्य मानना युक्ति सगत नहीं है। वैशेपिक आदि दार्गनिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं। . परन्तु यह युक्ति संगत नहीं है। आज के विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है कि शब्द आकाश का गुण नहीं है। रेडियो, ग्रामोफोन आदि अनेक यंत्रो से शब्द को ब्रहण करके उसे इप्ट स्थान पर भेजा जाता है तथा जब चाहे तव सुना जा सकता है। इन वैज्ञानिक प्रयोगों से यह स्पप्ट सिद्ध हो गया है कि शब्द आकाश का गुण नहीं, पुदग्ल है । शब्द पुदग्ल के द्वारा स्वीकार किया जाता है, पुदगल ही Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१.www.www.. द्वितीय अध्याय ~ Movie इसे धारण करता है, पुद्गलो से रोका जाता है, पुद्गलो को रोकता हैं, पुद्गल- कान आदि के पर्दो को भी फाड़ देता है, पौद्गलिक वातावरण मे कपन पैदा करता है, इससे वह पौद्गलिक है। ___ . आकाश अमूर्त है, अत. उसका गुण अमूर्त द्रव्य हो सकता है, न कि मूर्त पदार्थ । शब्द- अमूर्त नही है। क्योकि अमूर्त पदार्थ मूर्त पुद्गल के द्वारा न तो पकडा ही जा सकता है और न उसे यंत्रो के द्वारा स्थानान्तर मे भेजा ही जा सकता है । किन्तु शब्द दो स्कन्धो के संघर्ष से पैदा होता है और अपने आस-पास के स्कन्धो को भी शब्दायमान कर देता है अर्थात् वह अपने प्रवाह पथ मे पड़ने वाले स्कन्धो को गन्द पर्याय मे बदल देता है और इस तरह वह दूर-दूर तक फैल जाता है। जैसे जल मे ककड़ डालने पर एक लहर उत्पन्न होती है और वह लहर अपने आस-पास के अन्य जलकणो को तरगित करती हुई जलागय को तरगित कर देती है और वह 'वीचीतरग न्यायवत्' जलाशय के वातावरण को तरगित करती हुई काफी दूर तक फैल जाती है । इसी तरह शब्द भी प्रासपास के स्कन्धो को शब्दमय बनाते हुए बहुत दूर तक फैल जाते हैं । इसलिए उन्हे अमूर्त अाकाश का गुण मानना विज्ञान, तर्क एव बुद्धि के सर्वथा विपरीत है। विज्ञान शब्द एव प्रकाग की गति के लिए जिस इथर नामक पदार्थ के माध्यम की कल्पना करता है, वह आकाश नही है । हम पहले ही बता चुके हैं कि वैज्ञानिको का इथर जैनो के धर्म द्रव्य के समान अमूर्न, निष्क्रिय, लोक व्यापी और परिणमनशील तत्त्व है और वह जीव एव पुद्गल की गति मे साधारण कारण है । आकाग एक अखण्ड द्रव्य है और अनन्त प्रदेशी है । यदि उसे Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १२२ अनन्त प्रदेशी न माना जाए तो पजाव और वगाल के आकाश मे कोई अन्तर नहीं रह जायगा । दोनो प्रदेश एक ही क्षेत्र में आ जाएंगे। परन्तु ऐसा नही होता है, क्योकि पजाव के आकाग प्रदेश और वगाल के आकाश प्रदेश अलग-अलग हैं। इसी कारण उसे अनन्त प्रदेश वाला माना है । आकाश एक होने पर भी दोनो प्रान्तो के आकाश प्रदेश भिन्न-भिन्न है। इससे क्षेत्र व्यवस्था ठीक ढग से घटित हो जाती है। वौद्ध दर्शन में आकाश को असस्कृत माना है और उसका विवेचन अनावृत्ति ( आवरण रहित ) रूप से किया है। यह न किसी पदार्थ को श्रावृत्त करता है और न किसी पदार्थ से प्रच्छन्न होता है। असस्कृत का मतलव होता है- उत्पादादि धर्मो से रहित । एकान्त - क्षणिकवादी वौद्ध दर्शन के द्वारा आकाश को संस्कृत मानना कुछ समझ मे नही आता है। भले ही इसे अनावृत्त माना जाए फिर भी वह भावात्मक पदार्थ है, इसे स्वयं वौद्धों ने माना है। और बौद्धो के मत मे भावात्मक पदार्थ उत्पादादि धर्मो से रहित नही होता। यह वात अलग है कि हम उसमे होने वाले उत्पादादि धर्मों का विवेचन न कर सके । किन्तु उनके स्वरूप से इन्कार नही किया जा ' सकता और न उसे मात्र आवरणाभाव ही माना जा सकता है । क्योकि समस्त जीव-अजीव आदि द्रव्य आकाग से वेष्टित हैं और उसकी पर्यायो मे भी प्रति समय परिवर्तन होता रहता है । अत. आकाश न तो अनावृत्त ही है और न उत्पादादि वर्मो से रहित ही है। वह उत्पाद, तित्राकाशमनावृत्तिः। -अभिवर्म कोश, १, ५. + अभिधर्म कोग, १, २८॥ - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ द्वितीय अध्याय व्यय रूप परिणमनशील नित्य - शाश्वत पदार्थ है । वह प्रकृत्रिम और अनादि-अनन्त है । क्षेत्र की दृष्टि से लोकाकाश सान्त है और अलोकाकाश अनन्त है । क्योकि अलोक आकाश का कही अन्त नही है | पुद्गल द्रव्य वर्ण, गध, रस और स्पर्श युक्त सभी मूर्त पदार्थ पुद्गल हैं । $ पूद् श्रीरंगल इन दो धातुत्रों के सयोग से पुद्गल शब्द वना है । पूद् का अथ होता है पूरण अर्थात वृद्धि और गल् का अर्थ है - गलना, ह्रास होना । इस तरह जो पदार्थ पूरण और गलन या मिलने और विछुडने के कारण विविध रूपो मे परिवर्तित होता रहता है, उसे पुद्गल कहते हैं । ससार के सभी मूर्त पदार्थो मे यह स्वभाव परिलक्षित होता है । यह हम सदा देखते है, अनुभव करते हैं कि हमारे अपने शरीर मे एक दुनिया के अन्य पदार्थो मे प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । परमाणुओ का संयोग वियोग हर मूर्त पदार्थ मे होता है । दूसरे शब्दो मे हम यो कह सकते हैं कि अनन्त परमाणुओ का समूह ही मूर्त पदार्थ के रूप मे इन्द्रिय गोचर होता है, उसमे से अनेक पुराने परमाणु अलग होते है और अनेक नए परमाणु आकर सम्मलित होते है । इस तरह एक परमाणु दूसरे परमाणु के साथ मिलता और विछुडता रहता है । इस प्रकार परमाणु मे भी पुद्गल सजा अर्ययुक्त है । क्योकि पुद्गल का मूल रूप परमाणु ही है । परमाणुत्रो का समूह स्कन्ध कहलाता है । पर्यायो को $ स्पर्शरसगधवर्णवन्तः पुद्गला । S पूरणगलनान्वर्थं सचत्वात् पुद्गला । -तत्त्वार्थ सूत्र, ५, २३. - तत्त्वार्थ राजवार्तिक ५, १,२४० Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर PANAM AMA १२४ दृष्टि से उसमे परिवर्तन होता है, कुछ परमाणुयो के सयोग-वियोग से नई पर्याय (रूप) का प्रदुर्भाव होता है और पुरातन पर्यायों का विनाश होता है, परन्तु परमाणु रूप द्रव्य का अस्तित्व सदा वना रहता है । जैसे ग्राक्सीजनचौर हाइड्रोजन दो गैसो के परमाणुओं का सयोग उभय निप्ठ गैस रूप पर्यायों का विनाग और जल कायिक शरीर की पयार्यो का उत्पादक है | इस प्रक्रिया से गैस रूप का नाश होकर पानी का उत्पाद होता है और दोनो रूपो मे परमाणु रूप का नाश नही होता है । अथवा यो कहिए प्रत्येक पदार्थं पर्यायों की दृष्टि से उत्पाद व्यय युक्त होने पर भी परमाणु द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है, नित्य है । धर्म, धर्म, आकाश और पुद्गल इन चार द्रव्यो मे धर्म और धर्म द्रव्य को जैनो ने ही माना है । जैनेतर दर्शनों मे उनका वर्णन नही मिलता है । आकाश और पुद्गल को ग्रन्य दार्शनिको ने भी माना है । जैनदर्शन प्रकाश को द्रव्य रूप में मानता है, अन्य दार्शनिको ने उसे मात्र ग्राकाश कहा है और उसके स्वरूप मान्यता मे भी भेद है। पुद्गल शब्द जैनो का पारिभाषिक शब्द है, अन्यत्र नही मिलता है । इतर दर्जनो मे यह प्रकृति, माया एव परमाणु के नाम से व्यवहृत है । वौद्ध ग्रन्थो से पुद्गल गन्द मिलता है । वहा उसका प्रयोग अजीव के अर्थ मे नही, बल्कि जीव के अर्थ मे हुआ है । पदार्थो का रूप परिवर्तन या उत्पन्न एवं विनष्ट होना, यह पुद्गल का स्वभाव है । मोटे तौर पर हम जिन पदार्थो का आस्वादन करते है, स्पर्ग करते हैं, अवलोकन करते है, श्रवण करते है और सूघते हैं, वे सभी पदार्थ पुद्गल हैं । ऋत. जैनदर्शन मे पुद्गल का स्वरूप वर्ण, गंध, रस एव स्पर्ग युक्त साकार माना गया है । यहा तक की प्रति सूक्ष्म माना जाने वाला परमाणु भी साकार है, वर्णादि से युक्त है । आधु Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ ...........द्वितीय अध्याय निक वैज्ञानिको ने भी अणु-परमाणु (Atom)को खोज निकाला है,फिर भी जैनो के परमाणु और वैज्ञानिको के Atom मे काफी अन्तर है। जैनो की दृष्टि से परमाणु अविभाज्य अश है अर्थात उसके दो टुकडे नहीं किए जा सकते,यहा तक कि जिसके दो भागो की कल्पना भी न की जा सके । जिसका वह स्वय ही आदि है, वही मध्य है और वही अन्त है अथवा जिसका आदि, मध्य और अन्त एक ही है, वह परमाणु है ।* परन्तु वैज्ञानिको के Atom का ऐसा स्वरूप नही है। विज्ञान वेत्तानो ने Atom के इलैक्ट्रोन,प्रोट्रोन और न्यूट्रोन आदि भेद माने है अर्थात् वैज्ञानिको ने Atom को कई भागो मे वॉट दिया है । अत वैज्ञानिको का Atom जैनो द्वारा मान्य परमाणु नही, प्रत्युत परमाणो का समह है। . पुद्गल द्रव्य के स्कन्ध, स्कन्द देश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणु ये चार भेद होते है, अनन्तानन्त परमाणुमो के मिलने से स्कन्ध बनता है,स्कन्ध के अर्ध भाग को स्कन्ध देश और उसके भी आधे हिस्से को स्कन्ध प्रदेश कहते है । परमाणु सबसे छोटा हिस्सा होता है। उसका-विभाग नही होता है । ग्रीक के दार्शनिक जेनो ने यह स्वीकार नही किया कि पुद्गल का भी अन्तिम भाग अणु हो सकता है। उसने यह तर्क दिया कि आप पुद्गल का चाहे जितना छोटा विभाग * अन्तादि अन्तमज्झ, अन्तान्त व इन्दिए गेज्म । ज दन्व अविभागी, त परमाणु विजाणीहि।। . -तत्त्वार्थ राजवार्तिक ५/२५,१,१ । खवा य खवदेसा य, तप्पएसा तहेव य । परमाणुणो य वोधव्वा, रुविणो य चविहा।। . . -उत्तराभ्ययन मूत्र, ३६, ५०. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर करें, वह टुकडा रूपादि युक्त होगा और जो हिस्सा स्पादि युक्त है, उसका फिर विभाग हो सकता है । वह विभाग भी रूपादि युक्त होगा, अत. उसका विभाग एव आगे होने वाले विभागो का भी विभाग होना सभव है, क्योकि वे सब विभाग स्पादि युक्त होंगे। अणु को निरवयव मानने से उसमे अनवस्था दोप होगा। अत यह मानना गलत है कि पुद्गल का अविभाज्य अग या विभाग होता है। इसके उत्तर में एक प्रसिद्ध विचारक ' एरिस्टोटल' ने कहा कि जेनो का यह तर्क सही नहीं कहा जा सकता । जहा तक कल्पना का सवाल है, हम अणु के भी अणु करते जाएगे, किन्तु प्रैक्टीक्ल रूप मे ऐसा नहीं हो सकता। जब हम किसी वस्तु को विभक्त करने लगते है तब वह विभाग कही न कही पहुंचकर अवश्य रुकता है । जिस खण्ड के वाद उसका विभाग नही होता, वही अणु है । काल्पनिक खण्ड के विषय में माना जा सकता है कि वह अन्त रहित है, क्योकि कल्पना की पहुंच अन्ति तक है । परन्तु पदार्थ के विषय मे ऐसा मानना गलत होगा और अनुभव से भी विरुद्ध होगा, क्योकि पदार्थ अन्त सहित है, उसका किनारा स्पष्ट परिलक्षित होता है । सब से बड़ा प्रमाण यह है कि पदार्थ मूर्त है और मूर्त सदा सान्त होता है । इसलिए पुद्गल का अन्तिम हिस्सा अवश्य होता है। उसका जो अन्तिम भाग है, वही अणु है और वह अविभाज्य अश है। हम प्रारभ मे ही बता चुके है कि पुद्गल वर्ण, गघ, रस, स्पर्श सहित होते हैं । स्कन्वादि मे तो यह वात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। परन्तु परमाणु में कैसे घटित होगी, जिसका कोई विभाग नहीं होता और जो न इन्द्रिय गोचर ही होता है? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक • है। इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया है कि परमाणु आखो से दिखाई Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ रस, स्पर्श युक्त सा स्पर्श नही परमाणु में स्कयको पाए जाते हैं। उक्त चारो स्पर्श सापेश अणु में नहीं द्वितीय अध्याय नही देता,फिर भी वह मूर्त है, साकार है । क्योकि वह स्कन्ध-रूप-कार्य का कारण है । जव कार्य मूर्त है, तो कारण भी मूर्त ही होगा। अमूर्त से मूर्त की उत्पति नही होतो और स्कन्ध की उत्पति परमाणुओ के मिलने से होती है, इसलिए परमाणु वर्ण, गध, रस, स्पर्श युक्त साकार है । फिर भी एक परमाणु में स्कध को तरह '५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, स्पर्श नही पाए जाते । एक परमाणु मे १ वर्ण,१ गध,१ रस और २स्पर्श पाए जाते हैं ।। दो स्पर्श वे ही पाए जाते है, जो परस्पर विरोधी न हो। कोमल, कठिन, शीत और उष्ण ये चार स्पर्श अणु में नही पाए जाते है । क्योकि उक्त चारो स्पर्श सापेक्ष हैं, अत. स्कघ मे ही पाए जाते हैं। ___ अणु पुद्गल का शुद्ध रूप है । वह शब्द नहीं है, क्यो कि शब्द के लिए अनन्त अणुप्रो के सम्मिलन की आवश्यकता रहती है, अत वह शब्द का कारण नही है। इसी तरह स्कध भी एकाधिक अणुओ का होता है । अत अणु और स्कंध मे भी भेद है । ___ अणु इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता है । तब फिर उसे अरूपी या अमर्त क्यो न मान लिया जाए? हमारी किसी भी इन्द्रिय से उनका परिज्ञान + स्कन्ध अनेक परमाणुओं के मिलने से बना है । जैन दर्शन की यह मान्यता है कि स्निग्व-स्निग्ध और रुक्ष-रूक्ष परमाणुओ का वंध नही होता । पर स्निग्ध और रूक्ष परमाणुगो का बन्ध होता है । इस दृष्टि से सभी परमाणुमो में दोनो स्पर्श नही पाए जा सकते । कुछ परमाणु स्निग्ध स्पर्श वाले होगे तो कुछ रूक्ष स्पर्श वाले । इसी तरह वर्ण, गध, रस भी विभिन्न परमाणुओ के सुमेल से एक ही स्कध में सघटित रूप से रहते हैं। फिर भी जिस वर्ण, गंव एव रस के परमाणुओ की अधिकता होती है, वह वर्ण, गध एव रस प्रमुख रूप से दृष्टिगोचर होता है और शेष गौण रूप से रहते है । तो कुछ रूक्ष स्पल नही पाए जा सकन्च होता है । शो का बंध नहीं की यह Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर -rrrrrrrrrrrrrrrrrr: .xnxx १२८ ~ ~ ~ ~ न होने पर भी. परमाणु अरूपी नही है । क्योकि उसका स्कन्धादि ल्प कार्य मूर्त है। जो अरूपी तत्त्व होता है, उसका कार्य भी अरूपी ही होता है। स्कधादि मर्त एव साकार कार्य से परमाणु की साकारता का स्पष्ट अनुभव होता है । अत सूक्ष्म होने पर भी परमाणु-को साकार माना गया है। जैन दर्शन मानता है कि स्कध मे से जो अण पैदा होते हैं, वे भेद से होते हैं। इससे यह प्रश्न हो सकता है कि फिर अणु भी अंनित्य हो जाएगा। क्योकि जो अणु पैदा होता है,उसका विनाश भी होता है । अत. परमाणु रूप से पुद्गल द्रव्य की नित्यता की जो मान्यता है, वह घटित नही हो सकेगी नही,ऐसी बात नहीं है। इस मान्यता से पुद्गल द्रव्य की नित्यता मे कोई अन्तर नही पडेगा । क्योकि पुद्गल के दो रूप बताए गए हैं -एक अणु रूप से और दूसरा स्कय रूप से ।। जो पुदगल अणुपरमाणु रूप हैं, उनके उत्पन्न होने का सवाल ही नही उठता है। परन्तु, जो परमाणु स्कघ के रूप में परस्पर मिले हुए हैं, वे एक दूसरे से विलग हो सकते है या नहीं, यह प्रश्न है? इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया है कि भेद पूर्वक वे भी स्कघ से अलग होकर परमाणु हो सकते है । जव स्कध मे भेद होता है, स्कव टूटता है, तव अणु पैदा होता है । इस अपेक्षा से अणु स्कघ का कार्य है। परन्तु अणु की उत्पत्ति सयोग से नहीं होती, क्योकि वह अविभाज्य अंश है । जहा सयोग होगा वहा एकाधिक अणु होगे, कम से कम दो तो होगे ही - । भेदादणु । -तत्त्वार्य सूत्र, ५,२७. * अणव. स्कधाश्च । -तत्त्वार्थ सूत्र, ५,२५. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ द्वितीय अध्याय और दो ग्रग्रो वाला स्कघ होता है । इससे स्पष्ट है कि अणु को जो कार्य रूप या उत्पन्न होना माना है, वह स्कध मे रहे हुए अणुओ को उस स्कघ से अलग होने की अपेक्षा से माना है । वैशेषिक दर्शन की पदार्थ मान्यता वैशेषिक दर्शन नव पदार्थ मानता है- पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन । प्रथम चार द्रव्यो मे उनने जिन गुणो को माना है, वे सब पुद्गल द्रव्य मे आ जाते है । वैशेषिक पृथ्वी मे वर्ण, गध, रस, स्पर्ग चार गुण, अप मे वर्ण, रस, स्पर्श तीन गुण, , तेज मे वर्ण और स्पर्श दो गुण और वायु से केवल स्पर्श गुण मानते है। जैन दर्शन सभी मे चारो गुण मानता है, क्योकि वर्ण, गध, रस और स्पर्श सहचारी है। वायु मे रूप स्पष्टतया दिखाई नही देता है, इस का कारण हमारी चक्षु इन्द्रिय की पटुता की कमी है, न कि वायु ही रूप रहित है । उसका रूप अनुभव सिद्ध है, क्योकि वह स्पर्शाविनाभावी है | जसे घट-पट-तख्त आदि मे रूप है, क्योकि वहा स्पर्श है । वायु मे रूप होते हुए भी दृष्टिगोचर नही होता, इसका कारण यह है कि चक्षु आदि इन्द्रियो स्थूल विपय को ही ग्रहण कर सकती हैं। जैसे पृथ्वी मे सूक्ष्म गध के रहते हुए भी घ्राणेन्द्रिय उसे ग्रहण नही कर सकती, उसी तरह वायु मे स्थित रूप को भी चक्षु इन्द्रिय देख नही सकती । जैनो की यह मान्यता वैज्ञानिको की प्रयोगशाला मे भी सिद्ध हो चुकी है । वैज्ञानिको ने यह प्रमाणित कर दिया कि वायु को निरन्तर ठडा करते रहने पर वह नीले रंग मे परिवर्तित हो जाता है, जैसे वाष्प को पानी के रूप मे 1 NWA † વૃયિવ્યન્તેનોવાચ્વાળાગાવિાત્મામનાસિ । - तर्कसंग्रह | Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के. उत्तर ma........२०.. बदला जा सकता है। जव वायु मे वर्ण-रूप. सिद्ध हो गया तो गन्ध और रस तो स्वत. सिद्ध हो जाते है। इस प्रकार जैसे वायु मे चारो गुण पाए जाते हैं, वैसे अप् और तेज मे भी चारो ही गुण पाए जाते है। इसे स्पष्ट करने की अवश्यकता नही है। वैशेपिक दर्शन जैसे पृथ्व्यादि द्रव्यो मे भिन्न गुण स्वीकार करता है, वैसे ही वह उन विभिन्न द्रव्यो मे भिन्न परमाणु के अस्तित्व को भी मानता है। पृथ्वी के परमाणु अलग है, पानी के परमाणु अलग है, इसी तरह अन्य सभी द्रव्यो के परमाणु अलग है और वे परमाणु एकदूसरे द्रव्य के परमाणुओ से भिन्न है। यह उनका परमाणु नित्यवाद है । उनकी मान्यता है कि सभी द्रव्यो के परमाणु नित्य होते है, उनके कार्य मे परिवर्तन होता रहता है, किन्तु उन परमाणुओं मे परिवर्तन नहीं होता। परन्तु यह मानना युक्तिसगत नहीं है। क्योकि यह देखा जाता है कि एक द्रव्य के परमाणु दूसरे द्रव्य के परमाणुग्रो के रूप मे वदल जाते है। आक्सीजन और हाईड्रोजन दो गैसो का समिश्रण होता है या किया जाता है, तो दो गैसो के रूप मे स्थित, वायु के परमाणु पानी के रूप में परिवर्तित हो जाते है । अस्तु जैन दर्शन द्रव्यो के भिन्नभिन्न परमाणुगो को नहीं मानता है । और आज का विज्ञान भी इस बात को मानता है कि एक द्रव्य के परमाणु दूसरे द्रव्य के परमाणुप्रो के रूप में परिवर्तित होते, है या किए जा सकते है । ग्रीक दार्गनिक ल्युसिपस और डेमोक्रेट्स भी परमाणुरो के भेद को नही मानते है । वह § Air can be converted bluish liquid by continuous cooling, just as steam can be converted into water. -जैन दर्शन (मोहन लाल मेहता) पृ. १८२ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१. द्वितीय ग्रध्याय सव परमाणुओ को एक जाति का मानता है । वह जाति - भूत सामान्य या जड सामान्य है । यही बात जैन दर्शन मानता है । समस्त परमाणु जड- अजीव है और परिणामी नित्य हैं । स्कन्ध की उत्पत्ति यह हम ऊपर वता चुके हैं कि पुद्गल चार प्रकार का होता हैस्कन्ध, स्कन्ध देश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणु । सभी स्कन्ध परमाणु के समूह है। उनका निर्माण तीन तरह से होता है - भेदपूर्वक, सघात - सरलेप पूर्वक और भेद-सघातपूर्वक । * AAAAA AAMANA भेद दो तरह से होता है - श्राभ्यान्तर और बाह्य । स्कन्ध मे स्वय विदारण होता है । अत आन्तरिक कारण से स्कन्ध मे से जो परमाणु अलग होते हैं, उसमे किसी बाहरी कारण - की अपेक्षा नही होती । जैसे मन स्कन्ध के परमाणु विना बाहरी ग्राघात के ही स्कन्ध से अलग हो जाते है, उन्हें स्कन्ध से पृथक होने के लिए बाहरी भेद की जरूरत नही होती । परन्तु बाहरी कारण से होने वाले भेद में स्कन्ध के अतिरिक्त दूसरे कारण की अपेक्षा होती है । उस कारण के होने पर स्कन्ध मे उत्पन्न होने वाले भेद को वाह्य कारण मानते है । अलग-अलग रहे हुए परमाणु का एकीभाव होना सघात है । यह भी ग्राभ्यान्तर और वाह्य भेद से दो प्रकार का होता है । दो पृथक-पृथक परमाणुओ का मिलन या दो से अधिक परमाणु का सयोग सघात कहलाता है । भेद और मंघात उभयपूर्वक वनने वाला स्कन्ध भेद-सघात कहलाता है । उदाहरण के तौर पर एक स्कन्ध मे से एक हिस्सा टूट कर अलग हुआ और उसी समय दूसरा स्कन्ध आकर उसमे मिल गया या मिला AMA AN 1 भेदसघातेभ्य उत्पद्यन्ते । - तत्त्वार्थ सूत्र ५, २६. A WA Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमत - 4 ve----- -- --- प्रश्नों के उत्तर १३२ AAAAAAPAN दिया गया और वह एक अभिनव स्कन्ध बन जाता है। इस प्रक्रिया मे निर्मित स्कन्ध को भेद और सघात उभयपूर्वक मानते है । इस प्रकार तीन तरह से स्कन्ध का निर्माण होता है। कभी केवल भेद से, कभी केवल सघात से और कभी भेद और सघात से। दो या दो से अधिक पृथक-पृथक रहे हुए परमाणुयो का सघातसरलेप या वन्ध कैसे होता है? जैन दार्गनिको ने इसका उत्तर देते हुए कहा है कि परमाणुयो मे जो संश्लेप होता है-वह उन मे रहे हुए स्निग्ध और रुक्ष स्पर्श के कारण होता है । * वन्ध मे इन वातो का होना जरूरी है १ जघन्य गुण युक्त अवयवो का वन्ध नही होता है । २ समान गुण होने पर भी सदन अवयवों का अर्थात् स्निग्ध से । स्निग्ध या ल्क्ष से रुक्ष अवयवो का वन्व नही होता है । ३ दो से अधिक गुण वाले अवयवो का बन्ध होता है। इस से यह स्पष्ट हो गया है कि परमाणुओ मे स्निग्वत्व या रूक्षत्व का अश या गुण जघन्य होने पर उनमे वन्य नहीं होता, मध्यम या उत्कृष्ट गुण होने पर ही उनका वन्व होता है । दूसरे निषेध का तात्पर्य यह है कि समान गुण युक्त सदृश अवयवो मे परस्पर वन्च नही होता है। जैसे स्निग्ध से स्निग्ध या रुक्ष से रुक्ष अवयवो का बन्ध नही होता है। इसे और सीमित करते हुए कहा गया है कि असमान गुण वाले सदृश अवयवो में भी तभी वन्ध होता है,जव एक अवयव का स्निग्वत्व या रूक्षत्व गुण दूसरे अवयव से दो गुण अधिक हो । इससे यह amarrian * स्निग्धरुक्षत्वाद् बन्ध । -तत्त्वार्थ सूत्र, ५, ३३. 5 न जघन्य गुणानाम् । गुणसाम्ये सदृशानाम । -- द्वयधिकादिगणान्तु । ___-तत्त्वार्य सूत्र, ५, ३४-३६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ द्वितीय अध्याय स्पष्ट हो गया है कि एक अवयव के स्निग्धत्व या रूक्षत्व की अपेक्षा दूसरे श्रवयव का स्निग्धत्व या रूक्षत्व एक गुण अधिक हो तो भी उन का वन्ध नही होता, दो गुण अधिक होने पर ही बन्ध होता है | S बन्ध की मान्यता मे दो परपराए हमारे सामने है । वेताम्बर और दिगम्बर । श्वेताम्बर परपरा की यह मान्यता है कि दो परमाणु जघन्य गुण वाले हो तो उनका बन्ध नही होता है। किन्तु एक परमाणु जघन्य गुण युक्त हो और दूसरा मध्यम या उत्कृष्ट गुण युक्त हो तो दोनो मे बन्ध हो जाता है । परन्तु दिगम्बर परपरा मे यदि दो परमाणुनों मे से एक परमाणु भी जघन्य गुणवाला है, तो उनमे बन्ध नही होता हैं। परन्तु श्वेताम्बर सिद्धात के अनुसार एक परमाणु से दूसरे परमाणु मे स्निग्धत्व या रूक्षत्व दो, तीन, चार यावत् सख्यात, असख्यात, अनन्त गुण अधिक होने पर भी वन्ध हो जाता है, एक गुण अधिक का वन्ध नही होता । जबकि दिगम्बर मान्यतानुसार एक अवयव से दूसरे अवयव मे स्निग्धत्व या रूक्षत्व दो गुण अधिक होने पर ही बन्ध होता है, न कि एक गुण अधिक होने पर वन्ध होता है और न तीन, चार यावत् अनन्त गुण अधिक होने पर वन्ध होता है । श्वेताम्बर परपरा की धारणा के अनुसार दो, तीन आदि गुणो के अधिक होने पर जी वन्ध का विधान है, वह सदृग अवयवो के लिए है, असदृग अवयवो के लिए नहीं । § वव परिणामे ण भते । कइविहे पन्नते ? गोयमा ! दुविहे पन्नते, तजहा - गिद्ध वधण परिणामे, लुक्खववण परिणामे । समलुक्खाए वि ण होइ । खघाण 11 " समणिद्धाए वो ण होइ माणिक्खतणेण वघो गिद्धस्स णिद्वेण दुर्यााहिए ण, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिए ण । णिद्धस्स लुक्खेण उवेइ वधो, जहण्णवज्जो विसमो समो वा । - प्रज्ञापना सूत्र, पद १३ , उ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... . प्रश्नों के उत्तर . . , ... १३४ दिगम्बर धारणा के अनुसार सदगीर अमग दोनो प्रकार के अवयवो के बन्ध के लिए है । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परायों के बंध विपयक मतभेद का सार निम्न कोष्ठको मे दिया जाता है*.. श्वतांवर परम्परा . सदृश विसदन १ जघन्य जघन्य नहीं नहीं २ जघन्य+एकाधिक -३ जघन्य-+-द्वयाधिक ४ जघन्य+त्र्याधिकादि - ५ जघन्येतर+सम जघन्येतर ६ जघन्येतर एकाधिक जघन्येतर ७ जघन्येतर+याधिक जघन्येतर ८ जघन्येतर+याधिक जघन्येतर दिगम्बर परम्परा १ जघन्य+जघन्य २ जघन्य + एकाधिक ३ जघन्य-+याधिक । नहीं नहीं ४ जघन्य+त्र्याधिकादि नहीं नही ५ जघन्येतर+सम जघन्येतर नहीं ६ जघन्येतर+एकाधिक जघन्येतर - नही नही ७ जघन्येतर+याधिक जघन्येतर - है है ८ जघन्येतर+त्र्याधिकादि जघन्येतर नही , नहीं दो असदृग गुणवाले अवयवो मे बन्ध होता है,तो वे परमाणु किस * तत्त्वार्थ सूत्र (प सुखलाल सघवी) पृ २०२ ow on al, a one are a Find thcche cretc _ नहीं नही नही नहीं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ रूप मे परिणत होते है? कौन परमाणु किसको अपने मे परिणत करता है ? यह तो हम ऊपर बता चुके है कि समान गुण वाले सदृश अवयवो का तो बध होता नही । विसदृग बघ के समय कभी एक सम अवयव दूसरे सम अवयव को अपने रूप में परिणत कर लेता है, तो कभी दूसरा सम अवयव पहले सम अवयव को अपने रूप मे परिवर्तित कर लेता है । जैसा द्रव्य, क्षेत्र आदि का संयोग मिलता है, वैसा परिवर्तन हो जाता है । और जव अधिक गुण एव हीन गुण का बन्ध होता है, तव अधिक गुण युक्त अवयव हीन गुण वाले अवयव को अपने रूप मे वदल लेता है । जिस परंपरा मे समान गुण वाले अवयवो मे वध ही नही होता, वहा अधिक गुण युक्त अवयव हीन गुण वाले प्रवयव को अपने रूप मे बदल लेता है, इतना ही पर्याप्त है। द्वितीय अध्याय MA पुद्गल के मुख्य रूप से स्कन्ध और ग्रेणु दो भेद है । इन भेदो के आधार पर वनने वाले छ भेदो का वर्णन भी मिलता है । 1 १ - स्थूल स्थूल -- स्वर्ण, लोहा, काप्ठ, पत्थर आदि ठोस पदार्थ इस में गिने जाते हैं । T २ - स्थूल - दूध, दही, मक्खन, पानी आदि द्रव - वहने वाले पदार्थ स्थूल के अन्तर्गत आते हैं । - 3 - स्थूल सूक्ष्म - प्रकाश, विद्य ुत, उष्णता श्रादि अभिव्यक्तिया स्थूल सूक्ष्म की श्रेणी मे आती है । ४ - सूक्ष्म स्थूल - वायु, वाष्प आदि सूक्ष्म स्थूल के अन्तर्गत समझे जाते है। ५- सूक्ष्म - मनोवर्गणा आदि अचाक्षुप द्रव्य सूक्ष्म पुद्गल है । ६- सूक्ष्म - सूक्ष्म -- पुद्गल का अविभाज्य प्रश परमाणु सूक्ष्म सूक्ष्म तत्त्वार्थ मूत्र (प सुखलाल सधवी ) L Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १३६ कोटि मे आता है । अचाक्षुप पुद्गल स्कन्ध भेद चौर सघात से चाक्षुष वनते है । जब कोई स्कन्ध सूक्ष्मत्व से निवृत्त होकर स्थूलत्व को प्राप्त होता है, तव उसमे कुछ नए परमाणु अवश्य मिलते हैं और कुछ पुरातन परमाणु अलग भी होते है । मिलना और अलग होना यही भेद और सघात है । पुद्गल का इतना लम्बा वर्णन करने पर भी यह समझ मे नही आया कि उनका काम क्या हैं? पुद्गल अनन्त हैं और उनके स्थूल स्थूल, स्थूल, स्थूल सूक्ष्म आदि प्रकार से अनन्त स्कन्ध-वनते - विगडते रहते है । इस दृष्टि से पुद्गलो के ग्रनन्त कार्य होते हैं । फिर भी कुछ विशिष्ट कार्य है, जिन पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। वे कार्य है- शब्द, वध, सौक्ष्म्य, स्थोत्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत । $ ये पुद्गल के असाधारण गुण है अर्थात् पुद्गल के अतिरिक्त अन्य द्रव्यो मे नही मिलते हैं । शब्द वैशेषिक दर्शन शब्द को आकाश का गुण मानता है । साख्य दर्शन शब्द तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति मानता है । परन्तु दोनो मान्यताए गलत है। हम पहले बता आए है कि शब्द पुद्गल है | क्योकि शब्द का उद्भव दो पुद्गल स्कन्धो मे परस्पर सघर्ष होने से होता हैं । ग्रत वह पुद्गल से उत्पन्न होता है और अपने मार्ग मे पड़ने वाले पुद्गलो को तरगित करता है, कपित करता है तथा पुद्गलो द्वारा $ शब्दवन्वमोक्ष्म्यस्थौल्यसस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च । 1 —-तत्त्वार्थ सूत्र, ५, २४ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ द्वितीय अध्याय ग्रहण हो कर एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुचाया जाता है और हमारी कर्णेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि शब्द पुद्गल द्रव्य है और मूर्त है। किन्तु आकाश अमूर्त है, इसलिए शब्द उसका गुण नहीं बन सकता है और न उसकी तन्मात्रा से आकाग का उद्भव ही हो सकता है। क्योकि मूर्त पदार्थ अमूर्त द्रव्य का न तो गुण बन सकता है और न वह अमूर्त को उत्पन्न ही कर सकता है। जव शब्द मूर्त है, पुद्गल है, तो उसकी तन्मात्रा भी तद्रूप ही होगी। अत उससे अाकाश की उत्पत्ति मानना अनुभवगम्य भी नहीं है। शब्द के मुख्य रूप से दो भेद है- १ प्रयोगज और २ वैससिक। जो शब्द यात्मा के प्रयत्न से उत्पन्न होता है, वह प्रयोगज और जो विना प्रयत्न के उत्पन्न होता है वह वैस्रसिक कहलाता है। मेघो-वादलो को गर्जना वैस्रसिक है । प्रयोगज शब्द के ६ प्रकार बतलाए गए है- १ भापा, २ तत, ३ वितत, ४ घन, ५ शुषिर और ६ सघर्ष । भाषा-मनुष्य आदि की व्यक्त और पशु-पक्षी आदि की अव्यक्त ऐसी अनेकविध भापाए है । २ तत-चमडा लपेटे हुए अर्थात् मृदग, पटल आदि का शब्द । ३ वितत-तार युक्त वीणा, सारगी आदि वाद्यो का शब्द । ४ घन-झालर, घटा आदि का शब्द । ५ शुषिर-फूक कर वजाए जाने वाले शख-वशी आदि का शब्द । ६ सघर्ष-लकडी या डडे आदि के संघर्ष से होने वाला शब्द । वन्ध वध के विषय मे हम पिछले पृष्ठो पर लिख चुके हैं। शब्द की तरह बंध भी दो प्रकार का है-वैस्रसिक और प्रायोगिक । पहला आदिमान - तत्त्वार्थ सूत्र (प सुखलाल सधवी) पृ. २०७ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १३८ 1 और अनादिमान के भेद से दो प्रकार का है। स्निग्ध और रूक्ष गुण युक्त परमाणुओं से निर्मित मेघ, विद्युत, वर्षा, इन्द्रधनुष प्रादि विषयक वध आदिमान वैस्रसिक है और धर्म अधर्म और आकाश का जो वध है, वह अनादि है । प्रायोगिक वध भी दो तरह का है-अजीव विषयक और जीवाजीव विषयक । काष्ठ और राल आदि पदार्थो का वध जीव विषयक और आठ कर्मों का एव शरीर आदि का बध जीवाजीव विषयक प्रायोगिक वध है । * सौम्य सौक्ष्म्य भी अन्त्य और आपेक्षिक के भेद से दो प्रकार का है । परमाणु का सौक्ष्म्य अन्त्य है, क्योकि वह पुद्गल का अविभाज्य अश है, उससे और सूक्ष्म भाग नही हो सकता । अन्य पदार्थो की सूक्ष्मता प्रापेक्षिक है- जैसे सतरा तरबूज की अपेक्षा सूक्ष्म है और अखरोट संतरे की अपेक्षा सूक्ष्म है, इत्यादि । स्थौल्य सूक्ष्म की तरह स्थूलता भी दो प्रकार की है- अन्त्य और आपेक्षिक | जंगत् व्यापक महास्कन्ध अन्त्य स्थूल है, उससे अधिक वडा और कोई स्कंध नही होता है। तरबूज, संतरा और अखरोट आदि की स्थूलता सापेक्ष है । संस्थान इतथ और अनित्य के भेद से सस्थान दो प्रकार का है । जिस सस्थान की दूसरे संस्थान के साथ तुलना की जा सके वह इत्य संस्थान है और जिसकी किसी संस्थान के साथ तुलना न की जा सके या जिस क। कोई निश्चित आकार न हो वह अनित्य सस्थान है । मेघादि का संस्थान अनित्य स्वरूप है और अन्य पदार्थो का इत्थं सस्थान है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९... द्वितीय अध्याय भेद यह तो हम पहले ही बता चुके हैं कि स्कन्ध एव अणु का निर्माण भेद से भी होता है। वह भेद ६ प्रकार का है-१ उत्कर, २ चूर्ण, ३ खण्ड, ४ चूर्णिका, ५ प्रतर और ६ अणुचटन । काप्टादि के चीरने से जो पुद्गलो का विभक्तिकरण होता है, उसे उत्कर कहते है । गेहू, चना, वाजरा आदि को चक्की मे पीसने पर जो स्वरूप होता है, उसे चूर्ण कहते हैं । घट आदि के टुकडे होना खण्ड कहलाता है । चने, मूंग, चावल,जव आदि के छिलको को अलग करना चूर्णिका है । अभ्रपटलादि को अलग करने का नाम प्रतर है और तप्त लोहे को धन से पीटने पर उसमे से स्फुलिंग का उछलना अणुचटन कहलाता है। तम नैयायिक अधकार को स्वतत्र द्रव्य न मान कर प्रकाश का अभाव मात्र मानते हैं । परन्तु जैन दर्शन इस बात को नही मानता, वह अधेरे को अभाव न मान कर प्रकाग की तरह भावात्मक पदार्थ मानता है। क्योकि पुद्गल सदा रूप आदि से यक्त होता है और अधेरे मे रूप आदि का सद्भाव है । जैसे प्रकाश मे भास्वर-उज्ज्वल रूप और उष्ण स्पर्श लोक प्रसिद्ध है,उसी तरह अधेरे में भी अभास्वरकृष्ण रूप और शीत स्पर्श की स्पष्ट प्रतीती होती है । अत अन्धकार प्रकाश का अभाव नही, परन्तु भावात्मक पदार्थ है और परमाणुगो का स्कन्ध है। छाया, पातप और उद्योत प्रकाश पर आवरण का आ जाना छाया है। सूर्य, अग्नि आदि का उष्ण प्रकाश आतप और चन्द्र, मणि एवं खद्योत आदि का शीतल प्रकाश उद्योत कहलाता है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १४० उपरोक्त कार्य पुद्गल के असाधारण कार्य हैं। अर्थात् ये शुद्ध पौद्गलिक होते है । कुछ कार्य ऐसे है, जो जीव और पुदगल के संबंध से होते हैं । शरीर, वाणी, मन, नि.श्वास-उच्छ्वास, सुख-दुख, जीवनमरण आदि कार्य उभय द्रव्यो के सबध से निष्पन्न होते है। स्कन्ध की अपेक्षा से पुद्गल विभिन्न आकार • प्रकार में परिलक्षित होता है। परन्तु, उसका शुद्ध रूप परमाणु है । भौतिक-वैज्ञानिको ने पहले ९२ मौलिक तत्त्वो (Elements)की खोज की थी । उनका वजन और गक्ति के अग भी निर्धारित किए थे । मौलिक तत्व का अर्थ होताहै-एक तत्त्व का दूसरे रूप को प्राप्त न करना। इस परिभाषा के अनुसार अव वर्तमान वैनानिक कोप मे केवल एटम (Atom) ही मौलिक तत्त्व के रुप मे अवशेप रहा है । यही एटम अपने आस-पास चारो तरफ गतिशील इलेक्ट्रोन और प्रोटोन को सख्या के भेद से आक्सीजन, हाईड्रोजन, चादी; स्वर्ण, लोहा, तावा, यूरेनियम, रेडियम आदि अवस्थामो को धारण कर लेता है । आक्सीजन के अमुक इलेक्ट्रोन या प्रोट्रोन को तोड़ने या मिलाने पर वही हाइड्रोजन बन जाता है। इस तरह आक्सीजन और हाइड्रोजन दो मौलिक तत्त्व न होकर एक तत्त्व की अवस्था विशेष ही मालूम होते है। वह मूल - तत्त्व केवल अणु (Atom) है। * जैन दर्शन भी इसी सिद्धात को मानता है। अलग-अलग दिखाई पड़ने वाले स्कन्व विभिन्न तत्त्व नही है । भेद और सघात से या वैज्ञानिक भापा मे यों कहिए कि रासायनिक परिवर्तनो के कारण एक स्कन्ध मे से अमुक प्रकार के परमाणु के विखरनेअलग होने और मिलने से वह दूसरे स्कन्ध के रूप मे वदल जाता है। परन्तु सभी स्कन्धो मे स्थित परमाणु का नाश नही होता, उसका शुद्ध * जैनदर्शन (प महेन्द्र कुमार, न्यायाचार्य) पृ.१८२. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१..... द्वितीय अध्याय रूप सदा बना रहता है। अतः परमाणु को.पुद्गल का शुद्ध रूप माना गया है। काल द्रव्य जैनागमो मे काल का लक्षण वर्तना बताया गया है । तत्त्वार्थ सूत्र मे वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्व-अपरत्व ये काल के उपकार बताए गए हैं। * अपने-अपने पर्याय की उत्पत्ति मे स्वयमेव प्रवर्त्तमान द्रव्यो को निमित्त रूप से प्रेरणा करना वर्तना है । स्व स्वरूप का परित्याग किए विना द्रव्य की पर्यायो मे होने वाला परिवर्तन या पर्यायो को पूर्वावस्था की निवृत्ति और उत्तरावस्था की उत्पत्ति को परिणाम कहते हैं। पर्यायो मे जो स्पन्द होता है उसे गति कहते है। ज्येष्ठत्व यह परत्व है और कनिष्ठत्व अपरत्व है। यद्यपि वर्तना आदि कार्य यथासभव धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यो के ही है, तथापि काल सब का निमित्त कारण होने से यहा उन्हे काल का कार्य माना गया है। ___काल सभी पदार्थो पर वर्तता है। अभिनव पदार्थ को- पुरातन बनाता है और पुरातन को समाप्त करता है। यहा समाप्त करने का अर्थ पुद्गल के वर्तमान रूप से है, न कि द्रव्य रूप से । क्योकि द्रव्य सदा स्थित रहता है, नए से पुराना एव समाप्त होने का कार्य पर्यायो का है। पर्याये एक रूप से समाप्त होकर दूसरे रूप को धारण करती रहती हैं और उसमे काल निमित्त रूप से कारण होता है। काल दो तरह का माना गया है- १ निश्चय कोल और २ व्यवहार काल । लोकाकाश पर स्थित जो असख्यात कालाणु (काल द्रव्य) है,उन्हें निश्चय काल कहते हैं । इन के निमित्त से वस्तु मे परिवर्तन * तत्त्वार्थ सूत्र, ५, २२॥ में तत्त्वार्थ सूत्र (प. सुखलाल'सधवी) पृ. २०५. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर www...............१४२ होता है और प्रत्येक द्रव्य की पर्यायों में उत्पाद और व्यय होता रहता है । समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात, महीना, वर्प, शताब्दी आदि को व्यवहार काल कहते हैं । यह अनन्त समय (पर्याय) वाला है । यो तो समय एक ही होता है। क्योकि वर्तमान एक समय का ही होता है। परन्तु भूत और भविष्य की अपेक्षा से अनन्त समय होते है। इस कारण काल को अनन्त समय वाला कहा गया है। यह व्यवहार काल सौर मडल एव घड़ी आदि से जाना-पहचाना जाता है। काल को प्राय. सभी दार्शनिको ने माना है। उन्होने मात्र व्यवहार काल को माना है। काले द्रव्य को जैनो ने ही स्वीकार किया है। कुछ आचार्य उसे स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते, परन्तु कुछ स्वतत्र द्रव्य मानते है । हा, वे भी उसे अस्तिकाय (समूह रूप) नही मानते है । अस्तु काल के असख्यात अणु एक दूसरे से सवद्ध नही है, परन्तु मुक्ता कणो की भाति आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर अलग-अलग स्थित है। इस तरह जैनो ने छ द्रव्य माने हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव । उनमे पाच अस्तिकाय (समूह रूप) है और काल समूह रूप नही है । और प्रथम के पाचों द्रव्य अर्थात् जीव द्रव्य को छोड़कर शेष पाचो द्रव्य अजीव हैं, चेतना रहित हैं। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ध-मोक्ष मीमांसा तृतीय अध्याय प्रश्न- जगत् जीव और अजीव या जड़ और चेतन पर आधारित है, यह तो समझ में आ गया । परन्तु यह आत्मा संसार में क्यों परिभ्रमण करती है. जड़ पुद्गलों का इसके साथ कैसे संबंध होता है ? वह संबंध सदा बना रहता है या उसका अन्त भी किया जा सकता है ? यदि किया जा सकता है तो किस तरह किया जा सकता है ? इसे स्पष्ट रूप से समझाएं ? उत्तर- जैनागमो में यह बताया गया है कि कर्म बन्ध के कारण आत्मा ससार मे परिभ्रमण करता है । कषाय युक्त योगो की प्रवृति से कर्म पुद्गल आत्मा के साथ सबद्ध होते हैं। आत्मा और कर्मों का सवध अनादि काल से है। परन्तु यह सदा के लिए वना रहेगा, ऐसी वात नही है । क्योकि अनादि कालीन सबध प्रवाह रूप से है । व्यक्तिश कर्म पुद्गलों मे प्रति समय परिवर्तन होता रहता है। पुराने कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं और नए कर्मो का बन्ध होता रहता है । अत आत्म साधना के द्वारा कर्मो का आत्यान्तिक क्षय भी किया जा सकता हैं। कर्म पुद्गलो के आगमन की प्रक्रिया को प्राश्रव कहते हैं। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १४४ " कपाय युक्त योग प्रवृत्ति से समागत कर्म पुद्गलो का आत्म प्रदेशो के साथ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से सवध होने को वध कहते है । ग्रश्रव और वॅव - शुभ और अशुभ रूप से दो प्रकार का होता है । शुभ को पुण्य और अशुभ को पाप भी कहते है । नए कर्म पुद्गलो के आगमन को रोकने की साधना को सवर तथा पूर्व सचित कर्मों को क्षय करने की क्रिया को निर्जरा कहते हैं । इस तरह नए कर्मों का आगमन रोक कर पुराने कर्म का क्षय करने से एक समय कर्मो का प्रात्यान्तिक नाश हो जाता है, आत्मा कर्म वन्धन से मुक्त हो जाता है। इस तरह अनादि काल से कर्म प्रवाह सवद्ध ग्रात्मा उनसे सदा के लिए उन्मुक्त हो जाता है । यह वात पुण्य, पाप, ग्राश्रव, सवर, वध, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वो के द्वारा स्पष्ट की गई है । हम यहां इस पर जरा विस्तार से विचार करेंगे । है पुण्य तत्त्व "शुभ पुण्यस्य " जिन कर्म प्रकृतियों का फल शुभ होता है, सुख रूप मे मिलता है, उन्हें पुण्य कहते हैं । पुण्य शब्द का अर्थ है 'पुनातीति पुण्यम्' अर्थात् जो कर्म आत्मा को पावन - पवित्र बनाने का कारण बनता है, वह पुण्य है । मनुष्य जन्म, स्वस्थ गरीर, निर्दोष पाच इन्द्रियें, शास्त्र का श्रवण नद्गुरु का सपर्क, धर्म करने की अभिरुचि, यहाँ तक की तीर्थकर नाम कर्म का बंध भी पुण्य से होता है । पुण्य जीवन का विकासक है, उसके कारण जीव को विविध सुख साधन एव जीवन विकास की सामग्री प्राप्त होती है । जैनाचार्यों ने पुण्य दो प्रकार का माना है- १ पुण्यानुवधी पुण्य और २ पापानुबंधी पुण्य । पहला पुण्य वह है जिस के द्वारा पुण्य से Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ तृतीय अध्याय प्राप्त मानव जीवन एव साधनो का उपयोग शुभ कार्य मे होता है और वह पुण्य का अनुवध करने मे सहायक बनता है। दूसरे प्रकार का-पुण्य वह है, जिसके द्वारा प्राप्त सामग्री का व्यय दुष्कर्मो मे होता है और उससे पुण्य के बदले पाप कर्म का संग्रह होता रहता है। अस्तु जो साधन वर्तमान मे पुण्य एव निर्जरा के कारण बनते है, वे पुण्यानुवधी पुण्य के उदय से मिले हैं और जिनके द्वारा पाप कर्मों का सग्रह होता है अथवा जो मानव-मन को विषय-वासना एव भोगो की ओर घसीटते है, वे पापानुववी पुण्य के उदय से मिले हैं। यह सत्य है कि उनको प्राप्ति के पीछे पुण्य एव शुभ कर्म का हाथ रहा है, परन्तु साथ मे भावना की विशुद्धता न होने से वे बाहरी रूप से सुख साधन होते हुए भी जीव के लिए घोर दु ख एव पतन के कारण बनते हैं। __ यह नितात सत्य है कि दुनिया की सारी व्यवस्था कर्मों के अनुसार होती है। पूर्व मे किए हुए कर्म यदि उनकी निर्जरा नही की है तो अवश्य उदय मे आते हैं। अत. हमे मिलने वाले अच्छे एवं बुरे साधन कर्म के परिणाम ही हैं । परन्तु, इतना होते हुए भी यह आत्मा सर्वथा कर्मो के अधीन नही है । उसको शक्ति कर्मो से भी अधिक है । वह केवल पुण्य-पाप के भरोसे पर ही नही है । यदि ऐसा ही हो तव तो वह कभी भी पुण्य-पाप के बधन से मुक्त-उन्मुक्त हो ही नही सकेगी। प्रात्मा को वर्तमान मे जो कुछ मिला है,वह कर्म का फल है,परन्तु उस कर्म प्रवाह को बदलने की शक्ति भी प्रात्मा मे है। वह पापानुवधी पुण्य से प्राप्त हुए साधनों को शुभ, शुद्ध, शुद्धतर और शुद्धतम वना सकती है, दुख के निमित्तो को सुख रूप मे वदल सकती हैं, कर्म वध के कारणो को कर्म तोडने के साधन वना भी सकती है। हरिकेशी को पापानुवधी पुण्य एव अशुभ कर्म के उदय से कुवडा शरीर, कुरूप चेहरा अव्यवस्थित अगोपाग, कर्कश स्वर मिला था। वह सबके लिए उपहास Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १४६ एव घृणा का पात्र बना था । यत्र-तत्र सर्वत्र उसे घृणा - तिरस्कार एव अनमान सहना पडता था । कोई व्यक्ति उसकी गक्ल-सूरत देखना नहीं चाहता था । कोई भी उसके शब्द सुनना पसन्द नहीं करता था । वह बेचारा जीवन से ऊब कर मरने को चल पड़ा और वहां महात्मा का योग पाकर स्वयं महात्मा-तपस्वी वन गया । वह गरोर, वह वाणी, जो कर्म वध का कारण बन रही थी, जीवन एव भावना के बदलते ही वह निर्जरा एवं सवर का कारण बन गई। एक दिन जिसे कोई अपने पास खड़ा नही रहने देना चाहता था, उसी की सेवा में देव रहने लगा । इससे स्पष्ट हो जाता है कि शुभ या अशुभ कर्म के उदय से उपलब्ध शुभाशुभ साधनो को मनुष्य वदल भी सकता है । अशुभ साधनों को शुभ एव शुभ को अशुभ बनाने की शक्ति मनुष्य के हाथ मे है | कर्मचाहे शुभ हो या अशुभ जड़ है और ग्रात्मा चेतन है । वह अनन्त शक्ति युक्त है, अपनी ताकत से सारे कर्मों को तोड़ने में समर्थ हैं । आवश्यकता इस वात की है कि वह अपनी ताकत को समझ कर उसका ठीक तरह से उपयोग करे । T A p पुण्य का फल शुभ होता है । वह अनेक तरह के शुभ भावो एव कार्यो से ववता है । फिर भी शास्त्रकारो ने उसे नव प्रकार का बताया है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति सरलता से समझ सके । वह वर्गीकरण इस प्रकार है- १ अन्न-पुण्य, २ पान-पुण्य, ३ लयन-पुण्य, ४ शयन-पुण्य, ५ वस्त्र- पुण्य, ६ मन-पुण्य, ७ वचन-पुण्य, ८ काय-पुण्य, ९ नमस्कारपुण्य | * सक्षेप में पुण्य वव के ये नव कारण है । १ अन्न-पुण्य - साधु को एव वुभुक्षित मनुष्य को शुद्ध हृदय एवं दया-अनुकम्पा युक्त निस्वार्थ भाव से यथा योग्य अन्न का दान देने से * स्थानाग सूत्र, स्थान ९ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MP PAAAAAAAAAAAAAAAAnnoAM १४७.............. तृतीय अध्याय पुण्य कर्म का वन्ध होता है। " २ पान-पुण्य- इसी तरह शुभ भावो से, निस्वार्थ बुद्धि से पानी का दान देने से भी पुण्य कर्म का वध होता है। ३ लयन-पुण्य- पात्रादि उपकरण देने से भी पुण्य होता है। ४ शयन-पुण्य- रहने के लिए मकान देने से भी पुण्य होता है। ५ वस्त्र-पुण्य- वस्त्र का दान करने से भी पुण्य होता है ।। ६ मन-पुण्य- मन से दूसरों का हित चाहने से पुण्य होता है। ७ वचन-पुण्य- गुणिजनो का गुणर्कीतन करने एव सबके साथ प्रम-स्नेह से मधुर भाषण करने से भी पुण्य वध होता है। ८ काय-पुण्य- शरीर से दूसरो की सेवा-शुश्रूषा करने, दुखियो के दुख को दूर करने का प्रयत्न करने से, दूसरो के हित मे अपना जीवन लगा देने से भी पुण्य बघता है। ९ नमस्कार-पुण्य- गुण युक्त व्यक्ति को नमन करने तथा उस की विनय भक्ति करने से पुण्य वन्ध होता है। पुण्य ४२ प्रकार से उदय मे आता है । यह सत्य है कि वह वधन रूप है। परन्तु इससे वह एकात त्याज्य नहीं है। क्योकि ससार समुद्र पार करने मे वह सहायक होता है। जैसे समुद्र के एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुचाने के लिए नौका उपयुक्त साधन है । फिर भी वह सदा पकडे रखने योग्य नहीं है । उसका उपयोग अपने मनोनुकूल स्थान पर पहुचने तक ही रहता है । इच्छित स्थान पर पहुंचते ही वह त्याज्य है। इसी तरह पुण्य भी १३वे गुणस्थान तक पहुचने के लिए उपयोगी है । वाद मे उसकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है । अत छद्मस्थ अवस्था मे पुण्य उपादेय है,तो वीतराग अवस्था मे त्याज्य है । अस्तु पुण्य को एकान्त रूप से त्यागने योग्य बताना या मानना गलत है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- Mw प्रश्नो के उत्तर wwwwwwww १४८. * www पाप तच्च पाप का लक्षण पुण्य से विपरीत है । तत्त्वार्थ सूत्र मे कहा है"अशुभ. पापस्य " अर्थात् पाप का फल अशुभ होता है । जीवन यात्रा मे जो कटुक क्षण गुजरते हैं, जो मुसीवतो के पहाड़ मानव पर गिरते हैं या जो दुखो वेदनाओ की बिजलिया कडकती हैं, वह सब पाप का परिणाम ही है । नरक और तिर्यश्व गति की यात्रा भी मानव पाप के यान मे बैठ कर ही करता है । नरक, तिर्यश्व, मनुष्य और देवगति मे जो कष्ट, पीडा एव वेदनाए भेलता है, उसका श्रेय भी इसी साथी को है । पाप की दोस्ती मानव को नरक के महागर्त मे गिराने वाली है, ससार मे परिभ्रमण कराने वाली है । पाप कर्म वघने के अनेक कारण है । अशुभ विचारो की जितनी तरगे हैं, उतने ही पाप कर्म के भेद हो सकते है । परन्तु सरलता से सब की समझ मे आ जाए, इसलिए ग्रागमो मे पाप कर्म बन्ध के १८ भेद माने है -१ प्राणातिपात, २ मृपावाद, ३ प्रदत्तादान, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १० राग, ११ द्वेप, १२ कलह, १३ ग्रभ्याख्यान, १४ पैशुन्य, १५ परपरिवाद, १६ रति- अरति, १७ मायामृपा और १८ मिथ्यादर्शनशल्य | १ प्राणातिपात- किसी भी प्राणी के प्राणो का नाश करना, हिंसा करना । २ मृषावाद - असत्य भाषण करना । ३ अदत्तादान- दूसरे के अधिकार मे रही हुई वस्तु को उसके मालिक की विना इच्छा एव श्राज्ञा के उठाना तथा दूसरे के अधिकारो, हितो एवं स्वार्थो का अपहरण करना । ४ मैथुन - व्यभिचार का सेवन करना । ५ परिग्रह - - घनादि वस्तु एव सुख - साधनो पर आसक्ति Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ ~ १४९ तृतीय अध्याय रखना, भोगो मे मूछित होकर रहना। ६ क्रोध- आवेश मे आना। ७ मान- अहकार या अभिमान करना। ८ माया- छल-कपट करना, धोखा देना। ९ लोभ- पदार्थो की तृष्णा रखना, लालच करना। १० राग- किसी मनोनुकूल पदार्थ, व्यक्ति एव परिस्थिति के प्रति मोह-ममत्व रखना। ११ उप- प्रतिकूल पदार्थ, व्यक्ति एव परिस्थिति के आने पर जल उठना तथा उनसे नफरत एव घृणा करना। १२ कलह- वाग्युद्ध करना। १३ अभ्याख्यान- किसी पर झूठा दोषारोपण करना। १४ पैगुन्य- चुगली खाना । १५ परपरिवाद- किसी की भूठी या सच्ची निन्दा करना। १६ रति-अरति- विषय-भोगो मे आनन्दित होना रति है और प्रतिकूल सयोग मिलने पर दुखी होना अरति है। १७ मायामृपा- कपटयुक्त झूठ बोलना। १८ मिथ्यादर्शनगल्य- तत्त्व में अतत्त्व बुद्धि तथा अतत्त्व मे तत्त्व बुद्धि रखना या प्रत्येक कार्य ससाराभिमुख होकर करना। मोटे रूप से पाप बघ के ये अठारह कारण वताए गए है। इस तरह के और भी अशुभ विचारो का चिन्तन, कटुभाषा का प्रयोग एव दुष्कर्मो मे प्रवृति करना भी पाप कर्म के वध का कारण है। वह पाप कर्म ८२ प्रकार से उदय मे पाता है । विविध योनियो मे अशुभ साधनो का उपलब्ध होना पाप कर्म का फल है। जैनो की यह मान्यता रही है कि पाप कर्म के वध के साथ कुछ पुण्य प्रकृतिए तथा पुण्य के साथ कुछ पाप प्रकृतिए वधती है। तो यहा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wovvvvvvv vo ............. .....प्रश्ना के उत्तर.................. १५.० यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि फिर यह क्यों कहा गया कि पुण्य का फल शुभ एव पाप का फल अगुभ होता है ? तर्क ठीक है। प्रदेग बन्ध की दृष्टि से पुण्य के साथ-साथ पाप प्रकृतिए एव पाप के साथ पुण्य प्रकृतिए भी बघती है, परन्तु उनकी मात्रा नगण्य-सी होती है। इसलिए उनका वहा कोई मूल्य नहीं रहता है। दूसरी बात यह है कि पुण्य से शुभ एव पाप से अगुभ कर्मो का जो बन्ध कहा गया है, वह प्रदेश वन्ध की दृष्टि से नही, प्रत्युत अनुभाव (रस) वन्ध की दृष्टि से कहा गया है । अत पुण्य के साथ कुछ पाप की एव पाप के साथ कुछ पुण्य की प्रकृतिया का प्रदेश वन्व होता है, फिर भी जो अनुभाव (रस) का वन्ध होता है, वह पुण्य का गुभ एव पाप का अशुभ ही होता है और फल भी अनुभाव के अनुसार मिलता है । अस्तु "शुभ पुण्यस्य" तथा "अशुभ पापस्य" का कथन असगत नही है । पाप कर्म मानव को सदा गिराने वाला है। उससे आत्मा भारी वन कर नीचे की ओर ही गति करती है। वह उसे कभी ऊपर नही उठने देता है। उसको सदा नरक, तिर्यञ्च आदि गतियो मे भ्रमण कराता रहता है । अत. पाप एकात त्याज्य है। किसी भी तरह से वह आचरणीय नही है। आसत्र तत्व जिस मार्ग से कर्म आते हैं, उसे पालव कहते हैं । आगम मे ऐसे पाच आस्रवो का उल्लेख मिलता है- १ मिथ्यात्व, २ अविरति, ३. प्रमाद,४ कषाय और ५ योग। आत्मा के जिन भावो-विचारो से कर्मो का आगमन होता है, उन परिणामो को भावास्रव कहते हैं और कर्म पुद्गलो के आगमन को द्रव्य-पानव कहते है । जवकि मिथ्यात्व आदि Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ तृतीय अध्याय परिणामो ( विचारो ) को भाव-वन्ध भी कहा है । 1 फिर इसे भावास्रव कैसे कहा गया है? इसे यो समझना चाहिए कि प्रथम क्षणभावो परिणाम कर्मों को खीचने की कारणभूत योग प्रवृत्ति में सहायक होते हैं, प्रत उन्हे भावास्रव कहते हैं और अग्रिमक्षणभावी परिणाम बन्ध मे कारण होने से उन्हे भाव बन्ध कहा है । क्योकि भावास्रव या परिणाम जितने तीव्र, मन्द और मध्यम होते है, तद्रूप ही कर्म आते है और आत्म प्रदेशो के साथ उनका वन्ध होता है । www VAMAN AANV Pr आस्रव का दूसरा नाम योग भी है । आस्रव के पाच भेदो मे योग का भी उल्लेख मिलता है। योग तीन माने गए हैं - १ मन, २ वचन, और ३शरीर । मिथ्यात्वादि सभी प्रवृत्तियो के साधन मानसिक, वाचिक और कायिक योग ही है । इन्ही के द्वारा प्रत्येक आत्मा सोचता- विचारता, बोलता एव कर्म करता है । अत योग आस्रव का मुख्य कारण होने से आस्रव को योग भी कहते है । आस्रव शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है । शुभ को पुण्य और अशुभ को पाप कहते हैं । इन दोनो को आस्रव के अन्तर्गत गिनने से सात तत्त्व होते हैं और अलग गणना करने से तत्त्वो की सख्या नव बनती है | आगम परम्परा मे नव तत्त्व माने गए हैं और तत्त्वार्थ सूत्र मे सात तत्त्वो का उल्लेख मिलता है । परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से दोनो परम्पराम्रो मे कोई मतभेद नही है । मात्र सख्या गिनने की प्रक्रिया मे ही अन्तर है । - ग्रास्रव भी एकान्त रूप से त्याज्य नही है । शुभास्रव साधक अवस्था मे उपादेय है और सिद्ध अवस्था मे त्यागने योग्य है' पर अशुभ प्रात्रव एकान्तत त्यागने योग्य है । + परिणामे बन्ध । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर संवर तच्च 1 | सवर शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक 'वृ' धातु से बना है । 'वृ' का अर्थ रोकना या अटकाना होता है । इस तरह सवर का अर्थ होता है अच्छी तरह से या भली-भाति रोकना । वह भी पाच प्रकार का है१ सम्यक्त्व, २ व्रत-प्रत्याख्यान, ३ ग्रप्रमाद, ४ कषाय और ५ योगो का गोपन । श्रात्मा के जिन शुद्ध, निर्मल एव पावन - पवित्र परिणामो से कर्मो का आना रुकता है, उन परिणामो को भाव सवर कहते हैं और उस विचार परणति से जो आते हुए कर्म रुक जाते हैं, उन्हे द्रव्य सवर कहते हैं । अस्तु आत्मा के जिस उज्ज्वल - समुज्ज्वल भावना से कर्मों के आने का रास्ता वद होता है या श्राते हुए कर्म रुकते हैं, उस भावना एव प्रक्रिया को सवर कहते हैं । १५२ आध्यात्मिक जीवन मे सवर को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। जीवन का मूल लक्ष्य सर्व कर्म वन्ध से मुक्त होना है और इस कार्य मे आत्मा तव तक सफल नही हो सकती, जब तक वह कर्म के आगमन को नही रोक देती है । क्योकि कर्मो का आना जारी रहेगा तो वह कर्म वधन से कभी भी मुक्त नही हो सकती, भले ही वह कितनी ही लम्बी तपश्चर्या क्यो न करती रहे । तपस्या से वह पूर्व बन्धे कर्मो का क्षय करेगी, परन्तु वर्तमान एव अनागत मे आने वाले कर्मो के द्वार को उसने नही रोका है, तो वह पुराने कर्मों के स्थान मे नए कर्मो का वध करती रहेगी । इस तरह आत्मा कभी भी कर्म वधन मे छूट नही सकेगी। अत यह जरूरी है कि आत्मा सवर के द्वारा वर्तमान एव अनागत मे आने वाले कर्मों को रोके और निर्जरा के द्वारा पूर्व वधे कर्मो का क्षय करे, इससे वह निष्कर्म वन जाएगी और निष्कर्म बनना ही निर्वाण या मुक्ति को प्राप्त करना है । यही आत्मा का मूल उद्देश्य Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय w है, जहा पहुच कर वह अनन्त सुख-शाति का अनुभव करती है। अत.. आत्म गाति प्राप्त करने के लिए सवर अत्यावश्यक है । यह आत्मा की शुद्ध चेतना को प्रकट करने का साधन है। . बन्ध तत्त्व आत्म प्रदेशो के साथ कर्मवर्गणा के पुद्गलो का सबंध होने का नाम बध है । वन्ध का अर्थ मिलन यां सयोग है । परन्तु यह टेबल और उस पर स्थित घडी का-सा सयोग नहीं है। यह एक ऐसा मिलनमिश्रण है, जिससे द्रव्य मे एक तरह का रासायनिक (Chemical) परिवर्तन होता है । इस परिवर्तन से दोनो द्रव्यो मे कुछ विकृति आ जाती है। इस तरह का मेल होने पर दोनो द्रव्यों के निजी स्वरूप में कुछ परिवर्तन या विकृति आ जाती है । इस तरह आत्म प्रदेशो के साथ कर्म का सयोग होने पर आत्मा केवल अपने स्वरूप मे नही रह पाती, उसमे कुछ विकृति या जाती है। परन्तु इतना होने पर भी आत्मा एव पुद्गल दोनों अपने शुद्ध स्वरूप को खो नही बैठते है। अनन्त काल तक आत्मा एव कर्म का सवध रहने पर भी दोनो अपने अस्तित्व को कायम रखे रहते है । यह सत्य है कि दोनो मे विकृति आ जाती है, परन्तु फिर भी प्रात्मा अनात्म या पुद्गल रूप मे तथा पुद्गल आत्मा के रूप मे नही बदलते है । क्योकि आत्मा एव पुद्गलो का सवध ससार अवस्था मे अनन्त काल तक रहता है, कई अभव्य जीवो का अनन्त-अनन्त काल तक रहेगा अथवा यो कहिए वे कभी भी कर्म पुद्गलो के बन्धन से मुक्त नहीं हो सकेगे, फिर भी वह सबध नित्य एव स्थिर नही है। प्रवाह की दृष्टि से भले ही हम कहदे कि भव्य जीव अनन्त काल तक और अभव्य जीव सदा कर्मों के साथ सवद्ध रहते हैं, परन्तु वास्तव मे देखा जाए तो इनका सवध अस्थायी ही है । क्योकि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १५४ पूर्व मे वध कर्म वर्गणा के पुद्गल यात्म प्रदेगो से हटते रहते हैं और दूसरे नए कर्म पुद्गल आते रहते है । अस्तु कर्म पुद्गलो का आत्म प्रदेशो के साथ मिलन-मेलन एव बिछुड़न साथ-साथ होता रहता है। इससे यह स्पप्ट हो गया है कि कर्मों का वन्ध स्थायी नही है । यदि वन्ध को स्थायी मान लिया जाए, तो फिर जीव कभी भी मुक्त नही हो सकेगा । अस्तु कर्म वध से आत्मा मे विकृति आती है, कभी-कभी वह अपने स्वरूप को भूल भी जाती है, परन्तु उसका निजी अस्तित्व कभी भी समाप्त नहीं होता, विकृति आने पर भी वह अनात्म अवस्था को कभी भी प्राप्त नहीं होती है। कर्म बन्ध के कारण ही जीव ससार मे परिभ्रमण करता है और विविध गतियो-एव योनियो मे अनेक तरह के सुख-दुख का भी सवेदन करता है। जीवन के उत्कर्ष एव अपकर्ष मे कर्म का बहुत बडा हाथ है । जैन विचारको ने जीव के उत्थान एव पतन का मूल कारण कर्म को माना है और साथ मे यह भी माना है कि प्रत्येक ग्रात्मा शुभ या अशुभ कर्म करने एव तोडने मे स्वतन्त्र है। आत्मा स्वय ही कर्म का कर्ता एन भोक्ता है तथा कर्म बन्धन तोड़ने वाला भी स्वय ही है । सारी ससार व्यवस्था कर्म पर ही आधारित है । जैन दार्शनिको (Jain Philosophers) ने कर्मवाद का वड़े विस्तार एव गहराई से विश्लेषण किया है। भारतीय - सस्कृति के अन्य विचारको ने भी कर्मवाद पर कुछ सोचा-विचारा है । हम यहा तुलनात्मक दृष्टि से भारतीय-सस्कृति के सभी चिन्तको के कर्म सवधी चिन्तन-मनन पर विचार करेंगे। कर्म विचार का मूल वैदिक युग में कर्मवाद पर जरा भी नहीं सोचा गया। इससे हम Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a..................तृतीय अध्याय यह तो नही कह सकते कि वैदिक ऋषियो को मनुष्य-मनुष्य मे तथा मनुष्य एव अन्य पशु-पक्षियो मे रहा हुआ अन्तर दिखाई ही न दिया हो । विभिन्न जीवो मे रहे हुए वैचित्र्य को उन्होंने देखा अवश्य होगा, परन्तु इसके कारण को अन्तर आत्मा मे गोधने के बदले उन्होने वाहर मे ही शोधा हो और किसी भौतिक शक्ति या प्रजापति जैसे तत्त्व को मानकर सन्तोष किया हो ऐसा लगता है और इसी कारण उनकी दृष्टि कर्मवाद का प्रत्यक्षीकरण नही कर सकी हो। वेद युग से लेकर ब्राह्मण काल तक का सारा तत्त्वज्ञान वाह्य साधनो को वटोरने एव भौतिक शक्तियो को प्राप्त करने का साधन रहा है । और उक्त साधनो की प्राप्ति के लिए वे देवो एवं प्रजापति की स्तुति करने तथा उन्हे प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करने मे ही व्यस्त दिखाई देते है। अस्तु यह निसदेह कहा जा सकता है कि वैदिक युग मे आध्यात्मिक चिन्तन का उदय (प्रारभ) नही हो पाया था। ब्राह्मण काल के बाद उपनिषदो का युग प्रारभ होता है। उपनिपद् वेद-ब्राह्मण ग्रन्थो का अतिम भाग होने से इन्हे भी वैदिक ही समझना चाहिए। वेदो मे तो कर्म पर कही विचार नहीं किया गया, परन्तु उपनिषदो मे अदृष्ट कर्म को माना गया है । वेदो के समय जो देवो एव प्रजापति को महत्त्व मिला था, उपनिषद् युग मे उसका स्थान यज्ञ ने ले लिया था। उपनिपदो के अनुसार कर्म का फल देने की शक्ति यज्ञ मे मौजूद है । इस तरह वैदिक परपरा मे कर्म पर चिन्तन पहले पहल उपनिषदो मे मिलता है। दार्शनिक एव ऐतिहासिक विद्वानो की यह मान्यता है कि वैदिक परपरा मे उपनिषदो से पहले कर्म पर विचार नही किया गया था । इस पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि उपनिपदो मे यह परपरा कहा से आई? कुछ विद्वानो का कहना है कि वैदिको ने यह सिद्धात भारत के Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ग्रादिवासियो ( Primitive people) से लिया हो । विद्वानो की इस मान्यता का खण्डन करते हुए प्रो० हिरियन्ना ने यह तर्क दिया है कि आदिवासियो की यह मान्यता कि ग्रात्मा मर कर वनस्पति मे जन्म लेता है, निरा वहम ( Superstition ) है । इस कारण उनके इस विचार को कि मनुष्य मर कर वनस्पति ही होता है, दार्शनिक नही कह सकते हैं । ग्रत. यह मानना उचित नहीं कहा जा सकता कि वेदिकोन कर्मवाद का सिद्धान्त आदिवासियो से लिया था । 2 १५६ AVAN अध्ययन करते हैं, तो कर्मवाद की मान्यता जब हम जैनो के कर्मवाद का गहराई से यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक परम्परा मे जो ग्राई है, उस पर जैन परम्परा का असर पड़ा है । भले ही जैन परपरा का पहले श्रमण, निर्ग्रन्थ या अन्य कोई नाम रहा हो, परन्तु यह निञ्चित है कि वैदिक परम्परा के पूर्व उसका अस्तित्व अवश्य था । कर्मवाद का पूरा इतिहास, जो हमारे सामने है, वह इस बात का साक्षी है कि वैदिक परम्परा मे मान्य कर्मवाद पर जैनो के चिन्तन का स्पष्ट असर परिलक्षित होता है । 1 L वेद युग से लेकर उपनिषद् काल तक वैदिक ऋपियो की यह मान्यता रही है कि चेतन या जड़ किसी एक तत्त्व से सृष्टि का निर्माण हुआ है और वह अनादि नहीं, सादि है । परन्तु कर्मवाद के अनुसार सृष्टि सादि नही, अनादि है । जीव और जड़ दोनो अनादि काल से है और जीव (ग्रात्मा) के साथ कर्म का सवव भी अनादि काल से चला आ रहा है । उपनिषद् काल के बाद के वैदिक साहित्य मे भी सृष्टि ‡ Out lines of Indian - Philosophy (Hiriyanna) Page 790. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ तृतीय अध्याय I को अनादि माना गया है और इस मान्यता के लिए भी वह कर्म सिद्धात की प्रभारी है, यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है । जैनागमो मे स्पष्ट रूप से कहा गया है. कि प्रात्मा जो वार वार जन्म-मरण करती है, उसका मूल कारण कर्म है और वे आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए है । अत जब तक कर्म का संबंध चालू है, तब तक आत्मा की मुक्ति होना असंभव है । इस तरह ससार को अनादि मानने का सिद्धांत प्राय सभी वैदिक दर्शनो ने बाद मे स्वीकार किया है । जैन परपरा ने सदा कर्मवाद को महत्त्व दिया है । इस परपरा मे देववाद को जरा भी महत्त्व नही दिया गया है । आत्मा के विकास एव पतन मे किसी भी वाह्य शक्ति का हाथ नही है । देव तो क्या ईश्वर भी न किसी का उत्थान कर सकता है और न किसी को पतन के महागर्त मे ही गिरा सकता है । यह सारी शक्ति आत्मा मे है । अत हमें कर्म सिद्धांत की जो विस्तृत एव गहरी व्याख्या जैन ग्रन्थो मे उपलब्ध होती है, वैसी ग्रन्यत्र उपलब्ध होनी दुर्लभ है । एक जीव के आध्यात्मिक विकास के प्रारंभ से लेकर अन्त तक के सौपान तथा इसी तरह पतन के मार्ग मे कर्म किस तरह कार्य करता है और इस दृष्टि से कर्म का कितना वैचित्र्य है, इसका विशद विवेचन जैन परम्परा के सिवाय अन्यत्र नही मिलता है । अत विद्वानो एव दार्शनिको ने इस बात को निसदेह माना है कि कर्मवाद की मान्यता का मूल स्रोत (Source) जैन परम्परा मे उपलब्ध होता है । और पीछे की सभी वैदिक परम्पराओ पर जैन कर्म सिद्धात का ही असर है। कालवाद कर्म के स्वरूप का वर्णन करने के पहले इस बात पर विचार कर लेना भी उपयुक्त होगा कि उस समय के विचारको ने कर्म के स्थान 4 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर मे किसके ग्रस्तित्व को स्वीकार किया था । 2 वैदिक ऋपियो के मन मे इस बात का विचार तो उठा ही था कि इस सृष्टि का कोई कारण होना चाहिए। परन्तु इसका कारण क्या है ऋगवेद में इसका कोई उल्लेख नही मिलता है। श्वेताश्वतर में इसका उल्लेख मिलता है और वहां पर काल, स्वभाव, यदृच्छा, नियति, भूत और पुरुष इत्यादि वादो को गिनाया गया है। इस तरह विचारक सृष्टि मे उपरोक्त कारणो मे से किसी एक -एक कारण को सृष्टि का निमित कारण मानते रहे हैं । इनमे कालवादी सब से पुरातन प्रतीत होता है । उसकी मान्यता है काल ने ही पृथ्वी को उत्पन्न किया है । काल के कारण ही सूर्य तपता है और सारे भूत उसी के आधार पर स्थित है । काल के कारण ही वृक्ष फलते-फूलते है, धान पकता है, वर्षा होती है या एक शब्द मे कहे तो दुनिया के सारे कार्य काल का निमित पाकर ही पूरे होते हैं । त काल ईश्वर है, प्रजापति का भी पिता है। महाभारत मे तो सुखदुख, जीवन-मरण इन सवका आधार तथा विश्व वैचित्र्य का कारण काल को ही माना है । * काल के महत्त्व को नैयायिक दर्शन ने भी माना है । उसने ईश्वर यादि कारणो के साथ काल को भी सृष्टि का निमित कारण माना है । I इस तरह कुछ विचारको की यह मान्यता रही है कि सृष्टि के सभी कार्य काल की परिपक्वता पर आधारित है । A * * Purbe स्वभाव कुछ विचारको का कहना है, सृष्टि के सभी कार्य स्वभाव से होते महाभारत, शान्तिपर्व ३३, २३ । जन्याना जनक कालो जगतायाश्रयो मत 1 न्यायसिद्धात मुक्तावली ४५ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ तृतीय अध्याय है । ईश्वर या कर्म जैसी कोई वस्तु नही है । बुद्ध चरित्र मे कहा गया है कि जगत का वैचित्र्य स्वभाव से ही है । जैसे - काटे को कौन तीक्ष्ण करता है? पशु-पक्षियो मे इतना वैचित्र्य क्यो है ? इन सब प्रश्नो का एक ही उत्तर दिया गया है कि स्वभाव से । गीता और महाभारत मे भी स्वभाववाद का उल्लेख मिलता है। इनके मत से पदार्थों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे अपने-अपने रूप में परिणत हो जाते हैं । स्वभाव वादियो का यह श्लोक सर्वत्र प्रसिद्ध है " नित्य सत्वा भवन्त्यन्ये नित्यासत्वाश्च केचन । विचित्रा: केचिदित्यत्र तत्स्वभावो नियामकः ॥ अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथानिलः । केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात् तद्व्यवस्थितः ।। " यदृच्छावाद wwwwww^^^^^^^^^ यदृच्छा शब्द का अर्थ अकस्मात् होता है । इस मत के मानने वालो का कहना हैं कि सृष्टि के निर्माण मे कोई कारण नही है । बिना किसी नियत कारण के ही अक्समात् कार्य निष्पन्न हो गया । कुछ लोग स्वभाववाद और यदृच्छावाद को एक ही मानते हैं । परन्तु ऐसा नही है, क्योकि स्वभाववादी सृष्टि के निर्माण मे स्वभाव को कारण मानते हैं, परन्तु यदृच्छवादी उसके पीछे कोई कारण नही मानते हैं । नियतिवाद नियतिवादी लोक-परलोक मानते थे । परन्तु वे किसी भी कार्य 'को कर्म के आधार पर नही मानते थे । उनको यह कहना था कि जैसा - होना निश्चित है वैसा ही होगा, उसके लिए किसी तरह का पुरुषार्थ करने की श्रावश्यकता नही है । इस मत का उल्लेख वौद्ध पिटको एव Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर १६०० जैन आगमो में विस्तार से मिलता है। वौद्ध ग्रन्थो मे पूरण काश्यप और मखली गौशालक के मतो का उल्लेख है। जैनागमो मे पहले मत को अक्रियावाद और दूसरे को नियतिवाद बताया है । दोनो नामो मे अन्तर है, परन्तु मान्यता में काफी साम्य है । वौद्ध ग्रन्थो मे गौगालक की मान्यता का उल्लेख इस प्रकार किया है- “प्राणियो की पवित्रता और अपवित्रता का न कोई कारण है और न हेतु ही। अपने पुरुषार्थ से कुछ नही होता है । किसी कार्य के होने में पुरुप का कोई पराक्रम, वल, वीर्य, शक्ति प्रादि निमित नही है। सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी जीव निर्बल हैं, वीर्य रहित हे। वे सब नियति-भाग्य, जाति वैशिष्टय और स्वभाव से बदलते है। ८४ लाख महाकल्प का भ्रमण करने के वाद अच्छे और बुरे दोनो तरह के प्राणियो के दुखों का नाश हो जाता है । कोई व्यक्ति ऐसा कहे कि शील, व्रत, तप और ब्रह्मचर्य से अपरिपक्व कर्मो को परिपक्व बना लूगा तथा परिपक्व कर्मों को भोग कर शून्यवत् कर दूगा तो ऐसा होने का नही है । पूरण काश्यप का कहना है कि किसी ने कोई कार्य किया है, करवाया है, किसी को किसी ने काटा है, कटवाया है, किसी को त्रासदुख दिया है, दिलवाया है, इसी तरह प्राणियो का वध, चोरी, व्यभिचार आदि पाप कार्य किए है, या करवाये है तो उस करने या करवाने वाले व्यक्ति को पाप नही लगता है। तीक्ष्ण चाकू या तलवार ले कर कोई व्यक्ति पृथ्वी पर मांस का ढेर लगा दे, तब भी उसे जरा भी पाप नहीं लगेगा। गंगा नदी के दक्षिण किनारे जा कर कोई मार-काट , करे या अन्य दुष्कर्म करे, तो उसे जरा भी पाप नही लगता है और गगा के उत्तरी तट पर जाकर कोई दान देवे या दिलवाए, यज्ञ करे या करवाए, तो उसे जरा भी पुण्य नही होता है । दान, धर्म, सयम, सत्य, $ वुद्ध चरित (धर्मानन्द कोशावी) पृ १८१। ' Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय त्याग आदि कार्य करने से जरा भी पुण्य नही होता है। $ अक्रियावादियो के मत का इसी तरह का वर्णन जैनागमों मे भी मिलता है । ६ - गौचालक एव. काश्यप का मत एक दूसरे के काफी निकट है। दोनो कर्मवाद को अस्वीकार करते हैं। दोनो की मान्यता है कि आत्मा पुण्य-पाप कुछ नहीं करता है। न व्यभिचार करना पाप है और न दान, गोल, तप आदि सत्कार्य करना धर्म है । जो कुछ होना है वही होता है, किसी तरह का पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नही है । दोनो की समान मान्यता के कारण ही काश्यप के शिष्य उसकी मृत्यु के बाद गोशालक के मत मे मिल गए थे। - अज्ञानवाद . इस मत का प्रवर्तक सजय वेलट्ठीपुत्र था,। यह न नास्तिक था और न इसे आस्तिक ही कहा जा सकता है। इसे हम तर्कवादी कह सकते हैं । ..इसने परलोक, नरक, स्वर्ग, कर्म, निर्वाण जैसे अदृश्य पदार्थो के सबध मे स्पष्ट शब्दो मे कहा कि इनके लिए न. निपेध की भाषा मे कहा जा सकता है और न स्वीकार की भाषा मे तथा न उभय रूप से कहा जा सकता हैं और न अनुभव रूप से । भगवान महावीर ने स्याद्वाद के द्वारा वस्तु के अनेक रूप युक्त होने को सिद्ध कर दिया है । परन्तु जव मनुष्य के मन मे सशय होता $ बुद्ध चरित्र (कौशावी) पृ १७०। 8 कुव च कारय चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जई। एव अकारो अप्पा, एव ते उ. पगन्मिना । --सूत्र कृताग १, १, १, १३. * बुद्ध चरित्र (कौशावी) पृ..१७८ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १.६२ t है और उसे ठीक समाधान नही मिलता या वह दूसरे के द्वारा स्वीकृत संत्य-तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नही होता है, तव अज्ञानवाद . की ओर झुकता है। इसलिए सूत्रकृताग सूत्र मे यह कहा गया है कि अज्ञानवादी तर्क करने मे कुगंल -प्रवीण होते हैं, परन्तु उनके बोलने का गसद्ध होता है । वह स्वयं सशय रहिन नही हुए अथवा उन्हें अपनी मान्यता पर भी सदेह रहा हुया है । वे स्वयं अज्ञानी हैं और भोले-भाले लोगो मे ग्रज्ञान फैलाते हैं, उन्हें गलत ढंग से समझाते हैं । जैनों का समन्वयवाद जनो ने भी काल, स्वभाव, नियति पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ आदि को माना है । परन्तु किसी कार्य के होने मे किसी एक को ही नही माना है । उन्होने इन पाचो के समन्वय को माना है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है कि इन पांचो कारणो ं मे से किसी एक कारण को स्वीकार करना और शेष कारणो का तिरस्कार करना मिथ्यात्व है और कार्य की निष्पत्ति मे पाचो का समन्वय मानना सम्यक् धारणा है । * श्राचार्य हरिभद्र सूरी ने भी यही बात कही है । $ इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनो ने केवल कर्म या पुरुषार्थ को ही नही माना है । उन्होने मुख्य गौण भाव से पाचो कारणो को स्वीकार किया है । कर्म का स्वरूप 1 साधारणत कर्म का शाब्दिक अर्थ क्रिया होता है । वेदों से ले कर ब्राह्मण काल तक के वैदिक ग्रन्थो मे इसी अर्थ को माना गया है * कालो सहाव णियइ पुन्वकम्म परिसकारणगता । मिच्छत त चेव' उ ' समास हुति सम्मतें ॥ § शास्त्रवार्ता समुच्चय, २, ७९-८० --पष्ठ द्वात्रिंसिका Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ तृतीय अध्याय और यज्ञ-याग आदि नित्य नैमित्तिक क्रियाओं को कर्म कहा गया है | जैनो ने भी कर्म का अर्थ क्रिया माना है, परन्तु उन्होने केवल इसी अर्थ को ही नही स्वीकार किया । ससारी जीव की प्रत्येक किया तो प्रवृत्ति है ही, परन्तु उस क्रिया के पीछे स्थित जो परिणामो - विचारो का प्रवाह है, उससे पुद्गल द्रव्य आत्मा के साथ सवद्ध हो जाते है, इस वन्धन को भी जैन परिभाषा मे कर्म कहते है प्रकार के है. १ द्रव्य कर्म और २ भावकर्म | । इस तरह कर्म दो - 4 } आत्मा की क्रिया अर्थात् परिणाम की धारा यह भावकर्म है और उस क्रिया से ग्रावद्ध होने वाले पुद्गल द्रव्य कर्म है । क्योकि परिणामों द्वारा संग्रहित कर्म जीव को कार्य मे प्रवृत्त करते है, अत आत्मा के साथ सबद्ध होने वाले पुद्गलो को भी कर्म कहते हैं । क्रिया और कर्म कां परस्पर कार्य-कारण भाव सवध है और यह सवध कबूतरी श्रीर उसके अडे के समान अनादि है । परन्तु इनका अनादि सवध सन्तति की अपेक्षा से । भाव क्रिया से द्रव्य कर्म उत्पन्न होता है । इसलिए भाव क्रिया कारण और द्रव्य कर्म उसका कार्य है । परन्तु यदि द्रव्य कर्म का प्रभाव हो तो फिर भाव क्रिया की निष्पति भी नही हो सकती, जैसे सिद्धावस्था मे द्रव्यं कर्म नही है तो वहां भाव क्रिया भी उत्पन्न नही होती थवा दोनो का प्रभाव होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव क्रिया की उत्पत्ति मे द्रव्य कर्म कारण है । T यह प्रश्न हो सकता है कि भाव कर्म ससारिक आत्मा की प्रवृत्ति या क्रिया है, तो वह कौन-सी क्रिया या प्रवृत्ति है, जिससे द्रव्य कर्म का वन्ध होता है? क्रोध, मान, माया और लोभ, जिन्हें जैन परिभाषा मे कपाय कहते है । आत्मा के ये वैभाविक परिणाम या मनोविकार ही भावकर्म है अथवा आत्मा मे राग-द्वेष और मोह की जो परिणति Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ vvvvvvvv. ~~~..................प्रश्नो के उत्तर .................. होती है, उसे भी भाव कर्म कहते हैं। राग-द्वेप-मोह या कषायो की प्रवृत्ति का आविर्भाव मन, वचन और योग के द्वारा होता है । इसलिए कषाय और योग को द्रव्य कर्म बन्ध का कारण माना है। योग और कपाय की प्रवृत्ति एक रूप दिखाई देती है, फिर भी ये दोनो भिन्न है। कपाय और योग का सवध रंग और वस्त्र के सवध जैसा है । विना रंग का सफेद वस्त्र एक रूप होता है, परन्तु रग चढने के बाद उसमे एक रूपता नही रह पाती है ।हल्के और गहरे. रग का भेद खड़ा हो जाता है। इसी तरह कषाय रहित मन, वचन और काया के योग की प्रवृत्ति सफेद वस्त्र की तरह एक रूप है, उससे कर्म वन्ध नही होता, सिर्फ कर्म वर्गणा के पुद्गल आते हैं और तुरन्त झड जाते हैं, वे आत्मा के साथ सवद्ध नही हो पाते हैं। और कषाय युक्त योग रगीन वस्त्र की तरह है, उसमे एक रूपता नही रहती है। उसकी तीव्रता और मन्दता के अनुरूप द्रव्य कर्म का तीव्र या मन्द वन्ध होता है। ... . . . . नैयायिक-वैशेषिक और जैन . नैयायिक दर्शन ने भी राग, द्वेप और मोह को दोष माना है। इन दोषो से प्रेरित हो कर जीव के मन, वचन और काया की प्रवृत्ति होती है, उससे धर्म-अधर्म सस्कार की उत्पत्ति होती है और यह आत्मा का गुण है। नैयायिक गुण को गुणी से भिन्न मानते हैं और वे गुण को आत्मा की तरह चेतन नही मानते हैं । यह हम देख चुके हैं कि जैन भी राग-द्वेप और मोह को कर्म वन्ध का कारण मानते है और नैयायिक भी । जैन जिसे भाव कर्म कहते है, नैयायिक उसको दोष कहते है। जैन जिस क्रिया को योग कहते है, नैयायिक उसे दोषजन्य प्रवृत्ति के नाम से पुकारते हैं । जैन परिभाषा मे जिसे कर्म कहते है, 1 $ न्याय सूत्र ४, १, ३-४, १, १, १७ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ तृतीय अध्याय नैयायिको ने उसका नाम संस्कार रखा है। द्रव्य कर्म को जैन भी जड़ मानते हैं और नैयायिक भी सस्कार को जड स्वीकार करते हैं। दोनों की सैद्धातिक मान्यताओं में अन्तर इतना ही है नैयायिक सस्कार को यात्मा का गुण मानते हैं और जैन द्रव्य कर्म को प्रात्मा से भिन्न पुद्गल मानते है। जरा गहराई से सोचे तो सस्कार भी दोषजन्य प्रवृत्ति से पैदा होते है और द्रव्य कर्म भी भाव कर्म अर्थात् कषाय और योग से उत्पन्न होते हैं । जव हम यह कहते है कि द्रव्य कर्म कषाय और योग से उत्पन्न होते हैं, तो इसका यह तात्पर्य नही है कि कपाय और योग (द्रव्य कर्म) पुद्गलो को उत्पन्न करता है। पुद्गल तो पहले से ही विद्यमान है। आत्मा के कषाय युक्त परिणामो का पुद्गलो पर ऐसा सस्कार पडता है कि वे पुद्गल कर्म वर्गणा के रूप को प्राप्त हो कर आत्मा के साथ सवद्ध हो जाते हैं। - - - जैन विचारको ने स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर भी माना है। जैन परिभाषा मे उसे कार्मण शरीर कहते हैं । कार्मण शरीर से स्थूल शरीर को निष्पत्ति होती है । यह कार्मण-शरीर एक गति से दूसरी गति मे जाते समय भी जीव के साथ रहता है । नैयायिको ने भी स्थूल शरीर के साथ एक अव्यक्त गरीर माना है और उसे अतीन्द्रिय स्वीकार किया हैं । $ जैनो ने भी इसे अतीन्द्रिय कहा है। " इस तरह कर्म सिद्धात को मान्यता मे नैयायिक दर्शन जैनो के काफी निकट है। वैशेषिक दर्शन को मान्यता नैयायिक दर्शन की तरह ही है। सिर्फ अन्तर इतना ही है कि वैशेषिक दर्शन ने धर्म-अधर्म रूप सस्कार को अदृष्ट नाम दिया है। सिर्फ नाम का अन्तर है, सिद्धात का नही । क्योकि वेशेषिक दर्शन भी नैयायिक दर्शन की तरह अदृष्ट को $ न्यायवार्तिक ३, २, ६८॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १६६ आत्मा का गुण मानता है। $ और उभय दर्शन की यह मान्यता है कि दोष से संस्कार और जन्म होता है और जन्म से दोष उत्पन्न होता है। इस तरह दोनो का अनादि सवध है। जैन-भी द्रव्य कर्म और भाव कर्म का सन्तति या प्रवाह रूप से अनादि सवध मानते हैं।, .. - योग दर्शन और जैन . __ योग दर्शन पाच क्लेश मानता है- १ अविद्या, २ अस्मिता, ३. रॉग, ४ द्वेष, और ५ अभिनिवेश। उक्त क्लेग से क्लिष्टवृत्ति-चित्त व्यापार उद्बुद्ध होता है और उससे धर्म अधर्म रूप सस्कार अवतरित होते हैं । क्लेश को भाव कर्म, क्लिष्ट वृत्ति को योग और सस्कार को द्रव्य कर्म के स्थान पर रख सकते हैं। योग दर्शन में भी इनके कार्यकारण भाव को अनादि माना है। । । इस तरह जैन दर्शन और योग दर्शन की मान्यता मे वहुत-कुछ साम्य है। दोनो सिद्धातो मे कुछ अन्तर भी है, वह इस प्रकार हैयोग दर्शन क्लेश, क्लिष्टवृत्ति और संस्कार का सबंध आत्मा के साथ नही मान कर चित्त वृत्ति के साथ मानता है और यह चित्तवृत्ति। अन्त करण,प्रकृत्ति का विकार है । और जैन दर्शन भी कषाय या राग, द्वेष और मोह- भाव कर्म को विकार मानता है और द्रव्य कर्म को भी विकृति का परिणाम मानता है, परन्तु उसका आत्मा के साथ सबध होना भी स्वीकार करता है । इन विकृत परिणामो के कारण ही आत्मा ससार में परिभ्रमण करती है । यदि उनका आत्मा के साथसर्वथा सवध ही नही होता है, तो फिर उसके ससार भ्रमण का कोई कारण नहीं रह जाता है। जैसे मिट्टी का वही पिंड घूमता है, जिसका कुभकार की चाक के साथ संवध हुआ है, परन्तु वह मृतिका पिंड कभी v v v v v v vvvvvvv vvvvvvvvvvvvvv ६ प्रशस्तपाद भाष्य पृ ४७।। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ तृतीय अध्याय = नही घूमता है, जिसका चाक के साथ संबंध जुडा हुग्रा नही है । इसी तरह जिस ग्रात्मा के साथ द्रव्य और भाव कर्म का संबंध नही होता है, वह आत्मा कभी भी संसार में नही घूमती, जैसे मुक्त - सिद्ध जीव लेकिन ससारी - आत्मा ससार मे परिभ्रमण करती है, यत ऐसा मानना चाहिए कि द्रव्य और भाव कर्म का या कषाय, योग और कर्म पुद्गलो का ग्रात्मा के साथ सबंध होता है । सांख्य और जैन जैन और साख्य दर्शन को मान्यता मे सबसे बड़ा मतभेद यह है, कि साख्य पुरुष - प्रात्म को कूटस्थ नित्य मानता है । इसलिए उसकी मान्यतानुसार पुरुष मे कोई परिवर्तन नही होता है । -वन्ध और मोक्ष भी पुरुष का नही, प्रकृति का होता है। शुभ-अशुभ कर्म का कर्ता भी पुरुष नही, प्रकृति है । जबकि जैन दर्शन ग्रात्मा को परिणामी नित्य मानता है. अथवा ग्रात्म पर्यायो मे भी परिवर्तन होता है । आत्मा का कर्म के साथ संबंध होता है और वह कर्म वन्व से मुक्त भी हो सकती है । इसका तात्पर्य यह है कि ग्रात्मा का वन्ध और मोक्ष होता है । r " - इतना तर होते हुए भी दोनो दर्शनो की मान्यता मे साम्य भी है । पुरुष श्रीर प्रकृति की बात छोड़ दे तो कर्म बन्ध की जो प्रक्रिया है, वह जैन और साख्य की प्राय एक-सी है। जैन दर्शन मे राग, द्वेप, मोह आदि भावो के कारण पौद्गलिक कार्मण शरीर का श्रात्मा के साथ नादि काल से संबध माना गया है। यह कार्य - कारण भाव सबंध वीजांकुर की तरह है। इसमे यह नही कह सकते कि पहले कौन है और पीछे कौन है । इस तरह सांख्य दर्शन मे भी लिंग शरीर का पुरुष के साथ अनादि काल से सवध माना है। और यह लिंग शरीर मोह, राग-द्वेष जैसे विकारी भावो से उत्पन्न हुआ है और इसका कार्य कारण Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १६८ भाव सवध भी वीजाकुर की तरह है 17 जैन जिस तरह प्रौदारिक शरीर और कार्मण-सूक्ष्म शरीर को पृथक मानते हैं, उसी तरह साख्य भी लिंग शरीर को स्थूल शरीर से भिन्न मानते है। जैन सूक्ष्म और स्थूल दोनो शरीरो को पीद्गलिक मानते हैं । सांख्यं ने भी दोनों को प्राकृतिक ही माना है । जेनो ने दोनो शरीरो को पुद्गल का विकार माना है, फिर भी दोनो शरीर वर्गणा के पुद्गलो को भिन्न-भिन्न माना है । सांख्य ने भी एक को तन्मात्रिक और दूसरे को माता-पिता से जन्य माना है । जैन मानते हैं कि मृत्यु के समय प्रदारिक ग्रादि स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, परन्तु ससारावस्था मे कार्मण शरीर जीव के साथ सदा रहता है । उसी कार्मण शरीर के माध्यम से ही जीव अपने गन्तव्य स्थान तक पहुचता है । साख्य भी ऐसा ही मानते हैं कि के मृत्यु समय स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, परन्तु लिंग शरीर स्थित रहता है और एक स्थान से दूसरे स्थान मे गति करते समय साथ रहता है । दोनो की मान्यता है कि नए जन्म के समय जीव नए दारिक (स्थूल) शरीर को ग्रहण करता है । दोनो दर्शन इस बात मे एकमत हैं कि मुक्ति के समय कार्मण या लिंग शरीर भी छूट जाता है, मुक्त अवस्था मे सिर्फ विशुद्ध चैतन्य हो रहता है । जैन मानते हैं कि कार्मण शरीर की गति मे कोई प्रतिघात नही होता । सांख्य भी मानते हैं कि लिंग शरीर श्रव्याहत गंति करता है। जैन कार्मण शरीर को उपयोग रहित मानते हैं और साख्य दर्शन भी लिंग शरीर को निरुपयोग मानता है । " जवकि साख्य रागादि भावो को लिंग शरीर को और अन्य भौतिक पदार्थो को प्रकृति का विकार मानता है, फिर भी सांख्य इन मे जातिगत भेद स्वीकार करते हैं । जैनों की भी यह मान्यता है कि mini 1⁄2 साख्य कारिक ( माठर वृत्ति ) - ५२ । " 7 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ MAA ManaAAAA AI AAAAAA 4. तृतीय अध्याय MMAV ^^^^N www AAAAAAAAN जीव मे जो रागादि भाव हैं, वे पुद्गल कृत हैं और कार्मण शरीर भो . पुद्गल कृत है, फिर भी दोनो मे मौलिक भेद है । रागादि भावो का उपादान कारण आत्मा है और निमित कारण- पुद्गल है, तो कार्मण शरीर का उपादान कारण पुद्गल और निमित कारण ग्रात्मा है । सांख्य का कहना है कि प्रकृति जड होने पर भी पुरुष के ससर्ग से चेतन की तरह प्रवृत्त होती है । जैन भी पुद्गल को जड़ मानते हुए ऐसा कहते हैं कि जब पुद्गल आत्मा से सवद्ध होकर कर्म रूप वन जाता है, तब वह चेतन की तरह कार्य करने लगता है । जैन ससारी - आत्मा और शरीर, कर्म आदि जड पदार्थों का सुवध क्षीर-नीर वत् मानते हैं । सांख्य भी पुरुष और शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि आदि का सवध क्षीरनीर वत् स्वीकार करते हैं ।" दोनो दर्शन कर्म बन्ध या फल भोग मे ईश्वर जैसी किसी शक्ति का माध्यम नही मानते है । अस्तु साख्य दर्शन भी कर्म बन्ध की प्रक्रिया जैनों की तरह ही मानता है । , f बौद्ध दर्शन बौद्धों ने भी जीवो की विचित्रता कर्म कृत मानी है । वे कर्म की उत्पत्ति मे लोभ (राग), द्वेष और मोह को कारण मानते हैं । राग, द्वेप और मोह युक्त होकर जीव-सत्व मन, वचन और काया की प्रवृत्ति करता है और उससे फिर राग-द्वेष-मोह उत्पन्न होता है । इस तरह ससार चक्र चलता है और इस प्रक्रिया को अनादि माना है । विसुद्धिमग्गं में नागसेन ने कर्म को अरूपी कहा है । वौद्ध परिभाषा मे उसे वासना और अविज्ञप्ति कहा है । मानसिक क्रियाजन्य सस्कार- कर्म को वासना और वचन एवं काया जन्य सस्कार को विज्ञप्ति कहा गया है । वौद्धो ने जो कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व तथा कर्म को अनादि माना है, वह सन्तति की अपेक्षा से माना है । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AhPLAAMAAAAAAAPAN प्रश्नों के उत्तर www..........१७० मीमांसक दर्शन मीमासक दर्शन एक अपूर्व नाम के पदार्थ को स्वीकार करता है। उसका कहना है कि मनुप्य जो अनुष्ठान करता है, वह क्रिया रूप होने से क्षणिक-अनित्य है। इससे उन अनुष्ठान से एक अपूर्व नाम का पदार्थ उत्पन्न होता है, जो अनुष्ठान-यज्ञ-यागादि क्रिया का फल देता है। कुमारिल ने अपूर्व नाम की व्याख्या करते हुए कहा है--- अपूर्व अर्थात् योग्यता । आचार्य शंकर ने अपूर्व का खण्डन किया है और कहा है कि कर्म के अनुसार ईश्वर फल प्रदान करता है। और उसने इस बात को सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया है कि कर्म से फल नहीं मिलता, परन्तु ईश्वर ही फल देता है। * ।। कर्म बन्द के कारणो की इतनी विस्तृत व्यात्वा का निष्कर्ष यह रहा है कि सभी दार्गनिक राग-द्वेप-मोह को कर्म वन्ध का कारण मानते हैं। जैन जिसे द्रव्य कर्म कहते है, अन्य दार्शनिक उसे कर्म कहते हैं और उसी के ही सस्कार, वासना, अविज्ञप्ति, अपूर्व पदार्थ आदि नाम रखे है। यह कर्म पुद्गल द्रव्य है, गुण है, धर्म है या अन्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य, इस विषय मे सभी दार्शनिको मे थोडा-बहुत मतभेद है, जिसे हमने देखा है । अव हम-द्रव्य कर्म के भेदो पर विचार करेंगे। . :. कर्म के भेद . . . . कर्म के भेद की मान्यता में सभी विचारक एक मत नहीं है। फिर भी पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, कुगल-अकुशल, शुभ-अशुभ इस तरह कर्म के दो रूप तो सभी दार्शनिको ने माने हैं । जिस कर्म का फल अनुकूल या सुख रूप प्रतीत होता है, उसे पुण्य और-जिसका फल प्रतिकूल या दु.ख रूप प्रतीत होता है उसे पाप माना है। उपनिषद्, जन, * ब्रह्म मूत्र (शाकरभाष्य), ३, २, ३८-४१. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय . AAV १७१ , साख्य, बौद्ध, योग, न्याय-वैशेषिक आदि सभी दर्शनो ने यही परिभाषा स्वीकार की है । और सभी दार्शनिको ने पुण्य हो या पाप दोनो से छुटकारा पाना ही ग्रात्मा का लक्ष्य माना है । इसलिए पुण्य कर्म जन्य अनुकूल वेदना को भी ज्ञानी पुरुषो ने सुख रूप नही, वल्कि निश्चय दृष्टि से दुख रूप ही माना है । तात्पर्य यह है कि कर्म जन्य सुख मुख नही, दुख ही हैं, क्योकि उसके पीछे जन्म-मरण का दुख लगा हुआ है पुण्य और पाप 1 कर्म के इन दो भेदो को सभी विचारको ने माना है । कर्म की शुभ और अशुभ दृष्टि को सामने रख कर बौद्ध $ और योग दर्शन के ग्रन्थो मे चार भेद किए है, शुक्ल, कृष्ण, शुक्लकृष्ण और अशुक्लाकृष्ण । पुण्य को शुक्ल, पाप को कृष्ण, पुण्य-पाप युक्त कर्म को शुक्ल कृष्ण और पुण्य-पाप रहित कर्म को अशुक्लाकृष्ण कर्म कहते हैं। कर्म का चौथा भेद वीतराग पुरुषो मे पाया जाता है । उनमे राग-द्वेष का प्रभाव होने से वे पुण्य और पाप के सवेदन से सर्वथा रहित हैं । इसके अतिरिक्त बौद्धो ने कृत्य, पाकदान, पाककाल की दृष्टि से प्रत्येक के चार-चार भेद करके १२ भेद माने है । और अभिधम्मत्थसंग्रह मे - पाकस्थान की अपेक्षा से ४ भेद और बढा दिए है | $ योग दर्शन मे बौद्धों की तरह कर्मों की गणना तो नहीं की गई है, फिर भी उसमे इस पर विचार किया गया है। इतना होने पर भी कर्म के - दीघनिकाय, ३, १,२ । पातञ्जल योग दर्शन, ४, ७ । विमुद्धिमग्ग १९,१४-१६ । - ९ अभिधम्मत्य संग्रह, पृ. १९ । } Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर . १७२ भेदोपभेदो का व्यवस्थित वर्णन जैसा जैन प्रांगमो एवं कर्म ग्रन्थो में .. मिलता है, वैसा अन्य दर्शनो मे उपलब्ध नहीं होता है। - कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियां , जैन आगमो एव ग्रन्यो मे कर्म की मूल आठ प्रकृनिए मानी है१ जानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ अायु ६ नाम ७ गोत्र और ८ अन्तराय। उक्त पाठ कर्मो की अनेक उत्तर प्रकृतिए हैं और विभिन्न जीवो की अपेक्षा से आगमों में कर्म का निरुपण किया गया है । और किस गति या दृष्टि के जीवो मे कितने कर्म-बन्ध,उदय, उदीरणा, सत्ता इत्यादि मे रहते हैं, इसका भी विस्तृत विवेचन किया गया है। इन सवका यहा विस्तार से विवेचन न करके केवल कर्म की उत्तर प्रकृतिए गिना देते हैं। . . . १ ज्ञानावरणीय कर्म । यह कर्म ज्ञान को ढकने वाला है । इस कर्म के उदय से आत्मा स्व और पर स्वरूप को ठीक-ठीक नही जान पाता है । इस आवरण को पट्टी के समान माना है । आख पर जितने मोटे वस्त्र की पट्टी बधी हुई होगी,उतना ही कम दिखाई देगा। उसी तरह नानावरण का जितना गहरा आवरण होगा, आत्मा में उतना ही ज्ञान का विकास कम होगा। यह कर्म आत्मा मे स्थित ज्ञान को पूर्ण रूप से प्रच्छन्न नहीं करता है । आत्मा मे थोड़ा बहुत ज्ञान तो हर स्थिति में रहता ही है। क्योकि ज्ञान आत्मा का लक्षण है, अत. उसका सर्वथा लोप नही होता। जैनागमो मे ज्ञान ५ प्रकार का माना गया है- १ मतिज्ञान, २ श्रुतज्ञान, ३ अवधिनान, ४ मन.पर्यवज्ञान और ५ केवलजान । अत. ज्ञानावरण कर्म भी उक्त ५ प्रकार है; यथा मतिज्ञानावरण आदि । 1 . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय २ दर्शनावरणीय कर्म ग्रात्मा आत्मा के दर्शन गुण को आवृत्त करने वाले कर्म को दर्शनावरण कर्म कहते हैं । इसे राजा के द्वारपाल की उपमा दी गई है । द्वारपाल चाहे तो किसी व्यक्ति को राजा के दर्शन करने से रोक भी सकता है । उसी तरह उक्त कर्म का उदय रहता है, तव ग्रात्मा अपने स्वरूप का दर्शन नही कर पाता । दर्शनावरण कर्म भी आत्मा मे स्थित अनन्त दर्शन को सर्वथा आवृत्त नही करता है । दर्शन ४ प्रकार का है१ चक्षुदर्शन, २ प्रचक्षुदर्शन, ३ अवधिदर्शन और ४ केवलदर्शन । दर्शनावरण कर्म के नव भेद किए है । वे इस प्रकार है- १ चक्षुदर्शनावरण, २ चक्षुदर्शनावरण, ३ अवधिदर्शनावरण, ४ केवलदर्शनावरण ५ निद्रा, ६ निद्रा-निद्रा, ७ प्रचला, ८ प्रचलाप्रचला और ९ स्त्यानद्ध निद्रा । १७३ - ३ वेदनीय कर्म इस कर्म के उदय से आत्मा मे सुख-दुख का सवेदन होता है । इस कर्म को मधु से लिप्त तलवार की उपमा दी है । ससारिक सुख उक्त मधु के समान है, जो मधुर स्वाद की अनुभूति कराने के साथ जिह्वा को भी काट देता है । अथवा ससारिक सुखो के पीछे दुख का अथाह सागर ठाठे मार रहा है । वेदना दो प्रकार की होती है- सुख रूप और दुःख रूप । इसलिए वेदनीय कर्म भी दो प्रकार का माना है१ साता वेदनीय - सुख रूप औौर २ श्रसाता वेदनीय - दुख रूप । ४ मोहनीय कर्म Phul यह ग्रात्मा के सम्यक् दर्शन और चारित्र अर्थात् आत्मा के मूल गुण का रोधक है । इस कर्म को मद्य की उपमा दी गई है । जैसे मद्य का नगा कर लेने पर मनुष्य अपनी चेतना को खो बैठता है, उसी I Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४. Newar प्रन्नो के उत्तर mmmmmmmmmmm तरह मोह कर्म के उदय से आत्मा अपने स्वरूप को समझ नहीं पाता है। मोह कर्म दो प्रकार का माना है... १ दर्शन मोह और २ चारित्र मोह। दर्शन मोह के तीन भेद माने है-१ सम्यक्त्व मोहनीय, २ सममिथ्यात्व मोहनीय और ३ मिथ्यात्व मोहनीय।२ चारित्र मोह के दो भेद हैं- १ कपाय और २ नोकपाय । कपाय १६ प्रकार का है-१ अनन्तानुवधी कपाय, २ अप्रत्याख्यानी कपाय, ३ प्रत्याख्यानी कषाय, और ४ सज्वलन कपाय । प्रत्येक कपाय के ? क्रोध, २ मान, ३ माया और लोभ ये चार भेद होते हैं । नोकषाय के ९ भेद होते है.- १ हास्य, २ रति, ३ अरति, ४ भय, ५ गोक, ६ दुगच्छा , ७ स्त्री वेद,.८ पुरुष वेद ९ नपुसक वेद । इस तरह दर्शन मोह के ३ और चारित्र मोह के २५, कुल मिलाकर मोहनीय कर्म के २८ भेद होते हैं। ५ आयु कर्म इस कर्म के उदय से आत्मा किसी एक गति के प्राप्त गरीर मे रहता है। इस कर्म का क्षय होते ही वह उस शरीर को त्याग देता है, जिसे व्यवहार भापा मे मृत्यु कहते हैं। इस कर्म का स्वभाव कारागार (जेल) के समान है। क्योकि जेल मे कैदी के बन्धन का निश्चित समय होता है, उसी तरह आत्मा का एक गति मे प्राप्त स्थूल शरीर के साथ रहने का भी निश्चित समय होता है । ससार मे चार गतिये हैं- १ नरक २ तिर्यच, 3 मनुप्य और ४ देव । इसलिए आयु कर्म भी चार प्रकार का माना है- १ नरक आयु, २ तिर्यच आयु, ३ मनुप्य प्रायु और ४ देव आयु। - - - ६ नाम कर्म - - .. यह कर्म चित्रकार के तुल्य है । जैसे चित्रकार अनेक ग्राकारप्रकार के चित्र चित्रित करता है, उसी तरह नाम कर्म भी देव, नारक Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तृतीय अध्याय मनुष्य, तिर्यश्व प्रादि विभिन्न नामो की रचना करता है। नाम कर्म के कई भेद हैं । नाम कर्म के भेद चार अपेक्षाओं से किए जाते हैं । एक अपेक्षा से ४२, दूसरी अपेक्षा से ९३, तीसरी अपेक्षा से १०३ और चौथी अपेक्षा से ६७ भेद किए गए हैं । 1 7 • ४२ भेद -- १ गति, २ जाति, ३ तनु-शरीर, ४ उपाग, ५ बन्धन, ६ सघातन, ७ सहनन, 5 सस्थान, ९ वर्ण, १० गन्ध, ११ रस, १२ स्पर्श, १३ श्रानुपूर्वी, और १४ विहायोगति ये चवदह पिड प्रकृतिया कहलाती हैं । १ पराघात नाम, २ उच्छ्वास नाम, ३ आतपः नाम, ४ उद्योत नाम, ५ ग्रगुरुलघु नाम, ६ तीर्थंकर नाम, -७ निर्माण नाम, ८ उपघात नाम, ये ग्राठ प्रत्येक प्रकृतियां कही जाती हैं । १ त्रस नाम, २ वादर नाम, ३ पर्याप्त नाम, ४ प्रत्येक नाम, ५ स्थिर नाम, ६ शुभ नाम, ७ सुभग नाम, ८ सुस्वर नाम, ९ आदेय नाम और १० यग कीर्ति नाम, इन दस प्रकृतियो को त्रस दशक कहते हैं । १ स्थावर नाम, २ सूक्ष्म नाम, ३ पर्याप्त नाम, ४ साधारण नाम, ५ अस्थिर नाम, ६ अशुभ नाम, ७ दुर्भग नाम, ८ दुस्वर नाम, ९ अनादेय नाम और १० अयश कीर्ति नाम । इन दस प्रकृतिया को स्थावर दशक कहते हैं । इस तरह नाम कर्म के १४+६+१०+ १० = ४२ भेद होते हैं । १७५ AAVAAAAA ३ ९३ भेद - गति नाम कर्म के ४ भेद - १ नरक, २ तिर्यश्व, - मनुष्य और ४ देव । जाति नाम कर्म के ५ भेद - १ एकेन्द्रिय, २ द्वीन्द्रिय, ३ त्रीन्द्रिय, ४ चतुरिन्द्रय, ५ पचेन्द्रियः । शरीर नाम कर्म के ५ भेद - १ श्रदारिक, २ वैक्रिय, ३ ग्राहारक, ४ तेजस ओर ५ का मण शरीर । उपाग नाम कर्म के ३ भेद - १ ग्रौदारिक गोपाग नाम कर्म २ वैक्रिय अगोपांग नाम कर्म और ३ आहारक ग्रगोपाग नाम कर्म । वन्धन नाम कर्म के ५ भेद- १ श्रद्वारिक शरीर बन्धन नाम Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कर्म, इसी तरह वैक्रियादि पाचो गरीरो के साथ बंन्धन नाम कर्म जोड देना चाहिए | सघातन नाम कर्म के ५ भेद- १ प्रदारिक शरीर सधातन नाम कर्म, इसी तरह वैक्रियादि के साथ सघातन नाम कर्म जोड देना चाहिए। सहनन नाम कर्म के ६ भेद- १ वज्र ऋषभ नाराच, २ ऋषभ नाराच, ३ नाराच, ४ अर्ध नाराच, ५ किलिका र ६ सेवार्त । सस्थान नाम कर्म के ६ भेद - १ समचतुस्र, २ न्यग्रोध, ३ सादि ४ कुब्ज, ५ वामन और ६ हुण्डक सस्थान । वर्ण के ५ भेद है - १ कृष्ण, २ नील ३ रक्त-लाल, ४ पीत और ५ श्वेत वर्ण । गन्ध के २ भेद'सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध । रस के ५ भेद -- १ तिक्त, २ कटु, ३ कषाय, ४ आम्ल और ५ मधुर रस । स्पर्श के ८ भेद - १ गुरु, २ लघु, ३ मृदु, ४ कठोर, ५ गीत, ६ उष्ण. ७ स्निग्ध और ८ रूक्ष स्पर्श । ग्रानुपूर्वी के ४ भेद - १ नरकानुपूर्वी २ तिर्यञ्चानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी और ४ देवानुपूर्वी । विहायोगति के २ भेद -- शुभ और अशुभ विहायो गति | इस तरह १४ पिंड प्रकृतियो के ६५ भेद हुए । - इनके साथ ८ प्रत्येक प्रकृतिया, त्रस दशक और स्थावर दशक ये २८ प्रकृतिया जोड देने से नाम कर्म के ६५+२८ = ९३ भेद हो जाते हैं। ANNNNN ~~ प्रश्नो के उत्तर NV ANN VAAN wwwww wwNN V - १०३ भेद - ९३ भेद उपरोक्त और वन्धन नाम कर्म के ५ भेद की जगह १५ भेद भी होते हैं । वे निम्न प्रकार हैं- १ प्रदारिक-प्रदारिक बन्धन नाम कर्म, २ प्रदारिक- तेजस वन्धन नाम कर्म, ३ प्रौदारिककार्मण बन्धन नाम कर्म, ४- वैक्रिय - वैक्रिय बन्धन नाम कर्म, ५ वैक्रियतेजस वन्धन नाम कर्म, ६ वैक्रिय - कार्मण बन्धन नाम कर्म, ७ आहारकआहारक बंधन नाम कर्म, ८ आहारक-तैजस वधन नाम कर्म, ९ प्रा“ हारक-कार्मण बधन नाम कर्म, १० औदारिक-तैजस-कार्मण बघन नाम कर्म, ११ वैक्रिय- तैजस-कार्मण वधन नाम कर्म, १२ प्रहारक- तैजस Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ तृतीय ग्रध्याय कार्मण वधन नाम कर्म, १३ तैजस- तैजस बघन नाम कर्म, १४ तैजसकार्मण बधन नाम कर्म और १५ कार्मण-कार्मण वधन नाम कर्म । इस तरह वधन नाम कर्म के दस-भेद वढा देने से नाम कर्म के ९३+१० = १०३ भेद हो जाते है । ६७ भेद- ववन नाम कर्म के १५ भेद और सघातन नाम कर्म के ५ भेदो का ५ गरीर नाम कर्म मे समावेश कर दे । और वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के २० भेदो को वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श इन चार मे समाविष्ट कर देते है, तो शेष ६७ प्रकृतिया ही वचती है । वधन नाम के १५, सघातन नाम के ५ और वर्णादि की १६ इस तरह कुल ३६ प्रकृतियां १०३ - ३६ = कम करने से, नाम कर्म को शेष ६७ प्रकृतिया रहती है । इस अपेक्षा से नाम कर्म की ४२, ९३, १०३ और ६७ प्रकृतिया होती है । - > गोत्र कर्म, इसे कुभकार के समान माना है । जैसे कुभकार अनेक तरह के घट बनाता है, जिनमे से कुछ घट कलग के है. या घी, पानी आदि शुभ पदार्थ रखने के काम मे घट मदिरा आदि अशुभ पदार्थ भरने के काम मे भी लाए जाते हैं । उसी तरह इस नाम कर्म के उदय से जीव कभी उच्च गोत्र मे जन्म लेता है, तो कभी नीच गोत्र मे भी जन्म ग्रहण करता है । ऊच और नीचे के भेद से गोत्र कर्म दो प्रकार का माना गया है । अंतराय कर्म रूप मे पूजे जाते आते हैं, तो कुछ यह - कर्म – भण्डारी –— कोषाध्यक्ष के समान कहा गया, | "" है । कोषाध्यक्ष के अनुकूल न होने पर राजा अपनी इच्छानुसार धन C का व्यय नहीं कर सकता । उसी तरह इस कर्म के उदय से शक्तिये C • Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर १७८ प्राप्त नहीं होती है । इस कर्म के ५ भेद है- १ दान-पतराय, २ लाभअतराय, ३ भोग-अतराय, ४ उपभोग-अतराय और ५ वीर्य-अंतराय । प्रकतियां का बंघ - - - - ८ कर्म की १२० प्रकृतिया का वध होता है। वह इस प्रकार हैजानवरण की ५, दर्शनावरण की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २६-१ सम्यक्त्व मोहनीय और सम्यक्त्व-मिथ्या मोहनीय-मिश्र मोहनीय प्रकृति का बव नही होता है, बघ तो मिथ्यात्व मोहनीय का होता है, परन्तु परिणामो मे विनुद्धि और अर्धशुद्धि होने पर सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की दोनो प्रकृतियें वन जाती है, आयु की ४, नाम की ६७, गोत्र की दो और अतराय की ५=१२० प्रकृतिया । उपरोक्त १२० मे मोहनीय कर्म की निकाली गई दो प्रकृतिया मिला देने पर १२२ प्रकृतिया बन जाती हैं । ये १२२ प्रकृतियों उदय और उदीरणा की अधिकारिणी है। ८ कर्म की १५८ उत्तर प्रकृतियां होती हैं। इसमे नाम कर्म की १०३ प्रकृतिये मिलाई गई हैं। इस मे से वधन नाम कर्म के ५भेद लिए जाए तो १५८-१०=१४८ प्रकृतियां गेष रहती हैं। ये १४८ प्रकृतियां सत्ता योग्य हैं अथवा इनको सत्ता रहती है। कर्म बन्ध का कारण जैन आगमो एवं ग्रन्थो में कर्म बन्ध के संवव मे तीन मान्यताए प्रचलित है- एक मान्यता है कपाय और योग ये दो कर्म वध के कारण हैं, दूसरी मान्यता मिथ्यात्व, अवत, कषाय और योग चार को कारण मानती है और तीसरी परपरा उसमें प्रमाद को जोड कर पाच कारण मानती है। दो कारण मानने वालो ने रेप कारणों का कपाय में समावेश कर लिया है। इस तरह कपाय और योग कर्म वन्ध के कारण हैं, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ तृतीय अध्याय इस मान्यता में किसी का विरोध नही है। इस मे भी कपाय को कर्म वन्ध का प्रवल कारण माना है। क्योकि कषाय रहित योग के कारण केवल कर्म आते है, परन्तु कषायाभाव के कारण उनका वन्ध नही होता है। इसलिए आगमो मे राग-द्वेप को कर्म का वीज कहा है। अत कर्म बन्ध का प्रमुख कारण कषाय है। परन्तु उसे अभिव्यक्त करने का साधन योग हैं। मन, वचन और काया इन तीनो योगो मे से किसी एक योग की सहायता के विना कषाय की अभिव्यक्ति नही हो सकती है । अत यह जानना आवश्यक है कि इन तीनो आधारो मे से मुख्य आधार कौनसा है? ब्रह्म विन्दु उपनिपद्, २ मे कहा गया है___ "मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः, . वन्धाय विषयासक्तं मुक्त्य निर्विपयं स्मतम ।". इसमे मन को कर्म बधन का प्रवल कारण माना है । इसी के सहयोग से मन,वचन और काया की प्रवृत्ति मे शुद्धता एव मलीनता आती है । गीता मे भी कहा गया है-हे कृष्ण यह मन वडा चचल है, इसका निरोध करना सरल नही है । परन्तु यह निश्चित है कि इस का निरोध, होने पर ही मुक्ति होती है । जैनागमो मे भी मन को प्रमुख माना है। कर्म वन्ध के लिए वचन और शरीर की क्रिया के स्थान मे जीव के परिणामो-आन्तरिक भावो या मानसिक चिन्तन को कर्म वध का प्रमुख कारण माना है। . . ~~~~~~~~~~~~~iminwwwrmwarrrrr रागो य दोसो य कम्म वीय। -उत्तराभ्ययन,३२,६ * चचल हि मन. कृष्ण । -श्री भगवद् गीता, ६,३४ ६ परिणाम वन्च । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ..१८० जैनों की तरह उपनिपदो में भी मन को शुद्ध और अगुद्ध दो तरह का माना है। काम सकल्प रूप मन को अशुद्ध और उमसे रहित मन को शुद्ध माना है । अशुद्ध मन ससार का कारण है और शुद्ध मन मुक्ति का । जन विचारको ने भी इस बात को माना है कि जब तक कपाय का क्षय नहीं हो जाता, तब तक अशुद्ध मन रहता है और १श्वे गुणस्थान मे और उसके वाद १३ वे गुणस्थान मे शुद्ध मन की ही प्रवृत्ति होती है और १४ वे गुणस्थान में पहुंचते ही, केवली सर्व प्रथम मन योग का निरोध करते हैं, उसके बाद वचन और काय योग का निरोव करते हैं। . . इन तरह जनों ने मन योग को प्रवल माना है। उसका निरोध कर लेने के बाद वचन और काय योग का सहज हो निरोध हो जाता है। जब तक मन का निरोध नही होता, तब तक वचन और काय योग का निरोध नहीं होता। क्योकि इन दोनो योगो का संचालक मन है। उस पर विजय पा लेने पर सव पर विजय हो जाती है। आध्यात्मिक भक्त कवि आनन्दघन जो ने कुथुनाथ भगवान की प्रार्थना करते हुए कहा है- - . "मन जीत्यु ते सगलो जीत्यु ए बात नहीं खोटी, - एम कहे में जीत्युते नवी मानु,एही बात छे कई मोटी । हो कुथु जिन मनड़ो किमही न - वांझे ॥" इस तरह हिंसा-अहिंसा का आधार भी मन को माना है मानसिक परिणति विशुद्ध हो रही है, तो उस समय' शरीर से हिंसा । ब्रह्म विन्दु उपनिषद्, १ । - विशेषावश्यक भाप्य, ३०५९ से ३०६४ . Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय होने पर भी पाप कर्म का बन्ध नही होता है । और उसके विपरीत कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष मे गरीर से किसी भी जीव की हिंसा करता हुआ दिखाई नही दे रहा है, परन्तु मन में किसी के प्रति कलुषित परिणाम लिए हुए है, तो वह पाप कर्म का वध कर लेता है। विशेषावश्यक भाप्य मे कहा है कि अशुभ परिणाम हिंसा है, चाहे उससे वाह्य रूप से जीवो की घात-हिंसा हो या न हो । और परिणामो मे विशुद्धता है तो वाह्य रूप से द्रव्य हिसा होने पर भी पाप कर्म का वध नही होता है ।-$ आगम मे भी यही कहा गया है कि अयतना पूर्वक चलने-उठने, खाने-पीने, वोलने आदि की, की जाने वाली क्रिया से छ, काय को हिसा एव पाप कर्म का वध होता है और यतना पूर्वक उक्त क्रिया करने में पाप कर्म का वध नहीं होता है । * इतना होते हुए भी वौद्धो ने जैनो पर जो यह आक्षेप किया है कि "जैन केवल काय दड को ही महत्त्व देते है," यह उनका भ्रम है और इस भ्रम का मुख्य कारण साम्प्रदायिक अभिनिवेश ही है, ऐसा मानना चाहिए । अन्यथा यह आक्षेप कोई मूल्य नही रखता है । जैनो की तरह बौद्ध भी मन को कर्म वध का प्रवल कारण मानते है । उपालिसुत्त मे मन को ही वध का मुख्य कारण कहा है। धम्मपद मे भी कहा है-- - "मनोपुच्चंगमा धम्मा मनोसेट्टा मनोमया । " मनसा चैव पदुन भासति वा करोति वा । . ...ततो न दुक्खमन्वेति, चक्कं.. व वहतो पदं ।।" * विशेषावश्यक भाष्य,१७६६ । * दुगर्वकालिक सूत्र, ४,१-७। ' - ~ ~ ~ ~~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............ प्रश्नों के उत्तर , , , , . , .., १८२ उपरोक्त विचारो से यह स्पप्ट हो गया है कि कर्म बंध मे प्रवल कारण मन है अथवा यों कह सकते हैं कि परिणामो को तीव्रता और मन्दता के अनुसार ही कर्मों का तीव्र एवं मन्द बध होता है। अत कपाय और योग को कर्म वन्ध कहा गया है, वह उपयुक्त ही है। मिथ्यात्व आदि का उसी मे समावेश हो जाता है । क्योकि अनन्तानुवधी कपाय का उदय मिथ्यात्व है, अप्रत्याख्यानी कपाय का उदय व्रत है और प्रत्याव्यानी कपाय का उदय प्रमाद हैं। अतः कम वन्ध के उक्त दो, और मिथ्यात्व, अव्रत, कपाय और योग इन चार तथा उसमे प्रमाद को मिला कर किए गए ५ भेदो मे कोई सैद्धातिक विरोध-नहीं है। मात्र सख्या का भेद है । इससे मान्यता मे किसी भी तरह का अन्तर नही पड़ता है। - कर्म फल का स्थान काल, स्वभाव, ईश्वर आदि को एकांत आधार मानने वाले विचारक जगत मे दिखाई देने वाले वैचित्र्य का कारण उन सबको मानते हैं। जो दर्शन एकात अद्वैत को स्वीकार करते हैं या मात्र-चेतन से ही सृष्टि की उत्पत्ति मानते हैं, उनके मतं मे अदृष्ट-कर्म या माया ही वैचित्र्य का कारण है । नैयायिक-वैशेपिक द्वैत को मानते हैं, फिर भी सृष्टि वैचित्र्य का कारण अदृष्ट-कर्म को स्वीकार करते हैं। उनके मतानुसार जड और चेतन सभी कार्यो मे अदृष्ट साधारण कारण है। वौद्ध दर्शन जड सृष्टि मे कर्म को कारण नही मानता है। यहा तक की वे वेदना को भी सर्वथा कर्म का कारण नही मानते है । मिलिन्द प्रश्न मे इसके ८ कारण माने हैं-- १ वात, २ पित -३ कफ और ४ इन तीनो का सन्निपात, ५ ऋतु, ६ विषमहार,७ औपक्रमिक और ८ कर्म । उक्त आठ कारणो मे से किसी एक कारण से जीव को वेदना का Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ तृतीय अध्याय सवेदन होता है । प्रत सुख-दुख की सवेदना के कारण आठ ही हैं, इस के अतिरिक्त कोई व्यक्ति पूर्व कर्म को सवेदना का कारण मानता है, तो यह मिथ्या है | क्योकि इसका वहुत थोडा भाग ऐसा है, जो पूर्व कृत कर्म का फल हो, अधिकाश भाग तो दूसरे कारणों पर ही आधारित है । सवेदना का कौनसा भाग पूर्व कृत कर्म का है, इस का निर्णय तो वुद्ध ही कर सकता है | $ r जैन दर्शन इस बात को मानता है कि कर्म का सवव आत्मा से है । भौतिक वस्तुनो पर उसका कोई असर नही होता है। पुद्गलो का भी पुद्गली के साथ बंध होता है, परन्तु उसके बघ की व्यवस्था दूसरी तरह से है । जिसका वर्णन तत्त्व - मीमासा अध्याय के जीव विचारणा प्रकरण मे कर चुके हैं । परन्तु ग्रात्मा के साथ जो कर्म का बघ होता है, वह की जाने वाली क्रिया के साथ चल रहे परिणामों या भावनाओ के द्वारा ही होता है और वह भावना या परिणाम जीव के ही होते हैं । त. परिणामो से युक्त ससारी जीव आत्मा ही कर्म बन्ध करता है । जीवो मे जो वैचित्र्य नजर ग्राता है, वह वधे हु कर्म का फल है । नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव आदि जो विभिन्न रूप है, श्रदारिक, वैक्रिय आदि विभिन्न शरीर मिले है तथा सुख-दु:ख, सपति-विपत्ति, ज्ञान-अज्ञान, चारित्र प्रचारित्र आदि की उपलब्धि होती है, वह कर्म के ही कारण से होती है । परन्तु भूकम्प यादि जैसे भौतिक कार्यो मे कर्म का सीधा सवध नही है । यह बात कर्म की. मूल और उत्तर प्रकृतियों से भी स्पष्ट हो जाती है । * 2 § मिलिन्द प्रश्न, ४, १, ६२. * विशेष विस्तार से जानने वाले जिज्ञासु कर्म ग्रन्थ भाग छठा हिन्दी अनुवाद (पं फूलचंद सिद्धातशास्त्री ) की प्रस्तावना, पृ ४३ देखे । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर .......... १८४ परिणाम और प्रकृति का संबंध यह एक सोचने-समझने की बात है कि जड प्रकृति पर कर्म वर्गणा के पुदृगलो का कोई असर नहीं होता है। उसमे होने वाला परिवर्तन जड़ परमाणुओं के सघटन-विघटन पर आधारित है, परन्तु कर्म से उसका कोई सबंध नहीं है। फिर भी ये परिवर्तन एक अपेक्षा से कर्म मे सबधित भी है। जड़ के कर्मों से नहीं, बल्कि चेतन के, जीव के कर्म से प्रभावित है। जैसे भूकम्प आदि आकस्मिक घटनाए घटित होती हैं, जिन्हें जनसाधारण की भाषा में देवी प्रकोप कहते है। वैज्ञानिक दृष्टि से ये घटनाए कुछ रासायनिक परिवर्तनो के कारण होती है और सैद्धान्तिक दृष्टि से पुदगल परमाणुमो के जुडने-टूटने के परिणाम स्वरूप प्रकृति में परिवर्तन पाता है। परन्तु वह घटना उस स्थान मे स्थित जीवों के दुख एव सवेदना का जो कारण बनती है, वह उन जीवों के सामूहिक वेदनीय कर्म के उदय का ही फल है। यह स्पष्ट है कि आत्मा के शुभाशुभ विचारो का प्रकृति पर भी असर होता है । श्रमण-सस्कृति इस बात को मानती है कि तीर्थकर जिस क्षेत्र में विराजमान होते है, उस क्षेत्र के आस-पास २५ योजन अर्थात् २०० मील तक कोई उपद्रव नही होता है, कोई संक्रामक रोग नहीं फैलता है, राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय संकट पैदा नहीं होता है, अनावृष्टि-अतिवृष्टि के कारण दुष्काल नहीं पड़ता है। यह उन महापुरुपो के उज्ज्वल, समुज्ज्वले, महोज्ज्वल विचार परमाणुमो का ही असर है कि वे प्रकृति के परमाणुगो को प्रकोपित नही होने देते। आत्मा के शुद्ध अव्यवसायों से अनुप्राणित वे शुद्ध-सात्विक एव शान्त परमाणु उस क्षेत्र के आस-पास स्थित समस्त परमाणुओ को शान्तप्रशान्त बना देते हैं । यही स्थिति-अशुभ विचार के बुरे परमाणुनी के Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ तृतीय अध्याय सवध मे भी समझनी चाहिए। जब वे सामूहिक रूप से प्रवहमान होते हैं, तो प्रकृति के शान्त वातावरण मे हल-चल मचा देते हैं, तूफान सा ला देते हैं। मनोवैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि मनुप्य के मन मे अच्छे-बुरे जैसे भी विचार बनते है,उसके अनुरूप परमाणुप्रो मे कालापन या उज्ज्वलता तथा कटुता या मधुरता आती है। * और उन भावनाओं से अनुरंजित परमाणु जव व्यक्ति के शरीर से निकलकर वाहर आते हैं तो वाहर के परमाणुगो को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहते । वे शुभाशुभ एव विशुद्ध भावो से रगे हुए परमाणु अन्य परमाणुओ के साथ मिलकर प्रकृति के वातावरण मे परिवर्तन ले आते है। जिसे वैज्ञानिको की भाषा मे रासायनिक परिवर्तन कहते है। रासायनिक परिवर्तन भी क्या है? परमाणुनो का मिलना एव अलग होना ही रासायनिक परिवर्तन है। जव हाईड्रोजन और आक्सीजन दो गैसो के परमाणु अपने-अपने स्कन्ध मे से अलग होकर आपस मे मिल या मिला दिए जाते हैं, तो उनमे परिवर्तन आ जाता है, वे अपने स्वरूप को छोडकर पानी के रूप मे परिलक्षित होने लगते हैं। तो परमाणुप्रो मे यह रासायनिक परिवर्तन स्कन्ध के सघटन-विघटन के कारण ही होता है । अत चाहे वैज्ञानिक के शब्दो मे कहूं, मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से कहू या एक सैद्धान्तिक की भाषा मे कहू- 'वात एक ही है कि आत्मा के शुभाशुभ भावो से अनुरजित परमाणुओ का वाहर के परमाणुओ पर भी असर होता है और उस से प्रकृति मे अच्छा या बुरा परिवर्तन आता है। __ * जिसे-जैन परिभाषा मे लेश्या कहते है । लेश्या के वर्ण, गध, रस, स्पर्श आदि शुभाशुभ परिणामो-विचारो के अनुसार अच्छे-बुरे होते हैं । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. प्रश्नों के उत्तर ....................१८६ मैं बता रहा था कि भूचाल आदि प्राकृतिक प्रकोप जीवो के सामूहिक वेदनीय कर्म का फल भी है। व्यक्ति स्वय कर्म का वन्व करता है और स्वय उसके फल को भोगता है। किन्तु कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं, जो सामूहिक रूप से वाये जाते है, तो भोगने के समय भी सामूहिक रूप से उदय मे आते है । भूकम्प, अनावृष्टि-अतिवृष्टि, महामारी आदि सक्रामक रोग, वाढ आदि प्राकृतिक तूफान सामूहिक रूप से बंधे हुए कर्मों के फल हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक कर्म व्यक्तिगत या सामूहिक जिस रूप में ववा है उस रूप मे भी फल देता है। रोग-विमारी, कुरूप गरीर वेढ़ गे अगोपाग, दरिद्रता आदि सभी बुरी वस्तुए तथा स्वस्थ एव सुन्दर गरीर, व्यवस्थित अगोपाग, भरा-पूरा परिवार आदि सभी अच्छे सयोग अशुभ और शुभ कर्मो के फल हैं। सामूहिक बंध का कारण यह तो स्पष्ट हो गया है कि वषे हुए कर्म अपना फल देते हैं। व्यक्तिगत कर्म वध की चर्चा हम विस्तार से कर चुके हैं। परन्तु सामूहिक कर्म बंध के सबध मे हमने पीछे कही चर्चा नहीं की है। और यहा सामूहिक कर्म फल का प्रसग चल पड़ा है, अत हम यहा इस पर भी जरा विचार कर ले तो अप्रासगिक नही होगा । यह हम पहले बता चुके हैं कि जो प्राकृतिक विपत्तिए आती हैं, वे उक्त प्रदेश में स्थित जीवों के अशुभ कर्मोदय का ही फल है। इसमें यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि बहुत-से जीव सामूहिक वव कैसे करते है? इसके उत्तर मे हम दो छोटे-से उदाहरण देना उपयुक्त समझते है, जिससे सारी स्थिति साफ हो जाएगी । एक जगह वेश्या का नृत्य एवं संगीत हो रहा है, हजारो व्यक्ति उमे देख-सुन रहे हैं और उसके रूप-सौन्दर्य, नृत्य के विकारी हाव-भाव एव सगीत के माधुर्य को देख Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ तृतीय अध्याय सुन करके सव के मन मे वासना जगती है। उसका नृत्य एव सगीत वद होते ही-आवाजे कसी जाती है, सीटिया वजाई जाती है, इत्यादि अनेक तरह से विकृत भावो को व्यक्त किया जाता है। किसी प्रात मे साप्रदायिक दगे होते हैं, एक-दूसरे राष्ट्र मे युद्ध चलता है, उस समय अखबारो, रेडियो आदि साधनो से उसके समाचारो को जान कर मन मे उनके प्रति द्वेप एवं घृणा के भाव आते हैं, तथा उस हिंसक दुष्कर्मो की प्रशसा करने वाले भी मिल जाते है। . इस तरह के प्रसग सामूहिक रूप से पाप कर्म बध के कारण बनते है। और इसी तरह किसी महापुरुष के सत्कार्य की सामूहिक रूप से प्रगसा करने तथा उसके द्वारा बताए गए सम्यक् मार्ग पर सामूहिक रूप से गति करने से सामूहिक रूप से पुण्य कर्म का बध होता है। जिसके परिणाम स्वरूप मे परिवार, समाज एव राष्ट्र मे जहा भी उक्त सदात्माए: रहती है, वहा सदा सुख-शान्ति का सागर ठाठे मारता रहता है। - - : . .. इतनी लम्बी विचारणा के बाद हम इस निर्णय पर पहुचे कि आत्मा के द्वारा किए गए शुभाशुभ कर्म आत्मा को मिलने वाले अच्छे एव बुरे सयोगो के रूप मे मिलते हैं। दुनिया मे मिलने वाले अच्छे एव बुरे सभी सयोग कर्म के फल हे और इसी कारण एक ही माता से उत्पन्न दो भाईयो के रहन-सहन एव दुख-सुख का भोग करने मे भिन्नता नजर आती है। यह भिन्नता दोनो आत्माओ के अपने किए हुए कर्मो का ही फल है। .. . बंध और विपाक की प्रक्रिया ___ जैनागमो मे वध चार प्रकार का माना है- १ प्रकृति वंध, २ प्रदेश वध, ३ अनुभाग बंध और ४ स्थिति बंध । लोक मे ऐसा कोई Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर १५८ - - स्थान नही है, जहा कर्म योग्य पुद्गल न हो अथवा सारा लोक कर्म योग्य पुद्गलो से भरा है। अत प्रत्येक स्थान मे स्थित जीव मन, वचन और काया की प्रवृति से अपने निकट मे स्थित कर्म योग्य पुद्गलो को सभी दिशा-विदिशानी से ग्रहण करता है। जिस स्थान में जीव के आत्म प्रदेश स्थित है, उतने स्थान मे रहे हुए कर्म पुद्गलो को आत्मा ग्रहण करती है, यह कर्म ग्रहण की क्षेत्र मर्यादा है । परमाणुप्रो को सख्या की मर्यादा योगो की तरसमता पर आधारित है। योगो की प्रवृत्ति अधिक होती है, तो परमाणुओं की संख्या भी अधिक होती है और प्रवृत्ति स्वल्प होतो है, तो परमाणु भी अल्प सत्या मे पाते हैं। इस प्रक्रिया को जैन परिभाषा में प्रदेश वव कहते है। आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए परमाणु ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियों के रूप मे परिणत होते हैं, उसे प्रकृति वध कहते है। योग की प्रवृत्ति से परमाणुगो की संख्या और ज्ञानावरणादि प्रकृतियो की व्यवस्था होती है, इस कारण इस प्रक्रिया को प्रदेश वध और प्रकृति बन्व कहते हैं। आत्मा वस्तुत अमूर्त माना जाता है , फिर भी कर्म संयोग के कारण उसे कथचित मूर्त भी माना गया है। क्योंकि आत्मा और कर्म का सवध दूध-पानी के सवध जैसा है। साक्ष्य ने भी ससारावस्था मे पुरुष और प्रकृति का मवध नीर-क्षीर जैसा माना है। नैयायिक-वैगेपिक ने भी धर्माधर्म का.आत्मा के साथ समवाय सबध माना है। इसी से वे एकीभूत दिखाई देते है, उण्हें पृथक करके वताना असंभव है। केवल लक्षण भेद से ही उन्हे आत्मा से पृथक समझ सकते हैं। - योगों की प्रवृत्ति से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है । परन्तु उस के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है , उससे स्थिति और अनुभागरस बन्ध होता है। परिणामो मे कषाय की मन्दंता होती है, तो उन Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ hখ An AMANA तृतीय अध्याय ANTI WAAAAA AMA कर्मों का स्थिति और अनुभाग वध भी मन्द-- हल्का होगा और कपाय की तीव्रता होगी तो बंघ भी प्रगाढ होगा, परन्तु कपाय के प्रभाव मे ग्रात्मा के साथ कर्म परमाणुओं का वव नही होता है । जिस प्रकार सूखी दीवार पर रेती के परमाणु नही चिपटते है, उसी तरह कषाय रहित आत्मा पर कर्म रज भी नही चिपटती है । कर्मो का बन्ध कपाय युक्त योग प्रवृत्ति से होता है । उस का स्थिति और अनुभाग aa भी कपाय से होता है । परन्तु इसमे ग्रन्तर इतना ही है कि प्रदेश और प्रकृति वंध कपाय युक्त योग प्रवृत्ति से होता है और स्थिति एव अनुभाग बंध कपाय युक्त परिणामो से होता है । योग दर्शन मे भी क्लेश रहित योगी के अकृष्णागुक्ल कर्म माना है अर्थात् उसके शुभाशुभ कर्म का वन्ध नहीं होता । वौद्धी ने ग्रर्हत मे क्रिया चेतना स्वीकार करके कर्म बन्ध का निषेध किया है । इनकी क्रिया चेतना का रूप जैनो को इर्यापथ क्रिया से मिलता-जुलता है । इस तरहे चार प्रकार से कर्म का वन्ध माना है । परन्तु बन्धा हुआ कर्म तुरन्त फल देता हो, ऐसी वात नही है । वह अपने समय पर फल देता है । जिस प्रकार ग्राग पर भोजन सामग्री चढाते ही नही पक्क जाती, उसमे कुछ समय लगता है । इसी तरह कर्म का पाक काल पूरा होने पर ही कर्म अपना फल देता है । इसे जैन परिभाषा मे 'प्रवाधाकाल' कहते हैं । अवाधाकाल पूरा होने पर ही बधे हुए कर्म परमाणु फल देने को तत्पर होते हैं, इसे कर्म का उदय काल कहते है । उदय में आए हुए कर्म फल देकर आत्मा से अलग हो जाते है और तप-सयम के द्वारा भी पूर्व मे बंधे हुए कर्मों को आत्मा से अलग किया जाता है, इसे निर्जरा कहते है । और ग्रात्मा से समस्त कर्मों को सर्वथा अलग कर देने को मोक्ष कहते है । / ५. : Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AARANA vA. ....... ... ..... प्रश्नो के उत्तर ................. १९० आत्मा और कर्म का संबंध प्रश्न- कर्म बंध की बात तो स्पष्ट हो गई। परन्तु यह समझ में नहीं पाया कि कर्म आत्मा पर कैसे छा जाते हैं ? क्योंकि आत्मा अमृत है और कर्म मूर्त । ऐसी स्थिति में दोनों का संबंध कैसे हा ? मृत ने अमूर्त को कैसे प्रावत कर लिया ? . उत्तर- भारतीय चिन्तनधारा के सभी विचारको ने बाकाग को अमूर्त माना है और घट-पट आदि पदार्थों को मूर्त स्वीकार किया है। और इस बात को हम सदा प्रत्यक्ष देखते है कि घट-पट आदि मूर्त पदार्थों का अमूर्त आकाश के साथ सवध जुड़ा हुआ है। वे जितने आकाग प्रदेश मे स्थित होते है,उतने आकाग प्रदेशो को आवृत कर लेते हैं । एक और भी उदाहरण है-जव.अधेरी चलती है तो आकाश पर घल छा जाती है, चारो तरफ धुंधलापन हो जाता है । तो ये घट-पट' एव धूली कण आदि सभी पदार्थ मूर्त हैं, फिर भी इनका अमूर्त आकाग के साथ सबध होता है और ये अमूर्त आकाश को प्रच्छन्न कर लेते है। इस तरह मूर्त कर्म भी आत्मा के साथ सवद्ध होने पर आत्म गुणो को प्रच्छन्न कर लेता है। प्रश्न- मृत पदार्थों का अमूर्त के साथ संबन्ध होता है, यह ठीक है। परन्तु अमूर्त पदार्थ पर मर्त पदार्थ का कोई असर तो होता नहीं। जैसे वायु और अग्नि आकाश में स्थित रहते हैं, फिर भी आकाश पर उनका कोई असर नहीं होता है । तो फिर अमूर्त आत्मा को मूर्त कर्म कैसे प्रभावित कर सकता है ? उत्तर- अग्नि का पदार्थो पर दो तरह से प्रभाव पड़ता है। एक तो यह Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १९१ तृतीय अध्याय कि जिस प्रदेश मे आग रहे वह प्रदेश अग्निमय दिखाई दे और दूसरा यह है कि उस प्रदेश मे स्थित पदार्थो को जला कर भस्म कर दे । यह ठीक है कि अग्नि ग्राकाग को जला नही सकती, परन्तु जिस स्थान मे प्रज्वलित होती है, उतने आकाश प्रदेश अग्निमय ही दिखाई देते है । वे आग से प्रभावित हुए बिना नही रहते । रहा जलाने का प्रश्न ? अमूर्त । पदार्थ ही नही, कई ऐसे मूर्त पदार्थ भी हैं कि जिन पर आग का कोई ग्रसर नही होता । जैसे वस्तु को पानी के प्रभाव से बचाने के लिए वाटर प्रूफ (Water proof) वस्त्र का निर्माण किया गया, उसी तरह वैज्ञानिकों ने ( Fire proof) वस्त्र का भी निर्माण कर लिया है । यह वस्त्र आग के प्रभाव से सर्वथा अछूता रहता है। जम्मू-कश्मीर के पहाडी मे इस तरह का पत्थर पाया जाता है, जिससे रूई की तरह रेगे निकलते हैं । और मेहनत करने पर उसके धागे भी बनाए जा सकते है । इस रूई की विशेषता यह है कि इस पर ग्राग का असर नही होता । * इससे स्पष्ट होता है कि आग बहुत से मूर्त पदार्थो को भी जला नही सकती, परन्तु जव आग की लपटे उन पदार्थो के पास होती हैं तो वे श्रागमय परिलक्षित होते हैं । उसी तरह आकाश भी अग्निमय दृष्टिगोचर होता है । इस लिए हम यह नही कह सकते कि वह आग के प्रभाव से सर्वथा अछूता है । इतना ही कह सकते है कि ग्राग ग्राकाश के स्वरूप को बदल नही सकती । आग के बुझते ही ग्राकाश फिर से निर्मल और स्वच्छ प्रतीत होने लगता है । यही वात & जम्मू गवर्नमेन्ट कालिज के जीप्रोलोजी ( Geology ) विभाग के प्रोफेसर ने मुझे बताया कि इसमे बना तार न आग से पिघलता है, न जलता है और न दूसरे रूप मे परिवर्तित ही होता है, अर्थात् आग के कारण इसे किसी तरह की क्षति नही पहुचती । - सपादक Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उन्नर आत्मा और कर्मों के सवध मे है। कर्म आत्मा के अस्तित्व को समाप्त करने में मर्वथा असमर्थ है। प्रात्मा कर्म के प्रभाव में इतनी ही प्रभावित होती है कि जब तक कों का प्रवाह प्रवहमान रहता है, तब तक वह कर्ममय दिखाई देती है। जैसे प्राग के प्रभाव से प्राकाश अमूर्त होते हुए भी काले, पीले, लाल आदि कई रगो मे दिखाई देता है, उसी तरह कर्म के प्रभाव से प्रात्मा भी किरकट की तरह अनेको रग बदलता हुया परिलक्षित होता है। . परन्तु कर्म का स्रोत सूखते ही प्रात्मा अपने शुद्ध रूप मे आ जाता है। अनन्त-अनन्त काल तक कम के प्रभाव मे रहकर भी उसके शुद्ध प्रात्म स्वरूप मे जरा भी परिवर्तन नहीं पाता है। अस्तु कर्म आत्मा को बाह्य रूप से प्रभावित करता है, परन्तु वह उसे अपने या अन्य रूप मे परिवर्तित नही कर सकता है। दूसरी बात यह है कि प्रात्मा का ज्ञान गुण अमूर्त है और गराव मूर्त है । जव मनुप्न शराब का सेवन करता है तो वह ज्ञान एव चेतना को ढक लेती है, थोडी देर के लिए मनुष्य अपने ज्ञान एव चेतना को खो बैठता है। तो इस तरह देखा जाता है कि अमूर्त पदार्थ भी मूर्त पदार्थो से प्रभावित होते हैं । ___एक वात और भी है, वह यह है कि जैन दर्शन आत्मा को कथचित् मूर्त भी मानता है। ससारी जीव अनादि काल से कर्म के आवरण से आवृत्त होने के कारण ससार मे एक योनि से दूसरी योनि मे परिभ्रमण करते हैं तथा सशरीर होते है। शरीर मूर्त ही होता है और प्राण युक्त शरीर को व्यवहार मे आत्मा का प्रतीक मानते हैं । इस अपेक्षासे उन्हे मूर्त भी कहा गया है और मूर्त कर्म ससारी जीवो को ही प्रभावित करता है, जो उसके वन्धनो से आवद्ध हैं। . . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ तृतीय अध्याय कर्म स्वयं फल प्रदाचा है 3 प्रश्न- कर्म जड़ है | उसे अपने शुभाशुभ होने का कोई बोध नहीं है । और कर्म का कर्त्ता फल भोगना नहीं चाहता है । ऐसी स्थिति में जड़ कर्म उसे शुभाशुभ फल कैसे देंगे ? ' उत्तर - यह ठीक है कि कर्म जड़ हैं, परन्तु वह चेतन के साथ- सवद्ध होने के कारण उसमे भी यथासमय फल देने की शक्ति पैदा हो जाती है । जड पुद्गलो का भी यह स्वभाव है कि वे जिस रूप मे सघटित होते हैं या किए जाते हैं, उसी के अनुसार अपना असर भी दिखाते हैं । कुछ वम्व ऐसे होते हैं कि जिनमे विस्फोटक पदार्थ भरते समय उनके फटने का समय अकित कर दिया जाता है और परिणाम स्वरूप वह ara विना चलाए एवं विना किसी चीज से टक्कराए ही यथासमय फट जाता है । तो पुद्गलों को भले ही समय एवं शुभाशुभ का ज्ञान नही है, परन्तु जिस रूप मे उनका संग्रह हुआ है, उस रूप मे उनकी परिगति होती है । उसके लिए किसी ईश्वर को इधर-उधर भाग-दौड़ - करने की आवश्यकता नही है । L हम जानते है कि विष निर्जीव है, उसे किसी व्यक्ति को मारने का भी ज्ञान नही है । फिर भी मनुष्य के न चाहने पर भी विष का प्रभाव पड़े बिना नही रहता है । जो व्यक्ति विष खाने के बाद मरना नही चाहता है, फिर भी विष का असर होते. ही मनुष्य मरणासन्न हो जाता है और वह वचने के लिए चिल्लाता है । वैद्य डाक्टर विष को निकालने का प्रयत्न करते हैं । यदि विष खून मे मिल गया है और उस . के निकालने के प्रयत्न - सफल नही हुए हैं, तो वह व्यक्ति सदा के लिए मृत्यु की गोद मे सो जाता है । जब विष भी अपना प्रभाव दिखाए विना Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ rammmmmm प्रश्नों के उत्तर mmmmmmmrrrrrrrm wwwww नहीं रहता, तव आत्मा के साथ संबद्ध कर्म अपना प्रभाव दिखाए विना कैसे रहेगे। . . . ___.परमाणुओं का वैचित्र्य . जैनों का कर्मवाद का सिद्धात केवल तर्क या.कल्पना के आधार पर नहीं रचा गया है। सर्वज्ञों द्वारा जैसा देखा गया है,उसी रूप मे उस का विवेचन किया गया है। अत उसमे सन्देह को जरा भी स्थान नही है। परमाणुओं की विलक्षणता तो आज के युग में स्पष्ट हो गई है। इन पंक्तियो के लेखक का चातुर्मास जैनधर्म दिवाकर प्राचार्य-सम्राट पूज्य गुरुदेव श्री आत्मा राम जी महाराज के चरणो मे लुधियाना था। उन दिनो श्री हसराज जी वायरलैस लुधियाना आएं थे। उन्होंने अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा के अनेको वैज्ञानिक चमत्कार दिखलाए थे। परमाणुओं मे कितना विलक्षण आर्कषण है? ये किस तरह काम करते है ? और कैसे असभावित दृश्यो को प्रस्तुत कर देते हैं ?, यह सब कुछ - उन्होने अपनी विनान कला प्रदर्शनी में दिखलाया था 1 परिचय के लिए चन्द चमत्कारो का निर्देश निम्न पक्तियो मे कर रहे हैं १ आवाज पर चलने वाला पंखा- यह पंखा आदमी की भाति अाज्ञा मानता है । 'चलो' का आदेश पाते ही चल पड़ता है और 'ठहरों' की आज्ञा मिलते ही रुक जाता है। २ अद्भुत नल- यह नल आदमी के सन्मुख आते ही पानी ।। गिराने लगता है और आदमी के पीछे हट जाने पर अपने आप पानी गिराना बंद कर देता है। ३ चोर को पकड़ने वाली मशीन- यह एक ऐसा यंत्र है कि चोर के घर में प्रविष्ट होते ही चोर-चोर पुकारती है और अलारम वजाती है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ wwwwww ww An तृतीय अध्याय wwwww د wwww V~~ wwwwwwwwnn ४ संसार का सब से छोटा रेडियो सेट- यह रेडियो सैट माचिस की डिबिया जितना छोटा होता है और हिन्दुस्तान के सब स्टेशन सुनाता है । ५ जीवित मनुष्य का रेडियो- मनुष्य को एक विशेष प्रकार का मिक्चर पिलाकर उसके शरीर मे से हो रेडियो का कार्यक्रम सुना जाता है । देख सकते है । 1 ६ टेलीविजन - इसके द्वारा हम अपने घर मे विजिन पर होने वाले प्रोग्रामो को भी ग्राखो से ७ विजली का वल्व - यह वल्व मनुष्य के आदेश पर प्रकाश देना शुरु कर देता है और बुझने की आज्ञा मिलते ही बुझ जाता है । इसके अतिरिक्त अन्य भी ऐसी अनेक वस्तुए हैं, जिनको देखकर परमाणु शक्ति की विलक्षणता का बोध होता है । वस्तुत परमाणु शक्ति भी विचित्र है । जिसे देख-सुन कर मनुष्य आश्चर्यान्वित हो उठता है। जैन दर्शन का कर्मवाद परमाणुवाद का ही रूपान्तर है । जब विना चेतना के ही परमाणु अनेक ग्राश्चर्यकारी दृश्य उपस्थित कर देते है, तब चेतना शक्ति का सान्निध्य पाकर ये कर्म विभिन्न दृश्य दिखला दे, तो इसमे आश्चर्य की क्या बात है ? इस तरह कर्म वन्धते और फल देते हैं । जैन दर्शन की मान्यता शराव आदि नशीले व्यक्ति नशे का सेवन बैठकर टेली है कि कर्मो मे ही फल देने की शक्ति है । जैसे पदार्थो मे उन्मत्त बनाने की शक्ति है अथवा जो करता है, वह अवश्य उसकी लहरो झूलता है, उसका नशा देने के लिए किसी ईश्वर को भागकर आने की जरूरत नही होती । उसी तरह कर्म मे ही फल प्रदान करने की शक्ति है । प्रत्येक कर्म का जिंतना प्रबाधाकाल है, उसके बाद वह कर्म उदय मे आता है और अपना Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर फल देकर नष्ट हो जाता है। कर्म का मुख्य कार्य यह है कि जब तक उसका वध होता रहता है, तब तक जीव को मोक्ष नहीं मिलता है। समस्त कर्मों को निर्जरा करने पर ही जीव मुक्त होता है। . कर्मों की विभिन्न अवस्थाएं . यह हम देख चुके हैं कि कर्म का वध किस प्रकार का होता है और बधे हुए कर्म अपना फल कैसे देते हैं । जैनों की यह सैद्धान्तिक मान्यता है कि किए हुए कर्मों का फल भोगे विना मुक्ति नहीं होती। परन्तु ऐसा एकांत नियम नही है कि कर्म जिस रूप मे बंधा है, उसी रूप मे फल देता है। उसमे परिवर्तन भी हो सकता है। जनागमो मे कर्म की बंधादि १० अवस्थायो का वर्णन करके कर्म फल में होने वाले परिवर्तन की प्रक्रिया को भी व्यवस्थित रूप दिया गया है। ये दस अवस्थाएं निम्न है-१ बंध, २ सत्ता, ३ उद्वर्तन-उत्कर्षक,४ अपवर्तनअपकर्षक, ५ सक्रमण, ६ उदेय, ७ उदीरणा, ८ उपशमन, ९ निधति और १० निकाचित । १बंध " आत्मा के साथ कर्म पुद्गलो का संबंध होना तथा उनका प्रकृति वघ, प्रदेश वध, स्थिति वध, और अनुभाग बंध के रूप में बंधना वध कहलाता है । वध होने पर ही अन्य अवस्थाए होती है, वध के अभाव मे और कोई अवस्था नहीं होती। . २ सचा .. - - - वधे हुए कर्म समय-पर-उदय मे आते हैं और फल दे कर आत्म प्रदेशो से अलग हो जाते हैं। प्रत्येक कर्म अपना अवाधाकाल पूरा होने __ कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि। -उत्तराध्ययन,४, ३ . 'मातम्या नहा हाता। . . ... Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ तृतीय अध्याय: - Vvvvv पर ही उदय मे आता है----फल देना प्रारम्भ करता है । अतः अवाधाकाल पर्यन्त सभी कर्मो का आत्मा के साथ सवध बना रहता है, इसे सत्ता कहते है । अत बधे हुए कर्म तवं तक सत्ता मे रहते है, जब तक उनका अबाधाकाल पूरा नही हो जाता है। - ३-४ उद्वर्तन और अपवर्तन . - आत्मा के साथ कर्मो का बध होते समय कपाय की परिणति के अनुसार अनुभाग और स्थिति का बध होता है, परन्तु कर्म का अभिनव वव होते. समय कषाय की तीव्रता और मन्दता से उस अनुभागऔर स्थिति को अधिक और कम बना लेना क्रमश उद्वर्तन और अपवर्तन कहलाता है। इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म की स्थिति और उसका रस नियत नहीं है । परिणामो की धारा को बदलकर हम बधे हुए कर्मों की स्थिति और अनुभाग-रस को कम या ज्यादा भी बना सकते है । बुरे कर्म करने के बाद शुभ कार्य करके या शुभ कर्म के बाद दुष्कर्म करके अशुभ या- शुभ कर्म को बद्ध स्थिति और अनुभाग को कम कर देते हैं और बुरा कर्म करने के बाद फिर दुष्कर्म करके या शुभ कर्म कर चुकने के पश्चात् फिर सत्कर्म करके अशुभ या शुभ कर्म की स्थिति और अनुभाग को बढा भी लेते है। . ५ संक्रमण एक कर्म प्रकृति के पुद्गलो को दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति के रूप मे वदलने की प्रक्रिया को सक्रमण कहते हैं। यह परिवर्तन मूल कर्मो मे नही होता, परन्तु मूल कर्मो को उत्तर प्रकृतियो मे होता है। उसमे भी कुछ अपवाद है। जैसे आयु कर्म की चार प्रकृतिया-१ नरक आयु, २ तिर्यञ्च आयु, ३ मनुष्य आयु और ४ देव आयु तथा मोह कर्म Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर १९८ की दर्शन मोह श्रौर चारित्र मोह दो प्रकृतिया मे परस्पर सक्रमण नही होता है । शेप कर्मों की उत्तर प्रकृतियां में सक्रमण की भजना है अथवा सक्रमण होता भी है और नही भी । कारण यह है कि ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, १६ कषाय, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अतराय, ये ४७ ध्रुव बन्ध की उत्तर प्रकृतिया है, इनमे अपने-अपने कर्म की उत्तर प्रकृतिया मे सदा-सर्वदा परस्पर सक्रमण होता है । परन्तु प व वन्व की प्रकृतियां के लिए ऐसा नियम है कि वे अपनी-अपनी मूल प्रकृतिया से भिन्न जो उत्तर प्रकृतिये हैं, उनमें जो श्रवव्यमान प्रकृतियें है,उनका वध्यमान प्रकृतिया में सक्रमण होता है, परन्तु वध्यमान प्रकृतिया का श्रवव्यमान प्रकृतियां मे सक्रमण नहीं होता । इसलिए ऐसा कहा गया कि उत्तर प्रकृतिया मे सक्रमण की भजना है । 8. wwwwww ६ उदय आत्मा के साथ ग्रावद्ध कर्म जव फल प्रदान करता है, तब उसे कर्म का उदय कहते हैं । कुछ कर्म केवल प्रदेश उदय वाले होते हैं, वे उदय मे आकर निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं, उनका कोई फल नही मिलता । परन्तु कुछ कर्मो का प्रदेशोदय के साथ विपाकोदय भी होता है, वे कर्म अपना फल प्रदान करके ही निर्जरा को प्राप्त होते है । ७ उदीरणा आत्मा के साथ आवद्ध कर्मों को नियत काल से पहले उदय में ले आने की प्रक्रिया को उदीरणा कहते हैं । जैसे नियत समय पर पकने वाले फलो को पकने से पहले कच्चे ही तोडकर विशेष प्रक्रिया से ६. विशेषावश्यक भाप्य, १९३९ । , Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय जल्दी पका लिया जाता है, उसी प्रकार बधे हुए कर्मो को भी नियत काल से पहले भोगा जा सकता है । सामान्यत नियम यह है कि जिस कर्म का उदय चल रहा है, उस कर्म के सजातीय कर्म की ही उदीरणा की जा सकती है। - : “८ उपशमन - ... वंधे हुए कर्म की ऐसी अवस्था बना देना जिसमे कर्म का उदय और उदीरणा न हो सके, परन्तु उद्वर्तन, अपवर्तन और सक्रमण हो सकता है तथा उपशमन काल के समाप्त होते ही वह कर्म उदय 'मे आकर फल देना शुरु कर देता है। निधति __ कर्म की ऐसी अवस्था जिसमे उदीरणा एव सक्रमण नही होता, परन्तु उद्वर्तन और अपवर्तन तो उसमे भी हो सकता है। ' १० निकाचित । कर्म बंध की वह स्थिति,जिसमे उद्वर्तना,अपवर्तना,उदीरणा और सक्रमणं कुछ नहीं होता है । जिस कर्म को जिस रूप में बाधा है, उसी रूप मे फल भोगना निकाचित कर्म कहलाता है।' कर्म की अवस्थाओं का इतना व्यवस्थित वर्णन अन्य किसी दर्शन में नही मिलता है । कुछ अवस्थाओ का वर्णन मिलता है। योग-दर्शन 'मे नियत विपाकी कर्म की व्याख्या निकाचित के सस्मान ही की गई है। और उसमे कही गई आवापगमन प्रक्रिया को सक्रमण के साथ तुलना कर सकते हैं। योगदर्शन मे कुछ अनियत विपाकी कर्मो का भी उल्लेख मिलता है, जो फल दिए विना ही नष्ट हो जाते हैं, उनकी $ पातञ्जल योग दर्शन, २,४। NAVAR Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर "तुलना जैनों के प्रदेशोदय के साथ ही की जा सकती है। कर्म फल का संविभाग कुछ विचारकों की यह मान्यता है कि एक व्यक्ति द्वारा किए गए कर्म का फल दूसरे व्यक्ति को मिलता है। वैदिक परंपरा में यह मान्यता रही है कि मृत व्यक्ति के पीछे उसके नाम से दिए जाने वाले दान का फल उसे मिलता है । वौद्ध भी इस बात को मानते हैं। उन्होंने भी प्रत योनि को माना है । अतः उसके नाम से किए गए दानादि का फल उसे मिलता है । परन्तु यह फल उसे प्रेत योनि मे ही मिलता है, यदि वह देव योनि मे हो तो वह फल कर्ता को ही मिलेगा । राजा मिलिन्द के एक प्रश्न का क्या प्रेत को अकुशल - पाप कर्म का भी फल मिलता है ? उत्तर देते हुए नागसेन ने कहा है कि नही, पाप कर्म करने की प्रेत की अनुमति नही होने से उसे पाप कर्म का फल नही मिलता है । इस से भी उसे सतोष नही हुआ, तव नागसेन ने कहा पाप कर्म परिमित होता है, इसलिए उसका सविभाग नही हो सकता और कुशल - पुण्य कर्म अपरिमित होता है, इस कारण उसका सविभाग हो सकता है | $ जैनागमों की यह मान्यता रही है कि कर्म का फल कर्ता को ही मिलता है । क्योकि आत्मा ही दुःख-सुख की कर्ता है और वही उस कृत कर्म के फल की भोक्ता है । * शुभ या अशुभ किसी भी कर्म फल का संविभाग नही होता है । जैनागमो मे यह स्पष्ट कहा है कि जो व्यक्ति कर्म करता है, उसके फल का किसी मे विभाजन नही होता है, फल भोग के 1 + विशेष जानकारी के लिए देखें-कर्म ग्रन्थ (हिन्दी अनुवाद, प सुखलाल संघवी ) भाग १ से ६ | ६ मिलिन्द प्रश्न, ४, ८, ३०-३५ पृष्ठ २८८ । * उत्तराध्ययन सूत्र, २०, ३७ । 1 २०० AAAAAAAA Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ तृतीय अध्याय समय कोई भी सवधी साथ नही देता है। यह हम प्रत्यक्ष मे देखते हैं कि प्राय. रोगी औषध ग्रहण करने पर स्वस्थ हो जाता है और अपथ्य सेवन करने से और ज्यादा बीमार हो जाता है। इस तरह औषधि और अपथ्य का फल वही पाता है । परन्तु ऐसा कभी नही होता कि एक व्यक्ति के औषध सेवन या अपथ्य सेवन से दूसरे व्यक्ति का रोग नष्ट हो जाए या बढ़ जाए । इसी तरह स्वय के किए हुए कर्म का फल स्वय को ही भोगना होता है, उसका जरा भी विभाग नही होता । यदि दूसरे द्वारा किए गए शुभ कर्म का फल जन्मन्तर मे मिलने लगे तो फिर किसी भी व्यक्ति को शुभ कर्म करने की आवश्यकता ही नही रहेगी । अपने कुटुम्बी जनो द्वारा कृत शुभ कर्म के फल से वह परलोक मे दु खो से मुक्त हो जाएगा । इस तरह व्यक्ति के द्वारा कृत अशुभ कर्म व्यर्थ हो जाएगा और फिर धर्म-कर्म करने की भी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी । अत यह मानना गलत है कि एक व्यक्ति द्वारा कृत कर्म का फल दूसरे व्यक्ति को मिलता है। - सिक्खों के गुरु सन्त नानक ने भी इस बात को उचित नही माना है। उनके जीवन का एक प्रसंग है कि एक बार वे नदी में स्नान कर रहे थे। स्नान कर चुकने के बाद उन्होने अपनी अजली में नदी का पानी भर कर अपने खेतो की ओर फेकना शुरु कर दिया । यह प्रक्रिया एकाध घण्टे तक चलती रही। लोग देखकर हैरान रह गए । वे सोचने लगे-आज गुरु जी को क्या हो गया है । उन्होंने इस तरह पानी फैकने ' का कारण पूछा तो गुरु जी ने बताया कि मैं अपने खेतो को पानी दे । मसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारण ज च करेइ कम्म, .. .. --- कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले,ण बधवा वधवय उति । -उत्तराध्ययन मूत्र, ४,४. ~ ~ ~ ~ ~ Chinmart. wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २०२ * रहा हू । लोग कहने लगे कि गुरु जी आज आपका स्वास्थ्य ठीक तो है न ? जरा सोचिए तो क्या यहां से फेंका हुआ पानी खेतो में पहुंच सकेगा ? गुरु जी ने जरा मुस्कराते हुए कहा- क्यो नही ? जव तुम लोगो के द्वारा सूर्य को चढ़ाया हुआ जल सूर्यलोक में पहुच जाता है, पितरों को चढाया हुआ भोग पितृलोक मे पहुच जाता है, तो मेरा यह पानी खेतों तक क्यों नही पहुंचेगा ? 'अथवा अवश्य पहुचना चाहिए । यदि यह पानी खेतो तक नहीं पहुंचता है, तो फिर सूर्य एवं पितरों को चढाया हुआ जल एव भोजन भी सूर्यलोक एव पितृलोक आदि स्थानो मे पहुँच सकेगा, यह सोचना चन्द्र पकड़ने की बाल क्रीड़ा से अधिक महत्त्व नहीं रखता है । - 1 ANUVANNIV PINN · AAAA इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि जो व्यक्ति शुभ या अशुभ जैसा भी कर्म करता है, उसका फल उसी को मिलता है । कर्म फल मे अन्य किसी का संविभाग नही होता । 1 i निर्जरा त t ससार मे आत्मा और कर्म पुद्गलो का सबंध अनादि काल से चला या रहा है । --प्रत्येक ससारी आत्मा-प्रतिक्षण, कर्म - पुद्गलो का संग्रह करता है । कोई समय ऐसा नही जाता जिससे कि वह कर्मो का ग्रहण न करता हो । परन्तु ग्रहण करने की प्रक्रिया के साथ-साथ वह त्याग भी करता रहता है । वह जिन कर्मो का फल भोग चुका, वे कर्म उसके आत्म-प्रदेशो से अलग हो जाते हैं। इस प्रक्रिया को आगमिक • भाषा मे निर्जरा कहते हैं । यो तो प्रत्येक श्रात्मा मे प्रति समय कर्मो 4 & 7 की निर्जरा होती रहती है और वह शुभ एवं अशुभ दोनो तरह के कर्मो की होती है | शुभ योगो के द्वारा आत्मा अशुभ कर्मों की निर्जरा करती है और अशुभ योगों के द्वारा शुभ कर्मों की निर्जरा करती है } Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ तृतीय अध्याय NAMA और उसके साथ क्रमश: शुभ और अशुभ कर्मों का वन्व भी करती है।' ___यह हम पहले बता चुके है कि बचे हुए कर्म अपना अवाधाकाल पूरा होने पर उदय मे आते है और अपना फल देकर प्रात्म-प्रदेशो से अलग हो जाते है। जैसे फल पककर स्वत. ही वृक्ष से गिरकर अलग हो जाता है, उसी तरह पाबद्ध कर्म भी अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं। इससे कर्मों के आवागमन की जो परम्परा है, वह बनी रहती है। पुरातन कर्म आत्मा से अलग होते है और अभिनव कर्म आ चिपटते हैं । यदि फल भोग के समय राग-द्वेप या कषाय की तीव्रता हो तो नवीन कर्मों का प्रगाढ वध हो जाता है । इस तरह इस निर्जरा से संसार-परिभ्रमण की परम्परा समाप्त नही होती है। " कों को आत्मा से अलग करने का तप भी एक साधन है। तपश्चर्या से बधे हुए कर्मों को समय से पूर्व भी निर्जरा की जा सकती है। इसके भी दो भेद माने गए हैं- १ अकाम और २ सकाम । जो तप किसी कामना-पाक्षिा से किया जाता है या विवेक एव ज्ञान से रहित किया जाता है, उससे भी अशुभ कर्मो की निर्जरा तो होती है, परन्तु उससे मुक्ति का मार्ग नहीं सेंधता है । निदान पूर्वक या अज्ञान से की जाने वाली तपश्चर्या भी ससार परिभ्रमण काही कारण है, इसलिए उसको अकाम निर्जरा कहा है । वौद्ध एव वैदिक ग्रन्थो मे भी अज्ञानपूर्वक की जाने वाली क्रियों से परंपद या निर्वाण प्राप्ति का निषेध किया गया है। गीता में भी निष्काम कर्म करने का आदेश दिया गया है। अस्तु, ज्ञान शून्यं एव कामना युक्त किया जाने वाला तप मुक्ति का साधन नही होने से अकाम निर्जरा की कोटि में गिना गया है। " । 'सम्यगं ज्ञान पूर्वक विना किसी तरह की चाह के किया जाने वाला तप मुक्ति का साधन है। इससे अशुभ कर्मो की निर्जरा होती Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर २०४ है । इस तरह आत्मा सवर से नए कर्मों के आगमन को रोकती है और उक्त तप से पूर्व सचित कर्मो की निर्जरा करती है, अत फलस्वरूप एक दिन वह कर्म वचनो से सर्वथा मुक्त हो जाती है । प्रत. उक्त प्रक्रिया को सकाम निर्जरा कहते है । " सम्यक् ज्ञान पूर्वक किया जाने वाला तप दो प्रकार का है- १ बाह्य और २ श्राभ्यतर वाह्य तप के ६ भेद है- १ अनशन, २ अनौदर्य, ३ भिक्षाचरी, ४ रस परित्याग, ५- कायक्लेश और ६ प्रतिमलीनता तप । 1 १ अनशन - एक दिन, दो दिन या उससे अधिक दिन या जीवन पर्यन्त के लिए श्राहार-पानी का त्याग कर देना । इसके अतिरिक्त गर्म पानी को पीकर भी अनशन किया जाता है, इस प्रकार के अनशन को तिविहार अनशन कहते हैं, इसमें ग्रशन रोटी, चावल, सब्जी आदि, खादिम - बादाम-पिश्ता आदि मेवा या फल, स्वादिम - इलायची, सुपारी, पान त्रादि पदार्थो का त्याग होता है । जिस अनशन मे पानी का भी त्याग कर देते हैं, उसे चउविहार अनशन कहते है । 7 a २ अनीदर्य - भूख से कम खाना । यदि, ३२ ग्रास की भूख है फिर भी वह ८ ग्रास खाकर सतोष करता है, तो वह भाग अनौदर्य तप करता है, इसी तरह १६ ग्रास, २४ ग्रास खाता है, तो वह क्रमश. 4 और 2 भाग अनौदर्य तप करता है और यदि वह एक ग्रास भी. कम खाता है, तब भी उसे अनौदर्य तप कहते हैं ।। MN 3 -३ भिक्षाचरी - कई घरो मे से निरवद्य और एषणिक भिक्षा ला , कर उसमे सन्तोष करना भिक्षाचरी तप कहलाता है ! ४ रस परित्याग- दूध, दही, घी, मक्खन, का त्याग करने का नाम रस परित्याग तप है । ★ मिष्ठान आदि रसो + î 3. ' Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय 5 ५ कायक्लेश-, सर्दी मे नग्न बदन होकर छाया में बैठना तथा गर्मी में खुले शरीर धूप, मे. आतापना लेना कायक्लेश तप है । - ६ - प्रतिमुलीनता - मर्यादा से कम वस्त्र रखना प्रतिसलीनतां F २०५ तप कहलाता है । 7 1. इसी तरह ग्राभ्यन्तर तप के भी- ६-भेद हैं- १ प्रायश्चित, विनय, ३ वैयावृत्य, ४ ध्यान, ५ स्वाध्याय और ६ कायोत्सर्ग । १ प्रायश्चित्त- भूल से या जानकर हुए दोषो की निशल्य भाव से आलोचना करके प्रायश्चित्त स्वीकार करना और फिर से वह भूल न हो, इसके लिए सावधान रहना प्रायश्चित्त तप है । 3 ব साधु के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपनी साधना मे सदा सावधान होकर विवेक पूर्वक गति करे । फिर भी छद्मस्थ अवस्था के कारण कभी भूल एवं गलती हो जाना स्वाभाविक है । क्योकि साधक भी आखिर इन्सान है, मनुष्य है। इसलिए वह प्रमादवश गलती कर बैठता है । उस समय उसके लिए बताया गया है कि वह उस भूल की शूल को छिपाए नही, बल्कि गुरु या दीक्षा मे अपने से बड़े मुनि के पास आलोचना करके प्रायश्चित्त स्वीकार कर ले, । चाहे कितनी भी बड़ी गलती क्यो न हो सच्चा साधक उसे छिपाता नही । छिपानां गलती करने की अपेक्षा अधिक भयकर पाप है । उससे झूठ आदि दोषो को पनपने का प्रश्रय मिलता है, इसलिए छुपाना महापाप माना गया है और पता लगने पर भूल की अपेक्षा भी उस छुपाने की भावना का अधिक प्रायश्चित्त बताया गया है --. 14 । 1 " 2 कहने का तात्पर्य यह है कि आलोचना- प्रायश्चित्त को तप कहा गया है । इसका कारण यह है कि इससे हृदय मे निष्कपटता की भावना उद्बुद्ध होती है, सत्य का प्रकाश फैलता है और आत्मा मे 2 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २०६ wwwcommmmmmmmmmmmmmm निर्भतया की उज्ज्वल एव निर्मल धारा 'प्रवहमान होतो है, जिसके प्रवाह में पाप कर्म की कालिमा बह जाती हैं। ऊपर से यह तप मालूम नही होता है, क्योकि इसमे शरीर को जोर नहीं लगता। परन्तु अपनी भूल को स्वीकार करने मे आत्मा को मजबूत एवं पवित्र बनाना होता है और मन एव बुद्धि पर जबरदस्त कन्ट्रोल करना पड़ता है । इसलिए इसे आभ्यन्तर तप कहा है।" २ विनय- वय मे, गुणो मे, दीक्षा मे वृद्धं या बड़े मुनियो का आदर-सम्मान करना तथा अपने से छोटे साधुओ के साथ प्रेम-स्नेह का व्यवहार रखना विनय तप कहलाता है। ३ वैयावृत्यं- अपने से बड़े व्यक्तियो की, गुरु की, वृद्ध की, बीमार की एवं नवदीक्षित साधु की सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य तप कहलाता है। सेवा-शुश्रूषा मे भी मन पर- कन्ट्रोल करना पडता है, सहिष्णुता रखनी पडती है। इसलिए इसे भी आभ्यन्तर तप कहा है। ४ ध्यान- एकाग्न मन से सीखे हुए तत्त्वो का चिंतन-मनन करना। - इस मे शरीर की अपेक्षा मन एव वचत योग की वत्ति पर अधिक कन्ट्रोल करना पड़ता है। शरीर एवं वचन को स्थिर करना फिर भी सहज है, परन्तु मन को एकाग्र करना, चिन्तन में लगाना सबसे अधिक कठिन है और उसके 'एकांग्र बने बिना ान एवं चिन्तन हो नहीं सकता। इसलिए इसे भी प्राभ्यन्तर तप कहा है। - ' , , ५ स्वाध्याय- पंढे हुए ज्ञान का, शास्त्रो का तथा साहित्य का अवलोकन करना । स्वाध्याय शब्द का वास्तविक अर्थ है-स्वध्याय अर्थात् अपना यात्म स्वरूप का अध्ययन-चिन्तन करना। 'आत्म स्वरूप को जानने का नाम स्वाध्याय है अर्थात् जिस साहित्य से 'आत्म स्वरूप का बोध होता हो या उस ओर आत्मा की प्रगति होती - - Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ - तृतीय श्रव्याय हो, उसका वाचन करना भी स्वाध्याय कहलाता है । इसमें भी चित्त वृत्ति को एकाग्र करना पडता है । S Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों में जार यह सत्य है कि किम बन्नु का निर्माण होता है जमना ना भी होता है। परन्तु मोक्ष नाना मना गला गोमा कभी निर्माण नही द्रमा, न कभी हाना है और न मोहा। मांस कोई प्रात्मा को नई ग्राम्या नहीं. जिममा अभिनय निर्माणको अात्मा अनादि काल में कर्मों में प्रावृत्त होने के कारण ममार भ्रमण करती है, मनेर अनुमान एवं प्रनितम वेदनामी का मोदन करती है । उम कर्म प्रावरण को हटा देने का नाम मुक्ति पा गांक्षा है। अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने का नाम ही मोक्ष है और वह पाप अनादि काल मे चला पा रहा है। मगार अवस्या में प्रान्मा का जो म्वरुप था, उसमें चोर मोक्ष प्रवधा के स्वरूप में कोई पता नहीं रहता है। संसार अवरया में यह कमों से प्रावती और मुस्न अवस्था में प्रावरण रहित हो जाती है। मुक्ति में वहाँ आत्म स्वम्प रहता है, उसका अभिनव निर्माण नहीं होता है। प्रत. उसकी शोच्चता में कोई दोष पाने का प्रश्न ही नहीं उठना। वन्तुत. मनार परिभ्रमण का मूल कारण है... राग - हंप या कपाय जिलये कम 'चम होता है और मुक्त अवस्या में राग-द्वेष या कषाय का अभाव है, अतः मोक्ष मे स्थित प्रात्मा सनार में फिर में जन्म नहीं लेती । वृक्ष तभी तक अकुरित, पुप्पित एव फलित होता है जब तक उसका बीज मुरक्षित रहता है। बीज के जल जाने पर उस दग्ध बीज में अकुर पैदा नहीं हो सकता। इसी तरह जिस प्रात्मा ने राग-द्वेष रूप संसार मे परिभ्रमण कराने वाले बीजो का नाश कर दिया है. वे आत्माएं कभी भी जन्म ग्रहण नहीं करती हैं। जनों की यह मान्यता है कि कर्म और आत्मा का सवध अनादि काल मे है और अनादि संबंध सदा स्थायी होता है। फिर यह कैसे Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय R 7 . माना जा सकता है कि प्रात्मा कर्म वन्धनो को तोड कर, सिद्ध-बुद्धमुक्त वन जाती है, . इसका उत्तर यह है कि जैनो ने कर्म और आत्मा का अनादि काल से जो सवध माना है, वह प्रवाह- की दृष्टि से माना है, न कि व्यक्ति की दृष्टि से । यह हम ऊपर बता चुके हैं कि आवद्ध कर्म अपने समय पर उदय मे आते है और फल देकर आत्म प्रदेशो से अलग हो जाते हैं, परन्तु कर्म बघं का प्रवाह चालू होने से उसके स्थान मे दूसरे कर्मो का वध हो जाता है । इस तरह जब तक सैवर के द्वारा आत्मा कर्मो के आगमन को रोक नहीं देता है,तव तक प्रतिसमय पुराने कर्मों की निर्जरा होती है और नए कर्म आते रहते है। इस प्रकार आत्मा सदा कर्मो से त्रावृत ही रहता है, एक समय भी ऐसा नहीं जाता है कि. जिस मे कर्मों का आवागमन नही होता हो । अतः प्रवाह की दृष्टि से कर्म आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुए है। परन्तु व्यक्ति की दृष्टि से प्रत्येक कर्म वध का समय निश्चित है,अत. वह सादि है और सादि होने के कारण उसका नाश भी होता है,या किया जा सकता है । आत्मा पहले सवर के द्वारा नए कर्मो का पागमन रोकती है और फिर निर्जरा के द्वारा पहले वाधे हुए कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करती है। इस तरह कर्मो का आत्यन्तिक क्षय करके आत्मा सदा-सर्वदा के लिए कर्म वधन एवं तुज्जन्य साधनो एव फल भोग से सर्वथा मुक्त हो कर निर्वाण पद को प्राप्त कर लेती है और वहा सदा काल शुद्ध आत्म-स्वरूप, मे स्थित रहती है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का अनादित्व चतुर्थ अध्याय प्रश्न- जैन धर्म का उद्भव कब हुआ ? इस के संस्थापक कौन थे?, यह प्राचीन है या- अर्वाचीन है ? यदि प्राचीन है, तो उसका क्या प्रमाण है ? उत्तर- आगमो में बताया गया है कि जैन धर्म अनादि काल से चला पा रहा है। बीते हुए अनन्त-अनन्त काल मे अनन्त तीर्थकर हो चुके हैं, जिन्होंने साधना के द्वारा स्वयं मुक्ति को प्राप्त किया और भव्य प्राणियों को भी निर्वाण का मार्ग वताया। श्री नन्दी सूत्र में कहा गया है कि तोयंकरों द्वारा परूपित द्वादशागी ‘गणिपिटक अनादि-अनन्त है । * * द्वादमागी गणिपिटक की अनादि-अनन्तता सापेक्ष दृष्टि से है । सादिसान्तता और अनादि-अनन्तता के चार भेद किए गए ई-१ द्रव्य, २ क्षेत्र, ३ काल और ४ माव। . . . . द्रव्य से एक पुरुष-अमुक तीर्थकर के शासन में उक्त तीर्थकर द्वारा परूपित होने से गणिपिटक सादि-सान्त है और अनेक पुरुषों-तीर्थकरो द्वारा परुपिन होने के कारण वह अनादि-अनन्त है 1, क्षेत्र से ५ भरत, ५ ऐरावतं की अपेक्षा से गणिपिटक सादि-सान्त है । क्योकि उक्त क्षेत्रों में सदा काल तीर्थकर नहीं होते और ५ महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से वह बनादि-अनन्त है । वहां सदाकाल तीर्थकर होते है. वहा कभी भी तीर्थंकरों का अंतर नहीं पड़ता है। - Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ चतुर्थ अध्याय क्योकि इतने लम्बे काल में एक भी समय ऐसा नही आया, जबकि द्वादशागी गणिपिटक का अस्तित्व न रहा हो। वह सदा काल विद्यमान रहा है। उपदेश की दृष्टि से भले ही हम यह कह सकते हैं कि जिस समय जो तीर्थकर होते हैं, वे द्वादशागी का उपदेश देते हैं, इससे सभी तीर्थकर उसके उपदेष्टा है, परन्तु निर्माता नही है। क्योकि अनादि काल से वह निर्वाध गति से प्रवहमान है। और सभी उपदेष्टाओ के चिन्तन मे एक रूपता होने के कारण उसमे बताया गया आचार और विचार रूप त्रैकालिक सत्य भी एक ही होता है। जैसे- आचार मे सामायिक-समभाव की साधना प्रमुख है और विचार में अनेकान्तस्याहाद या विभज्यवाद प्रमुख है। और आज तक हुए अनन्त-अनन्त तीर्थकरो ने इसी कालिक सत्य का उपदेश दिया है, द्वादशागी गणिपिटक का मूलाधार सामायिक और अनेकान्त-स्याद्वाद ही है । इस कालिक सत्य के उपदेश की अपेक्षा से द्वादशागी गणिपिटक 'को अनादि-अनन्त कहाँ है । और जब उपदेश अनादि-अनन्त है तो उसके namanan ___ काल से अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी की अपेक्षा से गणि पिटक सादि-सान्त है। क्योंकि उक्त कालचक्र में कुछ समय ऐसा, होता है, जिसमें तीर्थकर नही-होते. परन्तु जहां उक्त कालचक्र नही है, वहा की अपेक्षा से वह अनादि-अनन्त है। भाव की अपेक्षा से तीर्थकर भगवान ने द्वादशागी गणिपिटंक की परूपणा की,गणधरो ने उसे धारण किया, अपने शिष्य-प्रशिष्यो को उसका उपदेश दिया, हेतु, दृष्टान्त, नय एव उपमा आदि के द्वारा समझाया, इसे अपेक्षा से वह सादि-सान्त है और क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से वह संदा स्थित रहता है, अत. अनादि-अनन्त हैं। :-नदीसूत्र,४२ (मूल सुत्ताणि), पृष्ठ, ३०९। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नो के उत्तर २१२ उपदेष्टा तो स्वत: ही अनादि अनन्त सिद्ध हो जाते हैं। और जब जैन धर्म के आगम-एव-आगमों के उपदेष्टा अनादि काल से विद्यमान हैं, तब फिर धर्म को अनादि काल से मानने मे टाका - संजय को जरा भी प्रत्रकाण नही रह जाता है । I 1 , परन्तु, - त्रैकालिक सत्य के उपदेश एव उपदेण्टा की अपेक्षा से जैन धर्म अनादि काल से चला आ रहा है । इसलिए इसके उद्भव काल एव संस्थापक का पता लगाना असंभव है । उसी वस्तु का उद्भव स्रोत ढूंढा जा सकता है, जिसका निर्माण किसी काल विशेष मे हुआ हो । जो अनादि काल में प्रवहमान है, उसका ममय खोज निकालना इन्सान की शक्ति से बाहर है। फिर भी क्षेत्र, एव काल की अपेक्षा से हम धर्मोपदेशक का समय निकाल सकते है। जैन धर्म मे काल की - गणना उत्सर्पिणी - श्रवसर्पणी की अपेक्षा से की जाती है । उत्स-पिणी में मनुष्य आदि का शरीर, ग्रायु, शक्ति प्रादि बढती है और अवसर्पिणी में इन सबका ह्रास होता है । प्रत्येक उत्सर्पिणी और अव सर्पिणी दस कोटा - कोटि सागरोपम की होती है । और उत्सर्पिणी एव 'अवसर्पिणी के मिले हुए २० कोटा- कोटि सागरोपम के काल को एक काल चक्र कहते हैं । "ससार मे ऐसे अनन्त अनन्त काल चक्र वीत चुके है और बीतते जा रहे हैं। वर्तमान काल चक्र मे भी अवसर्पिणीःकाल का पञ्चम आारा चल रहा है । इस काल के तीसरे आरे के प्रतिम भाग मे अर्थात् करीव एक कोटा -कोटि सागरोपम, पूर्व इसी भरत क्षेत्र मे भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ था । ये इस काल, और इस क्षेत्र की अपेक्षा से पहले तीर्थंकर या धर्मोपदेप्टा थे । उन्होने यहा सब से पहले चार तीर्थ की स्थापना की, धर्म का मार्ग बताया. उनके बाद, २३ तीर्थकर और हुए, जिन्होंने उसी त्रैकालिक सत्य - प्राचार और विचार रूप C SHASH 4 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुथ अध्याय ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ rrrwwwwwwwwwwe सामायिक धर्म एव अनेकान्त दृष्टि का उपदेश दिया। भगवान. महावीर अन्तिम अर्थात् २४ वे तीर्थंकर थे। इसलिए वर्तमान मे उपलब्ध आगम भगवान महावीर द्वारा परूपित माने जाते है। क्योकि वे ही हमारे निकट काल मे हुए है। . . . . इस तरह हम जैनागमो एव जैन इतिहास की दृष्टि से देख चुके है कि जैनधर्म कोई अभिनव धर्म नहीं, अपितु प्राचीन धर्म है और वह भी इतना प्राचीन है कि उसके मूल स्रोत तक पहुचने की शक्ति किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति मे नही है। अब हम जैनेतर ग्रथा एव विचारको के आधार पर विचार करेगे कि उनकी दृष्टि में भी जैनधर्म अर्वाचीन - नही प्राचीन ही है। - - - - - : वैदिक परपरा का विश्वास है कि वर्तमान मे उपलब्ध साहित्य मे वेद सबसे प्राचीन है । हम यहा इस बात की सत्यता-एव असत्यता को जाचने मे समय न लगाकर, इस बात पर विचार करेगे -कि उसमे. भी अपने युग के पूर्व से चले आ रहे जैनधर्म के सवध मे उल्लेख मिलता है या नही? क्योकि यदि वेद प्राचीनतम साहित्य है, तो उसमें उल्लिखित धर्म एव धार्मिक व्यक्ति उससे भी प्राचीन स्वत, सिद्ध हो जाते है। क्योकि प्रत्येक -लेखक अपने ग्रथ, मे; उन्ही-व्यक्तियो, धर्मों एव रीति-रिवाजो के सवध मे लिखता है, जो उसके समय से पहले हुए हो या उसके काल में विद्यमान हो। इसी अपेक्षा से हम यह निसन्देह कह सकते है कि जैनधर्म वेदो से भी प्राचीन हैं । क्योंकि वेदों मे भी जैनधर्म एवं उसके उपदेष्टा तीर्थंकरो का उल्लेख मिलता है। और यह 'वातं प्राय पूर्वीय एव पाश्चात्य सभी निष्पक्ष विद्वानो एव ऐतिहासिको को मान्य है कि जैनधर्म वैदिक धर्म की शाखा नहीं, बल्कि एक स्वतत्र एव मौलिक धर्म है और वह वेद युग से भी पहले भारत मे विद्यमान h Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर , ........ ...२१४ -rrr - - रहा है। भगवान ऋषभदेव वर्तमान काल के प्रथम तीर्थंकर हैं। विष्णु पुराण में भी ऋषभदेव के जीवन का उल्लेख किया गया है। उस मे लिखा है कि 'नाभिराज की महारानी मरुदेवी की कुक्षि से महामना ऋषभदेव पुत्र रूप में जन्मे। उनके सौ पुत्र थे, जिनमे भरत सबसे ज्येष्ठ पुत्र था। न्याय और बुद्धि पूर्वक राज्य करने के पश्चात् ऋपभदेव ने पृथ्वी का राज्य भरत को दे दिया था, आदि। वैदिक परपरा द्वारा मान्य प्राचीन ग्रंथ श्री भागवत पुराण में भगवान ऋषभदेव के जीवन का विस्तार से वर्णन मिलता है। उसमे लिखा है कि ऋषभदेव अर्हन का अवतार रजोगुण. युक्त मनुष्यों को मोक्ष मार्ग दिखाने के लिए हुआ है । - । - - भागवत पुराण मे जिस ऋषभदेव का वर्णन मिलता है, वह जनों के ऋषभदेव के अतिरिक्त और कोई नहीं है । विल्सन ने विष्णु पुराण में भागवत पुराण की टिप्पण देते हुए लिखा है-"उसमें ऋपभदेव की तपस्या का विस्तार से वर्णन दिया गया है । इतना ही नहीं, बल्कि अन्य किसी पुराण मे उपलब्ध नहीं हाने वाली वाते भो उसमे विशिष्ठ रूप से वर्णित है। इसमे ऋषभदेव के विहार-भ्रमण के दृश्यो का . विष्णु पुराण और भागवत पुराण आदि वैदिक साहित्य के इन सब उल्लेखो से हम (डॉ याकोबी) इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि जनो की कथा में कुछ ऐतिहासिकता है,जो ऋषभदेव को जैनो का पहला तीर्थंकर मानती है । - -इण्डि. एण्टी ,(डा. याकोबी) पृष्ठ १६३ । ६ विष्णु पुराण (विल्सन)पृष्ठ १६३। . . . . . ६ अयमवतारो रजसोपष्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थः । .... . -भाग० स्कष ५, अन्याय ६ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ वर्णन सबसे रोचक है । जैसे- कोंक, बंकाट, कटुक और दक्षिण कर्नाटक तथा द्वीपकल्प के पश्चिमी भाग का रोचक वर्णन है और यह भी सकेत कर दिया गया है कि उक्त देशो के लोगो द्वारा जैनधर्म स्वीकार कर लिया गया था । ऋषभदेव के अतिरिक्त पाचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ के सबंध में भी भागवत मे उल्लेख मिलता है कि "वह कितने ही नास्तिको द्वारा देव रूप में पूजित होगा । " इसके सिवाय भगवान नेमीनाथ कृष्ण के चाचा और जैनो के वाइसवें तीर्थंकर हैं और उग्रसेन की पुत्री राजमती के कारण कृष्ण की कथा से सबद्ध हैं, का भी उल्लेख मिलता है । * वैदिक परपरा के प्राचीन ग्रंथो में ऋगवेद का महत्त्वपूर्ण स्थान है | भगवान ऋषभदेव के सबध मे उसमे उल्लेख मिलता है । एक जगह लिखा है चतुथ अध्याय " " तू प्रखण्ड पृथ्वीमंडल का सार त्वचा रूप है, पृथ्वीतल का भूषण है और दिव्य ज्ञान द्वारा आकांश को नापता है । हे ऋषभनाथ सम्राट ! इस संसार में जगरक्षक व्रतों का प्रचार करो। 1 = V भगवान ऋषभदेव के निर्वाण स्थान के संबंध में उल्लेख करते हुए शिव पुराण मे लिखा है- "विश्व का कल्याण करने वाले सर्वज्ञ ^ /V wwwwwww ~~~~ ↑ विष्णुपुराण ( विल्सन ) पृष्ठ १६४, टिप्पण | wwwwww * इण्डि० एण्टी, (डा. याकोवी) पृष्ठ १६३ । + श्रादित्या त्वगसि श्रादित्य सदासीद्, अस्तभ्रादया वृषभो सरिक्ष जमिमीते वरिमाणम् । पृथिव्या प्रामीत् विश्वा भुवनानि, सम्राट् विश्वे तानि वरुणम्य व्रतानि । -ऋगवेद ३० प्र० ३ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तरं २१६ जिनेश्वर भगवान ऋषभदेव कैलाश पर्वत पर मुक्ति को प्राप्त हुए । § शिव पुराण के प्रस्तुत श्लोक मे ऋषभदेव के लिए जिनेश्वर विगेंपण का प्रयोग किया गया है और जिनेश्वर शब्द जैन तीर्थकर या अर्हत के लिए प्रयुक्त होता है। जैनो की मान्यता के अनुरूप ही शिवपुराण मे भगवान ऋषभदेव का निर्वाण कैलाश पर्वत पर माना गया है । इस संबध मे जैन साहित्य एव शिव पुराण दोनो में एक 'समान उल्लेख मिलता है । · A भारतीय साहित्य में 'योगवशिष्ठ' ग्रंथ का महत्वपूर्ण स्थान है । इस ग्रन्थ मे वैशिष्ठ जी ने भगवान राम को धर्मोपदेश दिया है । उक्त ग्रन्थ मे एक स्थान पर भगवान राम की ग्रान्तरिक कामना का चित्रण करते हुए भगवान राम के मुख से कहलाया है कि "मैं राम नही हूं । मुझे किसी वस्तु की चाह नहीं है । मेरी अभिलापा. तो यही है कि जिनेश्वर देव की तरह अपनी आत्मा मे शान्ति लाभ प्राप्त करू * इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म - भगवान राम से भी पूर्व मे विद्यमान था । यदि भगवान राम के समय मे या उसके पहले जिने -- श्वर भगवान का अस्तित्व नही होता, तो राम के मन मे उनका स्मरण करने की भावना ही - कैसे जगती ? परन्तु राम के मन मे जिनेश्वर भगवान को तरह शान्ति प्राप्त करने की जो भावना उबुद्ध हुई, उस -~ -- S कैलाश पर्वते रम्ये, वृषभोऽय जिनेश्वर । चकार स्वावतार'च, सर्वज्ञ. सर्वग. शिवे || SI 1- शिवपुराण, ५९ । * नाहं रामो न मे वाञ्छा, भावेषु न मे मनः । -- + शान्तिमाम्यातुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनो यथा ।। I --- - योगवशिष्ठ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ चतुर्थ अध्याय से उस समय भी जैनधर्म के होने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है । इतिहासकार राम के युग को ११ लाख वर्ष पूर्व मानते है । इस से जैनधर्म ११ लाख वर्ष से भी पूर्व था, यह स्वत सिद्ध हो जाता है । यजुर्वेद मे भगवान नेमिनाथ का वर्णन मिलता है । एक मत्र मे लिखा है कि "भाव यज्ञ को प्रकट करने वाले, ससार के सब जीवो को सव प्रकार से यथार्थ उपदेश देने वाले और जिनके उपदेश से सव जीवो की आत्मा वलवान होती है, उन सर्वज्ञ नेमिनाथ के लिए आहुति समर्पित है । 11 6 प्रभास पुराण में भी लिखा है, “पवित्र स्वताचल ( गिरनार ) पर्वत पर नेमिनाथ जिनेश्वर हुए, जो कि ऋषियो के आश्रयभूत और मोक्ष के कारण थे । § जैन भी यही मानते हैं कि भगवान नेमिनाथ का निर्वाण गिरनार ( रैवताचल) पर्वत पर हुआ था । नागपुराण मे भगवान ऋषभदेव का जैनागमो मे प्रयुक्त आदि - नाथ नाम भी मिलता है और उनके नाम स्मरण की महिमा का भी उल्लेख किया गया है । उक्त प्रसग मे लिखा है कि "जो फल ६८ तीर्थो की यात्रा करने से होता है, वह फल ग्रादिनाथ भगवान का नाम स्मरण करने से होता है । "S १ * वाजस्यनु प्रसव ग्रावभूवेमा च विश्व भुवनानि सर्वतः । स नेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजा पुष्टि वर्द्धयमानो ग्रस्मै स्वाहा - यजुर्वेद ९,२५ ९ रेवताद्री जिनो ने मियुगादिर्विमलाचले | ऋषीणामाश्रयादेव मुक्ति मार्गस्य कारणम् । $ अष्ट पप्टिषु तीर्थेषु, यात्राया यत्फल भवेत् 1 आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद् भवेत् ॥ - प्रभास पुराण । -नाग पुराण Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २१८ वेदो एव पुराणो मे यत्र-तत्र जैनधर्म की प्राचीनता के सम्बन्ध मे अनेको उदाहरण मिलते है । और भी प्रमाण दिए जा सकते है, परन्तु विस्तार भय से अधिक उदाहरण न दे कर, अब हम कुछ आधुनिक विद्वानो के विचारो का अवलोकन करेगे कि उन्होने जैनधर्म के सम्बन्ध मे क्या कहा है । डा० शाटियर ने लिखा है कि "मथुरा के जैन शिला लेखो की परीक्षा करने पर हम देखते हैं कि इन मे गृहस्थ भक्तो द्वारा ऋषभदेव को अर्घ्य अपित किए जाने का उल्लेख है । इस के अतिरिक्त बहुत से शिलालेखो मे केवल एक अर्हन्त को ही नहीं, अपितु अर्हन्तो का उल्लेख है। भले ही उन शिलालेखो मे राजामो के नाम न खुदे हो, फिर भी सब इण्डो-सिदियन काल के हैं ऐसा स्पष्ट प्रकट होता है । और यदि कनिष्क एव उनके वशजो का काल शक युग ही माना जाता हो, तो ये लेख पहली और दूसरी सदी के मालूम होते हैं। इस से स्पष्ट होता है कि जैनधर्म के सस्थापक महावीर नही थे। यह उन से भी पहले था, इसमे अनेक तीर्थकर हो चुके हैं। डा० याकोबी लिखता है कि यदि हम तीर्थकरो की बात को छोड भी-दे, तब भी हिन्दू धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थो मे हमे जैन तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध मे उल्लेख मिलता है। ब्रह्मसूत्र जिसे तेलाग और * प्रीयताम्भगवानृषभश्री., अर्थात्-भगवान ऋषभ देव प्रसन्न हो । -एपी०, इण्डि०, पुस्तक १, पृ० ३८६ । | नमो अरहत्ततानं, अथवा अहंन्तो को नमस्कार हो । --वही, पृ० ३८३ । ६ वही, पृ० ३७१। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९... चतुर्थ अध्याय अन्य विद्वानो ने ईसा पूर्व चौथी सदी की प्राचीन रचना माना है, मे स्याहाद और आत्मा सवन्धी जैनधर्म की मान्यता का खण्डन किया गया है । इस के अतिरिक्त महाभारत, मनुस्मृति, शिवसहस्र , तत्तरीय आरण्यक, यजुर्वेद सहिता और अन्य हिन्दू शास्त्रो मे जैन धर्म सम्बन्धी हमे अनेक उल्लेख प्राप्त होते है। डा० शाटियर कहता है कि तथ्यो के सामन्य विचार की दृष्टि से यह वक्तव्य विश्वस्त माना जा सकता है कि शास्त्र का प्रमुख भाग महावीर और उनके निकटस्थ अनुयायियो ने तैयार किया था, अत. इसके अतिरिक्त एक दूसरी परपरा भी है, वह यह है कि पूर्वो की रचना स्वय महावीर ने की थी और अगो की रचना उनके गणधरो ने की थी। इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर और उनके उत्तराधिकारी गणधर आगम साहित्य के कर्ता हैं । जव यह कहा जाता है कि महावीर पागम के कर्ता थे, तो उसका यह अर्थ नहीं है कि ये शास्त्र उन के ही लिखे हुए हैं । किन्तु, उस का तात्पर्य यह है कि जो कुछ लिखा गया है,उस का उपदेश उन्हो ने दिया था। क्योकि भारतवर्ष मे कर्तृत्व मुख्यरूप से वस्तु पर से ही माना जाता है। जब तक कि भाव वही हो तो शब्द किस के है, यह बात अप्रासगिक मानी जाती है। फिर जैन-साहित्य की कुछ विशिष्टताओ के कारण हम देख | Sacred Book of the East, Vol 8, P.32 ate अमेरिकन ओरियटल सोसायटी पत्रिका, सख्या ३१ पृ० २९; डाः याकोवी का लेख। * Sacred Book of the East, Vol. 22, Introduction P.45 NA Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २२० सकते हैं कि धर्म की भाति आगम साहित्य मे वर्धमान और उन के समय के पहले तक का भी अनुसन्धान मिलता है। इस से हम कह सकते हैं कि जैन धर्म महावीर से भी बहुत पहले का है । प्राचीन इतिहास के सुप्रसिद्ध प्राचार्य प्रो. नागेन्द्र नाथ वसु अपने हिन्दी विश्वकोष के प्रथम भाग के ६४वे पृष्ट पर लिखते है "ऋषभदेव ने ही सम्भवत लिपि विद्या के लिए लिपि-कौगल का उद्भावन किया था । ऋषभदेव ने ही सम्भवत ब्रह्मविद्या की शिक्षा के लिए उपयोगी ब्राह्मी लिपि का प्रचार किया था।" महामहोपाध्याय डा० श्री सतीश चन्द्र विद्याभूषण प्रिन्सिपल सस्कृत कालेज कलकत्ता ने कहा है, "जैनधर्म तव से ससार में प्रचलित है, जब से ससार मे सृष्टि का प्रारम्भ हुआ है । मुझे इस मे किसी बात का उज्र नही कि यह वेदान्त आदि दर्शनो से पूर्व का है। __ इतिहास शास्त्र के सुप्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय जर्मन विद्वान् डाक्टर जेकोवी ने लिखा है, "जैनधर्म सर्वथा स्वतन्त्र धर्म है। मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नही है । इसीलिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्त्वज्ञान और धर्मपद्धति का अध्ययन करने वालो के लिए बडे महत्त्व की चीज़ है।" मेजर जनरल फलांग ने लिखा है, "जैनधर्म वहुत पुराना भारतीय धर्म है । इस के प्रारम्भ का पता लगाना कठिन है। 'ओक- - सियाना, कासविया, वलख, समरकन्द मे भी फैला हुआ था। सन् ईस्वी से अनगिनत वर्ष पूर्व जव भारत मे द्रविड लोग राज्य करते थे, तव यह तत्त्वज्ञानपूण धर्म फैला हुआ था। आर्य लोगो के गगा * कल्पसूत्र (स. डा याकोबी) पृष्ठ, १५। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ चतुर्थ अध्याय ammmmmmmmmmmmmm व सरस्वती नदी तक आने के बहुत पूर्व जैन तीर्थकरो की शिक्षा यहां फैली हुई थी।" प्रसिद्ध प्रोफैसर सर डॉक्टर राधाकृष्णन् ने लिखा है, " जैन पुराणो मे ऋपभदेव को धर्म का सस्थापक कहा है। इस बात के प्रमाण मिले है कि सन् इस्वी से १०० वर्ष पूर्व लोग ऋपभदेव की पूजा किया करते थे, जो पहले जैन तीर्थकर है । इस मे कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म श्री वर्धमान और पार्वनाथ से भी पहले फैला हुआ था। यजुर्वेद मे ऋषभदेव, अजित व अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थकरो के नाम प्रसिद्ध हैं। 'भागवत पुराण' भी कहता है कि श्री ऋषभ ने जैनधर्म को स्थापित किया था।" स्वतत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल राजगोपालाचार्य ने, भी! अपने एक प्रवचन मे कहा है, "जैनधर्म प्राचीन है और उस का विश्वास अहिंसा मे है।" उक्त सव विद्वान अजैन है और प्रायः सव पक्के वेदानुयायी है, तथापि इन्होने अपने सच्चे एव निष्पक्ष हृदय से जैन धर्म का अस्तित्व प्राचीन और वेदो से पूर्व का स्वीकार किया है। उक्त विद्वानो के उद्गारो से स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि जैन धर्म सर्वथा स्वतन्त्र धर्म हैं, वेदो से भी बहुत प्राचीन है और भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित धर्म है। इस के अतिरिक्त योगवशिष्ट मे जिन का, महाभारत शान्तिपर्व अध्याय २३२ मे जैनधर्म के स्याद्वाद का, अग्नि-पुराण अध्याय १६ मे अर्हत् का, शिवपुराण मे श्वेताम्बर जैन साधुओ के वेष का वर्णन भी ___ * The Short Studies in Science Co-operative Religion. † Indian Philosophy (Dr. Radhakrishanan). Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~~२२२ प्रश्नों के उत्तर wammmmmm उपलब्ध होता है । इन सव वर्णनो से मालूम होता है कि योगवशिष्ठ, महाभारत तथा पुराण काल से पहले जैनधर्म प्रचलित था। जैन इतिहास के अनुसार भरत चक्रवर्ती जैन थे । राम, लक्ष्मण, भगवती सीता जैन थे। कृष्ण, बलभद्र, सत्यभामा, रुक्मणी आदि सब जैन धर्म के अनुयायी थे। इसी तरह महावली पाण्डव और सती द्रौपदी भी जैन धर्म के महापथ के पथिक थे। किन-किन के नाम लिखे जाए, भारत की बडी-वडी विभूतिया जैनधर्म को मानती थी। इस से यह स्पष्ट है कि जैनधर्म भारत का व्यापक धर्म था। प्रश्न- कई विचारक कहते हैं कि जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा है, क्या यह सत्य है? उत्तर- इतिहासवेत्ता जनधर्म के प्रादिकाल को खोजने मे प्रयत्नशील है। कुछ विचारक जैनधर्म के मूल ग्रन्थो को देखे विना ही इधर-उधर के ग्रन्थो मे जैनधर्म के सवव मे लिखी हुई वातो के आधार पर कल्पना करने लगते हैं। महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर समकालिक थे और दोनो ने याज्ञिक हिंसा, जातिवाद एवं वर्गभेद का विरोध किया था। इस से कई विचारको को यह भ्रम हो गया कि महात्मा वुद्ध के बाद जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। परन्तु, जब पाश्चात्य एव भारतीय विद्वानो ने जैन ग्रन्थो एव आगमो का अनुशीलन-परिशीलन शुरु किया और उन पर गहराई से चिन्तन-मनन करने लगे तो उन्हे यह स्पष्ट हो गया कि जैन धर्म बौद्ध या वैदिक धर्म की शाखा नही है, वह एक स्वतन्त्र एव मौलिक धर्म है और वैदिक काल से पहले भी उसका अस्तित्व रहा है। बहुत से विचारको ने भगवान ऋषभदेव ६ इस पर पीछ के पृष्ठो पर विस्तार से वर्णन कर चुके है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ चतुर्थ अध्याय को जैनधर्म का प्रथम तीर्थंकर स्वीकार किया है । भगवान महावीर से पूर्व हुए २३वे तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ को सभी विचारक ऐतिहासिक व्यक्ति मानने लगे हैं। इसमे अव किसी को सन्देह नहीं रह गया है । अत इससे स्पष्ट होता है कि जैनधर्म भगवान महावीर और बुद्ध से भी पहले था। इसलिए जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नही, बल्कि उस के अस्तित्व काल के पहले से चला आ रहा है। डॉ. याकोवी कहता है कि "निग्रन्थो का उल्लेख वौद्धो ने अनेक बार किया है । यहां तक कि पिटको के प्राचीनतम भाग मे भी निर्गयो के सवध मे उल्लेख मिलता है। परन्तु वौद्धो के सवध मे स्पष्ट उल्लेख अभी तक तो प्राचीनतम जैन सूत्रो मे कही भी मेरे देखने मे नही पाया है । जबकि उन मे जमाली, गौशालक आदि अन्य पाखण्डी धर्माचार्यो के विषय मे लम्बे-लम्वे कथानक मिलते हैं। क्योकि, बाद के समय मे दोनो धर्मो का पारस्परिक सवध जैसा हो गया था, उस से यह स्थिति एकदम विपरीत है । और दोनो धर्मों के समकालिक प्रारभ की हम लोगो की कल्पना के भी यह प्रतिकूल है । इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुचे हैं कि निर्ग्रन्थ धर्म बुद्ध के समय में नया स्थापित नही हुया था। पिटको का अभिमत भी यही बताता है। क्योकि उसमे कही विरोधी सूचन नहीं मिलता। यह स्पष्ट है कि वौद्ध पिटको मे निम्रन्थो का कई जगह वर्णन मिलता है और उनके 'चातुजाम धम्म अर्थात् चतुर्याम धर्म' का भी † Parsva was a fustorical person, is now admitted by all as very probable -Sacred Book of the past, Vol 45. Introduction, Page, 21-33 * Sacred Book of the East, Vol 9, page 161. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर उल्लेख मिलता है । चतुर्याम--चार महाव्रत रूप धर्म भगवान पाश्वंनाथ के युग तक था। भगवान महावीर ने पञ्चयाम या पाच महाव्रत रूप धर्म का उपदेश दिया था। जिसमे उन्होने ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन दो महाव्रतो को अलग-अलग कर दिया था। वौद्ध पिटको मे पांच महाव्रतों का कही उल्लेख नहीं मिलता, यत्र-तत्र चार याम धर्म का उल्लेख मिलता है। और यह चार याम धर्म भगवान पार्श्वनाथ के समय तक था। और भगवान पार्श्वनाथ वुद्ध में पहले हुए हैं । और प्राय. सभी ऐतिहासिक विद्वान इस वात को मानते हैं कि बुद्ध ने पहले भगवान पार्श्वनाथ की परपरा मे दीक्षा स्वीकार की थी। उनके द्वारा स्वीकृत तप एव उस समय का उन का रहन-सहन इस बात को स्पष्ट वताता है कि पहले वे जैन धर्म की परपरा मे दीक्षित हुए थे। जो भी कुछ हो, जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नही है । वह बौद्ध धर्म से भी प्राचीन है। और यह वात जैन और बौद्ध साघुरो के आचरण एवं सैद्धांतिक मान्यताओं से भी स्पष्ट हो जाती है। जैन साधु . वौद्ध भिक्षु श्वेत वस्त्र पहनते है। कपाय रंग के वस्त्र पहनते हैं। पैदल घूमते हैं। किसी भी तरह बौद्ध भिक्षुयो के लिए सवारी में की सवारी का उपयोग नहीं बैठने का प्रतिवन्ध नहीं है । वे करते। . खुले रूप मे सवारी करते हैं। धन-धान्य आदि परिग्रह नही आवश्यकतानुसार पैसा रखने या रखते और न किसी ने स्वीकार लेने का विधान है। वर्तमान काल ही करते हैं। मे तो ये धन-सपति का संग्रह भी करने लगे हैं। कच्ची सब्जी का स्पर्श कच्ची सब्जी तो क्या, मास खाने Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय २२५ तक नहीं करते । रात्रि को भोजन नही करते और न रात को पानी ही पीते है । 1 से भी परहेज नही करते । रात्रि भोजन या पानी आदि पीने पर कोई प्रतिवन्ध नही है | P इस तरह दोनो सम्प्रदायो मे आचरण सवधी वहुत बड़ा अन्तर मिलता है | इसके अतिरिक्त दोनो सम्प्रदायों की सैद्धान्तिक मान्यताओ मे, भी, एक रूपता या समानता नही है । जैन धर्म बौद्ध धर्म क्षणिकवाद को मानता है । + अनेकान्तवाद को मानता है । जीव, जीव, पुण्य-पाप आदि नव-तत्त्व को मानता है । ग्रात्मा के कर्ममन से रहित नित्तान्त शुद्ध स्वरूप को मोक्ष दुख, आयतन, समुदाय और मार्ग इन चार को मानता है । श्रात्मा के अस्तित्व के नाँग को मोक्ष स्वीकार किया है 1, मोक्ष ग्रर्थात् शून्य अवस्था | माना है । { इस तरह आचार सवधी एव सैद्धांतिक मान्यताथो मे दोनो परपरात्रो मे बहुत अन्तर है और इसी के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जैन धर्म वौद्ध धर्म से सर्वथा भिन्न है । इस के अतिरिक्त आधुनिक विद्वानो ने भी जैन धर्म को स्वतन्त्र धर्म माना है और उसे वौद्धधर्म से पहले का स्वीकार किया है । ד लोकमान्य प० बालगंगाधर तिलक अपने केसरी समाचार पत्र मे लिखते हैं, "महावीरस्वामी जैनधर्म को पुन प्रकाश में लाए, इस बात को ग्राज २४०० वर्ष बीत चुके है । वौद्ध धर्म की स्थापना के पहले भी जैनधर्म भारत मे फैला हुआ था, यह वात विश्वास करने योग्य है । २४ तीर्थंकरो मे महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थकर थे । इस से भी जेन धर्म की प्राचीनता जानी जाती है । ? "" Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २२६ बावू ग्रम्बुजाक्ष सरकार एम ए वी एड. लिखते है कि "यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्ध धर्म की शाखा नही है । महावीर स्वामी जैनधर्म के स्थापक नहीं हैं। उन्होने केवल प्राचीन जैनधर्म का प्रचार किया है । 11 इन सव प्रमाणो से स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म वौद्ध या वैदिक धर्म की शाखा नही है । यह एक स्वतन्त्र धर्म है और ऐतिहासिको की पहुच एव वेद काल के पूर्व से चला आ रहा है । अत. जैन धर्म को वौद्ध धर्म की गाखा कहना या मानना असंगत और इतिहास से भी विरुद्ध है या यो कहिए कि सत्य को झुठलाना है । * प्रश्न- हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास सं. ७५० से १७५०, लेखक डॉ. राम कुमार वर्मा, एम. ए., पी. एच. डी., (प्रयाग विश्वविद्यालय) के सिद्ध साहित्य नामक विभाग में पृष्ट ११८ - ११६ पर लिखा है - "जब वे (मत्स्येन्द्रनाथ ) - सिंहलद्वीप गए तो वहां की रानी पद्मावती के रूप पर आसक्त होकर वहीं रहने लगे, तब गोरखनाथ को अपने गुरु के पतन की गाथा * जैनधर्म की प्राचीनता को प्रमाणित करने वाले वेदवाक्य तथा ऐनिहासिक जनेतर विद्वानों के अभिमत को और अधिक जानने के अभिलापियो को 'सत्यार्थदर्पण' लेखक - प त्रजित कुमार जैन, शास्त्री, प्राप्तिस्थानमंत्री, साहित्यविभाग, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी मथुरा, से प्रकाशित ग्रन्थ को देखना चाहिए। 4 इन का दूसरा नाम मछन्दरनाथ था, ये श्री गोरखनाथ के गुरु माने जाते है । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ चतुर्थ अध्याय मालूम हुई तो वे सिंहलद्वीप गए और वहां उन्होंने अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ को रानी पद्मावती के अन्तःपुर में पाया । उन्होंने अपनी योगविद्या से स्मरण दिलाकर उनका विवेक जागृत किया | मत्स्येन्द्रनाथ को ज्ञान हुआ और वे रानी पद्मावती को छोड़ कर फिर योगारूढ़ हो गए । फिर वे पद्मावती से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों पारसनाथ और नेमिनाथ (जो आगे चलकर जैन तीर्थंकर हुए) को साथ लेकर नेपाल चले गए । I प्रस्तुत संदर्भ में पारसनाथ और नेमिनाथ को जैन तीर्थंकर लिखा है और उहें मत्स्येन्द्रनाथ के पुत्र स्वीकार किए हैं। क्या यह सत्य है ? उत्तर यह वात नितात असत्य है और केवल साप्रदायिक इर्ष्या वा जैनो का तिरस्कार करने की दृष्टि से ही सिद्ध साहित्य मे इसका उल्लेख किया गया है । मत्स्येन्द्रनाथ और भ० नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ मे कालगत साम्य भी नही है । - मत्स्येन्द्रनाथ १३वी सदी मे हुए है । † लक्ष्मीनारायणकृत “श्री ज्ञानेश्वर चरित्र" के हिन्दी अनुवाद के आधार से गोरखनाथ ज्ञानेश्वर के प्रपितामह अम्वकपन्त के समकालीन हुए है । श्रम्वक पन्त ने १२७० के लगभग गोरखनाथ का शिष्यत्व स्वीकार किया था । अतः गोरखनाथ का समय विक्रम की १३वी शताब्दी सिद्ध होता है । इस के श्रुतिरिक्त डॉ रामकुमार वर्मा भी इन का समय १३वी शताब्दी का मध्य भाग ही मानते है । और मत्स्येन्द्रनाथ गोरख नाथ के समकालीन थ, अतः मत्स्येन्द्रनाथ का समय भी १३वी शताब्दी का मध्य भाग ही प्रमाणित होता है । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ~~~~..... ......२२८ और भगवान नेमिनाथ और पार्श्वनाथ का समय विक्रम सवन के शुरु से भी बहुत पहले है । भगवान नेमिनाथ को ८५०० वर्ष से भी कुछ ऊपर हुए है और भ० पार्श्वनाथ को २७५० वर्ष बीत चुके है। भगवान • पार्श्वनाथ भगवान महावीर से २५० वर्ष पहले हुए थे पीर भगवान महावीर के निर्वाण को २५०० वर्ष होने जा रहे है । ऐतिहासिक विद्वान भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं। इस पर हम पीछे के पृष्ठो पर विस्तार से लिख पाए है । अत. यहा इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि यह उल्लेख केवल सांप्रदायिक- अभिनिवेग के वग किया गया है। साप्रदायिक नगे मे उन्मत्त हो कर मनुष्य कुछ का कुछ कह जाता है। वह इस से भी अधिक असत्य कह सकता है । वह उस समय सत्य-असत्य का कुछ भी ख्याल नही रखता अत हमे इस पर आश्चर्य नहीं होता, परन्तु हमे आश्चर्य एव दुख इस बात का होता है कि इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान डॉ ० राम कुमार वर्मा इतनी गम्भीर एव अक्षम्य भूल कैसे कर गए? यह कहा जा सकता है कि वर्मा जी ने अपनी तरफ से कुछ नहीं कह कर सिद्ध साहित्य मे आई हुई घटना का उल्लेख मात्र किया है। यह वात मानी भी जा सकती है । भाषा विशेपज्ञ साहित्य का अनुसन्धान करते समय प्रत्येक साहित्य का उद्धरण देते रहे है। क्योकि.उन की दृष्टि ऐतिहासिक शोध की रही है । परन्तु, जिस उद्धरण मे उन्हे ऐतिहासिक एव साहित्यिक भूल प्रतीत होती है, उस पर वे टिप्पण लिखने से भी नहीं चूकते। यह सत्य है कि वे उद्धर्ण मे प्रत्येक साहित्यकार के शब्दो को ही उद्धृत करते है, उसमे जरा भी काट-छाट नही करते और करनी भी नहीं चाहिए। परन्तु, टिप्पण के द्वारा उस मे रही हुई असगति को दिखाकर पाठको के मन-मस्तिष्क' को उस भूल Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ 'चतुर्थ अध्याय से बचा सकते हैं । और बडे-बडे सगोधक ( Research Scholar) ऐसा ही करते हैं । साहित्यकार का मत कहा तक सही या गलत है, इस बात को वे ऐतिहासिक एव साहित्यिक प्रमाण दे कर स्पष्ट कर देते है । परन्तु, वर्मा जी ने प्रस्तुत प्रसग पर कोई टिप्पण नही दिया । वे इस बडे भारी असत्य को कैसे स्वीकार कर गए, यह हमारी समझ मे नही ग्राया । ग्राज इतिहास का साधारण पाठक भी इस बात को जानता है कि भगवान पार्श्वनाथ और नेमिनाथ का युग तो छोडिए, भगवान महावीर का युग भी मत्स्येन्द्रनाथ से १२ सदी पहले का है । हम यह नहीं मान सकते कि यह भूल वर्मा जी के ध्यान मे नही आई हो । हा, यह हो सकता है कि उन्होने सोचा हो कि जैनो मे कोई विरोध करने वाला तो है नही, जो दिल मे आए सो कह एव लिख जाओ । इससे यह स्पष्ट होता है कि वर्मा जी के मन मे जैन धर्म के 1 प्रति उपेक्षा एव तिरस्कार की भावना रही है । और यह मनोवृत्ति एक रिसर्च स्कॉलर के लिए बहुत बड़ा दोष एव कलक है। क्या वर्मा जी इस कलक को धो सकेंगे ? f दूसरे मे जैन समाज की भी एक कमजोरी है कि वह अभी तक इतने बड़े भारी असत्य को अनावृत्त करके नही रख सकी है। किसी भी जैन विद्वान या विचारक ने इस का खुल्ला विरोध नही किया है । जेन विचारको का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वर्मा जी को उनकी भूल से सावधान करके उसे सुधारने के लिए प्रेरित करे तथा जनता के मनमस्तिष्क से उस झूठ को निकालने के लिए उसे वास्तविक स्थिति से परिचित कराए और प्रस्तुत प्रकरण में उक्त उद्धरण की असत्यता को स्पष्ट करने वाली टिप्पण लगाने के लिए लेखक एव प्रकाशक को प्रेरित करे । इस तरह का प्रयत्न नहीं किया गया तो साप्रदायिक Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर २३० प्रवाह में प्रवहमान लेखक जैनधर्म पर प्रहार करते हुए जरा भी सकोच नही करेंगे । अत जैनो को प्रत्येक ग्रसत्य का - चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान क्यो न कहे गए हो स्पष्ट शब्दो मे विरोध करना चाहिए । जनता एव पाठको के सामने सत्य को रखते हुए हमे जरा भी डरना नही चाहिए। v यह स्पष्ट है कि वर्मा जी ने भगवान पार्श्वनाथ श्री नेमिनाथ के सबध मे जो कुछ लिखा या उद्धृत किया है, वह सर्वथा असत्य है, ऐतिहासिक दृष्टि से भी उसमे ज़रा भी सत्यता को अवकाश नही है । आशा है, वर्मा जी उस पर निष्पक्ष दृष्टि से सोचेंगे और ऐतिहासिक विद्वान एव रिसर्च स्कॉलर होने के नाते अपनी भूल को सुधारने का प्रयत्न करेंगे । उत्तर प्रश्न- जैनधर्म के धारक वैश्य लोग ही हैं या इसके पालक राजा लोग भी थे ? भारत के प्रचीन इतिहास में किसी ऐसे राजा का नाम बता सकते हो, जो जैनधर्म का अनुयायी रहा हो ? जैन जगत का विश्वास है कि भगवान ऋषभ देव से ले कर महावीर पर्यन्त चौवीसो तीर्थकरो का जन्म राजवंशो मे ही हुआ था । प्रत्येक तीर्थकर के काल मे अनेकानेक जैन राजा भी हुए, चक्रवर्ती भी हुए, जिन्होने जैन धर्म मे दीक्षा ली थी और जैनधर्म के प्रचार एव प्रसार में सहायता प्रदान की थी । मर्यादापुरुषोत्तम राम और त्रिखण्डाधिपति कृष्ण भी जैन थे। राम ने जैन साधु वन कर मुक्ति प्राप्त की थी और कृष्ण के छोटे भाई गजसुकुमार भगवान नेमिनाथ के चरणो मे दीक्षित हुए थे। कृष्ण ने स्वय गजसुकुमार को भगवान नेमिनाथ के पास जैन साधु वनवाया था। भगवान नेमिनाथ ने वताया Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय १२वे तीर्थंकर वनेंगे । इसके अतिरिक्त इतिहास इस बात का साक्षी है । समकालीन एव बाद मे हुए जैन २३१ था कि श्री कृष्ण भी भविष्य मे अनेकानेक जैन राजा हुए हैं, फिर भी, भगवान महावीर के राजाओ का उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है । I राजा चेटक भ० महावीर के अनन्य श्रद्धालु श्रावक एवं वैशाली के प्रत्यन्त प्रभावशाली श्रौर वीर राजा थे । ये १८ देशो के गणराज्य के अध्यक्ष थे । इन की प्रतिज्ञा थी कि में अपनी कन्याओ का विवाह केवल जैनधर्मानुयायी राजाओ के साथ ही करूंगा. किसी अजैन के साथ नही । सिन्धु के उदयन, ग्रवन्ती के चन्दप्रद्योतन, कौशास्त्री के शतानीक चम्पा के दधिवाहन और मगध के श्रेणिक राजा महाराज चेटक के दामाद थे । ये सभी राजा जैनधर्म के अनुयायी थे । राजा उदयन ने तो भगवान महावीर के पास दीक्षा स्वीकार करके जैनधर्म के प्रचार में सक्रिय सहयोग दिया था । इतिहास प्रसिद्ध मगधन रेग विम्वसार जैन साहित्य मे श्रेणिक के नाम से विख्यात रहे है । जैन शास्त्रो मे इन का जीवनवृत्त उपलव्ध होता है । इन को जैन बनाने वाले अनाथी मुनि थे । अनाथी मुनि के सदुपदेश से इन्होने जैन धर्म को स्वीकार किया था । इन के पुत्र सम्राट् कूणिक भी भगवान महावीर के अनन्य भक्त थे। यह भगवान महावीर का समाचार प्राप्त करके ही भोजन ग्रहण करता था । कूणिक के पुत्र प्रजातशत्रु ने भी जैनधर्म को स्वीकार किया था । काशी- कौशल के अठारह लिच्छवी और मल्लि राजाश्रो ने भगवान महावीर का निर्वाण-उत्सव मनाया था । उनके द्वारा प्रसारित वोर- निर्वाण-उत्सव आज दीपमाला के रूप मे मनाया जाता है । ये सव राजा भी जैनधर्म को मानने वाले थे । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ............... २३२ - मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त जैनधर्म के अनुयायी थे। ये श्री भद्रबाहु स्वामी के पास दीक्षा स्वीकार करके मैसूरपात (दक्षिण) में गए थे। श्रवणवेलगोला की गुफा में इन्होने आत्मसाधना की थी। महाराज चन्द्रगुप्त के पोत सम्राट अशोक अपने पूर्व राज्यकाल मे जैन थे। इस्वी सन् स. १०० वर्ष पूर्व हुए कॉलंग देश के सम्राट् राजा खारवेल. भी जन थे। यह वात उडोसा के खण्डगिरि के गिलालेखा में प्रसिद्ध है। दक्षिण व पश्चिम में राज्य करने वाले अनेक देनो के राजा जैन थे । गग वश के भी सब राजा जैन थे। इस वग ने दूसरी से ११वी गताब्दी तक दक्षिण मे राज्य किया था। राजकट वश के प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ण भी जैन थे। अठान्ह देशो मे आज्ञा चलाने वाले महाराज कुमारपाल जैन थे। इस प्रकार जैनधर्म को मानने वाले अनेक राजा लोग थे, जिन्होने जैनधर्म को प्रभा को फैलाने मे योग दे कर अपने जीवन को यशस्वी वनाया था। राजायो के अतिरिक्त मत्री और सेनापति भी जैन धर्म के अतुयायी रहे है । जैनमत्रियो मे वस्तुपाल और तेजपाल का नाम इतिहास की अमूल्य सम्पत्ति है। दोनो भाई वाघेला वा के राजा वीरववल के मत्री थे। राजनीति के पण्डित और जैनवर्म के अनन्य भक्त होकर भी समस्त धर्मों के प्रति बडे उदार थे। मेवाड़ के महाराणा प्रतापसिंह के प्रधानमत्री भामागाह जैन को कौन नहीं जानता ? सकट काल में वारह वर्ष तक २५ हजार आदमी भोजन कर सकें इतना धन भामा. नाह ने महाराणा प्रताप को दिया था । मेवाड़ मे आज भी भामाशाह के वंशज जीवित है, जो जैन हैं। अजमेर के राजा विजयसिंह के सेना. पति धनराज सिंघवी जैन थे। गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव के सेनाध्यक्ष प्रामु भी जैन थे। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक नास्तिक समीक्षा पञ्चम अध्याय प्रश्न- आस्तिक और नास्तिक शब्द का व्याकरण सम्मत क्या अर्थ होता है ? उत्तर- भारतीय चिन्तन वारा दो भागों में विभक्त है- १ आस्तिक और नास्तिक । कुछ चिन्तनशील विचारक, दार्शनिक आत्मा और परलोक के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं तथा आयु कर्म समाप्त होने के बाद प्रात्मा एक गति के शरीर को त्याग कर दूसरी गति या योनि के शरीर को धारण करती है, इस बात मे विश्वास करते हैं और उसे आगम,तर्क एव अनुभव से प्रामाणिक मानते हैं। ऐसी मान्यता मे श्रद्धा रखने वाले विचारको को दार्शनिक भाषा मे आस्तिक कहते हैं और जो विचारक आत्मा एव परलोक के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, उन्हे नास्तिक कहते हैं। फलितार्थ यह निकला कि आत्मवाद मे विश्वास रखने वाले दार्शनिक आस्तिक कहलाते है और अनात्मवाद को आधार मान कर चलने वाले विचारक नास्तिक कहलाते हैं । उक्त उभय शब्दो की व्याख्या करते हुए वेयाकरणिको ने भी यही बात कही है । शाकटायन का व्याकरण बहुत प्राचीन माना जाता है। पाणिनीय ने अपने द्वारा रचित व्याकरण मे शाकटायन व्याकरण के प्रमाण दिए है । आचार्य शाकटायन लिखते हैं Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... प्रश्नों के उत्तर .. ... ... .२३४ "दैटिकास्तिक-नास्तिकाः । ३, २, ६१. दैष्टिकादयतदस्येति पप्ठ्यन्ते ठणन्ता नियात्यन्ते । दिष्टा प्रमाणान्पातिनी मतिरस्य, दिप्ट दैवं प्रमाणमिव मतिरस्येति वा दैप्टिकः । अस्ति परलोक पुण्यपापमिति च मतिरस्येत्यास्तिक' ! एव नास्तीति नास्तिकः । पाणिनीय व्याकरण सिद्धात कौमुदी मे आचार्य भट्टो जी दीक्षित ने भी उक्त उभय शब्दो पर अपना अभिमत प्रकट करते हुए लिखा है "यास्ति-नास्ति दिष्टं मतिः। ४, ४, ६०. 'तदस्य इत्येव अस्ति परलोक इत्येव मतिर्यस्य स आस्तिक । नास्तीति मतियंत्य म नास्तिक. । दिष्टमिति मतिर्यस्य स दैप्टिक.।" आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने नास्तिक की परिभाषा करते हुए लिखा है- " नास्ति पुण्य पापमिति मतिरस्य स नास्तिक ", अर्थात् जिस की वुद्धि मे पुण्य-पाप का अस्तित्व नहीं है, उसे नास्तिक कहते है। उक्त वैयाकरणो द्वारा दी गई परिभापात्रो से यह स्पष्ट हो गया कि आस्तिक और नास्तिक शब्द की मूल प्रकृति अस्ति और नास्ति शब्द हैं । अस्ति शब्द सत्ता का, अस्तित्व का परिचायक है और नास्ति शब्द निषेध का ससूचक है। जिन विचारको एव दार्शनिको का आत्मा, परलोक, पुण्य-पाप आदि के अस्तित्व मे विश्वास है, श्रद्धा है, वे आस्तिक हैं और जो विचारक इन के अस्तित्व मे विश्वास नही रखते अर्थात् जिन की मति-बुद्धि एव धारणा यह है कि आत्मा, परलोक, पुण्य-पाप आदि कुछ नहीं है, वे नास्तिक है । इस तरह आस्तिक और नास्तिक शब्दो का व्याकरण सम्मत एव व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ यह है। प्रश्नव्याकरण सूत्र मे नास्तिक का स्वरूप बताते हुए यही कहा गया है कि कुछ लोग मानते है कि जीव नहीं है, जाति नही है, जीव को पुण्य-पाप का फल नही मिलता है,नरक-स्वर्ग आदि कुछ नही Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ aaaaaaa..... पञ्चम अध्याय है। इस तरह आत्मा, पुण्य-पाप एव परलोक आदि तत्त्वो के अस्तित्व __ को स्वीकार नहीं करने वाले को नास्तिक कहा है। * प्रश्न- जैन दर्शन आस्तिक दर्शन है या नास्तिक दर्शन ? उत्तर- जैन दर्शन का भली-भाति अनुशीलन परिशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आस्तिक दर्शन है । क्योकि, जैन दर्शन आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानता है, परलोक, पुण्य-पाप, कर्मवन्धन, मुक्ति आदि के अस्तित्व को स्पष्टत. स्वीकार करता है। वस्तुतः जैन दर्शन ने उक्त तत्त्वो पर जितनी गहराई से सोचा-विचारा और जितना सूक्ष्म अन्वेषण किया है,उतना किसी भी विचारक ने नही सोचा। प्राय. सभी दार्शनिको एव चिन्तको ने ऊपर-ऊपर से उडाने भरी है,पर आत्मा की गहराई मे उतरने का जैन विचारको के अतिरिक्त किसी ने साहस किया हो ऐसा दिखाई नही देता। इसलिए आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व मानने तथा पुण्य-पाप एवं कर्मबन्ध तथा मुक्ति के सबध में हमे जितने स्पष्ट एव तर्क सम्मत प्रमाण जैन दर्शन मे उपलब्ध होते हैं, उतने अन्य दार्गनिक ग्रन्थो मे उपलब्ध नही होते । जैनो का आगम एव दर्शन साहित्य आत्म तत्त्व के विवेचन से भरा पड़ा है। जैन दर्शन द्वारा मान्य नव तत्त्वो मे आत्मा या जीव तत्त्व मुख्य है, नव तत्त्व का प्राण है। इस के अतिरिक्त कोई व्यक्ति अपने ज्ञान की विशिष्टता से या तीर्थकर अथवा किसी विशिष्ट ज्ञानी के उपदेश से इस को जान लेता है कि मै पूर्व-पश्चिम आदि किसी एक दिशा से आया हूँ और मेरी आत्मा उत्पत्तिशील है तथा इन दिशा-विदिशाओ मे स्थित विभिन्न योनियो मे परिभ्रमण करने वाला मैं ही www ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ * प्रश्न व्याकरण सूत्र, २, ७। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर २३६ हू, राग-द्वेष के ससर्ग के कारण मेरी आत्मा वार-बार जन्म मरण करती है। । ग्रात्मा ही सुख दुःख का कर्ता एव भोक्ता है, श्रात्मा ही वंतरनी नदी तथा कूटशामिली वृक्ष - नरको मे प्रवहमान दुखद नदी एव वृक्ष को प्राप्त करता है और वही कामधेनु के सुख का उत्पादक है । वन्धन और मुक्ति को प्राप्त करने वाला आत्मा ही है । 2 ससारी आत्मा के एक गति से दूसरी गति मे परिभ्रमण करने के सबध मे भी जैनागमो मे पाठ मिलता है । जैसे गीता मे कर्मयोगी श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा- हे अर्जुन ! जिस ग्रविनाशी योग के सबध मे मै तुम्हे जो बता रहा हू, मैंने इस का सर्वप्रथम उपदेश विवस्वत को दिया था, उसने अपने पुत्र मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को दिया था । तव अर्जुन ने पूछा- भगवन् । श्रापका जन्म तो श्रव हुआ है और विवस्वत का जन्म आप से बहुत समय पहले हो चुका है, फिर आपने उसे इस योग का उपदेश कैसे दिया ? इसका उत्तर देते हुए कृष्ण ने कहा- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे इस जन्म के पहले अनेकों जन्म हो चुके हैं । तू इस बात को नही जानता है, परन्तु मै इसे भली-भाति जानता हू । § इसी तरह भगवान महावीर ने भी गौतम से कहा कि हे गौतम । तेरा और मेरा बहुत काल से अर्थात् अनेक जन्मो से संबंध चला था रहा है, तू मेरा पुराना परिचित है । भगवान महावीर के १ श्री आचाराग सूत्र १, १, ५ । + उत्तराध्ययन सूत्र २०. बहूनि मे व्यतीतानि, जन्मानि तव चार्जुन । तान्यह वेद सर्वाणि न त्वं वेत्य परतप ॥ -श्री भगवद्गीता, ४, ५ । - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चम अव्या...harrrrrrrrrrrrrx ~.00AAVAAAAAAAAAAA इस कथन को सुन कर गौतम स्वामी को भी भगवान साथ के किए गए पूर्व जन्मो का तथा उनके साथ रहे हुए सवध का परिज्ञान हो गया ।* इस तरह पुनर्जन्म की मान्यता को प्रमाणित करने वाले प्रागमो मे अनेक उद्धरण मिलते है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन अात्मा, परलोक, पुनर्जन्म आदि को मानता है । इसलिए वह नास्तिक दर्शन नही, आस्तिक दर्शन ही है । पाश्चात्य एव भारतीय विद्वान तथा विचारक भी जैन दर्शन को आस्तिक दर्शन के रूप मे स्वीकार करते हैं । सन् १९५५ की महावीर जयन्ती के अवसर पर दिल्ली मे आयोजित एक सभा मे भगवान महावीर के जीवन पर प्रकाग डालने हुए भारत के प्रसिद्ध विद्वान, सर्वोदयी विचारक काका कालेकर ने स्पष्ट शब्दो मे कहा है "जिस जमाने मे कही-कही मनुष्य का मास खाने वाले लोग भी थे, मनुष्य को गुलाम बना कर बेचा जाता था, सेनाओं के बीच युद्ध होते थे और पशु मास का आहार तो सार्वजनिक था। ऐसे समय मे पानो और हवा मे जो सूक्ष्म जन्तु होते है, उन के प्रति आत्मीयता बतलाना और विश्व मे अहिसा की स्थापना करने का अभिप्राय रखना तथा यह विश्वास रखना कि इतनी व्यापक अहिंसा भी मनुष्य का हृदय कवूल करेगा और किसी दिन उसे सिद्ध भी करेगा-यह उच्चकोटि की आस्तिकता है। ईश्वर पर या शास्त्र पर विश्वास रखना गौण है । मनुष्य हृदय पर विश्वास रखना कि वह विश्वात्मैक्य की ओर अवश्य वढेगा ! यह सब से वडी आस्तिकता है। इसलिए मैंने भगवान * चिरससिठ्ठोऽसि मे गोयमा | चिरपरिचियोऽसि मे गोयमा.. -श्री भगवती सूत्र, शतक १४,उद्देशक ७ । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर महावीर को ग्रास्तिक शिरोमणि कहा है। * इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन ग्रास्तिक दर्शन है और उसकी प्रास्तिकता सब दर्शनों से उत्कृष्ट है । आत्मा एव लोक-परलोक के सवध मे जैन चिन्तको ने जितनी गहराई से चिन्तन-मनन एव ग्रन्वेषण करके प्रकाश डाला है, उतना गहरा विचार किसी भी दार्शनिक ने नही दिया । इसलिए ग्राज भी सभी निष्पक्ष विचारक जैन दर्शन को ग्रास्तिक दर्शन के रूप मे स्वीकार करते है । और गाधी वादी नेता काका कालेलकर तो जैन दर्शन को एक उत्कृष्ट ग्रास्तिक दर्शन और भगवान महावीर को आस्तिक गिरोमणि मानते हैं । प्रश्न- ग्रास्तिक-नास्तिक शब्द व्याकरण सम्मत परिभाषा के अनुसार ही साहित्य में प्रयुक्त होते रहे हैं या श्रागे चलकर उन में कुछ परिवर्तन हुआ हैं ? यदि परिवर्तन हुआ है, तो परिवर्तन आने का वास्तविक कारण क्या रहा है ?' VAJU * www २३८ उत्तर- इस प्रश्न का समाधान पाने के पहले हमे शब्द और व्याकरण के सबध को भी भली-भांति समझ लेना चाहिए। यह बात हमे सदा ध्यान में रखनी चाहिए कि व्याकरण शब्दों को परिष्कृत करता है, न कि उनकी रचना । प्रत्येक भाषा का यही नियम है कि उसके उच्चारण एव प्रयोग के रूप को व्यवस्थित करना व्याकरण का काम है । इस से यह स्पष्ट होता है कि शब्द का निर्माण व्याकरण से नही, बल्कि जनता की बोल-चाल की भाषा से होता है । व्याकरण केवल इतना ही काम करता है कि जनता या साहित्यिको के द्वारा जिस शब्द का श्रमण, वर्ष ७, अंक १२ । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. ~~~~~~~~ ~ anwarmarrian, पञ्चम अध्याय - जिस अर्थ मे प्रयोग होता है, उस अर्थ को या परिभाषा को स्पष्ट कर के उस के रूप को व्यवस्थित बना देता है, उस मे रही हुई उच्चारण की अशुद्धता या कमी को दूर कर देता है। . इस से यह स्पष्ट होता है कि पाणिनीय एव शाकटायन से भो पहले आस्तिक-नास्तिक शब्द का प्रयोग एव परलोक आदि के स्वरूप को स्वीकार करने और अस्वीकार करने के अर्थ मे ही हुआ था और वैयाकरणिको ने उसी अर्थ को स्वीकार करते हुए उस की परिभाषा की है। अत. पाणिनीय युग तक इसी अर्थ मे उभय गन्दो का प्रयोग होता रहा । यदि शाकटायन और पाणिनीय के वीच के युग मे इन उभय शब्दो की अर्थ मान्यता मे भेद आया होता तो पाणिनीय-अष्टाध्ययी मे उसका उल्लेख अवश्य करते । पाणिनीय के बाद भी भट्टोजीदीक्षित ने "सिद्धात कौमुदी" के मूल सूत्र एव उस को व्याख्या मे उसी अर्थ को स्वीकार किया है। उन्होने कही भी यह सकेत नही दिया कि उक्त उभय शब्दो की अर्थगत मान्यता मे परिवर्तन हुआ है। यदि तव तक अर्थ मान्यता मे परिवर्तन हुआ होता तो वे उस का उल्लेख किए विना नही रहते । परन्तु,उन्होने उभय शब्दो की परिभाषा मे कोई परिवर्तन नहीं किया। इस से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि सिद्धात कौमुदी की रचना के समय तक आस्तिक-नास्तिक शब्दो का प्रयोग आत्मादि के अस्तित्व को मानने और न मानने के अर्थ मे ही होता रहा है । परन्तु, दार्गनिक युग मे आकर इसकी परिभाषा मे अन्तर डाला गया । आत्मा आदि के अस्तित्व मे विश्वास रखने, न रखने के साथ ईश्वर को जोडा गया। ईश्वर भी उन का अपना एक पारिभाषिक शब्द है। उस का अर्थ है- जो एक है, जगन्नियन्ता है, ससार का निर्माता है, भाग्य का विधाता है, कर्म फल का प्रदाता है, बार-बार ससार मे अवतार लेता है, ससार रूपी घटीयत्र का सचालक है तथा Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर समस्त प्राणी जगत का सर्वेसर्वा है इसके बाद ज्यो-ज्यो साप्रदायिक अभिनिवेश बढता गया, त्योत्यो कुछ दार्गनिको एव विचारको के मन मे एक-दूसरी परपरा को या सप्रदाय को नीचा दिखाने का भाव बढता गया और इसी कारण उभय शव्दो की परिभापा मे परिवर्तन होता गया । पास्तिक-नास्तिक गब्द की परिभाषा के बदले हुए रूप परमत विद्वेष के परिचायक है । इस से यह स्पष्ट पता लगता है कि दार्शनिक युग में सांप्रदायिक मनोवृत्ति का काफी प्राबल्य था और उस युग मे ये दार्शनिक अपने आप को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए दूसरी सप्रदायो पर शब्दो का कीचड उछाला करते थे। इसी साप्रदायिकता का परिणाम है कि विशाल एव व्यापक अर्थ में प्रयुक्तमान आस्तिक-नास्तिक गव्द की परिभाषा को एक साप्रदायिक दायरे मे वाधने का प्रयत्न किया गया और ईश्वर कर्तृत्व के साथ यह भी जोड दिया गया कि जो वेद को प्रमाणिक नही मानते वे नास्तिक है। इस शब्द को जोडा ही नही गया, वल्कि और सभी अर्थो को गौण करके केवल इतनी ही परिभाषा बना दी कि जो वेद को प्रामाःणक नही मानता वह नास्तिक है और इसी अपेक्षा से जैन एव वौद्ध दर्शन को नास्तिक दर्शन कहा गया। वस्तुत. देखा जाए तो जैन दर्शन नास्तिक दर्शन नही, आस्तिक दर्शन है। परन्तु, साप्रदायिक अभिनिवेश के कारण मनुष्य सत्य को झुठला कर असत्य को स्थापना एव परूपणा करने से नहीं हिचकना, यह इसका ज्वलन्त उदाहरण है। एक वात यह भी ध्यान देने योग्य है कि वैदिक पुराणो मे अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादक आचार्य शंकर को भी जैन दर्शन, वौद्ध दर्शन और चार्वाक दर्शन की तरह नास्तिक कहा है और उस के द्वारा परूपित मायावाद को असत्-मिथ्या शास्त्र कहा है ।,मायावाद एक तरह Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१.. पञ्चम अध्याय मे मिथ्यावाद एव नास्तिक मान्यता है ।। यह हम ऊपर देख आए हैं कि व्याकरण की दृष्टि से आस्तिकनास्तिक का यह अर्थ किसी भी तरह घटित नहीं होता। इस से यह स्पप्ट प्रमाणित होता है कि इस परिभाषा की रचना के पीछे सत्यता, प्रामाणिकता एव ईमानदारी के स्थान मे साप्रदायिकता का खुला हाथ रहा है और वह भी सप्रदाय विशेष का तिरस्कार करने की दृष्टि से इस परिभापा को बदला गया है । प्राधुनिक विद्वान इस बात से सहमत है कि इस परिभाषा को बदलने के पीछे साप्रदायिक विद्वेष को भावना ही मूल कारण है। वैदिक परम्परा का विश्वास है कि वेद अपौरुषेय है, मनुष्य इस का रचियता नहीं है। इस का निर्माण भगवान ने किया है, किन्तु जैन परम्परा इस बात को नहीं मानती। जैन परम्परा प्रत्येक शास्त्र को पुरुषकृत मानती है और वह वेदो को सर्वथा प्रामाणिक रूप से स्वीकार नही करती है । वेदो के नाम से की जाने वाली पशु हिंसा तथा मायावादी वेदाती (शकर भारती)अपि नास्तिक एव पर्यवसाने सपद्यते इति नेयम् । अत्र प्रमाणानि सास्यप्रवचनभाप्योदाहृतानि पद्मपुराणवचनानि यथा--- मायावादमसच्छास्त्र प्रच्छन्न बौद्धमेव च । मयैव कथितं देवि कलौ ब्राह्मणरूपिणा !! अपार्थ श्रुतिवाक्याना दर्शयल्लोकगर्हितम् । कर्मस्वरूपत्याज्यत्वमत्र च प्रतिपाद्यते ।। सर्वकर्मपरिभ्रशान्नैष्कम्यं तत्र चोच्यते । परमात्मजीवयोरक्य मयात्र प्रतिपाद्यते ॥ --सास्य प्रवचन भाष्य, १, १, न्याय कोश, पृ ३७२। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर - ..........२४२ ईश्वर कर्तृत्व आदि असगत मान्यताओं पर जैन दर्शन का कतई विस्वाय नहीं है। जैन दर्शन धर्म के नाम पर की जाने वाली निरपराध मूक प्राणियो की हिंसा का कभी भी समर्थन नहीं करता, प्रत्युत दृढ़ता के साथ उसका विरोध करता है । यह वैदिक दार्शनिको को असह्य था, इसलिए उन्होंने जैनों को नास्तिक प्रमाणित करने के लिए आस्तिक-नास्तिक गब्दो की व्याकरण सम्मत परिभापा को आमूलचूल बदल करके रख दिया है। तव-वेदो को जो अपौरुषेय मानता है, उसे पूणरूप से प्रमाणिक स्वीकार करता है, वह आस्तिक होता है और जो वेदो पर आस्था नहीं रखता, उन्हे प्रामाणिक रूप से स्वीकार नही करता, वह नास्तिक कहलाता है। इस प्रकार को सकीर्ण और द्वेपपूर्ण परिभाषा चालू की गई। बदिक परम्परा में पलने वाले कई दर्शन वेद एव ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। साख्य दर्शन ब्रह्म को नही मानता है और न अद्वैतवाद अर्थात् एकेश्वरवाद को ही मानता है। न्ययायिक-वैगेपिक भी द्वैतवाद के समर्थक हैं, उन्हे भी वेदांत का एकेश्वरवाद स्वीकार नही है। और शैव दर्शन-अद्वैतवाद को तो मानता है, परन्तु वेद को प्रमाण नही मानता है । इतने पर भी उक्त दर्शनो को आस्तिक दर्शन माना गया है। इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उनका जैन दर्शन पर ही द्वेप था । इसलिए "वेद को प्रामाणिक न मानने वाला नास्तिक है" इस परिभाषा का प्रयोग जैन और बौद्ध दर्शन के लिए ही किया गया। और यही कारण है कि वेदको प्रमाण रूप से नही मानने वाले, एकेश्वरवाद एवं यानिक हिसा को नही स्वीकार करने वाले जैनेतर (वैदिक) दर्शनो को नास्तिक नहीं कहा गया। यह वैदिक विचारको के साप्रदायिक अभिनिवेश का ज्वलन्त प्रमाण है। J Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ www.. wwwwwwwwwww www पञ्चम अध्याय इस से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनका मानस संकीर्ण स्वार्थों से आवृत्त था। . जैन दर्शन को वेद एव वैदिक परम्परा से द्वेष नही है। वैदिक परम्परा के-- “अहिसा परमो धर्म.", "मा हिस्यात् सर्वानि भूतानि " आदि अहिंसा के समर्थक वाक्यो का जैन सम्मान के साथ स्वीकार करते है। केवल स्वीकार ही नहीं करते, बल्कि उन का परिपालन भी करते है । उनके मन में यह द्वेष नहीं है कि अमुक वाक्य वेद का है, इसलिए उसे स्वीकार नही किया जाएं । प्राचार्य हरिभद्रं मूरो ने स्पष्ट शब्दो मे कहा कि न तो मुझे महावीर से मोह है और न कपिल आदि वैदिक ऋपियो से मेरा द्वेप है । मै तो युक्ति सगत. सत्य एव निर्दोष वचनो को स्वोकार करता हूं। सत्य एवं अहिंसा से 'प्रोत-प्रात वाक्य चाहे जैनागमो के हो या वेदो के हो या किसी अन्य परपरा के भो क्या न हों, मुझ स्वीकार है । इतनी बडी बात जैनो के सिवाय अन्य किस भी दार्शनिक ने नही कही। ... हम स्याद्वाद प्रकरण मे स्पष्ट कर चुके है कि जैन दर्शन का ध्येय समन्वय का रहा है। उसने सदा अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। उसे एकान्तवाद कतई स्वीकार नहीं है। वह वैदिक परम्परा के एक प्रात्मवाद, नित्यवाद को भा आशिक रूप से सत्य मानता है और वौद्ध परम्परा के द्वारा मान्य क्षणिकवाद मे भी आशिक सत्यता को देखता है। उसकी दृष्टि में कोई भी दर्शन सर्वथा असत्य नही है. यदि वह एकान्तवाद का आग्रह न रखता हो। इस से स्पष्ट हो जाता है - कि जैन दर्शन का व्यक्तिगत किसी भी परम्परा से द्वेष नहीं है। वह किसी व्यक्ति या विचारक का तिरस्कार नहीं करता है । हा, एकान्तता एव हिंसामूलक प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करता, चाहे वह किसी भी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर २४४ परपरा की गयो न हो। यदिगोजन भी मोर उसमें धर्म के नाम पर हिगामूलक अनुक्ति को प्रथम देता है. नो र मग पाँ दष्टि में यह भी अगत्य जैन दर्शन पति एवं प्रदायोटि म सत्यता-प्रसत्यता को नहीं मानता. उगती मागनामित प्राधार एव सस्य और प्रतिमा की नीव पर मियत वेदो में जो अछाई, उग जैन दर्शन मानता, परन्तु, जा असत्यता है उस वह नहीं मानता। जैसे जैन दर्शन वेदी को अपारपत्र नहीं मानता,याज्ञिक हिंसा या वैदिक हिमा, हिमा नहीं होता सिद्धान को नही मानता । वह इस बात को भी सत्य नहीं मानता शिविर जगतकर्ता है, भाग्य विधाता, कर्म पान प्रदाता है । वह प्रात्मा ने म्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। प्रात्मा स्वय हो कम करता है और वही कृत फर्म का फल भोगता: पोर वही गम बन्धन या तोड कर मुक्त बनता है। स्वर्ग या नरक में जाने का प्रच्या या वृता परुपार्य वही करता है। ईश्वर किसी के कार्य में दखल नहीं देता। वह न किमी को स्वर्ग भेजता है और न किसी को नरक के गड्ढे में हो गिराता है। यदि वस्तुत. देखा जाए तो वेदो का अपारपेध कहना, यानिक हिंसा, ईश्वर कर्तृत्व प्रादि वात युक्ति एव बुद्धि संगत भी नहीं है। इसी कारण जेन दर्गन वेदों को प्रामाणिक नहीं मानता है। यह स्पष्ट है कि मनुष्य जव साप्रदायिकता के रग म रग जाता है, तो धर्म फीका पड़ जाता है। या यों कहना चाहिए कि साप्रदायिकता की कालिमा मे धर्म की उज्ज्वलता दव-सी जाती है । सांप्रदायिक मात्यताए ही धर्म का बाना पहनकर सामने आने लगती है और इसी कारण मानव 'सत्य सो मेरा' के वास्तविक आदर्श को भूलाकर 'मेरा सो सत्य' के नारे को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है। मौर नहीं है । कि मनुष्य जब साहिए कि साप्रदायिकता Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ पञ्चम अध्याय उसे सत्य सिद्ध करने के लिए वह समस्त दर्शन के सिद्धातो एव विचारो का खण्डन करता है और परिणाम स्वरूप देश में कटुता, द्वेष एव वैमनस्य की अभिवृद्धि होने लगती है। श्राज साप्रदायिक मतभेद इतना उग्र, कटु एव विषाक्त हो गया है कि इसके कारण राष्ट्रीय ताकत छिन्न-भिन्न सी हो गई है। हिन्दू मुस्लमानो को मलेच्छ कह कर उन से घृणा एव नफरत करते है, तो मुस्लमान हिन्दुओ को काफर बता कर जिहाद का नारा बुलन्द करते है । वैदिक परम्परा मे पले व्यक्ति जैनी को नास्तिक कहने मे सकोच नही करते। और वीतरागता के उज्ज्वल, समुज्ज्वल, महोज्ज्वल ध्वज को लहाने का दावा करने वाले जैन अपने से इतर सप्रदाय वाले को मिथ्यात्त्री, ढोंगी पाखण्डी कहने से नही चूकते, ग्राज वे भी राग-द्वेष के महापक मे फसे हुए है | धर्म के नाम पर प्रज्वलित राग-द्वेष एव साप्रदायिक वैमनस्य की श्राग ने मानव जीवन को स्वाह कर दिया है । धर्म और सभ्यता की कितनी ast विडम्ना है, यह । 1 मनुस्मृति मे लिखा है- "वेद निन्दको नास्तिक । " अर्थात् वेदो को नही मानने वाला नास्तिक है । इस बात को हम स्पष्ट कर चुके हैं कि इस कथन मे जरा भी सत्यता नही है । ये परिभाषाए सत्य पर ग्रावारित नही है, बल्कि साप्रदायिक श्रभिनिवेश की परिसूचक है । दो सप्रदायो मे भेद एव सघर्ष पैदा करने वाली हैं । यदि इस परिभाषा को सत्य मान लिया जाए तो फिर जैन भो आस्तिक-नास्तिक के लिए इस प्रकार की परिभाषा बना सकते हैं -- "नास्तिको जैनागम निन्दक | इसी तरह बौद्ध अपनी परम्परा एवं साप्रदायिक मान्यता के अनुसार परिभाषा रच लेंगे और अन्य सप्रदाय वाले अपनी अपनी डफली और अपना-अपना राग वजाने लगेंगे । परिणाम यह " Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www प्रर्शनो के उत्तर www.w wwwwwwww २४६ wwwwwww आएगा कि कोई भी दर्शन ग्रास्तिक दर्शन नही रह जाएगा । 1 जैन और वैदिक दर्शन की बात छोडिये । वैदिक दर्शनो मे भी एकरूपता नही है । वेदान्ती वेद को पीरुपेय मानते है, एक ग्रात्मवाद एव अद्वैतवाद को मानते हैं और सास्य दर्शन वेद को पौरुपेय और अनेक आत्मा तथा द्वैतवाद को मानता है । सनातनी मूर्तिपूजा, ईश्वर के अवतरित होने, श्राद्ध एवं याज्ञिक हिंसा को वेदविहित मानते हैं, किन्तु प्रार्यसमाजी इसके विपरीत विश्वास रखते हैं, अर्थात् वे इन्हे वेतनही मानते हैं और ये सभी वैदिक दर्शन हैं । ऐसी स्थिति मे एक-दूसरे की दृष्टि से एक-दूसरा नास्तिक हो जाएगा । साख्य का दृष्टि मे वेदान्ती नास्तिक है, तो वेदान्त की दृष्टि मे साख्य । सनातन धर्म का दृष्टि मे आर्यसमाजी नास्तिक है, तो आर्यसमाज को दृष्टि मे सनातनी नास्तिक है । इसी तरह अन्य संप्रदायो के सवध मे भी कल्पना की जा सकती है । अस्तु मनुस्मृति द्वारा की गई यह परिभाषा -- ' वेद निन्दको नास्तिक. " सर्वथा असत्य एव प्रयथार्थ है । दुख इस बात का है कि आज के वौद्धिकवादी युग मे कई विद्वान इस परिभाषा का प्रयोग करते हुए गर्व का अनुभव करते हैं । परन्तु, यह दृष्टि किसी भी तरह से उचित एव श्रादरास्पद नहीं कही जा सकती । 3 अन्त मे निष्कर्ष यह निकला कि प्रास्तिक-नास्तिक की मूल परिभाषा व्याकरण सम्मत है । मनुस्मृति आदि की अन्य परिभाषाए साप्रदायिक युग की देन है और इस परिवर्तन का या नई परिभाषाए घड़ने का मूल कारण साप्रदायिक विद्वेष रहा है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर - सीमांसा षष्ठम अध्याय प्रश्न- ईश्वर के संबध में दार्शनिकों की क्या मान्यता है और जैन दर्शन इसके संबंध में क्या मान्यतो रखता है ? उत्तर- भारतीय चिन्तनधारा दो प्रवाहो मे वही है-- कुछ विचारक ईश्वर के अस्तित्व को नही मानते और कुछ मानते हैं। पहली विचार धारा चार्वाक आदि नास्तिक विचारको की है, जो ग्रात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व एव परलोक आदि की सत्ता से इन्कार करते है । दूसरी विचारधारा आस्तिक परम्परा की है । प्रास्तिक विचारक मुख्य रूप से तीन विभागो मे विभक्त हैं- १ वैदिक दर्शन, २ जैन दर्शन और ३ बौद्ध दर्शन । वैदिक परम्परा से अनेक शाखा प्रशाखाए है और उनमे थोडा बहुत विचारभेद भी है । परन्तु, ईश्वर के सवध मे प्राय सभी वैदिक दार्शनि को एव विचारकों का यह अभिमत रहा है कि ईश्वर एक है, सच्चि - दानद' है, घट-घट का-जाता है, सर्वशक्तिमान है, ससार का निर्माता है, जीवो को भले-बुरे कर्मो का फल प्रदाता है, सृष्टि का कर्ता एवं हर्ता - विनाशक है । दुष्ट एव पापियों का नाश करने तथा भक्तो एवं धर्माका उद्धार करने के लिए वह समय-समय पर अवतरित होता है - भगवान से, पुन. इन्सान के रूप मे जन्म लेता है यार अपनी " Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . प्रश्नों के उत्तर ... . ... .....२४८ लीला दिखा कर फिर से वैकुण्ठ धाम में जा विराजता है। वह सदा स्मरणीय है, नमस्करणीय है। आजकल आर्य समाज के विचारक उक्त मान्यता मे पूर्णत. सहमत नहीं है। वे भी ईश्वर को एक, सच्चिदानद एव मृष्टि का कर्ता हर्ता तथा पुण्य-पाप का फल प्रदाता मानते है। परन्तु, वे अवतार वारण करने की बात को स्वीकार नहीं करते हैं। उन की मान्यता है कि किसी पापी या दुष्ट का विनाश करने हेतु ईश्वर ससार में नहीं पाता है । वह सदा स्मरणीय है। जैनागमो में ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। उस मे परमात्मा, सिद्ध, बुद्ध प्रादि शब्दो का प्रयोग मिलता है और सिद्ध एकदो नही, दस-बीस नहीं, अनन्त हैं और अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति सम्पन्न हैं, सच्चिदानद हैं, कर्म फल मे सर्वथा अलिप्त हैं, राग-द्वेष से रहित हैं, किसी भी जीव के कार्य मे दखल नहीं देते । वे न सृष्टि के रचियता हैं और न विनाशक ही हैं, न किसी प्राणी को मुख देते हैं और न दुःख ही देते हैं । न किसी भक्त को स्वर्ग में भेजते हैं और न किसी को नरक मे। प्रत्येक जीव कर्म के करने एवं कृत कर्म के फल को भोगने में स्वतन्त्र है । स्वर्ग और नरक का निर्माण करने मे तथा कर्म बन्धन की जजीर को सर्वथा तोड कर मुक्त होने मे प्रत्येक प्राणी पूर्णत. स्वतन्त्र है। दुनिया की एक भी आत्मा किसी अदृश्य शक्ति के अधीन नहीं है और न वह कठपुतली की तरह किसी एक सूत्रधार या नट के इशारे पर नाचती ही है। प्रत्येक आत्मा अपने अच्छे या बुरे पुरुपार्थ से अपना रास्ता तय करती है और शुभाशुभ गतियो मे परिभ्रमण करती है तथा अपनी ही सम्यक् साधना से कर्म बन्धन को तोडकर निर्वाण को भी प्राप्त कर लेती है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N २४९ . षष्ठम अध्याय बौद्ध दर्शन भी ईश्वर को जगत्कर्ता एव पुण्य-पाप का फलप्रदाता नही मानता है। बौद्धो ने मोक्ष को माना है, परन्तु उन की मुक्ति एव मुक्त अवस्था मे स्थित आत्मा के स्वरूप का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। उन्होने आत्मा को शून्य अवस्था को मोक्ष माना है। इस से भली-भाति स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न आस्तिक दर्शनो की तरह जैन भी ईश्वर को मानते हैं। अन्तर इतना ही है कि जैनागमो मे ईश्वर शब्द के स्थान मे सिद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, मुक्त, परमात्मा ग्रादि शब्दो का प्रयोग हुना है और उस का कारण जैन एव वैदिक सिद्धात की मूल मान्यता का अन्तर ही है । इस पर हम आगे वाले प्रश्न के उत्तर मे विस्तार से विचार करेगे। प्रश्न- वैदिक परंपरा में जैन दर्शन को अनीश्वरवादी दर्शन कहा है । जब जैन परमात्मा को मानते हैं, तो फिर ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर- ईश्वर गव्द वैदिक परपरा का है । ईश्वर का अर्थ स्वामी होता है और वैदिक परपरा मे यह शब्द इसी अर्थ मे प्रयुक्त हुआ है । हम ऊपर देख चुके हैं कि वैदिक परपरा मे ईश्वर एक माना गया है और उसे जगन्नियन्ता, जगत्कर्ता और सृष्टि का सचालक माना है अर्यात् वह स्वामी है और सारा संसार, सृष्टि के छोटे-बडे सभी प्राणी उसके सेवक है । वह अपनी इच्छानुसार कुभकार के चाक की तरह सब को इधर-उधर घूमाता-फिराता रहता है। कुछ वैदिक विचारका को दृढ मान्यता है कि ईश्वर सदा ईश्वर ही बना रहता है और जीव जीव ही बना रहेगा। जीव ईश्वर के निकट पहुच सकता है, परन्तु Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर .......२५० ईश्वर नही बन सकता। स्वामी और सेवक का भेद सदा बना ही रहेगा। जैन दर्शन इस विचारधारा को नहीं मानता है। इसी दृष्टि से जैनागमो मे ईश्वर शब्द का प्रयोग न करके सिद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, मुक्त, परमात्मा आदि शब्दो का प्रयोग किया है और इन शब्दो से जैन दर्शन की सैद्धान्तिक मान्यता स्पष्ट हो जाती है । 'सिद्ध' शब्द का अर्थ है- जिसने अपना लक्ष्य सिद्ध कर लिया है, अव उसके लिए कुछ भी करना शेष नही रहा है । अर्थात् आत्मा के पूर्ण एव शुद्ध स्वरूप को जिसने प्रकट कर लिया वह सिद्ध कहलाता है। सिद्धो मे ज्ञान की पूर्णता होती है,उनकी आत्मा पर ज़रा भी आवरण नही रहता,उनकी आत्मा अनन्त ज्ञान से युक्त होती है, इसलिए उन्हे बुद्ध भी कहते हैं। इस अवस्था मे जरा और मृत्यु का प्रवेश नही होता। क्योकि जरा और मृत्यु शरीर के साथ ही लगी हुई है और सिद्ध अवस्था मे शरीर का सर्वथा अभाव है, इसलिए वे अजर-अमर है। कर्मो से सर्वथा मुक्त होने के कारण मुक्त कहलाते हैं और सिद्ध अवस्था मे प्रात्मा का परम स्वरूप है-शुद्ध स्वरूप है अर्थात् यो भी कह सकते हैं कि परमात्मा वैदिक दर्शन को तरह कोई अलौकिक एव प्रात्मा से अलग शक्ति नहीं, बल्कि उन्होने आत्मा से ही परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त किया है, अपनी आत्मा पर लगे हुए कर्म-मल को सर्वथा दूर करके आत्मा की परम ज्योति को अनावृत्त कर लिया है,इसी अपेक्षा से उन की आत्मा को परमात्मा कहते इससे स्पष्ट हो गया कि जैन दर्शन स्वामी और सेवक की गुलामी की भावना को नही स्वीकार करता। वह आत्मा को किसी दैवी या ईश्वरीय शक्ति के अधीन परतन्त्र नहीं, बल्कि पूर्ण स्वतन्त्र मानता है। प्रत्येक आत्मा अपने जीवन की स्वतन्त्र निर्माता है । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ पष्ठम अध्याय आत्मा और परमात्मा में स्वामी और सेवक का भेद जैनो को स्वीकार नही है । जैन इस बात को नही मानते कि ग्रात्मा या जीव सदा ईश्वर का सेवक - गुलाम ही बना रहेगा। ईश्वर के निकट पहुच कर भी वह ईश्वर नही बन सकता, बल्कि सेवक ही रहता है और उस को इच्छा होते ही फिर से ससार मे भटकने के लिए इस दुनिया की ओर धकेल दिया जाता है । जैनो का दृढ़ विश्वास है कि प्रत्येक श्रात्मा परमात्मा स्वरूप है । आत्मा और परमात्मा के आत्म-स्वरूप मे कोई अन्तर नही है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि उन्होने आत्मा पर लगे हुए कर्म ग्रावरण को अनावृत्त कर दिया है और हम अभी उस से आवृत्त है । परन्तु यह भी सत्य है कि जितनी भी ग्रात्माए परमात्मा बनी है, वे स्वयं अपने पुरुषार्थ से निरावरण हो कर ही बनी है और आज भी आत्मा सम्यक् पुरुषार्थं कर के परमात्मा वन सकता है । इस तरह आत्मा स्वतन्त्र है, सिद्ध अवस्था मे स्थित अनन्त आत्माए भी स्वतन्त्र हैं । वहा सव श्रात्मानो मे अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख एव अनन्त शक्ति समान रूप से है । समस्त सिद्ध शुद्ध आत्म ज्योति मे रमण करते रहते हैं । वहा ऐसा नही है कि एक स्वामी और अन्य सव दास हो और वह स्वामी जव चाहे तव उन्हे धक्का दे कर निकाल दे । सब श्रात्माए वहां समान रूप हैं और सदा के लिए शुद्ध आत्म स्वरूप मे स्थित है । इस दृष्टि से जैनागमो मे ईश्वर शब्द का प्रयोग नही किया गया। भगवान महावीर स्वामी सेवक की जघन्य एव सासारिक मनोवृत्ति के समर्थक नही थे । इसलिए उन्होने ईश्वरवाद को ज़रा भी प्रश्रय नही दिया । इस अपेक्षा से भले ही कोई जैनो को अनीश्वरवादी कह दे, इस मे हमे कोई आपत्ति नही है । और वैदिक विचारको ने जैनो को अनीश्वरवादी इसी अपेक्षा से कहा है - वे ईश्वर को जगत्कर्ता Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न के उत्तर २५२ नही मानते, सर्वव्यापक नही मानते, कर्म का फल प्रदाता नहीं मानते, इत्यादि । और हम स्वयं इस बात को मानते है कि जैनदर्शन ग्रनीश्वरवादी है | क्योकि वह वैदिक परंपरा एवं शाब्दिक अर्थ के अनुसार श्रात्मा एव ससार पर ईश्वर के स्वामीत्व को नही स्वीकार करता । और यह सत्य भी है । इस की सच्चाई पर हम ग्रागे विचार करेंगे । यहा तो हम इतना ही बताना चाहते है कि जैनदर्शन परमात्मा को अवश्य मानता है और वह भी एक नही अनन्त परमात्मा को मानता है और साथ मे इस बात पर भी जैनो का दृढ विश्वास है कि आत्मा से ही परमात्मा वने है, वनते हैं और भविष्य मे भी बनेगे । ग्रत. हम कह सकते हैं कि जैनदर्शन ने ईश्वर शब्द का भले ही प्रयोग न किया हो, परन्तु उसके शुद्ध एव निरावरण स्वरूप की जैनो ने ही स्वीकार किया है, अन्य दार्शनिक एव विचारक वहा तक नही पहुच पाए हैं । प्रश्न- क्या ईश्वर को जगत्कर्ता मानना चाहिए ! उत्तर- नही, कदापि नही । क्योकि परमात्मा सर्व कर्मो से एव कर्मजन्य उपाधियों से रहित है । उस मे राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह- तृष्णा यदि दोपो का सर्वथा प्रभाव है । ऐसी स्थिति मे उसे जगत का निर्माता माना जाए तो उसमे कई दोष मानने पड़ेगे ? पहला प्रश्न यह होगा कि जब वह शरीर एव कर्म जन्य उपाधि रहित है, तब वह जगत का निर्माण किस से चीर कैसे करता है ? हम देखते हैं कि कुभकार अपने हाथो के द्वारा विभिन्न आकार-प्रकार के वर्तन बनाता है । यदि ईश्वर भी कुभकार की तरह विभिन्न श्राकू। तियो एवं प्रकृतियो के जोवधारी एव निर्जीव पदार्थों का निर्माण करता है, तो फिर मानना होगा कि वह भी कुभकार की तरह सावयव है । क्योकि बिना अवयव के अवयव युक्त पदार्थो का निर्माण हो नही - 1 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ षष्ठम अध्याय सकता । हम प्रत्यक्ष मे देखते हैं कि बिना हाथ-पैर हिलाए केवल इच्छा करने मात्र से ही कोई वस्तु तैयार नही हो जाती है । प्रत्येक वस्तु के निर्माण के लिए इच्छा-आकाक्षा के साथ तदनुरूप श्रम भी करना पड़ता है और श्रम के लिए शरीर का होना अनिवार्य है । इस तरह ईश्वर को भी सावयव मानना होगा । फिर उपनिषद् एव अन्य ग्रन्थो की यह मान्यता असत्य ठहरेगी कि परमात्मा न श्वेत है, न पीत है, न रक्त है, न कृष्ण है, न नील है, न भारी है, न हल्का है, न मोटा है, न पतला है, उसके कोई आकार नही है । wan ईश्वर को ससार का, जगत का रचयिता मानने से यह भी प्रश्न उपस्थित होगा कि ईश्वर ने ससार का निर्माण क्यों किया ? यदि यह कहा जाए कि ईश्वर ने दया, करुणा से प्रेरित होकर ससार को बनाया । तो यह भी युक्ति-सगत प्रतीत नही होता । क्योकि दया- करुणा किसी दुखी एव सतप्त प्राणी पर की जाती है । परन्तु ससार का निर्माण करने के पूर्व तो दुनिया मे कुछ था ही नही । न कोई सुखी प्राणी था और न दुखी ही था । ऐसी स्थिति मे किसी पर करुणा एव अनुग्रह करने का प्रश्न ही पैदा नही होता, जिस से प्रेरित होकर ईश्वर को ससार बनाने के कार्य मे प्रवृत्त होना पड़ा । · कुछ विचारको का कहना है कि ईश्वर अकेला था, उस का मन उदास हो गया । अत अपने मन को लगाने के लिए उसने यह इच्छा की कि 'मैं ग्रकेला हू, बहुत हो जाऊ' 8 और यह अभिलाषा करते ही एक विराट् ससार खड़ा हो गया। कितनी विचित्र मान्यता है । एक प्रोर तो यह कहा है कि ईश्वर मे इच्छा, अभिलाषा, कामना, वासना मादि विकार नही हैं, वह समस्त दोषो से रहित है और दूसरी तरफ ९ एकोऽहम्, बहुस्याम् । 1 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर यह कहना कि उस ने सृष्टि के होने की कामना की और वह कामना तुरन्त साकार रूप में परिणत हो गई । इस तरह वैदिक परंपरा द्वारा मान्य सिद्धात से भी यह मान्यता गलत ठहरती है और अनुभव एव सत्य की दृष्टि से तो यह मान्यता गलत है ही । सर्वप्रथम तो यह कहना ही नितान्त सत्य है कि ईश्वर ने अपने मन या दिल बहलाने के लिए संसार को बनाया है । क्योकि यह हम पहले देख चुके है कि ईश्वर के कर्म या कर्म जन्य उपाधि - शरीर, मन एव वासना ग्रादि नही होते । ऐसी स्थिति मे मन लगाने का सवाल हो पैदा नही होता । यदि एक क्षण के लिए इस तर्क को मान भी ले, तो यह कहना होगा कि ईश्वर राग-द्वेष आदि दोपो से सर्वथा रहित नहीं, प्रत्युत रागरग में आसक्त प्राणी है। तभी तो उसने विषय-वासना की कालिमा से धूमिल एवं कपायो की आग से सतप्त विश्व का निर्माण करके अपनी आकांक्षा को पूरा किया। इस से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ईश्वर एक ऐसा तमागवीन है कि जो अपने मन को बहलाने के लिए दो सांडों को परस्पर लड़ाता है और एक दूसरे को खून से लथपथ हुआ देख कर प्रसन्न होता है । क्या ऐसे व्यक्ति को ईश्वर कहा जा सकता हैं ? कदापि नही । प्रश्न - संसार में जितने भी पदार्थ दिखाई देते हैं, वे किसी न किसी व्यक्ति द्वारा निर्मित होते हैं । इस प्रकार यह ससार भी किसी की रचना है और यह रचना करने वाला कौन हैं ? उत्तर- यह हम पहले बता चुके है कि ससार मे मूल द्रव्य दो हैं- १जीव और २ - अजीव । प्रत दुनिया मे परिलक्षित होने वाले सभी जड़ या चेतन पदार्थ इन दो द्रव्यो पर ही आधारित है और वे अनादि काल २५४ AAAAJ ++ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ षष्ठम अध्याय से चले श्रा रहे हैं। जड़ अर्थात् पुद्गल का शुद्ध रूप परमाणु है और परमाणु का न कभी निर्माण हुआ है और न कभी नाश ही होता है । वह अनादि काल से अपने रूप मे स्थित है और अनन्त अनन्त काल तक बना रहेगा । उसकी न श्रादि है और न अन्त ही है। इतना होने पर भी उसकी पर्यायो मे परिवर्तन होता है । जैसे तख्त को लीजिए । ग्रनन्त-अनन्त परमाणुओ के संयोग से यह स्कन्ध बना है । प्रति समय इसमे परिवर्तन होता रहता है । कुछ पुराने परमाणु इस मे से अलग होते हैं और नए परमाणु मिलते रहते हैं । इसी तरह परमाणुओ के सघटन एव विघटन से या संघटन - विघटन उभय रूप कार्य से स्कन्धों मे परिवर्तन प्राता रहता है । हम देखते हैं कि प्रॉक्सीजन और हाईड्रोजन दोनो गैसो मे स्थित परमाणु अपने रूप मे स्थित हैं | परन्तु दोनो गैसो का मिश्रण करते ही, उभय गैस रूप स्कन्ध का नाश हो कर जल रूप अभिनव स्कन्ध का निर्माण हो जाता है । तो यह परमाणुओ के सघटन-विघटन का परिणाम है, न कि किसी ईश्वर का काम है । वहां कोई ईश्वर गैसो को पानी के रूप मे बदलने के लिए नही आता । इस तरह हवा, श्रांघी एव नदी यादि के प्रवाह से पहाडो की चट्टानो के पत्थर टूट-टूट कर पानी के साथ वह जाते हैं, इस से दुर्गम पहाडो मे भी दरें बन जाते हैं और लोगो को आवागमन का मार्ग मिल जाता है । इस तरह स्कन्धो के संघटन - विघटन की प्रक्रिया से हम यह देखते हैं कि एक दिन जहां रेतो के टिब्बे थे, वहा मैदान एव नदी तथा समुद्र नज़र आता है और जहा कभी सागर लहर-लहर कर लहरा रहा था, वहा रेत के पहाड़ खडे हैं । इसी तरह कही पहाडो के स्थान में समतल मैदान बन गए हैं और कही समतल मैदान पर्वतमाला के रूप में बदल गए हैं। भले ही इस प्रक्रिया को लाखो, करोड़ो, अरवों वर्ष ही नही, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ........... २५६ इस से भी अधिक समय क्यों न लगा हो, परन्तु ये समस्त रेगिस्तान, मैदान, पत्थर-पहाड़ आदि के रूप मे परिलक्षित होने वाले पुद्गल स्कन्वो के सघटन-विघटन का ही प्रतिफल है। परमाणुओं के मिलन एवं विछुडन से ही इन सब की पर्यायो मे परिवर्तन आता है । या यो कहिए एक रूप का नाश हो कर दूसरे रूप का निर्माण होता है। और उसका नाग एव निर्माण परमाणुग्रो के मिलने या मिलाने एव अलग करने या अलग कराने पर ही आधारित है। इस परिवर्तन मे किसी ईश्वर की शक्ति का हाथ नहीं है। यह वात वैज्ञानिक प्रयोगशाला मे भी प्रमाणित हो चुकी है। अत हमे प्रत्यक्ष मे परिलक्षित होने वाले सत्य को छोड़कर किसी असत्य कल्पना के चक्कर मे नही पड़ना चाहिए। हम यह देख चुके है कि परमाणु का अस्तित्व सदा विद्यमान रहा है, रहता है और रहेगा। इसी तरह आत्मा का भी कोई निर्माता नही है। वह भी पुद्गल की तरह द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है, परिवर्तनशील है। हम तत्त्व- मीमांसा प्रकरण मे वता पाए हैं कि प्रात्मा का उपयोग-ज्ञान, दर्शन गुण है। यो भी कह सकते हैं कि ज्ञान, दर्शन आत्मा को पर्यायें हैं। और संसारी आत्मा कर्म-बन्धन से मुक्त होने के कारण शरीरधारी है और एक गति से दूसरो गति मे जाता है । और उस का ज्ञान,दर्गत एव शरीर सदा बदलता रहता है और गति की अपेक्षा भी शरीर एव ज्ञानादि पर्यायो मे अन्तर आता रहता है । इस अपेक्षा से आत्मा को कयचित् अनित्य भी कहा है। उसके एक रूप का नाश एवं दूसरे रूप का उत्पाद होता है। जैसे बाल्य रूप का नाश एव युवावय का उत्पाद होता है तथा इसी तरह आयु कर्म के समाप्त होने पर मनुष्य शरीर का नाम एव जिस योनि का आयुष्य वन्ध कर चुका है, उस योनि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ षष्ठम अध्याय को प्राप्त करता है । इस तरह श्रात्मा मे एक रूप का नाश और दूसरे रूप का उत्पाद पाया जाता है। इसी कारण जैन दर्शन आत्मा को "कथंचित् अनित्य स्वीकार करता है। आत्मा कथचित् अनित्य है. इस वाक्य में प्रयुक्त कथचित् शब्द आत्मा की नित्यता को भी व्यक्त कर रहा है । कथचिंत अनित्य होने पर भी आत्मा नित्यता से युक्त है। नर, तियंच प्रादि किसी भी अवस्था को प्राप्त श्रात्मा सदा श्रात्मा ही रहता है; अपने मूल स्वरूप को नही छोड़ता, वह अनात्मा या जड़ नही वन जाता । ऊपर के विवेचन से हम यह प्रकट करना चाहते हैं कि संसार मे जीव और अजीव ये दो द्रव्य अनादि है । सदा से चले आ रहे हैं । इन को किसी ने बनाया नहीं है । स्वयं वैदिक परम्परा ईश्वर, जीव, प्रकृति इनको अनादि स्वीकार करती है । श्रत. यह कहना कि ससार में जितने भी पदार्थ है वे सब किसी के द्वारा बनाए गए है, 'ठीक नही है । इसीलिए जैन दर्शन कहता है कि यह जगत अनादि है, भूतकाल मेथा, वर्तमान मे है, और भविष्य मे रहेगा। इस का कभी बीज-नाश नही होगा । अवस्थान्तरित होता हुआ भी यह सदा से विद्यमान है, और सदा रहेगा । ससार अनादि है, यह किसी की रचना नहीं है। यह मान्यता है, जैन दर्शन की । वस्तुस्थिति भी यहीं है ।" यदि यह मान लिया जाए, कि ससार को बनाया गया है तो प्रश्न उपस्थित होता है-'ईश्वर को किसने बनाया ? जिसने ईश्वर की रचना की है, उस की रचना किस ने की है ? कहा जाता है कि ईश्वर सकता है ? इस पर हम कह सकते ससार श्रनादि है, इसे कौन बना सकता है ! कुछ क्षणों के लिए मान लिया जाए कि ईश्वर ने संसार को बनाया है, तो हम पूछते हैं कि ईश्वर ने ससार को किंस तत्त्व 1 तो अनादि है, उसे कौन बना हैं 7 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर २५८ rrrrrrrrrr. मे बनाया? कुभकार जैसे माटी से घट बनाता है, वैसे ससार रूप घट को बनाने के लिए किस माटी का प्रयोग किया और वह माटी कहा से आई ? इसके अलावा, ईश्वर के बनाएं प्राणियो मे भिन्नता क्यों मिलती है ? सभी एक जैसे होने चाहिए थे। कोई लूला, कोई लगड़ा, कोई अन्धा, कोई काना, कोई राजा,कोई रक, कोई विद्वान और कोई मूर्ख, ऐसा क्यो है ? समभावी ईश्वर की रचना मे यह विविधता और विषमता क्यो है ? कहा जाता है कि इस विविधता और विषमता का कारण ईश्वर नही है, जोवो के अपने शुभाशुभ कर्म हैं । ऐसा कहना तर्क सगत प्रतीत नही होता। क्योकि जग-निर्माण से पूर्व कर्म करने वाला था कौन ? कर्ता के विना तो कर्म की मृष्टि हो ही नही सकती? यदि कहा जाए कि बाद मे कर्मगत विविधता हो गई तो हम कहते है कि.ईश्वर ने ऐसे व्यक्तियो की रचना क्यो की, जो कुकर्म करे । पहले सोच समझ कर उनको बनाना चाहिए था। इस तरह के अन्य भी अनेको प्रश्न है, जिनका कोई समाधान नही मिलता है.। अत यही समझना चाहिए कि ईश्वर ने ससार को नही बनाया है । जो पदार्थ वनाए जाते है उनका निर्माता प्रत्यक्ष रूप से देखा जाता है,सुना जाता है, और समझा जा सकता है, पर ससार का रचयिता न देखा गया है, न सुना गया है और वह किसी हेतु से सिद्ध किया जा सकता है । प्रश्न- कहा जाता है कि ईश्वर की इच्छा विना कुछ नहीं होता। संसार का प्रत्येक कार्य ईश्वर की प्रेरणा से होता है । क्या ऐसा कहना सत्य है ? उत्तर- बिल्कुल नहीं। ससार के किसी कार्य मे ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नही है। ईश्वर ससारके कार्यों में किसी भी प्रकार का कोई दखल नहीं देता। यदि ससार के सभी कार्य ईश्वर की प्रेरणा से होते मान Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ षष्ठम अध्याय लिए जाएं तो प्रश्न उपस्थित होता है कि कसाई जीवो को घात करते हैं, चोर चोरी करते हैं, डाकू डोके डालते है, गाठ-कतरे गाठे काटते हैं, व्यभिचारी पतिव्रता और सन्नारियो का' शील-भग करते है, इस प्रकार के सभी दुष्ट कार्य क्या ईश्वर की प्रेरणा से होते है ? क्या ईश्वर इन कार्यों की प्रेरणा करता है ? यदि नही तो यही मानना होगा कि ससार के किसी कार्य में ईश्वर का कोई दखल नहीं है। ईश्वर किसी को कोई प्रेरणा नहीं देता। जीव स्वंय ही अच्छे या बुरे कार्यो मे प्रवृत्त होते हैं, ईश्वर का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। ' ' प्रश्न- क्या ईश्वर को भाग्य का विधाता मानना चाहिए ? उत्तर- कभी नही । यदि ईश्वर को भाग्य का रचयिता मान लिया जाए तो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी उस ईश्वर को भाग्य रचना मे कोई दोष नही होना चाहिए। और यदि दोष रह जाए तो तत्क्षण उस का उसे सुधार कर देना चाहिए । पर ऐसा होता नहीं है। साधारण कारीगर किसो यन्त्र का निर्माण करता है, और उसमे यदि वह कोई दोष देखता है तो वह उसका पुन सगोवन करके उसके दोप को निकालने का प्रयत्न करता है। स्विटज़रलैण्ड के एक घडी निर्माता के पास एक ग्राहक आया और उसने कहा कि आपके यहा से खरीदी हुई यह घडा सप्ताह मे एक मिण्ट पीछे चलती है। घडी-निर्माता ने घडी को लिया और तुरन्त एक होंडा मार कर तोड़ दिया, ग्राहक को दूसरी नई घडी देकर रवाना किया और वह स्वय उस घड़ी के दोष को दूर करने के लिए-नई घडी बनाने मे मलग्न हो गया। यह आज के वैज्ञानिक की कार्य पद्धति है- जो सर्वज्ञ नही है और जिसकी शक्ति भी सीमित है । जब ईश्वर सर्वज्ञ-एव सर्वशक्ति-सपन्न है.तो उसके प्रावि कार मे पहले तो दोप रहना नहीं चाहिए। यदि रह गया तो उसे अब तक कभी सुधार लेना चाहिए था। इतनी भूल तो वर्षा के समय Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २६० गीली मिट्टी से घरो के बनाने वाले अबोध बालक भी नहीं करते । यदि उनका रेत का घरौदा टेढा मेढा या विकृत प्रतीत होता है, तो वे तुरत उसे विखेर कर नव-निर्माण में लग जाते हैं। परन्तु, जगत का भाग्य अभी तक उसी प्रकार चल रहा है। उसमे कोई सगोधन नही हो पाया; इससे स्पष्ट है कि जगत एव व्यक्तियो के. भाग्य को ईश्वर द्वारा निर्मित मानना, उसको अज्ञानी एवं- सदोष व्यक्त करना है। -... दूसरे, यदि भाग्य का विधाता ईश्वर है, तो फिर किसी भी व्यक्ति का कोई दोष एव अपराध नही माना जाएगा। क्योकि वे जो कुछ बुरा-भला करते हैं, वह भाग्य के अनुसार करते है,और उस भाग्य का विधाता ईश्वर है। अत जैसा ईश्वर उनसे कराता है, वैसा ही वे कर देते हैं। इसलिए कोई व्यक्ति चोरी करता है, कोई ब्लैकमार्केट करता है, कोई व्यभिचार करता है, कोई छल कपट करके अपना स्वार्थ साधता है, इस तरह अनेक पाप एव दोषयुक्त कार्य कराने वाला ईश्वर है । इससे जोवन मे एक तरह से अव्यवस्था एव उच्छृ खलता आ जाएगी। दुराचारो व्यक्ति निश्शक भाव से दुष्कार्यो मे प्रवृत होगे और उस उद्देण्डता के लिए ईश्वर के नाम की भी दुहाई देंगे। इस तथ्य को एक उदाहरण से समझिए . कल्पना करो, एक पापी है, उससे किसी ने पूछा-भाई ! तू यह पाप कर रहा है, तुझ परम पिता परमात्मा का कोई डर नही है ? नहीं जानता कि परमात्मा के दरबार मे तेरी जब जाच पड़ताल होगी और जाच पड़ताल मे जब तेरा पाप सामने आयगा तो परमात्मा तुझ पर रुष्ट होगा, और तुझे दण्डित करेगा। पता नही, तुझे वह नरक मे भेज दे, या कुत्तो की योनि मे डाल दे । अत'कुछ विचार कर और इस पाप कर्म का परित्याग कर।' यह सुनते ही पापी ने उत्तर दिया। वह बोला- भाई !तू पागल Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ षष्ठम अध्याय है, तुझे कुछ पता नही है । मैं सब कुछ जानता हू, इसीलिए निश्चिन्त, हो कर पाप कर रहा हूं। मुझे पता है कि मैं जो पाप कर रहा हू, यह मेरी बुद्धि का परिणाम है। बुद्धि की प्राप्ति भाग्य से होती है। भाग्य अच्छा हो तो वुद्धि अच्छी मिल जाती है, और भाग्य खराब हो तो बुद्धि भी खराब मिल जाती है । भाग्य का निर्माता परम पिता परमात्मा स्वय है । परम पिता परमात्मा सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी हैं, घट-घट का ज्ञाता है। उसे पता है कि मैं इसके भाग्य का जो निर्माण कर रहा हू, इससे इसे दुष्ट बुद्धि की प्राप्ति होगी । बुद्धि को दुष्टता से यह पाप करेमा, लोगो को दुख देगा। यह सब कुछ जानते हुए भी परम-पिता परमात्मा ने मेरा ऐसा भाग्य बनाया । अत भाई साहिब ! पाप करने मे मुझे कोई दोष नही लगता। मैं जो कुछ कर रहा हू, उसका उत्तरदायित्व मुझ पर नहीं है। उसकी सव जवाबदारी' परमात्मा पर है। तूने सुना नही- करे करावे आपोआप, मानुष के कुछ नाही हाथ !* कितनी स्पष्टता के साथ-कहा- गया है कि जो कुछ कराता है, वह स्वय परम पिता परमात्मा कराता है। मनुष्य के वश की कोई बात नहीं है। अत. भाई ! -तू चिन्ता क्यो करता है ? परमात्मा के दरवार मे जव. मुझ से पूछा जाएगा तो मैं झट जवाब दे दूगा। मेरे पास घडा-घड़ाया जवाव तैयार पडा है । क्या कहूगा? तू भी सुनले - खुदा जब मुझ से पूछेगा कि यह तकसीर किसकी है ? • तो कह दू गा कि इस तकदीर में तहरीर किसकी है ? समझ गया है न ? परमात्मा जब मुझ से पूछेगा कि यह तकसीर (भूल या पाप) किसने की है ? तो उत्तर मे मै कह-दू गा- प्रभो ! , * पता भी हिलता है तो उसकी रज़ा से । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर { मुझ से क्या पूछते हो ? आप तो अन्तर्यामी है। ग्राप से क्या छिपा है ? यह सब आप की ही कृपा है, ग्राप ही तो इस तकदीर (भाग्य) को बनाने वाले हो ? फिर उसका उत्तरदायित्व किमी दूसरे पर थोडा या सकता है ? इसके तो श्राप ही जवाबदार है | सुसार मे जो भी पाप होते हैं, वे सब आपके प्रदेश से ही होते हैं, क्योंकि आप ने ही तो उस तकदीर को बनाया है । जब तकदीर बनाने वाले ग्राप है तो दोष किसका ? जो कुछ भी है, वह सव प्रापका ही है । > 7 भाव यह है कि यदि ईश्वर को भाग्य का विधाता मान लिया जायगा तो संसार मे फैल रहे पाप का मूल परमात्मा को मानना पड़ेगा | विश्व की अराजकता और विषमता की सब जबाबदारी परमात्मा पर ग्रा' जायगी। परमात्मा इस जवाबदारी से बच नही सकता । ऋत. यही मानना उचित और तर्क-संगत है कि परमात्मा भाग्य का विधाता नही है । www/www ૨૬૨ w/WW दूसरी वात, भाग्य को विधाता ईश्वर समभावी है, उसके यहा राग-द्वेष नही रहता है । फिर उसने भाग्य का निर्माण करते समय किसी का भाग्य अच्छा और किसी का भाग्य बुरा क्यों बनाया है ? सब प्राणियों का भाग्य उसे एक जैसा ही बनाना चाहिए था। पर देखा ऐसा नही जाता । देखा गया है कि ससार मे एक तो ऐसा भाग्यशाली है कि लक्ष्मी उसके चरण चूमती है, गगनचुंबी अट्टालिकाओ मे रंमणियो के साथ वह आनन्द लूटता है और एक ऐसा भाग्यहीन है कि भूखो मरता है, दिन-रात परिश्रम करने पर भी, दिन-रात एक कर देने पर भी खाली पेट ही रहता है । अपन परिवार का तो क्या, प्राराम के साथ अपना पेट भी नहीं भर पाता है । बेचारा भूखा सोता है, भूख की आग से झुलसा हुआ तडप-तड़प कर जीवन खो बैठता है । वीतरागी और समभावी ईश्वर के दरबार में यह ऋधेर क्यो ? यदि कहा जाए कि यह Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. षष्ठम अध्याय .. " सब मनुष्य के दुष्ट कर्मों का परिणाम है, तो फिर हम कहते हैं कि ईश्वर ने उसका ऐसा भाग्य ही क्यो बनाया, जिससे वह दुष्ट कर्म करे ? ईश्वर को भाग्य का विधाता मान लेने पर उक्त प्रकार की नेकानेक आपत्तिया ईश्वर पर ग्राती हैं, जो उसके नही रहने देती । ग्रतः यही मानना उचित और भाग्य-विधाता नही है । भाग्य का निर्माण अच्छा भाग्य बनाए या बुरा, यह सव मनुष्य के हाथ की बात है । परमपिता परमात्मा उस मे कोई दखल नही देता । वस्तुस्थिति भी यही है । इसीलिए जैनदर्शन ईश्वर को भाग्य का विधाता नही ईश्वरत्व को सुरक्षित तर्कसगत है कि ईश्वर मनुष्य करता है । स्वय मानता । प्रश्न -- ईश्वर को कर्मफल का प्रदाता मानने में क्या आपत्ति Type ? { उत्तर- "ईश्वर को कर्मफल का प्रदाता मान लेने पर ईश्वर पर एक नही, अनेको श्रापत्तियां आती है । श्रत. ईश्वर को कर्मफलदाता नही मानना चाहिए। जैनदर्शन का विश्वास है कि मनुष्य जो कर्म करता है, उन कर्मो का फल देने वाली तथा जीव को एक योनि से दूसरी योनि मे ले イ जाने वाली ईश्वर नाम की कोई शक्ति नही है । ससार के पदार्थों मे जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, वे सब के सब प्राकृतिक नियमो के अनुसार स्वयं ही होते रहते हैं । उदाहरण के लिए जल को ले ली - जिए धूप की उष्णता पाकर जल भाप बन कर श्राकाश में उड़ जाता है, प्राकारा के शीत भाग में पहुंच कर भाप छोटे-छोटे जलविदुद्मा के रूप मे परिवर्तित हो कर मेघ के रूप मे दिखलाई देती है । फिर मेघो के भारी हो जाने पर वर्षा का होना, विजली का चमकना गड़गड़ाहट Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २६४ का घोर शब्द होना आदि जितनी भी बाते हैं, उनका सचालक कोई नही है । ये सब घटनाए व परिवर्तन प्राकृतिक नियमो के अनुसार स्वतः ही होते रहते है। इसी प्रकार मनुष्य को उसके पूर्वकृत कर्म का फल देने वाला, एक योनि से दूसरी योनि में ले जाने वाला, माता के गर्भ में भ्रूण अवस्था से ले कर यौवन और वृद्धावस्था पर्यंत शरीर की वृद्धि व ह्रास करने वाला तथा जीवन की अन्य जितनी भी दशाएं हैं, उन को निश्चित करने वाली ईश्वर नाम की कोई शक्ति नही है । ये सब कार्य कर्मजन्य प्राकृतिक नियमो के अनुसार अपने श्राप ही होते रहते हैं । ईश्वर को यदि कर्मफल- प्रदाता मान लिया जाए तो ईश्वर जीवों को फल किस प्रकार देता है ? यह विचारणीय है । वह स्वयं साक्षात् तो दें नही सकता। क्योंकि वैदिक दर्शन की मान्यतानुसार वह निराकार है । और यदि वह साकारावस्था मे प्रत्यक्ष रूप से कर्मों का फल दे तो इस बात को मानने से कौन इन्कार कर सकता है ? परन्तु ऐसा देखा नही जाता। यदि वह राजा आदि के द्वारा जीवो को उनके कर्मों का दण्ड दिलवाता है, तो ईश्वर पर अनेको आपत्तिया श्राती हैं। जानकारी के लिए केवल कुछ एक का निम्नोक्त पक्तियो मे वर्णन किया जायगा । · 4 १- ईश्वर को यदि किसी घनी के धन को चुरा या लुटा कर उस वनी के पूर्वकृत कर्म का फल देना अभीष्ट है तो ईश्वर इस कार्य को स्वयं तो आकर-करता नही, किन्तु किसी चोर या डाकू द्वारा ही ऐसा कराएगा । तो ऐसी दशा मे वह जिस चोर या डाकू द्वारा ऐसा कर्म T t T " M "" करवाएगा, वह चोर या डाकू ईश्वर की श्राज्ञा का पालक होने से निर्दोष होगा । तथापि दोषी ठहरा कर पुलिस जो उसे पकड़ती है और दड देती है, वह ईश्वर के न्याय से वाहिर की बात होगी। यदि उसे भी ईश्वर के व्याय में मान कर घोर को चोरी करने का दण्ड पुलिस द्वारा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ षष्ठम अध्याय दिलवाना आवश्यक समझा जाए तो वह ईश्वर का अच्छा अन्धेर न्याय है कि एक ओर तो वह स्वयं धत्नी को दण्ड देने के लिए चोर को उसके घर भेजता है, और दूसरी ओर पुलिस द्वारा उस चोर को पकडवाता है । क्या यह "चोर से चोरी करने की बात कहे और शाह से जागने की " इस कहावत के अनुसार ईश्वर मे दोगलापन नही श्रा जायगा ? سر 1 ईश्वर ने प्राणदण्ड देने के लिए ही कसाई, चण्डाल तथा सिंह आदि हिंसक जीव पैदा किए हैं, तदनुसार वे प्रतिदिन हजारो जीवो को मार कर उनके कर्मो का फल उन्हे देते हैं । ईश्वर को कर्मफलप्रदाता मानने पर ये सभी जीव निर्दोष समझने चाहिए । क्योकि वे भी तो ईश्वर की प्रेरणा के अनुसार ही कार्य कर रहे हैं । यदि ईश्वर इन जीवो को निर्दोष माने तब उसके अन्य सभी जीव जो कि दूसरो को किसी न किसी प्रकार की हानि पहुचाते है, निर्दोष हो समझने चाहिए। यदि उन्हे भी दोषी माना जायगा तो उनके साथ महान् अन्याय होगा | क्योकि राजा की आज्ञा के अनुसार अपराधियो को उन के अपराध का दण्ड देने वाले जेलर, फांसी लगाने वाले व्यक्ति आदि सभी जीव जब न्याय को दृष्टि मे निर्दोष माने जाते हैं तब उनके समान ईश्वर की प्रेरणानुसार अपराधियो को अपराध का दण्ड देने वाले प्राणी दोषी नही होने चाहिए ? 3 5 २ - ईश्वर सर्वशक्तिसम्पन्न है, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, अतः उस के द्वारा दी हुई सजा अनिवार्य और अमिट होनी चाहिए। पर ऐसा होता नही है । ईश्वर ने किसी व्यक्ति को उसके अशुभ कर्म का फल देकर उसके नेत्रो की नजर कमजोर करदी, वह अब न तो कोई दूर की वस्तु साफ देख सकता है और न छोटे-छोटे अक्षरो वाली पुस्तक पढ सकता है । ईश्वर का दिया हुआ यह दण्ड श्रमिट होना चाहिए था । परन्तु "" Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ......... .........२६६ उस व्यक्ति ने डाक्टर से ऐनक ले ली और पाखो पर से लगा कर ईश्वर की दी हुई सजा को निष्फल बना दिया। वह ऐनक लगा कर दूर की चीज़ साफ देख लेता है और बारीक से बारीक अक्षर भी पढ लेता है। इसी भाति ईश्वर की भेजी हुई प्लेग, हैजा आदि बीमारियो को डाक्टर लोग, मेवा-ममितिया अपने अनथक परिश्रम से वहुत कम कर देते है। इसके अतिरिक्त, कर्मों का फल भुगताने के लिए भूकम्प भेजते समय ईश्वर को यह भी ख्याल नही रहने पाता कि जहां मेरी आराधना और उपासना होती है, ऐसे स्थानक, मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा आदि धर्म-स्थानो को नष्ट करके अपने उपासको की सम्पत्ति को नष्ट न होने दूं। ३-संसार जानता है कि चोर, डाकू आदि आततायी लोगो की सहायता करना एक भयकर दोष माना गया है। ऐसा करना लोकविरुद्ध होने के साथ-साथ धर्म-विरुद्ध भी है । जो लोग चोर आदि दुष्ट लोगो की स्वार्थवश सहायता करते है, तो वे शासन-व्यवस्था के अनुसार दण्डित किए जाते हैं। ऐसी दशा मे जो ईश्वर को कर्मफल-प्रदाता मानते हैं,और यह समझते हैं कि किसी को जो दुख मिलता है वह उसके अपने कर्मों का फल है और वह फल भी ईश्वर का दिया हुआ है। फिर भी वे यदि किसी अन्धे की, लूले-लगडे की, अनाथ _और असहाय की सहायता करते हैं तो यह ईश्वर के साथ विद्रोह नही तो और क्या है ? क्या वे ईश्वर के चोर की सहायता नहीं कर रहे ? क्या ईश्वर ऐसे द्रोही व्यक्तियो पर प्रसन्न रह सकेगा, तथा दुःखो और असहाय व्यक्ति की सहायता करना, ईश्वर के साथ द्रोह करना है, ऐसा मान लेने पर दया, दान आदि सात्त्विक और परोपकारपूर्ण अनुष्ठानो का कुछ महत्त्व रह सकेगा? उत्तर स्पष्ट है- कभी भी नही। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम अध्याय rrorrrrrrrrrrrrrre • ४-ईश्वर जीवो के कृत कर्मों के अनुसार उनके शरीर आदि का निर्माण करता है । जीवो के कर्मों के अनुसार ही वह जीवो को फल प्रदान करता है। अपनी इच्छा के अनुसार वह कुछ नहीं कर सकता है। ऐसी दशा मे यह मानना पड़ेगा कि ईश्वर परतन्त्र है। परतन्त्रता की वेडियो मे जकड़ा व्यक्ति कभी ईश्वर कहा नहीं जा सकता। जो सर्वथा स्वतन्त्र है. समर्थ है, उसी व्यक्ति के लिए ईश्वर की सज्ञा दी जा सकती है । परतन्त्र जीवन को ईश्वर का पद प्राप्त नहीं हो सकता । जुलाहा यद्यपि कपड़े बनाता है, परन्तु वह परतन्त्र है, स्वार्थ परिवार, समाज आदि के बधनी मे वह वधा हुआ है. इसलिए उसे ईश्वर नहीं कहा जाता है। कर्म-अधीन होने से ईश्वर की भी यही स्थिति है । यदि ईश्वर अपनी इच्छा से कर्मफल मे हेराफेरी करने लग जाए तो उसकी प्रामाणिकता समाप्त हो जाती है,। ५-क्सिी प्रांत मे किसी सुयोग्य न्यायशील शासक का शासन हो तो उसके प्रभाव से चोरो, डाकुओ तथा आततायी लोगो का चोरी प्रादि दुष्कर्म करने मे साहस नही पडता । और वे उद्दण्डता को छोड कर प्राय सत्पथ अपना लेते है । जिससे प्रात मे शाति की स्थापना हो जाती है। और वहा के लोग निर्भयता के साथ सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं परन्तु यह समझ मे नही आता कि जब ससार का शासक ईश्वर है, और वह ऐसा शासक है, जो सर्वथा दयालु है, गायशील है, सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, तथापि ससार मे बुराई कम नहीं हो पाती । मासाहारियो, व्यभिचारियो और चोरो आदि हिंसक लोगो का आधिक्य ही दृष्टिगोचर होता है । सर्वत्र छल, कपट और ईर्षा-द्वेष को आग जल रही है। ऐसी दशा मे कैसे कहा व माना जाए कि ईश्वर ससार का शासक है ? . - ६-जब कोई मनुष्य चोरी करता है तो उस पर राज्य की ओर Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर WA २६८ से व्यवस्थित ढंग से अभियोग चलाया जाता है । यह प्रमाणित होने पर कि इस व्यक्ति ने चोरी की है, या श्रमुक अपराध किया है तो न्यायाधीश (जज) उसको जेल या जुरमाना यादि का उपयुक्त दण्ड देता है । वह अपराधी व्यक्ति तथा लोग यह जान जाते हैं कि चोरी यदि दुष्कर्मो का फल जेल प्रादि के रूप में दण्ड मिलता है । इस दण्ड का ज्ञान होने पर वह व्यक्ति एवं साधारण जनता यह जान जाती है कि चोरी आदि दुष्कर्म नही करने चाहिए । यदि किए गए तो जेल आदि के रूप मे उसका दण्ड भुगतना पडेगा । फलस्वरूप भविष्य मे किसी व्यक्ति का चोरी आदि लोकविरुद्ध तथा राज्यविरुद्ध कार्य करने मे सहसा साहस नही होने पाता । 'जनता का भावी सुधार हो, यह उद्देश्य दण्ड देने मे रहा हुआ है । परन्तु यदि किसी देश का शासक किसी अपराधी को पकड़ या पकड़वा कर जेल मे डाल दे और उसपर कोई अभियोग (मुकद्दमा ) न चलावे और न यही प्रकट करे कि इस व्यक्ति ने क्या अपराध किया है । तो ऐसी दशा मे जनता उस व्यक्ति को निर्दोष और शासक को अन्यायी समझने लगेगी। अपराध तथा उसके फलस्वरूप दण्ड का बोध न होने से जनता कभी भी उस व्यवस्था से शिक्षित नही हो सकेगी । इस का कुफल यह होगा कि न कोई अपराध करने से डरेगा और न उस व्यक्ति का सुधार होगा । नाथूराम गोडसे ने सैकडो व्यक्तियो के सामने महात्मा गाधी के सीने मे तीन गोलिया मारी थी । अतः नाथूराम को हत्यारा प्रमाणित करने के लिए किसी गवाह की आवश्यकता नही थी, और व्यावहारिक रूप से भारत सरकार को गोडसे को फासी के तख्ते पर लटका देना चाहिए था । परन्तु भारत सरकार ने ऐसा नही किया, प्रत्युत व्यवस्थित रूप से अदालत मे गोडसे को हत्यारा प्रमाणित करने के अनन्तर ही उसे फासी दी गई। राज्य व्यवस्था इसी ढंग से जीवित रह सकता JAA Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvm २६९.. षष्ठम अध्याय थी। अपराधी के अपराध को प्रमाणित किए बिना उसे दण्डित करना किसी भी दृष्टि से उचित और न्याय संगत नही कहा जा सकता। ईश्वर ससार का गासक है। इसी प्रकार उसे भी व्यवस्थित ढग से ही काम लेना चाहिए। किन्तु ऐसा होता नहीं है । जब कोई व्यक्ति मनुष्य योनि मे जन्म लेता है, और जन्म से ही वह अन्धा और पगु शरीर वाला होता है। तो उस व्यक्ति को, उसके परिवार को तथा उसके देशवासियो को यह ज्ञात नही होता कि यह अन्धत्व और पगुत्व किस कर्म का फल है ? किसी को भी यह मालूम नहीं होने पाता कि यह सदोष शरीर किस कर्म के कारण इस व्यक्ति को प्राप्त हुआ है ? सब के सर्वथा अज्ञात रहने के कारण उक्त दुष्ट शरीर को प्राप्ति के मूलभूत दुष्कर्म का किसी को ज्ञान नहीं होने पाता। इस से दण्ड देने का यह उद्देश्य कि अपराधी भविष्य मे अपराध न करे, और लोगो को इस से शिक्षा प्राप्त हो, सफल नहीं होने पाता। ईश्वर का कर्तव्य बनता है कि वह किसी भी व्यक्ति को दण्ड देने से पूर्व उसके अपराध को प्रमाणित करे, यह स्पष्ट करे कि इस व्यक्ति ने अमुक दुष्कर्म किया था, इस लिए उसको अमुक दण्ड दिया जाता है। ऐसा करने से ईश्वर की दण्डमर्यादा सफल हो सकती है । और ऐसा करने से ही जनमानस उस दुष्कर्म से भयभीत होगा, और भविष्य मे उस से सुरिक्षत रह सकेगा। इसके अतिरिक्त, ऐसा करने से ही दण्डित व्यक्ति के मानस का सुधार होगा और वह भी भविष्य मे पाप करने मे सकोच करेगा । परन्तु ईश्वर ऐसा कुछ नहीं करता। ७-जो ईश्वर कर्म का फल देने का सामर्थ्य रखता है, उसमे अपराधी को दुष्कर्म करने से रोकने का बल भी रहता है । लौकिक व्यवहार भी ऐसा ही है। जो शासक डाकुओ के दल को उस के अपराध के दण्ड-स्वरूप जेल मे बन्द कर सकता है, अथवा प्राण दण्ड दे Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २७० सकता है, तो उस शासक मे यह भी शक्ति होती है कि यदि उस को पता चल जाए कि डाकुनों का दल अमुक गाव मे या श्रमुक नगर में अमुक समय डाका डालेगा और लोगो के जीवन-घन को लूटेगा तो उस शासक का कर्तव्य बनता है कि वह डाका डालने के समय से पूर्व ही डाकुओ को डाका डालने से रोके या उन्हें गिरफ्तार करे। यदि शासक जान बूझ कर प्रजा के धन, माल का सरक्षण नही करता है तो वह अपने कर्तव्य की हत्या करता है । कर्मफलप्रदाता ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, सर्वशक्तिसम्पन्न है, और साथ मे परम दयालु भी है । वह जानता है कि अमुक व्यक्ति यह अपराध करेगा और इस समय करेगा। ऐसी दशा मे उस का कतव्य है कि वह अपराधी की भावना को परिवर्तित करदे, अपराध करने का उसने जो निश्चय किया है उसे बदल दे । या उसके मार्ग मे ऐसी बाधाए उपस्थित कर दे कि जिस से वह अपराध कर ही "न सके । इसके विपरीत यदि ईश्वर अपराधी के भावो को जानता है, और अपराध रोकने का सामर्थ्य भी रखता है, परन्तु उसे रोकता नही है, अपराधी को अपराध करने देता है तो मानना पड़ेगा कि वह भा अपने कर्तव्य से भ्रष्ट होता है । ऐसे ईश्वर का कर्तव्यपालक, न्यायगील या दयालु नही कहा जा सकता है । Ty यदि कहा जाए कि ईश्वर ने जीवो को कर्म करने मे स्वतन्त्रता दे रखी है। जीव यथेच्छ कर्म कर सकते हैं, ईश्वर उसमे बाधक नही बनता, तो इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर जो कर्म फल देता है, उसका उद्देश्य प्राणियो का सुधार नही है, प्रत्युत अपना मनोविनोद या शासन की महत्त्वाकाक्षा पूर्ण करने के लिए वह ऐसा करता है । यदि जन-मन का सुधार करना ईश्वर का उद्देश्य हो, फिर तो वह जीवो को दुष्कर्म करने से पूर्व ही रोक दे । परन्तु वह ऐसा क्यो करे क्योकि ・ A MAN IN A TAAAAAA Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrrr २७१ षष्ठम अध्याय यदि जीव दुष्कर्म करना छोड़ दे तो ईश्वर अपना मनोविनोद और शासन करने की महत्त्वाकाक्षा को पूर्ण कैसे करे लोगो के हित की चिन्ता न करने वाला, प्रत्युत अपने ही विनोद और शासन का ध्यान रखने वाला व्यक्ति क्या ईश्वर कहलाने योग्य है ? उत्तर स्पष्ट है, कभी नही। ८-ससार, मे अनन्त जीव हैं और प्रत्येक जीव मन, वचन और काया मे कुछ न कुछ करता ही रहता है। एक जीव की क्षण-क्षण की क्रियाओं का इतिहास लिखना और उन का जीव को फल देना, यदि असभव नही तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। जब एक जोव के क्षण-क्षण का ब्योरा रखना; एव उसका.फल देना इतना दुष्कर है तो ससार के अनन्त जीवो के क्षण-क्षण की क्रियाओ का ब्योरा रखना एव उन का फल देना ईश्वर के लिए कितना दुष्कर कार्य है। यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त, संसार के अनन्त जीवो के क्षण-क्षण मे किए गए कर्मो के फल देने में लगे रहने से वह ईश्वर केसे शान्त तथा अपने आनन्दस्वरूप मे कैसे मग्न रह सकता है ? तथा यह सब झझट ईश्वर करता किस लिए है ? ईश्वर को क्या आवश्यकता पड़ी है कि वह ससार के अनन्त जीवो के कर्मों का हिसाब रखे और फिर उन्हे दण्ड दे? " ९-देखा जाता है कि किसी कर्म को फल, कर्ता को तुरन्त मिल जाता है और किसी का कुछ समय के बाद मिलता है, किसी का कुछ वर्षों के बाद और किसी कर्म का फल , जन्मान्तर मे मिलता है। इस का कारण क्या है ? कर्मफल के योग मे यह विषमता क्यो देखी जाती है ? क्या ईश्वर के यहा भी रिशवतें चलती है जो किसी को आगे और किसी को पीछे कर्मों का फल भुगताता है ? . . .। ईश्वर को यदि कर्मफल का प्रदाता स्वीकार कर लिया जाए तो Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ प्रश्ना के उत्तर ~ ~ . .. ~~-~उक्त प्रकार की अन्य भी अनेकों प्रागकाएं उपस्थित होती हैं, किन्तु उनका कोई सतोषजनक समाधान नहीं मिलता है। अत. यही मानना सगत पीर उपयुक्त है कि कर्मफल के भुगताने में ईश्वर का कोई हाथ नही है । प्रत्युत कर्म-परमाणु स्वय हो प्राकृतिक नियमो के अनुमार कर्ता को फलानुभव करवा डालते हैं। जनदर्शन की इस मान्यता का.कि कर्मफल के भुगताने मे ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नही है, जैनेतर धर्म शास्त्र श्रीमद् भगवद्गीता मे भी पूरा-पूरा समर्थन मिलता है । वहा लिखा है न कर्तत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। । न कर्मफल-सयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। - गीता अ०५-१४ अर्थात् ईश्वर न तो ससार की रचना करता है, न जीवां के कर्म वनाता है और न कर्मों का फल ही देता है। किन्तु प्रकृति ही सब कुछ . करती है । तात्पर्य यह है कि जगत के निर्माण में, भाग्यविधान में तथा कर्मफलप्रदान मे ईश्वर का कोई हाथ नही है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसका वैसा फल पा लेता है। नादत्ते कस्यचित् पापं, न चैव सुकृतं विभुः। - अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति, जन्तवः ॥ गीता अध्याय ५-१५ अर्थात् किसी का न तो पाप लेता है और न किसी का पुण्य ही लेता है। अज्ञान से आवृत होने के कारण यह जीव स्वय मोह में फस जाते हैं। प्रश्न- ईश्वर यदि कर्मों का फल नहीं देता है तो फिर कर्मफल Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ षष्ठम अध्याय कौन देता है ? जीव को एक योनि से दूसरी योनि में कौन ले जाता है ? उत्तर- प्राकृतिक नियमो के अनुसार जीवों को जो शक्ति कर्मफल प्रदान करती है, उसे कार्मणशरीर कहते हैं । जैन दर्शन का विश्वास है कि दीपक जैसे बत्ती के द्वारा तेल को ग्रहण करके अपनी उष्णता से ज्वालारूप में परिणत कर देता है, बदल देता है, वैसे ही प्रात्मा काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि विकारो से कर्म योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके उन्हे कर्म रूप में परिणत कर लेता है । उन्ही कर्म पुद्गलो के समूह का नाम कार्मणशरीर है। यह कार्मणशरीर या कार्मण शक्ति सारे शरीर मे व्यापक रहती है। गरीर मे जहा-जहा आत्मा है वहां-वहा यह शक्ति निवास करती है । यह शरीर के किसी एक भाग मे केन्द्रित नही रहती, प्रत्युत आत्मा की भाति सारे शरीर मे व्याप्त है और आत्मप्रदेशो के साथ क्षीर-नीर की तरह मिली रहती है। कार्मण शरीर को सूक्ष्म शरीर भी कहते हैं । यही सूक्ष्म शरीर प्रात्मा को एक योनि से दूसरी योनि मे ले जाने वाला है । माता के गर्भ मे कलल से भ्रूण, भ्रूण से शिशु, युवक व वृद्ध बनाने वाला भी यही है । शरीर-सम्बधी सभी बातो को निर्धारित करने वाला, तथा आत्मा की शक्ति को प्रावृत करके उसके शुद्ध आनन्दस्वरूप को विकृत वनाने वाला भी यही है । इसी के प्रताप से आत्मा काम, क्रोध आदि विभावो मे परिणत होता है। सूक्ष्म शरीर के सूक्ष्म पुद्गल परमाणुप्रो मे व्यक्ति को पूर्वकृत कर्मो का फल देने वाली शक्ति इस प्रकार अवस्थित होती है, जिस प्रकार विद्य त् यन्त्र बैटरी (Battery) मे विद्यु तशक्ति । जैसे चुंबक की आकर्षण शक्ति द्वारा खिच कर लोहा उसकी ओर चला जाता है, Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~~............... प्रश्नों के उत्तर www............. ." वैसे ही जीव इस कार्मण शक्ति द्वारा वर्तमान गरीर को छोड़ कर दूसरी योनि की ओर आकर्षित होता हुआ वहा जा उत्पन्न होता है। इस तथ्य को एक उदाहरण से समझिए । कल्पना करो । चुम्बक पत्थर के सामने एक लोहा पड़ा है, और उस पर एक मक्खी वैठी है । जिस समय चुम्बक के आकर्षण से लोहा उसकी ओर आकर्षित होगा, तो लाहे के साथ-साथ उस के ऊपर बैठी मक्खी भी आकर्षित हो जायगी। चुम्बक से आकर्षित हुमा लोहा जिधर को जायगा तो उवर को मक्खी भी खिसकती जायगो । तो जैसे मक्खी को आकर्षित करने वाला तत्त्व परम्परा से वह चुवक पत्थर ही ठहरता है,वैसे ही कार्मणगरीर से युक्त पात्मा को जिस स्थान पर उसे उत्पन्न होना है, उस स्थान मे स्थित परमाणु ही उसे आकर्षित कर लेते हैं । उत्पत्ति स्थान के परमाणुओ का आत्मस्थ कर्म परमाणुओ के माथ ऐसा विचित्र और अवाच्च आकर्षण होता है कि जिसके प्रभाव से प्रात्मा स्वत ही अपने उत्पत्तिस्थान में पहुँच जाता है। कर्मवाद की दृष्टि में प्रात्मा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुचाने वाली शक्ति केवल परमाणुओ और उत्पत्ति स्थान मे अवस्थित परमाणुओ का पारस्परिक आकर्षण ही है। कर्मवाद की मान्यता के अनुसार प्रा मा के परलोक गमन मे कर्म परमाणु हो कारण है,ईश्वर या किसी अन्य दैविक शक्ति विशेष का उससे कोई संबंध नहीं है। परमाणुगो मे एक विलक्षण आकर्षण रहता है ? उसो आकर्षण के कारण परमाणुग्रो द्वारा अनेको ऐसे कार्य सम्पन्न होते हैं, जिन्हे सुन कर एक साधारण व्यक्ति तो विस्मित हो उठता है। परमाणुगो मे कितना विलक्षण प्राकर्पण है ? और यह आकर्पण किस तरह अद्भुत और असभावित कार्य करता है ? इस सवव मे प्रस्तुत पुस्तक के तृतीय अध्याय में प्रकाश डाला गया है । पाठक उसे देखने का कष्ट करे । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२७५ wmommr. षष्ठम अध्याय रही कर्मो के फल देने की बात, उसके सबंध, मे जैन दर्शन का कहना है कि कर्म परमाणु अपना फल स्वय देते हैं, उस के लिए किसी न्यायाधीश को आवश्यकता नही है । जैसे शराब पीने पर व्यक्ति को नशा हो जाता है और दूध पीने पर व्यक्ति का मस्तिष्क पुष्ट होता है। शराब या दूध पीने के अनन्तर उनका फल देने के लिए किसी दूसरे शक्तिमान नियामक की जैसे आवश्यकता नही होती, वैसे ही जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के साथ जो कर्माणु जीवात्मा की ओर आकृष्ट होते हैं, और राग-द्वेष का निमित्त पाकर उस जीव से $ क्षीर-नीर या लोह-अग्नि की भाति मिल जाते है, आत्मप्रदेशो का कर्म-परमाणुओ के साथ जो क्षीर नीर जैसा सबंध बतलाया गया है, वह केवल कर्माणुओ का प्रात्मप्रदेशो के साथ अत्यधिक निकट का सवध प्रकट करने के लिए ही बताया गया है । वस्तुत. आत्मप्रदेश दूध के परमाणुयो की भाति व्यववान वाले नहीं हैं।जैन दर्शन का विश्वास है कि प्रात्मा के असंख्य प्रदेश होते है, और उनका कभी पारस्परिक वियोग नहीं होता है । वे सदा एक दूसरे से सम्बद्ध रहते है।अतः उनमे कर्माणु क्षीर नीर या लोह-अग्नि की भाति नही मिल सकते । क्योकि दूध के अणुओ में सयोग-वियोग होता रहता है. और इनमें जो जल-कण मिलते है, वे जैसे वस्त्र के तन्तुओ पर मल की तहें बैठ जाती है, ऐसे नही मिलते, बल्कि दुग्धपरमाणु और जलपरमाणु दोनो समकक्ष या समश्रेणिस्थ होकर मिलते है । आत्मप्रदेश खण्डित न होने के कारण कर्माण उन के साथ समकक्ष हो कर नही मिल सकते । तथापि आत्म. प्रदेशों का कर्माणु यो के साथ जोक्षीर-नीर का सम्बन्ध कहा जाता है,यह केवल स्थूल उदाहरण द्वारा उनका अत्यधिक निकट का सम्बन्ध व्यक्त करने के लिए ही कहा जाता है । वस्तुतः कर्माणु ओ का और प्रात्मप्रदेशो का सम्बन्ध केत द्वारा ग्रसित सर्य, या राहु द्वारा आच्छादित चन्द्र के समान समझना चाहिए। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २७६ उन कर्माणुनो मे भी शराब और दूध की तरह अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति निवास करती है,जो चैतन्य के सवध से व्यक्त होकर जीव पर अपना प्रभाव डालती रहती है और उसके प्रभाव में मुग्ध हुना जीव ऐसे-ऐसे काम करता है जो सुखदायक तथा दुखदायक होते हैं। कर्म करते समय यदि जीव के भाव अच्छे हैं तो वन्धने वाले कर्मपरमाणु अच्छे होते हैं और बाद मे उस का फल भी अच्छा ही होता है । तथा यदि जीव के भाव बुरे होते है तो उस समय बुरे परमाणुप्रो का बघ पडता है और कालान्तर मे उसका फल भी बुरा ही होता है। अतः जन दर्शन कहता है कि कर्मफल की प्राप्ति मे कर्म परमाणु ही सर्वेसर्वा कारण है, ईश्वर का उसके साथ कोई मवघ नही है। प्रश्न- ईश्वर जगत का निर्माता नहीं है, भाग्य का विधाता नहीं है, और वह कर्मफलप्रदाता भी नहीं है,फिर उसका स्मरण करने की क्या आवश्यकता है ? ईश्वर जब वीतराग है, वह न प्रसन्न होता है और नॉहीं रुष्ट होता है, फिर उसके गुण गाने का क्या प्रयोजन ? यदि ईश्वर हमारा कुछ नफा-नुकसान नहीं करता तो उसके भजन से क्या लाम ? उत्तर- जैसे दर्पण को देख कर मनुष्य अपने मुंह पर लगे हुए दाग को साफ कर लेता है। वैसे ही परमात्मा को आदर्श मान कर हम अपनी आत्मा को धो सकते हैं। इसीलिए परमात्मा का भजन व चिन्तन हमारे लिए नितान्त आवश्यक है । परमात्मा के भजन का केवल इतना ही उद्देश्य होता है कि उस का चिन्तन करके हम उस के स्वरूप को अवगत कर सके, और उसके विशुद्ध गुणो को अपने अन्दर प्रकट कर सकें। पथिक को जिस पथ पर चलना होता है, सर्वप्रथम Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T २७७ षष्ठम अध्याय उसे गन्तव्य पथ को जानने तथा समझने की आवश्यकता होती है, मार्ग को जाने बिना उसका उस पर चलना असंभव है । मार्ग पर चलने से पूर्व मार्ग की जानकारी प्राप्त करनी ही पडती है, तभी यात्री अपने गन्तव्य पथ पर चल कर अपने लक्ष्य तक पहुच सकता है । ऐसे ही परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करने के लिए, उसके स्वरूप को समझना होगा और समझने के अनन्तर उसे अपनाना होगा। जब तक परमात्मा के स्वरूप को अवगत नही किया जायगा, तब तक उसे प्राप्त करने का प्रश्न ही उपस्थित नही होता । परमात्मा का स्मरण और उसका चिन्तन उसके स्वरूप को अवगत और परम्परा से उसे प्राप्त करने का साधन है । इसीलिए परमात्मा का स्मरण किया जाता है । और यथाशक्ति करना भी चाहिए । दुखो के उत्पादक राग और द्वेष ये दो जीवन-विकार है । इन दोनो को दूर करने के लिए राग-द्वेष रहित परमात्मा का अवलम्बन लेना नितान्त आवश्यक है । स्फटिक के पास जिस रंग का फूल रखा जायगा तो वैसा रंग स्फटिक अपने मे ले आता है । ठीक इसी प्रकार राग-द्वेष के वातावरण मे बैठ कर जीव को राग-द्वेप के सस्कार मिलते हैं । इन सरकारों से बचने के लिए सुन्दर, पवित्र और सात्त्विक ससग प्राप्त करने की विशेष आवश्यकता रहती है । ईश्वर का स्वरूप परम निर्मल और शान्तिमय है । राग-द्वेष का रंग या उसका तनिक सा भी प्रभाव उसके स्वरूप मे नही है, अत उसका अवलम्बन लेने से, उसका ध्यान व चिन्तन करने से आत्मा मे वीतराग भाव का सचार होता है, ग्रात्मा मे ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है कि राग द्वेष की प्रवृत्तिया धीरेधीरे शान्त होने लगती हैं। और जीव स्वय वीतराग बन जाता है । आग का सान्निध्य पाकर मनुष्य का जैसे शैत्य दूर हो जाता है, ठीक } Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २७९ mwwwwra इसी प्रकार वीतराग प्रभु का स्मरण करने से आत्मा के राग-द्वेष आदि विकारो का गैत्य भी भागने लगता है और आत्मा निज स्वरूप मे आकर अनन्त आनन्द और ज्ञान की अनन्त विभूति से मालामाल हो जाता है। परमात्मा के गुणो के स्मरण व चिन्तन करने का यही सब से बड़ा लाभ है। दूसरी बात यह भी है कि परमात्मा का नाम इतना पवित्र और सात्त्विक है कि जब कोई व्यक्ति शुद्ध हृदय से उसका चिन्तन करता है, उसके गुणों मे रमण करने लग जाता है, तब उसके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होने पाता, मन सर्वथा शान्त और निर्विकार बन जाता है, मन एक अनुपम तथा अपूर्व सा उल्लास अनुभव करता है। ऐसी दशा यदि लगातार बनी रहे तो मानव धीरे-धीरे अभ्यास वढा-' ता हुआ एक दिन इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसका मन फिर कभी भी सांसारिक विपयो की ओर नही जाता । और अन्त मे जीवनगत विकारों का सर्वथा खातमा करके परमात्म स्वरूप बन जाता है । अतः जीवन को परमात्म स्वरूप मे लाने के लिए परमात्मा के गुणो के स्मरण या चिन्तन का अभ्यास करना अत्यावश्यक है। और उस अभ्यास को सतत बनाए रखने के लिए परमात्म-स्मरण को दैनिक आवश्यकता होती है। तीसरी बात यह भी है कि मनुष्य जब तक प्रभुस्मरण मे लगा रहता है, परमात्मा के गुण गाता रहता है, कम से कम उतने समय के लिए तो वह पापाचार से बचा ही रहता है । १६ आने गंवाने की अपेक्षा यदि दो आने भी बचा लिए जाए तो वह अच्छा ही है। इसी तरह मन यदि सारा दिन पवित्र नहीं रह पाता है,तो जितने क्षण सात्त्विक और पवित्र बना रहे तो उतना ही अच्छा है, जीवन के उतने ही क्षण सफल होते हैं। इसीलिए भक्तराज कवीर ने कहा है Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ षष्ठम अध्याय सांस सफल सो ही जानिए, जो प्रभु-सिमरण में जाय । और सांस यूही गए, कर - कर बहुत उपाय ॥ प्रभु-स्मरण करते समय एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रभु-स्मरण आत्मशुद्धि या आत्मकल्याण के लिए ही करना चाहिए। उसके पीछे पुत्र, कलत्र या अन्य सासारिक पदार्थो की कामना नही रहनी चाहिए। परमात्मा वीतराग है, वहां राग और द्वेष का सर्वथा अभाव है, अत. नाम लेने से वह प्रसन्न होगा, प्रसन्न हो कर हमारी कामना पूर्ण करेगा, ऐसी आशा नही रखनी चाहिए। जैनदर्शन किसी आध्यात्मिक अनुष्ठान को ऐहिक स्वार्थ के लिए, करने का निषेध करता है। दशवकालिक सूत्र के नवम अध्ययन मे लिखा है-कि तपस्वी साधु-ऐहलौकिक सुखो के लिए तप न करे, पारलौकिक स्वर्गादि सुखो के लिए तप न करे, प्रात्म प्रशसा के लिए तप न करे । किन्तु केवल आत्मशुद्धि तथा कर्मो की निर्जरा के लिए ही तप का अनुष्ठान करे। प्रभु का स्मरण करना भी एक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। अत. इस अनुष्ठान को भी स्वच्छ और परमार्थ भावना से करना चाहिए। इसके पीछे कोई स्वार्थ या ऐहिक महत्त्वाकाक्षा आदि दुर्भाव नही रखना चाहिए। प्रश्न- क्या ईश्वर अवतार धारण करता है ? । उत्तर- नहीं करता, क्योकि अवतार [जन्म] उन्ही जीवो का होता है, जो कर्म, इच्छा, मोह, माया, अविद्या से युक्त हो। ईश्वर मे ये सब __ चीजें नहीं है, फिर वह अवतार कैसे ले सकता है ? वैदिक परम्परा मे विश्वास पाया जाता है कि जव-जव धर्म S यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत ! परित्राणाय साधूना,विनाशाय च दुष्कृताम् ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर anwr wrrar rama mMNA की हानि होती है, अधर्म की वृद्धि होती है पाप का भूत जाग उठता है, और धर्म का देव सो जाता है, तो धर्म के देव को जगाने के लिए और अधर्म के असुर का नाश करने के लिए तथा साधु जीवन का सरक्षण और पापियो का विनाश करने के लिए ईश्वर अवतार धारण करता है। परम पिता परमात्मा वैकुण्ठधाम मे मृत्युधाम में पा जाता है। धर्म की सस्थापना करने के लिए भगवान से इन्सान बनता अवतारवाद की इस वैदिक मान्यता पर यदि गभीरता से विचार किया जाए तो इस मान्यता मे कोई सार दृष्टिगोचर नही होता। कितने आश्चर्य की बात है कि जो परमात्मा सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, सर्व गक्तिसम्पन्न है, जिसके स्मरण से मानस शान्ति के सरोवर मे डुबकिया लेने लगता है, आनन्दानुभूति करता है, उस परमपिता परमात्मा को कभी कछुया वना देना, कभी मछली और कभी सूअर बना देना कहां की शिष्टता है ? ईश्वर क्या हुमा, एक अच्छा खासा बहुरूपिया बन गया, जिसे न जाने कितने स्वाग धारण करने पड़ते हैं। किसी अवतारवादी से पूछा जाए कि इस समय भारत में इतना अनर्थ हो रहा है, सर्वत्र पापाचार का दानव नग्न नृत्य कर रहा है, सत्य का जनाजा निकाला जा रहा है, धर्म, कर्म सब बदनाम हो रहे हैं, ऐसी स्थिति मे भगवान मौन क्यो बैठे है ? कान मे तेल डालकर क्यो सो रहे हैं ? इस भीषण और भयावह युग मे भी वह अवतार क्यो नही लेते ? तव वह एक पेटेण्ट (Patent) घडाघडाया जवाब देता है कि अभी पाप का घड़ा भरा नही है । खूब रही, घडा भी बड़ा अनो अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम् । धर्मसस्थापनार्थाय, सभवामि 'युगे युगे ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ षष्ठम अध्याय खा है, जो कभी तो हाथी की थोडी सी चिंघाड़ मात्र से भर जाता है और कभी भूमण्डल के सभी प्राणियों की करुण पुकार से भी नही भरने पाता। कभी तो नाई के वदले राजा के पैर दबाने के लिए भगवान भाग उठते हैं और अब दुखो के मारे जन-गण कराह रहे है, अन्नाभाव और अर्थाभाव के कारण ऐडिया रगड़-रगड़ कर लोग दम तोड रहे हैं तथापि दीन-दयालु करुणा के सागर सानन्द वैकुण्ठधाम मे वैठे आराम की बन्सरी वजा रहे हैं, पता नही, उनके कानो पर जूं तक क्यो नही रेगती? तथा कभी तो द्रौपदी के अग को ढकने के लिए भगवान साड़ियो की वर्षा कर देते हैं, और अब जब कि हज़ारों नही लाखो द्रौपदियो को नग्न किया गया, और वडी निर्दयता के साथ उन का शील भग किया और कराया गया तथापि भगवान को दया नही आई। वास्तव में देखा जाए तो अवतारवाद का सिद्धात सर्वथा थोथा और खोखला सिद्धात है, इसके पीछे कोई दार्शनिक बल नहीं है । सच तो यह है कि ईश्वर को अवतारवाद के साथ जोड़ कर ईश्वरके ईश्वरत्व को अपमानित किया गया है। आध्यात्मिक जगत मे ईश्वर का सर्वोपरि स्थान है। यह स्थान कर्मों को क्षय करने के अनन्तर उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र के दशम अध्याय मे प्राचार्य उमास्वाति कहते है कि "कृत्स्न कर्मक्षयो मोक्ष" । अर्थात् सम्पूर्ण कर्मो के क्षय कर देने का नाम मोक्ष है। मोक्ष मे जाने वाला प्रात्मा कर्मों से सर्वथा और सर्वदा मुक्त रहता है । मुक्त अवस्था की प्राप्ति हो तभी होती है जब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय कर दिया जाए । जो आत्मा कर्मो का सर्वथा नाश करके उनसे नितान्त छुटकारा प्राप्त कर लेता है, वह पुन कर्मों के बन्धन में कैसे पा सकता है? कर्म बन्धन क्रोध, मोन, माया आदि Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ~~rrrrrrrrrrrrrrr....... विकारो से होता है, जब विकार ही समाप्त हो गए तो फिर कर्म-वध कैसे हो सकता है ? वीज के सर्वथा जल जाने पर जैसे उस मे अकुर की उत्पत्ति नही होती वैसे कर्म-रूपी वीज के जल जाने पर ससाररूप (जन्म-मरण रूप) अकुर पैदा नही हो सकता । ईश्वर को सर्वथा निष्कर्म मान लेने पर उसका अवतार कैसे सभव हो सकता है ? जव वह निष्कर्म है तो वह नव मास अन्वेर कोठरी में उलटा क्यो लटके ? ईश्वर सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, सवंगक्तिसम्पन्न है, तथा वीतरागो है, फिर वह भला नीचे क्यो आए ? क्यो मत्स्य, वराह और मनुष्य आदि का रूप धारण करे? इसके अतिरिक्त,भगवान को अवतार लेने की जरूरत ही क्या है ? क्या वह जहा वैठा है, वही से अपनी अनन्तशक्ति के प्रभाव से भूमि का भार हल्का नहीं कर सकता है ? जब पापियो का ही गला घोटना है, तो यह काम वह वही बैठा, बैठा भी कर सकता है । यदि वह वहां ऐसा नही कर सकता तो वह सर्वगक्तिसम्पन्न है, यह कैसे माना जा सकता है ? अवतारवाद मान लेने । जैनदर्शन पापियो के विनाश को अच्छा नहीं समझता है । जैन दर्शन कहता है कि पापी बुरा नहीं होता, बुरा पाप होता है । पापी का गला घोटने से पाप नही मर सकता । क्योकि अगले जीवन में भी पापी के पापमय सस्कार साथ जाते है । अत यदि पापी का सुधार करना है तो पाप का गला घोटने की आवश्यकता है । पाप की मृत्यु हो जाने से पापी, पापी नहीं रहेगा। वह वाल्मीकि की तरह मसार को एक ऋषि के रूप में दर्शन देगा । अत. पाप के विनाश के लिए पापी का नाश करना जैन दर्शन को इप्ट नही है । इगलिश में भी कहा है-'Hate the sin,not the sinner'अर्थात् पाप मे नफरत करो, पापी मे नही । दूसरी वात, पापियो का नाश करने में भगवान की क्या विशेषता है ? उसकी विशेषता तो उनका स धार करने में है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ षष्ठम अध्याय पर ऐसी अनेको आपत्तियां उपस्थित हो जाती हैं,जिनका कोई सतोषजनक समाधान नहीं मिलता। इसीलिए जैन दर्शन ईश्वर के अवतारवाद मे कोई विश्वास नही रखता है । जैनदर्शन का आदर्श ईश्वर का अवतार नही है, जैन दर्शन मनुष्य के उत्तार की बात कहता है । यहा ईश्वर का मानव के रूप मे अवतरण (ऊपर से नीचे की ओर आना ) नहीं माना जाता, बल्कि मानव का ईश्वर के रूप मे उत्तरण (नीचे से ऊपर की ओर जाना ) माना जाता है । जैन सस्कृति मे मनुष्य से बढ कर और कोई प्राणी नही है । उसकी दृष्टि मे मनुष्य केवल हाड-मास का चलता-फिरता पिंजर नही है, प्रत्युत अनन्त शक्तियो का पुज है, देवताओ का भी देवता है, और अनन्त सूर्यो का भी सूर्य । मनुष्य मे वह शक्ति है जो मुक्ति के पट खोलती है,मगर आज वह मोह-माया के अधकार से आ. च्छादित हो रही है।सत्य-अहिंसा के दिव्यालोक मे जिसदिन यह मनुष्य अपने अज्ञानाधकार को नष्ट कर निजस्वरूप को पाएगा तो उस दिन वह अनन्तानन्त जगमगाती हुई आव्यात्मिक ज्योतियो का पुज बन कर शुद्ध, बुद्ध, परमात्मा बन जायगा। जैन सस्कृति मे मनुष्य की चरम शुद्ध दशा का नाम ही ईश्वर है । यही जैन सस्कृति का उत्तारवाद है । जो मानव को सत्य-अहिंसा की पवित्र साधना द्वारा सिद्धबुद्ध-परमात्मा बनने की आदर्श प्रेरणा प्रदान करता है । इस प्रकार जैन सस्कृति का उत्तारवाद मानव जाति को ऊपर उठना सिखाता है, वैदिक संस्कृति की तरह यह अवतारवाद के माध्यम से मनुष्य को ईश्वर के हाथ की कठपुतली नही बनाता। प्रश्न- ईश्वर एक है या अनेक ? उत्तर- जैन दर्शन इस का उत्तर स्याद्वाद की भाषा मे यदि दे तो कहना होगा- ईश्वर एक भी है और अनेक भी । गुणों की दृष्टि Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नी के उत्तर २८४ से ईश्वर एक है, क्योंकि सभी ईश्वरों में ईश्वरत्व बराबर रहता है, सभी सच्चिदानन्दमय हैं, सभी मे ज्ञान और प्रानन्द की अनन्तता विराजमान है । कोई किसी से ज्ञानादि गुणी में हीन नही है | और सभी ईश्वर व्यक्तियों पर ईश्वर यह एक शब्द लागू होता है । ग्रतः ईश्वर एक है, किन्तु व्यक्तियो की अपेक्षा ईश्वर अनेक हैं, अनन्त है । जो भी जीव कर्मवन्धन से मुक्त हो गए जैन दर्शन की दृष्टि से वे सब ईश्वर ही है । इसलिए ईश्वर एक न होकर अनेक हैं, अनन्त है । > जैनदर्शन का विश्वास है कि प्रत्येक भव्य आत्मा मे परमात्मा बनने की योग्यता निवास करतो है, मोक्षमार्ग पर चलने वाला प्रत्येक आत्मा धीरे-धीरे मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । ९ ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों मोक्ष के मार्ग हैं। इन मार्गो के राही के लिए मोक्ष दूर नही है । इन मार्गो का राही अमुक व्यक्ति बन सकता है, ग्रमुक नहीं, ऐसा कोई प्रतिवन्ध नही है । जैन दर्शन ने प्रत्येक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के लिए मोक्ष के द्वार खोल रखे हैं । इसीलिए जैन दर्शन कहता है कि मुक्त जीव एक नही, अनेक है, असस्य हैं, अनन्त हैं । ◄ r. 11/NNNN + ९ जीव अजीव यादि तत्त्वो का यथार्थ वोध प्राप्त करना ज्ञान है, उक्त • तत्वों के प्रति सच्चा श्रद्धान रखना दर्शन और अहिंसा, संयम, तप को जीवनागी बनाना, आत्मा को निजस्वरूप में लाने के लिए सत्प्रयत्न करना चारित्र कहलाता है । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और वैदिक धर्म सप्तम अध्याय प्रश्न- जैनधर्म और वैदिक धर्म में प्राचार-विचार-सम्बन्धी क्या मतभेद है? उत्तर- भारत मे मुख्यतया दो सस्कृनियो की प्रधानता रही है-श्रमण सस्कृति और ब्राह्मण सस्कृति । श्रमण सस्कृति को समन और शमन सस्कृति भी कहा जाता है। श्रमण श्रम् धातु से बना है । इसका अर्थ है-परिश्रम करना । यह.अर्थ इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है। सुख-दुख, उत्थान-पतन, सभी के लिए वह स्वय उत्तरदायी है । समण शब्द समता भाव का परिचायक है । समता भाव का अर्थ है- सभी को आत्मतुल्य समझना, सभी के प्रति समभाव रखना । दूसरो के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए? इसकी कसौटी अपनी ही पात्मा है। . जो बात अपने को बुरी लगती है, वह दूसरो के लिए भी बुरी है.। "प्रात्मन. प्रतिकूलानि परेपा न समाचरेत्", यह अमर स्वर समता की अन्तरात्मा का है । समाज विज्ञान का यही मूल तत्त्व है । किसी के प्रति राग या द्वेष न करना, शत्रु, मित्र को बराबर समझना, जन्म से जातपात न मानना तथा स्पृश्य या अस्पृश्य आदि भेदो को स्वीकार न करना,समता का अपना स्वरूप है । शमन का अर्थ होता है- अपनी Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर २८६ वृत्तियो को शान्त रखना । मन-मन्दिर मे क्रोध, मान, माया आदि विकारो को उत्पन्न न होने देना, यदि उत्पन्न हो गए तो क्षमा, मृदुता तथा सरलता यादि द्वारा उनको शान्त कर देना शमन का लक्ष्य होता है | श्रमण, समन और शमन समण संस्कृति का निचोड है । समण प्राकृत भाषा का शब्द है, यही संस्कृत मे श्रमण, समन और शमन के रूप मे परिवर्तित हो जाता है । श्रमण संस्कृति समण संस्कृति का एकागी रूपान्तर है । आज प्राय श्रमण संस्कृति शब्द ही अधिक प्रसिद्ध हो रहा है । MAAN www. ब्राह्मण संस्कृति का मूल ब्रह्म है । ब्रह्म शब्द यज्ञ, पूजा स्तुति तथा ईश्वर इन अर्थो का परिचायक है । ब्राह्मण संस्कृति इन्ही चार तत्त्वो के चारो ओर घूमती है। यज्ञ करना, देवताओ की पूजा करना, इन्द्र आदि की स्तुति करना तथा ईश्वर को जगत का निर्माता, भाग्य का विधाता, कर्म फल प्रदाता तथा ससार का सर्वेसर्वा मान कर उपासना, सध्या, वन्दन द्वारा उसकी प्रसन्नता को प्राप्त करना ही ब्राह्मण संस्कृति का मूल उद्देश्य है और यही उस की साधना का सर्वतोमुखी ध्येय है । t श्रमण संस्कृति मे जैन धर्म और बौद्धधर्म प्राता है, तथा ब्राह्मण संस्कृति से वैदिक धर्म का बोध होता है । वैदिक धर्म से, सनातन धर्म और आर्यसमाज इन दोनो का ग्रहण किया जाता है। प्रस्तुत मे हमें जैनवर्म और वैदिक धर्म के सिद्धात और ग्राचार के सवध मे विचार करना है । ग्रत इसी के सम्बध मे कुछ कहा जायगा । यदि गभीरता से विचार किया जाए तो जैन धर्म और वैदिक धर्म की मान्यताओ मे बहुत अन्तर रहता है, किन्तु यहा तो सक्षेप मे ही उन पर प्रकाश डाला जायगा । ब्राह्मण संस्कृति का प्राण वैदिक धर्म व्यक्ति - पूजा मे विश्वास Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ २८७ सप्तम अध्याय रखता है, इसके यहा गुणो के कारण किसी की स्तुति नही की जाती। इस में जिस समय अग्नि की पूजा को जाती है, तो उस समय अग्नि सर्वशक्तिमान है, और जिस समय विष्णु की पूजा की जाती है उस समय विष्णु सर्वश्रेष्ठ बन जाता है। महाभारत काल मे जव प्राकृतिक देवतापो का स्थान ब्रह्मा, विष्णु, गिव आदि पौराणिक देव ले लेते हैं, ता सभी देवता शिव की स्तुति करते हैं तो कभी शिव, ब्रह्मा या सरस्वती के चरणो मे लोटते है। वैदिक धर्म के अनुसार व्यक्ति अपने मे पूज्य है । ब्राह्मण इसीलिए पूज्य है क्योकि वह ब्राह्मण है, यदि वह सदाचार से रहित है, तब भी वह पूज्य है। इसी व्यक्ति पूजा के कारण भगवल्लीला पर समालोचना करने का किसी को अधिकार नही है। भगवान भक्तो के साथ चालाकी करते रहे, छल करते रहे, कपट करते रहे तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं है। व्यक्ति पूजा मे ये सब दूषण उपेक्षणीय हैं। निनोक्त पौराणिक कथानक भी व्यक्त्ति पूजा को प्रकट कर रहे हैं। राजा बलि सी यज्ञो के द्वारा, इन्द्रासन प्राप्त करना चाहता है, किन्तु इन्द्रपद की रक्षा के लिए इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान उसके तपोमय अनुष्ठान में विन्न उपस्थित करते हैं और उसे भग कर देते हैं । कुम्भकर्ण तपस्या द्वारा इन्द्रासन प्राप्त करना चाहता है। भगवान को प्रकट हो कर “वर वृणीप्व" यह कहना पड़ता है, किन्तु ऐसी माया रची जाती है कि उसके मुंह से इन्द्रासन के स्थान पर निद्रासन निकल जाता है । भगवान रास रचाते हैं, गोपियो मे विहार करते है, स्नान कर रही गोपियो के वस्त्र चुरा लेते हैं । एक ओर न्याय की दुहाई दे कर अर्जुन से युद्ध कराते हैं, दूसरी ओर अपनी समस्त सैन्य शक्ति दुर्योधन को सभाल देते हैं । एक ओर पाण्डवो की विजय न्याय की विजय कही जाती है, दूसरी ओर कौरवों का नाश होने पर कौरव Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ प्रश्नों के उत्तर .............. माता गान्धारी से अपना और अपने यदुवंग के नाम का शाप सहन करते है । ऐसे अनेको उदाहरण हैं जो भगवल्लीला के परिचायक हैं। किन्तु इन पर ननु-नच करने का- ऐसा क्यो हुआ ? यह कहने का, किसी को कोई अधिकार नहीं है । क्योकि व्यक्तिवाद मे तर्क या पागका को कोई स्थान नहीं होता। इसके विपरीत श्रमण सस्कृति का प्राण जैनधर्म गुणो को महत्त्व देता है, व्यक्ति को नही। जैन परम्परा मे पच परमेष्ठी को नमस्कार किया जाता है। किन्तु उनमे किसो व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं है। उन सभी महापुरुषो को नमस्कार किया गया है, जिन्होने अपना सारा जीवन स्व-पर-कल्याण के लिए लगा दिया है । अध्यात्म-धन का जो धनी है, तथा जिसने राग-द्वेष को सदा के लिए जीवन से निकाल दिया है, वह कोई भी क्यो न हो, जैन धर्म उसके चरणो मे नत हो जाता है, उसे भगवान मान कर उसकी आराधना तथा उपासना करता है। व्यक्तिवाद का जैनधर्म मे कोई स्थान नही। जैनधर्म मे व्यक्तिपूजा को कितना हेय और त्याज्य समझा गया है? यह एक उदाहरण से समझ लीजिए। इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के प्रधान शिष्य थे । ये १४ हजार साधुप्रो मे मुख्य थे, इनके अनेक शिष्य-प्रशिष्य केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्त होगए किन्तु इन्हे केवलज्ञान नही प्राप्त हुआ । एक दिन इन्होने भगवान महावीर से इसका कारण पूछा । भगवान ने कहा- गौतम | तुझे मुझ से मोह होगया है। वीतराग के पास रह कर तू अभी तक वोतरागता प्राप्त नही कर सा है । मोह से ग्रस्त हो रहा है। इसीलिए तू आज तक केवलज्ञान से वञ्चित रह रहा है । पर निराग होने वाली कोई बात नही है। मेरे निर्वाण के बाद तुम्हारा मोह-बधन टूट जायगा और उसके Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ सप्तम अध्याय पश्चात् तु केवलज्ञान की प्राप्ति हो जायगी। परिणाम स्वरूप भगवान महावीर का निर्वाण हो जाने के अनन्तर ही श्री गोतम जी महाराज का मोह दूर हुआ प्रीर तभी उन्हे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इस घटना से यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि जैनधर्म मे व्यक्तिपूजा को कोई स्थान नही है । यदि जैनधर्म व्यक्तिपूजा मे विश्वास रखता तो भगवान महावीर के व्यक्तित्व से मोहित श्री गोतम को अवश्य केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाती । पर ऐसा हुआ नही है । प्रत वैदिक धर्म की भाति जैनधर्म व्यक्तिपूजा मे कोई विश्वास नही रखता । वह तो ससार को गुणपूजा का ही सन्देश देता है । व्यक्तिपूजा र गुणपूजा दोनो मे महान अन्तर है । व्यक्तिपूजा मे मनुष्य श्राराध्य ग्रादमो को खुश करके उसकी कृपा द्वारा सुख-सावन प्राप्त करना चाहता है। इसके विपरीत, गुणपूजा द्वारा व्यक्ति प्राराध्य को अपने हृदय में उतार कर उसके गुणो को उपलब्ध कर स्वयं तद्रूप वन जाना चाहता है । पहली परम्परा सामन्त शाही को जन्म देती है, जब कि दूसरी परमात्मस्वरूप के उत्थान को । हिंसा वैदिक धर्म का विश्वास है कि " वैदिकी हिंसा हिमा न भवति अर्थात् वेदों के नाम पर, वेदो के नेतृत्व मे किए जाने वाले यज्ञ मे जो हिंसा होती है, मनुष्य, पशु श्रादि की जो बलि दी जाती है, वह हिंसा नही है, अहिंसा है । भाव यह है कि वेद को माध्यम बना कर जो हिंसा की जाती है वह हिंसा की कोटि मे हो समाविष्ट हो जाती है । राजा हरिश्चन्द्र को इस शर्त पर पुत्र की प्राप्ति होती है कि वह उसो पुत्र के द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करे, किन्तु पुत्र मोह के कारण हिचक जाता है, उसे कुछ रोग हो जाता है । अन्त मे बलि देने के लिए एक भूखे ब्राह्मण-पुत्र को खरीद लिया जाता है और उसकी बलि द्वारा राजा "" Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर २९० यम देवता को प्रसन्न किया जाता है। इसके अतिरिक्त, वैदिक धर्म मे अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि हमारे शत्रुग्रों के घर जला । इन्द्र ने अभ्यर्थना की जाती है कि अपने वज्र द्वारा अनुग्रो को मार डाल । ऐसे अनेको उदाहरण उपस्थित किए जा सकते है, जिन से यह प्रमाणित हो जाता है कि वैदिक परम्परा का आधार हिंसा है। इसके अलावा, वैदिक धर्म मे यज्ञ को इतना अधिक महत्त्व दिया गया है कि मानो वह जोवन का एक अनिवार्य अंग हो हो । यज्ञ भी अनेको प्रकार के है | बहुत से यज्ञ ऐसे हैं कि जिनके न करने से पाप लगता है, तो बहुत ने ऐसे है जिनसे मन की कामनाए पूर्ण होती हैं । यदि नरक से बचना इष्ट है तो यज्ञ करना आवश्यक है। यदि धन, पुत्र, राज्यविस्तार, शत्रुनाश या अन्य किसी प्रकार का स्वार्थ पूर्ण करना है तो वह भी यज्ञ से ही सम्पन्न हो सकता है । किसी के प्राण लेने हो तो वह यज्ञ द्वारा लिए जा सकते हैं। इसमें विशेषता यह है कि यज्ञ मे की गई हिंसा भी हिंसा बन जाती है । जो जितने अधिक यज्ञ करता है, उसकी कीर्ति उतनी ही अधिक फैलती है । वहा पाप का प्रश्न ही खड़ा नही होता इस प्रकार मनोकामना भी पूर्ण हो जाती है और धर्म भी हो जाता है । इसके विपरीत जैनधर्म का महल अहिसा की नीव पर खड़ा है। अहिसा कहती है कि जिसको तुम कष्ट देना चाहते हो, वह तुम जैसा ही है । . किसी को कष्ट मत दो। जिसे तुम मारना चाहते हो वह तुम जैसा ही है, अतः किसी को मत मारो। जिसे तुम सताना चाहते हो वह तुम जैसा ही है, अत किसी को मत सताओ। जिसे तुम तग करना चाहते हो वह तुम जैसा ही है, अत किसी को - तग मत करो । हिंसा जैनधर्म का प्राण है। गृहस्थ तथा मुनियो के लिए जितने भी व्रत, नियम बनाए गए हैं उनका मूलाधार अहिसा है । असत्य, चोरी, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१... सप्तम अध्याय ब्रह्मचर्य और परिग्रह आदि इसीलिए पाप माने जाते हैं क्योकि ये हिसा को प्रोत्साहन देते हैं । आचाराग सूत्र मे भगवान महावीर कहते हैं कि जो अरिहन्त हो चुके हैं, जो विद्यमान है, जो भविष्य मे होगे वे सब यही कहते हैं, और कहेंगे कि किसी प्राणी (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव), भूत ( वनस्पतिकायिक जीव), जीव ( पञ्चेन्द्रिय जीव ) या सत्त्व ( वनस्पतिकायिक जीवो को छोड कर शेष सभी स्थावर जीव ) को नही मारना चाहिए, न पकड़ना चाहिए और उन्हें नाही कष्ट पहुचाना चाहिए । यह धर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है । ससार को अच्छी तरह ज्ञानियों ने बताया है। F-54 VN जैन धर्म कहता है कि अहिंसा धर्म है, और हिंसा पाप । हिंसा किसी के नाम पर की जाए, वेदो के नाम पर की जाए ईश्वर या किसी अन्य देवी देवता के नाम पर की जाए, हिसा हिंसा है । वह कभी ग्रहमा का रूप नही ले सकती। आग अपने चूल्हे की हो या पडौसी के चूल्हे की, पर आग-आग है । वह सत्र को जलाती है । उस के सामने अपने और पराए का कोई पक्षपात नही रहता है। हिंसा भी एक प्रकार की आग है। वह भी जीवनगत दया को, अनुकम्पा और सहानुभूति के भावो को जला कर राख बना देती है । हिंसा की आग जन्म-जन्मान्तर तक हिमक को जलाती रहती हैं । ऐसी आग को हिंसा का रूप कैसे दिया जा सकता है। ? यह सत्य है कि आगे चल कर वैदिक परम्परा मे भी माख्याचार्य कपिल और भागवत सम्प्रदाय मे वासुदेव श्री कृष्ण यादि ऐम युगपुरुष हो गए है, जिन्होने हिमक यज्ञों का विरोध करके अहिंसा को प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रयत्न किया । किन्तु ये युगपुरुष वैदिक परम्परा की यज्ञगत हिंसा को सर्वथा समाप्त करने में सफल नही हो सके। फिर भी आज Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर... २९२ वैदिक परम्परा मे जो अहिंसा को भावना पाई जाती है । इसका कारण, जैनधर्म का प्रभाव रहा है। एकबार "हिन्द तत्त्वज्ञाननो इतिहास" के लेखक श्री नर्मदागकर देवगकर मेहता ने "जनो और हिन्दु. ओ के वीच सस्कारों का पारस्परिक आदान-प्रदान" इस विषय पर बोलते हुए कहा था-- ...चौबीस तीर्थकरों मे से पार्श्वनाथ (तेइसवें) और महावीर (चौबीसवें) वास्तव मे ऐतिहासिक महापुरुष है । वे वासुदेव कृष्ण के पीछे हुए है। इन दोनो महापुरुषो मे से पार्श्वनाथ भगवान बुद्ध के पहले हुए हैं और महावीर बुद्ध समकालीन थे । इन दोनो महापुरुषो ने स्पष्ट रूप से कहा कि हिंसा और शुद्ध धर्म,इन दोनो का मेल सभव नहीं है। तथा धर्म के बहाने से पशुवध करना पुण्य नही, किन्तु पाप है। इस निश्चय को उन्होने अपने शुद्ध चारित्र के द्वारा और सघ के प्रभाव से प्रजा मे फैलाया। और उसका हिन्दुओ पर ऐसा गहरा प्रभाव पडा कि यज्ञ मे हिंसा करना धर्म है, ऐसा कहने के लिए कोई हिन्दू तैयार नहीं है । अाज विद्वान और धर्म चिन्तक शास्त्री गण उस हिंसा का प्रतिपादन मात्र कर सकते हैं, किन्तु यदि कोई ठेठ वैदिक धर्म के अनुसार श्रोतकर्म करने वाला सोमयाग करने को तैयार हो तो हिन्दू उसको तिरस्कारपूर्वक निकाल दे और स्लाटर हाऊस (वधगृहामे पशुवध करने वाले कसाई की तरह उसकी दुर्गति करें।" मेहता जी के इस भाषणाश से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म की अहिंसा का वैदिक परम्परा पर काफी प्रभाव पड़ा है और इसीलिए इस परम्परा के लोग हिंसा मे अरुचि रखने लग गए हैं। तथा । एक वार्षिक यज्ञ जिसमे सोमपान होता है- वृहद् हिंदी कोप। $ पण्डित कैलाश चन्द्र जी शास्त्री कृत,"जैनधर्म" पृष्ठ ३४७ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय ... ... .rrxxmmm अहिंसा को प्रादर एव सम्मान की दृष्टि से देखते है । "मा हिंस्यात् सर्वाणि भूताणि" आदि जितने भी वाक्य वैदिक परम्परा में पाए जाते है, इनके मूल मे अहिंसा-प्रधान जैन धर्म का प्रभाव ही काम कर रहा स्वावलम्बन वैदिक परम्परा परावलम्बन पर आश्रित है, वह परमुखापेक्षी है, इसमे दु खो से मुक्ति प्राप्त करने के लिए तथा सुखो की उपलब्धि के लिए ईश्वर या देवी-देवतायो की शरण में जाना पड़ता है । इसके विपरीत जैनधर्म का प्राधार स्वावलम्बन है । इसमें व्यक्ति को अपना उद्धार करने के लिए परमुखापेक्षो नही बनना पडता, ईश्वर या किसी अन्य देवी-देवता के द्वार नही खटखटाने पडते । इसके विश्वासानुसार जीव स्वय ही विकास करता है, अपने भाग्य का स्वय निर्माता है, अपने भले बुरे के लिए स्वय उत्तरदायी है। जैनधर्म कहता है हे मानव | तू स्वय अपना मित्र है, अपने को छोड कर अन्य मित्र कहा ढूंढ रहा है ? ६ सत्य अहिंसा के महापथ पर चलने से तथा राग-द्वेष को वृत्तियो का परित्याग कर देने से प्राध्यात्मिकता की उच्चता को प्राप्त यह जीवन आत्मा को मित्र की तरह काम देता है और यही जीवन जव वासनाओ की अन्ध गलियो मे चक्र लगाने लग जाता है, हिंसा और असत्य के कुपथ पर चल देता है तो आत्मा को अमित्र अर्थात् शत्रु का काम देता है । शत्रुता और मित्रता का उत्पादक आत्मा स्वयं है । बाहिर का न कोई शत्रु है, और न कोई मित्र है। __ वैदिक धर्म मे मनुष्य देवी-देवताओ का दास है, गुलाम है, उनके $ पुरिसा | तुममेव सुप मिच, कि बहिया मित्तमिच्छसि । - आचाराग सूत्र, १,३,३ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर २९४ क्रोध से वह काप उठता है, और उन की कृपा होने पर वह हर्ष विभोर हो जाता है, किन्तु जैनधर्म का विश्वास है कि मनुष्य को यदि भय है तो अपने ही दुष्कर्मों से है । जीवन मे खेल रहे काम, क्रोध, मोह, लोभ यादि विकार ही मनुष्य को दुखी और पीडित करते हैं । यदि मनुष्य इन विकारो से पिंड छुड़ा लेता है, अपने को सर्वथा निर्विकार बना लेता है तो उसे ईश्वर या अन्य किसी देवी-देवता से भयभीत होने की कोई श्रावश्यकता नहीं है। जैन धर्म का विश्वास है कि आत्मा मे अनन्त दर्शन है, अनन्त ज्ञान है, अनन्त मुख है और अनन्त वल है । दुर्बलता की भावना को छोड़ कर यदि वह ग्रपनी शक्तियो को प्रकट करले, आत्म शक्तियो पर श्रा रहे कर्म रूपी बादलो को फाड डाले तो इस ग्रात्मा से बढकर कोई शक्तिशाली नही है । आत्मा ग्रनन्त शक्ति का पुज है, शक्तियो का स्रोत है । अपने वास्तविक स्वभाव मे लीन न होने के कारण तथा पापो मे ग्रासक्त रहने के कारण यह अपने आप को भूल चुका है । जिस दिन यह त्याग और तपस्या के द्वारा अपने को विशुद्ध और निर्विकार बना लेगा, उसी दिन अपने मे ही इसे ईश्वरत्व, परमात्मत्व के दर्शन हो जाएगे । यह आत्मा स्वयं परमात्मा बन जायगा । ww vvv साम्यवाद वैदिक धर्म जन्मकृत वैपम्य को लेकर चलता है, वह जन्म से ही मनुष्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का रूप देता है। उसने ब्राह्मण को सर्वोपरि स्थान दिया है, और शूद्र को सब से हीन माना है । इसके यहां शूद्र को आव्यात्मिक उत्कर्ष का कोई अधिकार नही है । शूद्र धर्म-स्थान मे नही जा सकता, उसे धर्म शास्त्र सुनने या पढने का कोई हक नही है । किन्तु जैन धर्म का ऐसा विश्वास नही है । यहा - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ २९५ षष्ठम अध्याय मनुप्य ही नही, समस्त प्राणियो को समान अधिकार प्राप्त हैं। इस के यहा जन्म से न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र है । जिसके जैसे कर्म होते है, उस को उसी नाम से पुकारा जा सकता है और प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति यथेच्छ धर्मशास्त्र पढ सकता है, धर्माराधन कर सकता है। हरिकेशी मुनि जन्म मे चाण्डाल कुल मे उत्पन्न होने पर भी साधु धर्म की परिपालना से सभी के पूज्य.बन गए। यहा तक, कि देवता भी. उनके सेवक बन गए थे। ब्राह्मणत्व को भी उनके चरणो मे नतमस्तक होना पड़ा था। ' । सक्ख खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसइ जाइविसेस कोई" इस स्वर ने आकाश को गुंजा दिया था। जैनधर्म का कहना है कि विश्व के जितने भी मनुष्य है, वे सव मूलत एक हैं। कोई भी जाति, कोई भी वर्ण मनुष्य जाति की मौलिक एकता को भग नही कर सकता । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन वर्णो की रचना तो समाज की विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए की गई थी । एक वर्ग का काम था, कि वह अध्यापन का काम करे, जनता को रास्ता दिखलाने का प्रयत्न करे, और जबजब समाज मे गल्लिया होवे तो उन्हे ठीक ढग से दुरुस्त करे । ऐसा वर्ग ब्राह्मण वर्ण के नाम से समाज के सामने आया। सबलो द्वारा निर्बल पीडित न किए जाए, दुर्वलो को रहने का उतना ही अधिकार है, जितना कि बलवानो को। अत उनकी समुचित रक्षा की जाए, इस प्रयोजन से क्षत्रिय वर्ण को स्थापना हुई। कोई वस्तु कही बहुतायत से पैदा होती है और कही कम होती है, या होती ही नहीं है। जहा बहुतायत से होती है, वहा वह उपयोग करने के बाद भी पडी सडती है, और जहा नही होती वहा के लोग उसके विना असुविधा अनुभव करते हैं, और कष्ट भोगते है, इस परिस्थिति को बदलना । साक्षात् खनु दृश्यते तपोविशेष.,न दृश्यते जातिविशेष कोऽपि । १२/३७ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ... ............२९६ और यथावश्यक वस्तुए सर्वत्र सुलभ कर देना वैश्य वर्ण का कर्तव्य था । इस कर्तव्य का प्रामाणिकता के साथ पालन करते हुए अपने और अपने परिवार के निर्वाह के लिए वह उचित पारिश्रमिक लिया करता था, वैश्य वर्ण की स्थापना में यही मूल भावना थी। चौथा शूद्र वर्ण था। इसका कार्य वडा हो महत्त्वपूर्ण था'। यह समाज को सेवा किया करता था । उसको सेवा को बदौलत समाज स्वस्थ रहता था और प्रजा का जीवन सुख-सुविधा के साथ व्यतीत होता था। शूद्र वर्ण की स्थापना मे किसी प्रकार की हीनता की भावना नही थी। जैनधर्म के विश्वासानुसार उक्त धन्धो के कारण मानवजाति के चार विभाग किए गए थे। या यू कहे कि मनुष्य जाति की सुख-सुविधा के लिए धन्धो को चार भागो मे बाट दिया था। और योग्यता को प्राधार बना कर उन के कर्ता व्यक्तियो के चार भाग कर दिए थे। अलग-अलग धन्धे करते हुए भो सब मे प्रेम था, कोई भेद-भाव नही था। मगर समय ने करवट ली। जव द्वेप और अहकार को भावनाए तीत हुई तो धन्धो के आधार पर बने हुए विभिन्न वगों मे ऊचनीच की भावना अकुरित होने लगी। उसके जहरीले फल सर्वत्र फैले और उन्होने मानव जाति की महत्ता और पवित्रता को नष्ट कर दिया। मनुष्य समझने लगा कि अमुक धन्धा करने वाला व्यक्ति उच्च है,और अमुक धन्धा करने वाला व्यक्ति नीच है । धीरे-धीरे धन्धो की वात भी उड़ गई और जन्म से ही उच्चता तथा नीचता, पवित्रता तथा अपवित्रता समझी जाने लगी। परिणाम यह हुआ कि जन्मना जाति वाद को लेकर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद करने वाली फौलादी दीवारे खडी हो गईं और अखण्ड मानव जाति खण्ड-खण्ड कर दी गई। जन्मना जातिवाद की परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाला Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ सप्तम अध्याय ? वैदिक धर्म है, और कर्मणा जातिवाद की परम्परा का प्रतिनिधित्व जैनधर्म करता है। जैन धर्म जन्मना जातिवाद का सर्वथा विरोधी है । जैनधर्म कहता है कि मनुष्य जब जन्म लेकर आता है तो वह क्या ले कर आता है ? वह हड्डियों का और मास का ढेर ही तो लेकर आता है । क्या किसी की हड्डियो पर वाह्मणत्व की, किसी के मास पर क्षत्रियत्व को या किसी के चेहरे पर वैश्यत्व की मोहर लगी हुई होती है। या ब्राह्मण किसी और रूप में, और क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र किसी और रूप मे आता है? ग्राखिर शरीर तो शरीर ही है । वह पुद्गलो का पिण्ड स्वरूप है । उसमे जाति-पाति का कोई नैसर्गिक भेद नही है । वह अपने आप मे पवित्र या अपवित्र नही है । पवित्रता या अपवित्रता का आधार आचरणगत शुद्धता और अशुद्धता है । प्राचरण ज्यो- ज्यो पवित्र होता चला जाता है, त्यो त्यो शुद्धि बढती चली जाती है, और ज्यो- ज्यो वह अपवित्र होता चला जाता है, त्यो त्यो प्रशुद्धि वढती चली जाती है । किसी वर्ण विशेष मे जन्म लेने मात्र से न कोई पवित्र हो सकता है और न कोई अपवित्र या अशुद्ध हो सकता है। शुद्धता या शुद्धता का जन्म के साथ कोई सम्बन्ध नही है । यही जैन धर्म का साम्यवाद है ।" 2 वेदों की पौरुपेयता वैदिक धर्म वेदो मे प्रतिपाद्य विषय को ईश्वरीय ज्ञान कहता है, और उसे पौरुषेय - पुरुषकृत नही मानता है । उसका विश्वास है कि वेदो का एक-एक शब्द ईश्वर का अपना कहा हुआ है और वह ऋषियो के माध्यम से वेदो के रूप मे हमारे सामने अवस्थित है । यही उसकी अपौरुपेयता है, किन्तु जैनधर्म वेदो को अपौरुषेय नही मानता है । उसका विश्वास है कि वेद पुरुषकृत है । इनकी रचना मनुष्य ने की Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर २९८ है, इनका निर्माता ईश्वर नहीं है । वेदी को यदि ईश्वर की रचना माना जाए, तो वह रचना तीन प्रकार से हो सकती है- एक तो ऐसे कि ईश्वर ने स्वयं पहले उनको लिख लिया हो, और फिर उसकी नकल करके अन्य ऋषियों ने उसकी कॉपी कर लो हो । दूसरे इस तरह कि ईश्वर बोलता गया हो और किसी पढे-लिखे मनुष्य ने उसे लिस लिया हो, जैसे प्रज्ञाचक्षु विद्वान स्वयं बोलता जाता है और लिखने वाला उसे लिखता चला जाता है । ऐसे ही ईश्वर ने वेदो को बोल दिया हो और किसी दूसरे ने उन्हें लिख लिया हो । तथा तीसरा प्रकार यह भी है कि ईश्वर ने किसी के कान में वेदों को सुना दिया हो और उसने ग्रन्य लोगों के हित के लिए स्वय पुस्तक रूप मे लिखकर तैयार कर दिया हो। इन तीनो मार्गों के सिवाय और कोई अन्य मार्ग दिखाई नही देता, जिसके सहारे ईश्वर ने वेदों का निर्माण किया हो । उक्त तीनो प्रकारो मे से पहले मार्ग से वेदो का बनना सर्वथा असभव है, क्योंकि जिस ईश्वर को वैदिक दर्शन सर्वव्यापक और निराकार मानता है । लिखने के वास्ते उसके पास हाथ कहा है ? जब उसका कोई आकार ही नहीं है, शरीर ही नहीं है, तो उसमे हाथ, पाव आदि शारीरिक अवयवो की अवस्थिति कैसे सभव हो सकती है? और हाथों के विना लेखनादि कार्य कैसे हो सकता है ? वैदिक दर्शन स्वय भी वेद- निर्माण मे इस पद्धति को स्वीकार नही करता है । अत्र. वेद रचना मे पहला प्रकार किसी भी तरह सगत नही ठहरता है। दूसरा प्रकार भी वेदों की रचना मे प्रामाणिक प्रमाणित नही होता, क्योकि ईश्वर जब निराकार है, और निराकार होने से उसके मुख, जिंहा है ही नहीं, तब वह स्वय बोल कर वेदो को लिखा भी कैसे सकता है ? श्चतः दूसरा प्रकार भी वेदों के निर्माण मे सत्य नही ठहरता है । रही " Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAWAAAAAAAAA २९९ सप्तम अध्याय तीसरे प्रकार की बात, उसकी भी परीक्षा कर लीजिए. । प्रथम तो जब ईश्वर निराकार है, तब मुखादि के अभाव मे उस मे उपदेश देने की क्रिया का होना असंभव है, दूसरे यदि कुछ देर के लिए ऐसी क्रिया - मान भी ली जाए तो वह क्रिया भी सर्वव्यापक ईश्वर मे सर्वव्यापिनी ही होगी। फिर ऐसी अवस्था मे ईश्वर का उपदेश सब जीवो के हृदयो मे जाना चाहिए। जिससे सभी जीव वेदो की रचना कर सके। ऐसा न होकर केवल अग्नि, वायु, आदित्य और अगिरा इन चार ऋषियो के हृदयों मे ही और वह भी केवल क्रमश चारो मे ही एक-एक वेद का प्रकाश क्योकर हुआ? क्योकि सर्वव्यापक ईश्वर की क्रिया सर्वव्यापिनी होती है, वह एक-देशीय नहीं हुआ करती। . वैदिक धर्म की मान्यता के अनुसार ईश्वर ने वेदो का ज्ञान चार ऋषियो को दिया, फिर उन ऋषियो ने वैसा उपदेश अन्य को दिया। उसने फिर वैसे उपदेश से दूसरो को पढाया,इस प्रकार परम्परा चलतेचलते जब स्मरण-शक्ति क्षीण होने लगी, तो उन्होने उन उपदेशो को अक्षर रूप मे लिख डाला, जो कि आज चारो वेदो के रूप मे हमारे सामने अवस्थित है। यहा एक प्रश्न होता है कि उन ऋषियो ने ईश्वर के उपदेशानुसार ही ठीक ज्यो के त्यो वेद अक्षर-रूप मे लिख डाले थे, इसमे क्या प्रमाण है ? वे ऋषि भी तो आखिर असर्वज्ञ और ससारी मनुष्य ही थे । ईश्वर की अपेक्षा अल्पज्ञानी थे। उन की प्रात्मा मे राग-द्वेष भी निवास करता था, वे वीतराग नही थे। फिर उन्होने अपने ज्ञान की कमी से या कदाचित् वुद्धिप्रखरता से या राग और द्वेष के कारण उस ईश्वर के उपदेश को अक्षर रूप मे कम,अधिक या कुछ का कुछ लिख डाला हो, यह सब सभव है। ऐसी दशा मे वेदो की प्रामाणिकता और अपौरुषेयता कैसे सुरक्षित रह सकती है ? Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ऐसी अनेको युक्तिए और भी उपस्थित की जा सकती है, जिनसे वेदो की पोरुषयता किसी भी प्रकार प्रमाणित नही हो सकती, परन्तु विस्तारभय से यही इस विषय को समाप्त करते हुए अन्त मे इतना निवेदन करेंगे कि जैनधर्म केवल वेदो को हो नही, प्रत्युत प्रत्येक शास्त्र को पौरुषेय मानता है । उसका विश्वास है कि शास्त्रों का निर्माण मनुष्य करता है, भगवान या ईश्वर ने उसकी रचना नहीं की है । इसके अलावा, यह भी समझ लेना श्रावश्यक है कि जैनधर्म वेदो को जहा पुरुषकृत मानता है, वहां वह उसको सर्वेसर्वा प्रामाणिक भी स्वीकार नही करता। जैनधर्म उसी शास्त्र को प्रामाणिक और श्रध्यात्म शास्त्र स्वीकार करता है, जो ग्रहिंसा, सयम और तप का विवेचन " करता हो, और मानव जगत को इस त्रिवेणी 'मे गोते लगाने की प्रेरणा प्रदान करता हो । जिस शास्त्र मे ये वाते नही होतो, बल्कि जो शास्त्र हिंसा का विधान करता है, जैनधर्म उस शास्त्र को ग्रव्यात्म शास्त्र ही मानने को तैयार नही है । वेदो मे हिंसामय यज्ञों का विधान है, ऐस अनेको मन्त्र वेदो मे पाए जाते है जो स्पष्ट रूप से मासाहार तथा पशुबलि की प्रेरणा देते हैं । यजुर्वेद अध्याय १९, मन्त्र २०, तथा यजुर्वेद अध्याय १३, मन्त्र ९, आदि ऐसे अनेको स्थल हैं जो हिंसा का स्पष्टरूप से पोषण करते है । इसीलिए जैन धर्म वेदो पर विश्वास नही रखता, और उन्हे प्रामाणिक रूप से स्वीकार नही करता । N ३०० वेदो मे ऐसे-ऐसे ग्रश्लील मन्त्र भी आते हैं, जिन्हे मुन कर लज्जा आती है । उदाहरणार्थ-यजुर्वेद अध्याय ६, मन्त्र १४, तथा यजुर्वेद अध्याय २३ के १९ वे मन्त्र से ले कर ३१वे मन्त्र तक अश्लीलता का वर्णन देखा जा सकता है । जो वेद धर्म के नाम पर की जाती पशुहिंसा तथा ईश्वरकर्तृत्व आदि की असगत और तर्कविरुद्ध वातो, तथा 1 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय अश्लील कथनो से भरे पड़े है जैन धर्म ननको प्रामाणिक कसे मान सकता है। - ___ वैसे जैनो को वेदो से कोई शत्रुता नही है । जैनो को तो, वेदो मे यज्ञ के नाम पर जो पशुहिंसा का विधान किया गया है, वीतराग ईश्वर मे जो जगतकर्तृत्व आदि का असगत विश्वास है, तथा अश्लील कथन हैं, उनका विरोध है । और यह विरोध किसी द्वेष को लेकर नही है, किन्तु वस्तुस्थिति के आधार पर है। वेदो को अपौरुषेय मानना, हिंसा को धर्म कहना, जड को भगवान समझना अर्थात् मूर्तिपूजा करना, ईश्वर को जगत का निर्माता, भाग्य का विधाता, कर्मफल प्रदाता, अवतार लेकर आता, इस प्रकार स्वीकार करना आदि बाते किसी भी तरह युक्तियुक्त प्रमाणित नही होती हैं। इसीलिए जनधर्म वंदो को अपना धर्म-ग्रन्थ मानने से इन्कार करता है। . . . ईश्वर का कर्तत्व - वैदिकधर्म जगत का नियामक और रचयिता ईश्वर को मानता हैं । उसका विश्वास है कि ईश्वर ही ससार का सर्वेसर्वा है, उसक सकेत के बिना वृक्ष का पत्र भी कम्पित नहीं हो सकता । ससार मे जो कुछ भी होता है, मनुष्य, पशु, पक्षो आदि प्राणियो की जो भी चेष्टाए दृष्टिगोचर होती है, उन सब का मूल प्रेरक ईश्वर है । ईश्वर की इच्छा के विना कुछ भी नही हो सकता। किन्तु जैन धर्म का ऐसा ६ यदि कोई महानुभाव विशेष रूप से वेदगत उक्त अश्लील बातो को जानना चाहें उसे पण्डित श्री अजित कुमार जैन शास्त्री द्वारा लिखे "सत्यार्थ दर्पण' के "वदो को ईश्वरीय ग्रन्थ समझना भूल है " इस लेख को पढना चाहिए। इस पुस्तक की प्राप्ति- मत्री, साहित्य विभाग, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा से हो सकती है । Vvvvvvv Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर .... ३०२ विश्वास नहीं है। जैनधर्म जगत को अनादि अनन्त मानता है। उस का कहना है कि इस जगत को ईश्वर या किसी अन्य देवी-देवता ने नही बनाया है। यह जगत पहले था, अब है। और भविष्य मे यह रहेगा। त्रिकालवर्ती इस जगत का न किसी ने निर्माण किया है और न कोई इस का विनाश कर सकता है। - जैनधर्म का विश्वास है कि जो परमात्मा सासारिक प्रपचो से -मुक्त हो चुका है,वह पुन उन की खट-पट मे नही पड़ता है ? यदि यह मान लिया जाए कि परम दयालु परमात्मा ससार का सर्वेसर्वा है तो जीवो को दु.खी क्यो रखता है? क्यो नही सव जीवो को एकान्त सुखी बना डालता? किसी पिता का पुत्र नदी मे डूबता रहे और वह समर्थ होता हया भी यदि किनारे पर खडा देखता या ताकता रहे तो उसे पिता कहना चाहिए? वह पिता है या पुत्रघातक ?-ऐसे निर्दय व्यक्ति को जैसे पिता नहीं कहा जा सकता, ऐसे ही उसे परमात्मा नही कहा जा सकता जो संसार का सर्वेसर्वा होकर भी दु.खियो पर दया नही करता। फिर भी यदि उस ईश्वर को करुणा का सागर कहा जाए तो यह ईश्वर के ईश्वरत्व का उपहास नही तो और क्या है ? जैनदष्टि से ईश्वर जगत का निर्माता नहीं है, भाग्यविधाता नही है, कर्मफल-प्रदाता नही है तथा अवतार लेकर ससार मे आता नही है । जैन दृष्टि से ईश्वर के सम्बन्ध मे प्रस्तुत पुस्तक के "ईश्वर मीमासा" नामक छठ अध्याय मे विशेष ऊहापोह किया जा चुका है। जिज्ञासुनो को वह स्थल देख लेना चाहिए। जगत की महाप्रलय नहीं होती वैदिक धर्म का विश्वास है कि ससार मे जव प्रलय होती है, तब पर्वत, नदी, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी जीव Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ सप्तम अध्याय तथा उनके शरीर श्रादि सभी पदार्थ नष्ट हो जाते हैं, एक भी पदार्थ शेष नही रहने पाता, समस्त जड पदार्थ परमाणु रूप हो जाते हैं । चर, चर जगत का सर्वथा विनाग ही वैदिक धर्म में प्रलय कहा जाता है, और यह प्रलय चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष तक रहती है । किन्तु जैनधर्म इस प्रलय में विश्वास नही रखता । उसका कहना है कि मनुष्य, पशु आदि का वीज नाश न कभी हुआ है, और न कभी होगा। वैदिक धर्म सम्मत प्रलय के सम्वन्व मे अनेको प्रश्न उपस्थित होते हैं । इस प्रलय का कारण क्या है ? इसे कौन लाता है ? यदि इस का कारण ईश्वर को माना जाए तो यह सत्य सिद्ध नही होने पाता । क्योकि निराकार ईश्वर साकार वस्तुग्रो को कैसे विगाड़ सकता है ? शुद्ध, निर्विकार ईश्वर को ऐसा करने की श्रावश्यकता भी क्या है ? क्या जगत की अवस्थिति से उसका कुछ नुक्सान होता है ? या ऐसा कोनसा दवाव या वोझ उसके ऊपर पड़ा हुआ था, जिसके कारण उसे विवश हो कर विश्व का सर्वनाश करना पडता है ? कुछ समझ मे नही आता । जब “ विषवृक्षोऽपि सम्वद्र्यं स्वय छेत्तुमसाम्प्रतम् " $ ऐसा सिद्धात है तो ईश्वर ससार के सहार जैसा दुष्ट कर्म कैसे कर सकता है? एक ओर ईश्वर को निर्विकार तथा पवित्र कहना और दूसरी ओर उस पर ससार के सहार का निर्मूल कलक लगाना, यह कहा की शिष्टता है ? और कितनी विचित्र ईश्वर की उपासना है ? कुछ समय के लिए यदि यह मान लिया जाए कि ससार के सभी पदार्थों का सर्वथा नाग हो जाता है, तो प्रश्न उपस्थित होता है कि ९ यदि विष का वृक्ष भी लगा दिया जाए, उसका सम्वर्धन कर दिया जाए तो उसका सहार नही करना चाहिए । अर्थात् - सरक्षित तथा पालित जीवन का नाश नही करना चाहिए । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर .... ३०४ .. ~~~~ian ranr rrrrrrrrrr पुन जगत की उत्पत्ति कसे होगी ? प्रकृति का सिद्धांत है कि प्रत्येक पदार्थ अपने उपादान कारणों से ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकार से नही । जव उपादान कारण ही नष्ट हो गया तो तज्जन्य कार्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। आप प्रतिदिन देखते हैं कि ग्राम के बीज से ही ग्राम्र का वृक्ष उत्पन्न होता है । जिस वीज से नीम का वृक्ष पंदा होता है उससे आम का पेड पंदा नही हो सकता इसी तरह सिंह जाति के जीव सिंह के वीर्य से ही उत्पन्न होते हैं, मनुष्य को पंदायश के लिए मनुष्य का ही वीर्य होना निहायत ज़रूरी है । इस प्रकार सभी गर्भज, अण्डज और वृक्ष आदि जीवो के शरीरो के उपादान कारण निश्चित हैं, अत. वे अपने उपादान कारण से तो उत्पन्न हो सकते हैं, परन्तु हज़ारो यत्न करने पर भी उपादान कारण मे भिन्न दूसरे पदार्थ से उनका शरीर नहीं बन सकता। ऐसी दशा मे प्रलयकाल मे मनुष्य, पश् आदि सबके समाप्त हो जाने पर मनुप्य, पशु, पक्षी आदि प्राणियो की उत्पत्ति नही हो सकेगी। जगत की सर्वथा प्रलय मान लेने पर ऐसी अनेको आपत्तिया और प्राशकाए उपस्थित होती है, जिनका कोई सन्तोषजनक समाधान नही मिलता। ' इसके अलावा प्रलय का समय सृष्टिकाल के बराबर चार अरव ३२ करोड़ वर्ष का बताया जाता है। यह किस हिसाब से और किस नियम के अनुसार बतलाया गया है? यह विचारणीय है। क्या ईश्वर ने सदा के लिए प्रलय और जगत का समय निश्चित कर रखा है ? या किसी ने ईश्वर पर ऐसा प्रतिवध लगा रखा है कि इसी तरह कार्य करते रहो? यदि ईश्वर पर किसी ने प्रतिबन्ध लगा रखा है तो प्रतिबन्धक ईश्वर से भी बडा होना चाहिए ? आदि ऐसे अन्य अनेको प्रश्न पैदा हो जाते है, जिनका कोई युक्तिसगत उत्तर प्राप्त नहीं होता। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ सप्तम अध्याय प्रलय होना,यद्यपि जैनधर्म मे भी माना गया है किन्तु यहा सकारण और खण्डरूप प्रलय को स्वीकार किया गया है। जैनधर्म ने प्रलय करने का दोष ईश्वर को नहीं सौंपा है, किन्तु वह कालस्वभाव से इस की सत्ता को मानता है। जैनधर्म खण्डप्रलय के कारण अतिशय भयकर महातूंफान (आधी) अतिजलवृष्टि और अग्निवृष्टि आदि बतलाता है । तथा इन कारणो से भी आकाश, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र आदि का प्रलय नही मानता है। इस प्रलय मे मकान, वृक्ष, तथा बहुत से जोवो के गरीर को नाश होता है, किन्तु गर्भज, अण्डज आदि प्राणियो के युगल (दम्पती) अवश्य जीवित रहते है। यह प्रलय भी सर्वत्र नहीं होती किन्तु कुछ एक 'क्षेत्रो मे । जैसे गतवर्षों मे भूकम्प, जलवृष्टि, अग्निकाड और तूफान आदि से जापान मे और ईस्वी सन् १९४७ मे भारतवर्ष के कई स्थानो की प्रलय हुई है । ऐसे ही यह प्रलय होती है। अन्तर केवल इतना है कि यह प्रलय बहुत छोटी और वह बहुत बड़ी होती है । भाव यह है कि वैदिक धर्म महाप्रलय या सर्वप्रलय मानता है, और जैनधर्म खण्डप्रलय । सर्वप्रलय मे आकाश को छोड कर सब पदा. र्थो की प्रलय हो जाती है, जबकि खण्डप्रलय मे पदार्थों का नाश तो होता है किन्तु सर्वनाग या बीजनाश नही होने पाता है। इसमे गर्भज और अण्डज जीवो के स्त्री पुरुष जीवित रहते है। जनदर्शन ने काल के अवसर्पिणी और उत्सपिणी ये दो विभाग किए हैं। अवसर्पिणो काल मे पुद्गलो के वर्ण, गन्ध, रस और स्पगं हीन होते चले जाते हैं। शुभ भाव घटते हैं और अशुभ भाव बढते हैं। इसके छ विभाग हैं- १-मुषमंसुषमा, २-सुषमा, ३-सुषमदुषमा, ४-दुषम-सुषमा, ५-दुषमा, ६-दुषमदुषमा । प्रत्येक विभागो को जनदर्शन में 'पारा' शब्द से व्यक्त किया गया है। पहला पारा सव प्रकार Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर VN के मुखो मे परिपूर्ण होता है। दूसरे बारे मे सुखोत्पादक सामग्री मे कुछ हीनता या जाती है। तीसरे बारे मे सुख के साथ दुःख भी होता है। चौथे मे दुख विशेप और सुव कम होता है। पांचवा पारा दुखप्रधान है, तथा छठा सर्वथा दु खो से परिपूर्ण होता है। इसी भाति उत्सपिणी काल के भी छ पारे होते है- १-दुपमदुपमा, २-दुपमा, ३-दुषमसुषमा, ४-सुपमदुपमा, ५- सुषमा, और ६- सुषमसुषमा । अवसर्पिणी काल के जो छ पारे हैं वे ही पारे इस काल मे उलटे रूप से होते है। इनका स्वरूप भो ठीक वसा ही है, किन्तु विपरीत क्रम मे। जैसे अवसपिणी काल का छठा पारा दुपमदुपमा है, किन्तु उत्सपिण काल का यह पहला पारा होगा । इसी भाति अगले पारो के सवध मे भी जान लेना चाहिए । अन्तर केवल इतना है कि अवपिणी काल मे वर्ण, रस, गन्ध आदि को पर्यायो मे तथा मनुष्य प्रादि की अवगाहना, स्थिति, सहनन और सस्थान आदि में उत्तरोत्तर हीनता होती चली जाती है, जवकि उत्सर्पिणो मे क्रमश वृद्धि। . . अवसर्पिणीकाल का जव छठा पारा प्रारम्भ होता है, तब जीवो के पापाविश्य से शरीरो मे भयकर व्याधिया पैदा हो जाती हैं, मेघ, आग और विप आदि की वाए करते हैं. सूर्य अधिक तपता है, चन्द्र अति गीत बन जाता है । परिणामस्वरूप वनस्पतियां और त्रस प्राणी नष्ट होने आरम्भ हा जाते हैं, पहाड और नगर पृथ्वी से मिल जाते हैं, केवल एक वैताठ्यपर्वत स्थिर रहता है, गगा और सिन्धु ये दो नदिया कायम रहती हैं, इनमे मच्छ, कच्छप आदि जीव रहते हैं। इस बारे के मनुष्य अधिक से अधिक एक हाथ के होते है और इनकी उत्कृष्ट प्रायु बीम वर्ष की होता है । ये वताढय पर्वत की ७२ विलो मे रहते हैं । ये मासाहार होते है । वर्म कर्म का इन को कोई बोध नहीं होता। इसी. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ सप्तम अध्याय लिए ये प्रागः नरक और तिर्यच गति के गामी जीव होते हैं। उत्सर्पिणी काल के प्रारम्भ होने पर इनके विकास का उदय होता है। उससे पहले तो ये बहुत बुरी अवस्था मे रहते हैं। जैन धर्म छठे चारे की इस दशा को ही खण्ड- प्रलय के नाम से पुकारता है । इसमें मनुष्य, पशु श्रादि प्राणियो का बीजनाश स्वीकार नही करता जब कि वैदिक धर्म के महाप्रलय मे सर्वनाश का ही रूपातर है । यही इन दोनो मे पारस्परिक अन्तर है । श्राद्ध की यथार्थता ~~~ 1 श्राद्ध वैदिक धर्म का अपना पारिभाषिक शब्द है । इसका अर्थ है - वर्ष के अनन्तर पितरो को प्रन्न करने के लिए उनकी मरणतिथि के दिन श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणो का अन्न, वस्त्र आदि का दान करना, ब्राह्मणी को खोर आदि पदार्थों का भोजन खिलाना, इस विचार से खिलाना कि इनके द्वारा यह भोजन हमारे पितरो के पास पहुच जायगा । इससे उनकी तृप्ति तथा प्रसन्नता होगी । वदिक धर्म का विश्वास है कि पितरों की मरणतिथि को श्राद्ध करने से, ब्राह्मणो को भोजन खिलाने से पितर (स्वर्गीय आत्माए) प्रसन्न होती है. तृप्त हो जाती हैं । किन्तु जैनधर्म का ऐसा विश्वास नही है । यह कहता है कि जो पितर (मृत पूर्वज) लोकान्तर को प्राप्त हो चुके हैं, वे अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार देव, नरक आदि गतियो मे उत्पन्न हो चुके हैं, वहा के सुख-दु ख भोग रहे हैं, उन्हें फिर पूर्व जन्म के पुत्रादि द्वारा दिए पिण्डो की इच्छा कैसे उत्पन्न हो सकती है ? हम सवस्वय भी, तो कही न कही से आए है, हमारे भी पुत्र आदि होगे ही, हम भी तो किन्ही के पितर है ही, जब हम कभी उनसे अन्नादि को इच्छा नही करने हैं, तो हमारे पितर हम से अन्नादि की इच्छा क्योकर कर सकते है ? यदि 1 ! 1 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ revermoremmamanna प्रश्नो के उत्तर ३०८ हमारे मन मे पूर्वजन्म के पुत्रादि से धनादि प्राप्ति की इच्छा हो भी तो जैसे हमारी यह इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती तो हमारे पितरो की इच्छा कैसे पूर्ण हो सकती है? .. श्राद्ध से मृतक व्यक्तियो की इच्छा पूर्ण होती है, या तृप्ति होती है, यह बात सर्वथा असगत प्रतीत होती है। यदि गंभीरता से इस पर विचार किया जाए तो इस मे कुछ भी तथ्य मालूम नहीं पड़ता। यदि श्राद्ध को मान लिया जाए तो तैलाभाव से बुझा हुआ दीपक ब्राह्मण आदि को तैल देने से प्रज्वलित हो जाना चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं है । $ बुझे हुए दीपक को जलाने के लिए ब्राह्मण को कितना भी तेल क्यों न दे दिया जाए पर उस से दुकान पर पड़ा दीपक कभी जल नही सकता । जव इसी ससार मे ब्राह्मण को दिया गया दान अपने इप्ट स्थान पर नही पहुच पाता तो भला वह परलोक मे पितरो को कैसे पहुंच सकता है ? - कल्पना करो, एक व्यक्ति मरुभूमि मे गया हुआ है । सब जानते हैं कि मरुभूमि मे पानी की बड़ी कमी होती है । इसलिए घर वालो ने सोचा कि उसको पानी पहुचाना चाहिए। पहुचाया कैसे जाए ? जब यह प्रश्न सामने पाया तो झट एक ब्राह्मण को बुलाया गया। जो ब्राह्मण पितरो को परलाक में भोजन पहुचा सकता है, वह मरुभूमि मे पानी चयो नही पहुंचाएगा? ऐसा सोच कर यदि कोई ब्राह्मण देवता को निमंत्रण दे और उसे पानी पिला दे तो क्या पानी मरुभूमि में स्थित मनुष्य को मिल जायगा ? उत्तर स्पष्ट है, कभी नहीं। ब्राह्मण द्वारा पीया गया पानी जव सौ या दो सौ मील पर भी नही पहुंच सक्ता, $ मृतानामपि जन्तूना, श्राद्ध चेत्तृप्तिकारणम् । तन्निर्वाणदीपन्य, स्नेहः संवर्वच्छिखाम् ।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ ..... सप्तम अध्याय - जनदम तब परलोक मे उसके द्वारा खाया गया भोजन पितरो के पास कैसे जो सकता है ? जनदर्शन का विश्वास है कि जब मनुष्य मरता है, तो उसके अनन्तर बहुत शीघ्र ही वह कही न कही जन्म धारण कर लेता है, उसे नवीन शरीर प्राप्त हो जाता है, और उस शरीर मे रह कर वह अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार सुख-दु ख का उपभोग करता है । पुत्र, पुत्री, बहिन, भाई आदि द्वारा किया गया कोई भी शुभ या अशुभ कार्य उस के सूख-दुख मे ज़रा भी फेरफार नही कर सकता। इसलिए श्राद्ध की कल्पना के पीछे कोई सत्य नहीं है. केवल ब्राह्मणो का अपना स्वार्थ निवास करता है । आप वे ढूंस-ठूस कर भोजन खा जाते हैं, स्वय तृप्त होते हुए प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । तथापि कहा जाता है कि तृप्ति पितरो की होती है। यह सत्य है कि दान करना शुभ कार्य है, भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना गृहस्थ का कर्तव्य बनता है। नवविध पुण्यो मे अन्न पुण्य को सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है, किन्तु ब्राह्मणो को खिलाने से पितरो की तृप्ति होती है, इसमे कोई सत्यता या यथार्थता नही है। श्राद्ध की अयथार्थता को एक उदाहरण से समझ लीजिए। किसी जगह राजा के मुंह लगे दरवारियो के मन मे मालपूडे खाने का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होने परस्पर मत्रणा करके राजा से कहामहाराज पूर्वजो का श्राद्ध होना चाहिए, और उसमे सव को मालपूड़ खिलाने चाहिए । राजा भोला था, वह बातो मे आ गया, उसने मालपूडे बनवाने की प्राज्ञा दे दी। राजा का एक ऐसा मन्त्री भी था, जो राजा का सदा हित चाहता था। उसने सोचा- इन्होने माल उडाने की यूक्ति वनाई है। पर राजा के साथ धोका करना ठीक नहीं है। यह Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wrrrrrrrrrrrrrrrrr प्रश्नो के उत्तर ३१० विचार कर उसने राजा से प्रार्थना की- अन्नदाता ! अपने अमुक महाराज को अफीम खाने का वड़ा शोक था। वे भोजन के विना रह सकते थे, पर अफीम के विना उनका काम नहीं चलता था। वे कम से कम एक तोला अफाम प्रतिदिन सेवन किया करते थे । इन्हे स्वर्ग में गए सौ वर्ष हो गए है । इतने वर्षों तक उनको अफोम नहीं मिल पाई। इसलिए आज कम से कम ढाई मन अफीम मालपूड़े खाने वालो को खिला दीजिए, ताकि मालपूड़ो के साथ-साथ उन महाराज को अफीम भी प्राप्त हो जाए। इस बात को सुनते ही पेटू दरवारी सोच मे पड़ गए। यदि मालपूड़े खाएगे ता अफीम भी खानी पडेगी। अफीम खाते ही पितृलोक की यात्रा करना पड़गी। यह सोंच कर उन्होने किसी तरह श्राद्ध का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। फिर कभा उन्होंने श्राद्ध का नाम नहीं लिया। इस कथानक से स्पष्ट हो जाता है कि श्राद्ध के मूल मे कुछ यथायंता नहीं है। स्वार्थपूति के लिए ही इस परम्परा को ब्राह्मणा ने जन्म दिया है। एक और उदाहरण स इसकी अयथार्थता को समझिए एक आदमी घर मेश्राम का वृक्ष लगा कर गगा स्नान करने गया। वहा वह गगा का जल उछाल कर वाहिर डालने लगा। किसा ने उसस ऐसा करने का कारण पूछा तो वह वोला- भाई मैं यहां अपने घर में ग्राम का पौधा लग कर पाया हू । यहा चले पाने के कारण बहुत दिनो से उसको पाना नही दिया । आज मौका पाकर मैं उसे पानी दे रहा हू। वह आदमो बोला- मूर्ख । यहा पानी उछालने से तेरे घर मे पहुच जायगा? विश्वास रख, ऐसा नही हो सकता। इस उदाहरण से भी स्पष्ट है कि दूसरी जगह डाला हुआ पानी यदि पौधे को लाभ नहीं पहुवा सकता तो इस लोक मे दूसरो को खि Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय लाने स परलोक वासी व्यक्ति के पास वह कैसे जा सकता है? वस्तुत. मृतात्मा के निमित्त किया जाने वाला कोई भी विधिविधान मृतात्मा को लाभ नही पहुचा सकता। हां, यह सत्य है कि यदि कोई व्यक्ति मरकर देवता बन जाए, अवधिज्ञान से अपने परिवार को जान ले, उससे मोह रखे और अपनी मान प्रतिष्ठा के लिए परिवार वालो को दान-पुण्य के लिए मकेत करे, तो सकेतानुसार दान पुण्य करने से वह देव अपनी व्यक्तिगत कामना पूर्ण होने के कारण अवश्य सन्तुष्ट हो सकता है किन्तु प्रत्येक मृतात्मा को निमित्त बना कर दान-पुण्य करने से उसकी तृप्ति होती है, ऐसा सोचना ठीक नहीं हैं। क्योकि जो आत्मा मनुष्यलोक को छोड कर नरकगति मे, तिथंच गति या मनुष्य गति मे चला गया है, उन को पूर्व जन्म का कोई ज्ञान भी नही है, उसे पूर्वजन्म के परिवार से मानप्रतिष्ठा प्राप्त करने का भी कोई विचार नहीं है। अत उसके निमित्त किया गया दान उसके हर्प का कारण बन सकेगा,ऐसा नही हो सकता। देवता भी अवधि ज्ञानी होने से अपनी मान प्रतिष्ठा देख कर प्रसन्न होता है, उसके निमित्त गरीब, गौ, ब्राह्मण, कुत्ता, काक आदि प्राणियो को जो दान दिया है, वह देवता को पहुचता है ऐसी बात नही है। देव को निमित्त बना कर किसी को जो चाहे दान दे दे किन्तु उसमे से देव के पास कुछ नही पहुचता । देवता तो केवल अपनी मान प्रतिष्ठा होने के कारण ही संतुष्ट हो जाते हैं। . ! - अपुत्रस्य गतिनास्ति . वैदिक धर्म का विश्वास है कि जो- पुत्रहीन होकर व्यक्ति मर जाता है,उसकी गति नही होतो वह शुभगति को प्राप्त नहीं करता। $ कोषकारो के मत मे मृत्यु के अनन्तर जीवात्मा की भली बुरी दशा का Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ३१२ उसकी ग्रात्मा संसार मे भटकतो रहती है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को पिता वन कर ही स्वर्ग सिधारना चाहिए। ग्रन्यया गतिहीन जीवन ससार मे चक्र काटता रहेगा, उसे कही शानि की प्राप्ति नहीं होगी । किन्तु जनधर्म का ऐसा विश्वास नहीं है। जैनधर्म कहना है कि गति का सम्बन्ध व्यक्ति के कर्मों के साथ है। शुभ कर्म मे शुभ गति, और अशुभ कर्मों से अशुभ गति की प्राप्ति होती है । पुत्र पिता को दुर्गति ने बचा कर सुगति मे नहीं पहुंचा सकता और पिता भी पुत्र को मुगत मे नही ले जा सकता है । यदि दूसरों के कर्मों का मनुष्य का फल मिलने लगे तो अपना किया हुआ कर्म निष्फल हो जायगा । परलोक को बात को जाने दीजिए । इमी लाक मे पुत्र पिता के अशुभ कर्मों का, न समाप्त कर सकता है, और न स्वयं उनका उपभोग कर सकता है । पिता यदि आखी से अन्धा है, कर्मों का सताया हुआ है तो ऐसे पिता को पुत्र आखे नही दे सकता, उसके कर्म-जनित राग को शात नहीं कर सकता। जब इस लोक मे पुत्र पिता को उसके कर्मजन्य दुख से बचा नही सकता, तो वह परलोक मे उसे कैसे बचा सकता है ? उसे शुभ गति मे कैसे पहुचा सकता है ? ?? दूसरी बात, पुत्र को प्राप्ति सभोग से होती है, स्त्री पुरुष का पारस्परिक संगम होने से पुत्र प्राप्त हो सकता है। जहां सगम है, मैयुन है, वहा ब्रह्मचर्य का भग हाना अनिवार्य है । ब्रह्मचर्य को परम धर्म माना गया है । शास्त्रकारो ने तवसु वा उत्तम् वमचेर यह कह कर समस्त तथा मे ब्रह्मचर्य का श्रेष्ठ तर माना है । तप धर्म का हो रूपातर है । ऐसी दशा मे ब्रह्मचर्य का भग करना धर्म का भग करना नाम गति है, किन्तु प्रस्तुत में गति शब्द सद्गति, शुभस्थान में उत्पत्ति का वोधक है । " Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय है । धर्म को भग करने से कभी पुण्य नहीं हो सकता। धर्म के घात से तो पाप ही हुआ करता है । अत. जैन धर्म का कहना है कि वैदिकधर्म जो " अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' यह कह कर पुत्र उत्पन्न करने की प्रेरणा देता है, तो वह ससार को पापमय उपदेश देता है । ऐसे पापोपदेशक वाक्य जिस शास्त्र मे होते हैं उसे तो शास्त्र ही नही कहा जा सकता। जीवन को शासित करने वाला, कुपथ से हटा कर सुपथ मे चलाने वाला शास्त्र हो वास्तव मे शास्त्र कहलाने को योग्यता रख सकता है, अन्य नही। ___यदि " अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' इस सिद्धात को मान लिया जाए तो जो ऋषि-महर्षि और अनेक तीर्थंकर कुमार अवस्था मे ही दीक्षित हो जाते है, साधु बन जाते हैं, उनकी क्या दशा होगी ? उन की तो कभी गति हो ही नही सकती, और उक्त सिद्धात के अनुसार न उन की गति कभी सभव ही है। ऐसा मान लेना कहा तक ठीक है कि आजोवन ब्रह्मचर्य की पालना करने वाले महापुरुषो को तो सद्गति प्राप्त न हो और विषय-भोग भोग कर पुत्र को उत्पन्न करने वाले सुगति प्राप्त करे ? कोई भी वुद्धिशाली व्यक्ति इस बात को कभी मानेगा नहीं, अन्य की वात दूसरी है। . मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है वैदिक धर्म मे सनातनधर्मी और आर्यसमाजी ये दो वर्ग पाए जाते हैं। आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द जी सरस्वती थे । आर्यसमाज का विश्वास है कि जीव सर्वज्ञ नही हो सकता, सर्वज्ञ तो केवल एक परमेश्वर है । किन्तु जैनधर्म कहता है कि प्रत्येक भव्य आत्मा ज्ञानाच्छादक कर्मों का नाश करने पर तथा प्रात्मज्ञान के सर्वथा अनावृत्त हो जाने पर सर्वज्ञ पद को उपलब्ध कर सकता है । सर्वजता Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ३१४ केवल परमेश्वर का ही गुण नहीं है । यह गुण समस्त जीवों में पाया जाता है, परन्तु वह कर्मों के कारण श्राच्छादित हो रहा है, जब कर्मों का ग्रावरण दूर हो जाता है, तब वह प्रकट हो जाता है । जैनधर्म इस संसार मे दो पदार्थ मानता है- जड़ और चेतन । जड़ पदार्थ वे है जिन मे ज्ञान, दर्शन, मुख आदि गुण नही पाए जाते हैं और चेतन पदार्थ वे हैं जिन मे ज्ञानादि गुण अवस्थित हैं । खान से निकले सोने मे जैसे मल अनादि काल मे मिला रहता है वसे ज्ञानवान श्रात्मा अनादि काल से कर्मप्रवाह मे प्रवाहित होता चना म्रा रहा है । इस कारण इसकी समस्त शक्तिया ग्राच्छादित हो रही हैं, और ज्ञान यादि गुण प्रकट नहीं हो रहे हैं किन्तु जिस समय श्रहिंसा, सयम और तर द्वारा कर्म श्रात्मा से सर्वथा छूट जाते हैं, उस समय श्रात्मा मे ज्ञानादि गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं । ग्रज्ञानजनक कर्म के प्रात्यन्तिक क्षय हा जाने पर यह श्रात्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्गी दशा को प्राप्त कर लेता है । सर्वज्ञ बनने के लिए किसी व्यक्ति विशेष की कोई बात नहीं है । जो भी जीव कर्म-म्वनो को तोड़ देता है, वही सर्वज्ञ पद उपलब्ध कर लेता है । वस्तुनः सिद्ध और ससारी जीव मे केवल कर्मों का ही अन्तर है । दानी के मध्य मे कसं खड़ा है, जो दोनो को सदा से अलग रख रहा है । जब इस कर्म को नष्ट कर दिया जाता है तो परमात्मा और ग्रात्मा से कोई अन्तर नहीं रहता। इसीलिए कहा हैश्रात्मा परमात्मा में कर्म का ही भेद हैं । काट दो यदि कर्म को फिर भेद है ना खेद है ॥ 1 - पाठशाला मे पढने वाला प्रत्येक छात्र प्रोफेसर बन सकता है । पाठशाला की पढाई किसी व्यक्ति-विशेष के लिए निश्चित नहीं होती । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ३१५ सप्तम अध्याय 1 जो भी श्रम करता है, योग्य श्रध्यापक के सकेतानुसार चलता है, वही धीरे-धीरे उन्नति करता हुआ अन्त मे शिक्षक या प्रोफेसर के पद को ग्रहण कर लेता है | किसी विशेष जाति, प्रात या वर्ग का व्यक्ति हो शिक्षक की इस उच्चता को पा सकता है, जैसे यह कोई सिद्धात नही है, ऐसे ही यह भी कोई सिद्धात नही है कि केवल परमेश्वर श्रात्मा ही सर्वज्ञ हो सकती है, अन्य नहीं । जैन धर्म कहता है कि प्रत्येक भव्य मात्मा सर्वज्ञता प्राप्त कर सकता है। मक्ति से जीव वापिस नहीं आता श्रार्यसमाज की मान्यता है कि जीव मुक्ति मे सदा नही रहता है, कुछ समय वहा का आनन्द भोग कर फिर ससार मे लौट आता है । इस मान्यता की पुष्टि मे उक्त समाज का कहना है कि कोई मनुष्य मीठा खाता ही चला जाए तो उसको वैसा सुख नही होता, जैसा कि सब प्रकार के रसो को भोगने वालो को होता है और उसका विचार है कि मुक्ति जेल है, कौन ऐसा व्यक्ति है जो जीवन भर जेल मे बंद रहना स्वीकार करे ! इस के अलावा, उसका यह भी कथन है कि यदि मुक्त जीव मुक्ति से वापिस न लौटे तो मुक्ति स्थान मे भीडभडक्का हो जायगा और यह ससार जीवो से किया समय विल्कुल खाली हो जायगा । किन्तु जैनवर्म का ऐसा विश्वास नही है । जैन धर्म का सिद्धांत है कि मुक्त जीव मुक्ति मे वापिस नही आता । यह मुक्ति को ' श्रपुनरावृत्ति" कहता है । अपुनरावृत्ति का अर्थ है -- जहा से वापिस न लौटना पड़े। इसलिए जैनधर्म कहता है कि मुक्त जीव मुक्ति मे ही सदा विराजमान रहते है। 1 जीव के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादिकालोन है । श्रनादिकाल से जीव कर्मो से घिरा हुआ है । कर्मों के कारण ही यह जीव चौरासी लाख योनियों मे जन्म-मरण कर रहा है । ये कर्म तपस्या के द्वारा Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रश्नों के उत्तर anavarnarm जव नष्ट कर दिए जाते है, और सयम के द्वारा जव नवीन कर्मबन्ध को रोक दिया जाता है तव यह अात्मा सुवर्ण के समान परम विशुद्ध और निविकार हो कर अविनाशी और अनन्त सुख को प्राप्त कर लेता है। जिस प्रकार चावल का छिलका उतर जाने पर उस मै उगने की शक्ति नही रहती, ऐसे ही कर्म-विमुक्त आत्मा भी जन्म-मरण की परम्परा से छूट जाता है । जन्म-मरण कर्मजन्य हैं । कर्म को राग-द्वेष जन्म देता है। राग-द्वेष के अभाव मे कभी कर्मवन्धन नही हो सकता। कर्म-बधन । के नष्ट हो जाने पर जन्म-मरण नही होने पाता । इस कारण कर्ममल के सर्वथा समाप्त हो जाने पर निष्कर्म अवस्था को प्राप्त हुआ जीव फिर कभी कर्म-वन्धन मे नही पाता, वह जन्म-मरण से छूट जाता है, सदा के लिए मुक्ति मे जा विराजता है। मुक्त दशा मे जीव गरीर-रहित होता है, अतः वह न तो स्वय दूसरे को रुकावट डालता है और न किसी दूसरे से रुकता है । तुम्बा जैसे पानी के ऊपर ही तैरता रहता है, वसे ही मुक्त जीव स्वभाव से ही ऊपर लोकाग्र भाग मे पहुच जाता है । उस स्थान का नाम सिद्धशिला या सिद्धस्थान है। सिद्धशिला मे गया जीव सदा के लिए वही रहता है, वहा से कभी वापिस नही पाना। वापिस आए भो कसे ? वापिस पाएगा ता उसे जन्म लेना पडेगा, जन्म लेगा ता नव मासअवर कोठडी मे उसे उल्टा लटकना पडेगा, उल्टा लटकने में शास्त्र कहता है कि मारणान्ति : वेदना होती है। वेदना विना कर्म के हो नहीं सकती। मुक्त जोब कर्म से सर्वथा रिक्त होता है। ऐसी दगा मे (निष्कर्मता की दशा मे) मुक्त जीव की उत्पत्ति कैसे मानी जा सकती यह कहना कि "लगातार मिठाई खाने से मनुष्य सा, .. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ३१७ सप्तम अध्याय नही मिलता जैसा कि सर्व प्रकार के रसो का उपभोग करने से मिलता है। अतः जीव जब मुक्ति-सुख से तृप्त हो जाता है, तो वह ससार के वैषयिक सुख भोगने के लिए मुक्ति को छोड कर ससार मे आ जाता है।" सर्वथा भ्रान्त और औचित्य-रहित है । भौतिक,सुख और आत्मिक सुख दोनो सुखो मे महान अन्तर रहता है। इन को एक समान नही कहा जा सकता । भौतिक मुख मे भौतिक साधन अपेक्षित होते हैं, जवकि आत्मिक मुख मे किसा भौतिक साधन की आवश्यकता हो नही होती । भौतिक सुख अस्थायी है. और आत्मिक सुख स्थायी है। भौतिक सुख दुख-मिश्रित होता है, और यात्मिक सुख मे दुख का चिन्ह भो नही हं ता भौतिक सुख इन्द्रियजम्य है, और आत्मिक सुख मे इन्द्रियो को कोई अपेक्षा नहीं होती। इतनो भिन्नता होने पर दोनो को एक समान कसे कहा जा सकता है ? आत्मिक सुख के सामने भौतिक सुख का महत्त्व भी क्या है ? कहा सूर्य का प्रकाश और कहा खद्योत का? दोनो मे जैसे समानता नही है, वैसे ही भौतिक सुख और आत्मिक सुख इन दोनो मे भी काई समानता नही है । अत मुक्तजोव को जो आत्मसुख हाता है वह मिष्टान्न जन्य सुख से उपमित नही किया जा सकता । मिठाई खाने से जी उकता सकता है, किन्तु आत्मसुख प्रात्मा का स्वभाव होने से आत्मा की व्याकुलता का कारण नहीं बन सकता।। मनुष्य प्रतिदिन रोटी खाता है, कभी उसका मन व्याकुल नही होता, कभी उसे वह छोडने का तैयार नहीं होता। अत लगातार सेवन करने से सभी वस्तुग्रो से जी उकता जाता है, यह कोई सिद्धात नही है। मनुष्य सदा वस्त्र पहनता है,किन्तु कभी उसे नग्न हो जाने का विचार नहीं पाता, किसी मनुष्य ने कभी किसी से चोट नहीं खाई तो Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर WWW~ AAdvanv-- उसे कभी यह ख्याल नही पाता कि मुझे चोट खानी चाहिए । इम के अलावा, एक ब्रह्मचारी जीवन है, उसे ब्रह्मचर्य की परिपालना में बड़ा आनन्द आता है पर आर्यसमाज के सिद्धात के अनुसार ब्रह्मचारी मनुप्य को ब्रह्मचर्य का प्रानन्द तभो आ सकता है जबकि वह कभी-कभी वेश्या का भी सगम करता रहे। तथा परमेश्वर जो सदा आनन्दमग्न रहता है, उसे भी उकता जाना चाहिए,उसे भी मुक्ति से वापिस आ जाना चाहिए, उसे मनुष्य के रूप में पाकर वैपयिक सुखो को उपभोग करना चाहिए । पर ऐसा होता नहीं है । न यह आर्यसमाज को मान्य है। जब परमेश्वर अपने यानन्द मे सदा मग्न रह सकता है, तो अन्य मुक्त जीव मुक्ति मे सदा आनन्दमग्न क्यो नही रह सकते ? साराश यह है कि मुक्त जीव लगातार प्रात्ममुख भागने से तृप्त हो कर मुक्ति से वापिस आ जाता है, ऐसा नही समझना चाहिए । बल्कि यहा समझना चाहिए कि मुक्त जीव सदा मुक्ति मे ही रहता है, और वही अपने आत्मगुण मे सदा निमग्न रहता है। ___मुक्ति मे मुक्त आत्मामा के भीड़-भडक्के को पागका करना भी एक जवर्दस्त भ्रान्ति है । मुक्त जोवो मे जब गरीर ही नहीं होता, तत्र उन्हें एक स्थान मे क्या वाघा हो सकती है? वैदिक धर्म परमेश्वर को सर्व-व्यापक मानता है। क्या सारे ससार में ठसाठस जड़ परमाणुप्रो. के भरे रहने पर भी परमेश्वर उस जगह ठहरता है । जब परमेश्वर को कोई बाधा नहीं पहुचती है तो मुक्त जीवो को क्या बाधा पहुच सकती एक उदाहरण और लीजिए । एक राष्ट्रनेता है, वह भाषण दे रहा है, लाखो की सख्या में जनता वहा उपस्थित है। सभी की आंखें नेता की प्रोर लगी हुई हैं। सभी के नेत्रो को ज्योति नेता के शरीर Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ सप्तम अध्याय पर पड़ रही है। पर क्या वहा नेत्र ज्योतियो का भीड़ भड़क्का होता है, उससे नेता को वाधा पडती है ? कभी नही । नेत्र-ज्योति परमाणुपुञ्ज है, पौद्गलिक है. तथापि उसका भीड-भडक्का नहीं होता और वह किसी के लिए वावक नही बनती,फिर मुक्तात्माए तो ममूर्तिक है, अरूपी है, इनके भीड़भडक्के को तो कल्पना ही कैसे की जा सकती मुक्ति मे लगातार जीवो के जाने से ससार खाली हो जायगा, ऐसा समझना ठोक नही है, क्योकि जीव अनन्त है, इनका कभी अन्त नहीं पा सकता। जोवो को अनन्तता के सम्बन्ध मे इस पुस्तक के प्रात्म-मीमासा नामक अध्याय मे ऊहापोह किया जा चुका है । पाठक उसे देखने का कष्ट करे। कम-बाद कर्मवाद जैनधर्म की महत्त्वपूर्ण देन है। इसने कर्मवाद का जितना सूक्ष्म और गभीर विवेचन अध्यात्म जगत के सन्मुख उपस्थित किया है, इतना किसा अन्य दर्शन ने नहीं किया। वैदिक धर्म मे कर्मवाद का वर्णन तो है, किन्तु ऐसा नही, जैसा कि जैन धर्म मे है। वैदिक धर्म केवल अदृष्ट सत्ता या क्रिया को कर्म समझता है, किन्तु जैनधर्म उसे पौद्गनिक मानता है । इसका विश्वास है कि व्यक्ति के प्राचार-विचार से कर्मयोग्य पुद्गल अात्मा की ओर आकर्षित होते हैं और वे प्रात्मा से सम्बन्धित हो कर कर्म का रूप ले लेते हैं। कर्म की मूल प्रकृतियो तथा उत्तर प्रकृतियो के विस्तृत वर्णन के अलावा ..जैनधर्म ने प्रत्येक कर्म के बन्ध कारणो का भी बड़ी विशदता के साथ विवेचन किया है। जनसाहित्य का आधे से ज्यादा भाग कर्मवाद के विवेचन ने रोक रखा है । कर्म-वाद को जैन-धर्म का यदि प्राण कह दें तो यह उचित ही Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रग्नों के उतर ३२० होगा। कर्मवाद का अर्थ है- जीव जैसा कर्म करता है, उम का वैसा फल भोगता है। कर्मफल का उपभोग करने के लिए ईश्वर या किसी अन्य देवी देवता को माध्यम बनाने की प्रावश्यकता नही है। यदि एक व्यक्ति पाखे बन्द करके या देखते हुए कप की मोर बढता चला जाए ता वह उसमे गिरेगा ही। कुए मे गिरने और उससे लगने वाली चोट को जवाबदारी उसी पर है । कुए में डालने वाली ईश्वर या कोई अन्य शक्ति है, ऐसा मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। कर्मवाद को ले कर इस पुस्तक में अन्यत्र विवेचन किया गया है। पाठक उसे देखने को कण्ट करे। हृदय का परिवर्तन जैनधर्म वाह्य क्रियाकाड की अपेक्षा हृदय परिवर्तन पर वल देता है, बाह्य रूप का यहा विशेष महत्त्व नहीं है। मनुष्य किसी भी भेषमे हो,किसी भी जाति का हो किन्तु यदि उसका हृदय शुद्ध है,प्रात्मा निमल है, तो वह मोक्ष का अधिकारी बन सकता है। जनवम चारित्रनिर्माण की ओर विनेपं ध्यान देता है। इसके विपरीत वैदिक धर्म में वाह्य क्रियाकाड को महत्त्व प्राप्त है। तीर्थसान, तीर्थयात्रा प्रादि अनुप्ठानों को वैदिकधर्म सर्वेसर्वा मानता है, जबकि जैनधर्म (स्थानकवासी परम्परा) मे इन को कोई स्थान नहीं है। मतक की गति वैदिकधर्म की मान्यता है कि यदि कोई खाट पर मर जाए, या छत पर किसी का प्राणान्त हो जाए तो उसको गति नही होनी । गति .. के लिए भूमि पर शव्या करनी होती है, यदि मरने वाला शय्या पर Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय - - - - - - - - - - . . . . पडा है तो उसे नीचे उतारना पडता है, और अन्त में उसकी अस्थियां हरिद्वार मे ले जानी होती है। किन्तु जैनधर्म इन बातो मे कोई विश्वास नहीं रखता। यह कहता है कि व्यक्ति खाट पर मर जाए या नीचे, तथा छत पर किसी को प्राणान्त हो जाए या भूमि पर, इससे कोई फर्क नही पड़ता । गति के साथ इसका कोई सम्बन्ध नही है । गति का सम्बन्ध हृदय की शुद्धि से है। हृदय और आचरण अच्छा हो, फिर कही भी मृत्यु आ जाए, गति हो जायगी, यदि हृदय और पाचरण दूषित हैं तो भूमि पर प्राण छोडने पर भी गति नही हो सकती। जीवन का भविष्य उज्ज्वल नहीं बन सकता। दूसरी वात, मरणासन्न व्यक्ति को छूने से गति विगडती है, सुधरती नही। यह तो निर्विवाद वात है कि मृत्यु-शैय्या पर पडा व्यक्ति महान वेदना और कप्ट का सामना कर रहा होता है, उस समय उसे मारणान्तिक दुख होता है। ऐसी दशा मे यदि उसे स्पर्श भी किया जावे तो वह भी उसके लिए दुःखप्रद होता है । उससे उसे वेदना होती है। उसे क्रोध आता है । असमर्थता के कारण भले ही वह बोल नहीं पाता, तथापि भीतर से वह झु झला उठता है। ऐसी दशा में यदि उस के सारे शरीर को ही उठाकर इधर-उधर रखा जाए तो उसे कितनी महान वेदना होती होगी, कितना महान क्रोध आता होगा? यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है । सिद्धात है कि मृत्यु की घडा का क्रोध परलोक को बिगाड़ देता है। फलतः, अन्त गति सो गति,इस सत्य के प्राधार पर उसकी गति दिगड़ जाती है, सुधरती नही ! प्रत. मरणासन्न व्यक्ति को उठाना, या इधर-उधर उसे रखना, ये सब प्रवृत्तिया नहीं करनी चाहिए, क्योकि इससे गति विगडती है। - मृतक की अस्थिया किसी भी जल-प्रवाह मे प्रवाहित की जा Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ v - ~ ~ ~ ~ ~ प्रश्नों के उत्तर rrrrrrrrrrrrrr सकती है। वे केवल हरिद्वार मे ही भेजी जाए, ऐसी मान्यता जैन-धर्म की नहीं है। जैन-धर्म इन लोकिक प्रवृत्तियों को धर्म का रूप प्रदान नहीं करता। उसकी दृष्टि मे ये सव सांसारिक कृत्य हैं। इसके अलावा वैदिक धर्म का विश्वास है कि देवता मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु जैनधर्म कहता है कि मोक्ष केवल मानव योनि से ही प्राप्त किया जा सकता है। यदि देवता को मोक्ष पाने की इच्छा हो तो उसे मनुष्य बनना पड़ेगा, और कर्मों के नाग के लिए तप करना चाहिए । तप द्वारा आत्मा को सर्वथा निष्कर्म बना कर देव मुक्त हो सकता, अन्यथा नहीं। वैदिक धर्म कहता है कि ईश्वर की भक्ति करने से, उसकी कृपा से सुख मिलता है, किन्तु जैनधर्म कहता है कि सुख दुःख अपने अच्छे और बुरे कर्मों के कारण मिलता है, और स्वय ही मिलता है, उसे ईश्वर नही देता। वैदिक धर्म मानता है कि मुक्त हुया जीव वैकुण्ठ मे अनादिकाल तक सुख भोगता है, तथा ब्रह्म मे लीन हो जाता है, किन्तु जन-धर्म कहता है कि मुक्त जीव लोक के अन भाग मे रहते हैं, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन रूप अपने स्वरूप मे रमण करते हैं, उनकी अपनी स्वतत्र सत्ता रहती है, वे ब्रह्म नाम की किसी शक्ति मे जा कर लय नहीं हो जाते, समाप्त नहीं हो जाते। जैन-धर्म वैकुण्ठ नाम का ऐसा कोई स्थान नही मानता है, जिसमे भगवान का दरवार लगा हुआ हो, वहां जीवो के पुण्य-पाप का हिसाव होता हो, कोई ऐसा रोजनामचा पडा हो, जिसमे जीवो के दैनिक कार्यों का खुलासा हो। जीवो के भाग्य का निर्णय किया जाता हो । जैनधर्म कहता है कि ईश्वर का जीव की किसी भी प्रवृत्ति के साथ कोई सम्वत्व नही है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३..................... सप्तम अव्याय जैनधर्म धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, गुणस्थान आदि ऐसे अनेकों तत्त्व मानता है जो वैदिक धर्म मे नही पाए जाते हैं । तथा जैन न्याय में भी स्याहाद, नय, निक्षेप आदि बहुत से ऐसे तत्त्व है, जो जेनेतर न्याय में नहीं हैं। __ यह सब भेद होते हुए भी दोनों वर्मों के अनुयायियो मे सास्कृतिक दृष्टि से एकरूपता दिखाई देती है और कुछ जातिया ऐसी है, जिन में दोनो धर्मों के अनुयायी पाए जाते हैं, और उनमे रोटी-बेटी का व्यवहार भी चालू है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-धर्म और बौद्ध-धर्म अष्टम अध्याय प्रश्न- जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनों समकालीन धर्म है या उभय धर्मों में काल की अपेक्षा कुछ भेद है ? यदि भेद है, तो दोनों में प्राचीन कौन है ? उत्तर- इस बात को हम 'जैनधर्म का अनादित्व' अध्याय मे विस्तार से बता चुके हैं कि जैन धर्म वौद्ध धर्म से बहुत प्राचीन है । इतिहास एव दर्शन-शास्त्र के अन्वेषक डॉ. जेकोबी भी इस सबध मे स्पष्ट । शब्दो मे लिखते है- "निर्ग्रन्थो का उल्लेख बौद्धो ने अनेक वार किया है, यहा तक कि पिटको के प्राचीनतम भाग मे जनो का उल्लेख मिलता है। परन्तु वौद्धो के विषय मे स्पष्ट उल्लेख अभी तक तो प्राचोनतम जैन सूत्रो मे कही भी मेरे देखने मे नही आया है, जबकि उनमे जमाली, गौशाला और अन्य पाखडी धर्माचार्यों के विषय मे लम्वेलम्वे कथानक मिलते हैं। चूंकि बाद के समय मे दोनो धर्मों का पारस्परिक सवध जैसा हो गया था, उससे यह स्थिति एकदम विपरीत है। क्योकि दोनो धर्मों के समकालिक प्रारम्भ की हम लोगो की कल्पना के भी यह प्रतिकूल है । इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुचने को बाध्य होते हैं कि निर्ग्रन्थ धर्म वृद्ध के समय मे नया पैदा नही हुआ था । पिटकों का भी मत यही मालूम होता है । क्योकि उनमे कही भो वि Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय N momwwwwnnnn रोध सूचन नहीं मिलता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म वौद्ध धर्म से बहुत प्राचीन है। इस सबंध मे हम पीछे विस्तार से बता चुके हैं। वेदों, भागवत एव अन्य वैदिक ग्रन्थो में जैनधर्म के अस्तित्व का वर्णन मिलता है और इन्ही के आधार पर पाश्चात्य एवं भारतीय ऐतिहासिक विद्वानो ने इस बात को स्पष्ट शब्दो गे स्वीकार किया है कि जैन धर्म वदिक परम्परा के मान्य ग्रन्थो से भी पहले व्यवस्थित रूप से प्रचलित था और इस काल के आदि तीर्थकर ऋषभदेव को भी स्वीकार कर लिया गया है । डॉ. जेकोवो का स्पष्ट अभिमत है-- "विष्णु पुराण और भागवत के इन कथानको मे कुछ ऐतिहासिकता है, जो ऋषभदेव को जैनो का पहला तीर्थकर सिद्ध करती है।" इसके अतिरिक्त जेनेतर दार्शनिको ने भी जैन दर्शन और वौद्ध दर्शन को अलग-अलग स्वीकार किया है। व्यास रचित वेदांत सूत्र के द्वितोय अध्याय के १८वे से ३२वे सूत्र तक बौद्ध दर्शन का खडन किया और उसके आगे "नकास्मिन्नम भवात्", "चात्याऽकात्स्न्यं", "न च पर्यायादप्यविरोधो विकारादिभ्य." तथा "अन्त्यावस्थितश्चोभयनित्यत्वादविशेप." इन चार सूत्रो मे जैनधर्म का प्रतिवाद किया है। सर्व दर्शन सग्रह मे माधवाचार्य ने १६ दर्शनो में जनदर्शन और बौद्ध दर्शन को भिन्न-भिन्न लिखा है । वैभापिक, सौत्रान्तिक,योगाचार और माध्यमिक वौद्धो के इन चार भेदो,जनो का कही नामोल्लेख नही है। बौद्ध ग्रन्थो मे भी निग्रंथ धर्म- “जो जैनधर्म का ही परिसूचक शब्द + इण्डि, एण्टी. (डॉ. जकोबी) पुस्तक्९, पृष्ठ १६११ ६ वही (जेकोबी) पृष्ठ १६३ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ प्रश्नो के उत्तर है, का उल्लेख किया गया है । राजमहल से भागने के बाद तथागत बुद्ध ने कुछ वर्ष तक जिस साधना, तपश्चर्या एव पाचरण का पालन किया, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध पहले निग्रंथ (जैन) परम्परा मे दीक्षित हुए थे। सारी पुत्र को अपने पूर्व जीवन की घटना सुनाते हुए उन्होने कहा कि मैंने केगलुचन किया था और इस क्रिया को चालू रखा था। * यह क्रिया जैन मुनियो के अतिरिक्त अन्य किसी सम्प्रदाय मे नही है । इस से यह वात विल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि जैनधर्म बौद्धधर्म का समकालोन नहीं, बल्कि उससे बहुत पहले से चला आ रहा था । अस्तु, इतने स्पष्ट प्रमाणो के उपलब्ध होते हुए भी यह कहना या मानना अक्षम्य भूल है कि जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा हया वौद्धधर्म का समकालीन है। प्रश्न- जैनदर्शन और बौद्ध दर्शन में दार्शनिक अंतर क्या है? उत्तर- भारत अध्यात्म चिन्तन प्रधान देश है। भारतीय विचारक श्रात्मा-परमात्मा, लोक-परलोक आदि के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए सदा प्रयत्नशील रहे है। अत भारतीय चिन्तक दार्शनिक के रूप में सामने आए और परिणामस्वरूप विभिन्न दर्शनों का निर्माण हुआ। जिनमे प्रत्येक दार्शनिक एव विचारक ने अपने चिन्तन को जनता के सामने रखा और अपनी बौद्धिक एव ताकिक गक्ति से आत्मा-परमात्मा एव अन्य तत्त्वो को व्याख्या को। ये व्याख्याए ही दर्शन शास्त्र के रूप मे आज हमारे सामने है।। * केस्स मरसुलोचको विहोमि, केसयस्सु लोचनानुयोगं अनुयुत्तो। -मज्झिमनिकाय, महासीनादसुन,१२ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय भारतीय दर्शन मे वौद्ध दर्शन का भी अपना स्थान है । परन्तु इसके पीछे तथागत बुद्ध का चिन्तन कम है । बुद्ध ने भी श्रात्मा-परमात्मा के सबंध मे कुछ सोचा है । परन्तु उनके चितन मे दार्शनिक गहराई एव सूक्ष्म दृष्टि नही है और न उसने दार्शनिक की दृष्टि से सोचा ही है । उन्होंने जो कुछ सोचा-विचारा है, वह युग के प्रवाह से विवश होकर ही स.चा है । जहा तक हो सका उन्होने इन प्रश्नो को अव्याकृत कह कर टालने का प्रयत्न किया है । जब प्रश्न टाले नही जा सके तव कुछ उत्तर देना पड़ा। उसके लिए तथागत बुद्ध ने उपनिषद् एंत्र वैदिक परम्परा द्वारा स्वीकृत एकात नित्यवाद का दोषयुक्त वता कर क्षणिकवाद की स्थापना की और कई जगह विभज्यवाद के सहारे 'लोक-परलोक के प्रश्नों से छुटकारा पाने का प्रयत्न किया । - ३२७ " एक बार मालुंक्यपुत्त ने बुद्ध से लोक के शाश्वत अशाश्वत, सांत एवं अनन्त्र तथा जीव एव शरीर को भिन्नता एवं प्रभिन्नता श्रादि के विषय मे प्रश्न पूछे । परन्तु तथागत ने लाचार मार्ग मे वैराग्यउपशम, अभिज्ञा (लोकोत्तर ज्ञान), सवोवि (परमज्ञान) तथा निर्वाण (कायन्तिकी दु.ख निवृत्ति) उत्पन्न करने मे साधक न होने के कारण उन्हे अव्याकृत ( व्याकरण - कथन के अयोग्य, अनिर्वचनीय) कहा । इसी तरह पोठ्ठपादद्वारा पूछे गए प्रश्नो को भी अव्याकृत कहकर टाल दिया गया । इस स स्पष्ट होता है कि वुद्ध दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चर्चाओ से सदा भागते रहे हैं। उन्होंने अपने भिक्षुओ को सदा श्रध्यात्मवाद * I है एव दर्शन शास्त्र से दूर रह कर कर्तव्य मार्ग पर चलने का उपदेश * चूलमाल व्य सुत्तत, ६३, मज्झिमनिकाय, पृष्ठ, २५१-५३, दीघनिकाय पोट्टपादसुत्त, १/९ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर 1 दिया। उनका यही कहना था कि " चरत्य भिखवो सत्र्वजनहिताय सव्वजनमुखाय " अर्थात् हे भिक्षुप्रो' सव लोगों के हित का एव सुख पहुचाने का प्रयत्न करो । परन्तु बुद्ध का यह उपदेश उनके जीवन काल तक ही रहा । उनको मृत्यु के बाद बौद्ध विद्वानो ने उनकी इच्छा के विपरीत उनके उपदेशो मे प्राए हुए कुछ सूत्रो को लेकर वौद्ध दर्शन को व्यवस्थित रूप दिया । जिस बात के लिए बुद्ध ने इन्कार किया था, उनके शिष्यों ने उसी का निरूपण किया। इस तरह बौद्ध दर्शन का आज जो व्यवस्थित रूप परिलक्षित हो रहा है, वह बुद्ध के बहुत वाद का है । " तथागत बुद्ध एक दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तक नहीं थे । वे एक सन्त थे, करुणाशील एव दयालु पुरुष थे । आज की भाषा मे हम उन्हे जन नेता कह सकते हैं । वे धर्म के नाम पर यज्ञ मे मारे जाने वाले मूक पशुओ की चीत्कार, शूद्र पर होने वाले अत्याचार. नारी के तिरस्कार एवं निम्न श्रेणी के व्यक्तियो पर चलने वाले शोषण चक्र को देख कर दुखित थे । असहायों के प्रति उनके दिल मे करुणा थी पोर उसी के अनुरूप वे मानव को भौतिक दुःख से मुक्त करने मे प्रयत्नशील रहे । ३२८ 1 भगवान महावीर ने भी याज्ञिक हिंसा का छूत-अछूत के भेद का एवं शोषण का विरोध किया तथा नारी एव शूद्र को अपने सघ में बराबर का स्थान दिया और उन्हें भी मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी माना । परन्तु इतना होने पर भी महावीर की करुणा, दया एव अनुकम्पा की भावना केवल भौतिक देह एव वर्तमान जीवन तक ही सीमित नही रही। क्योकि उनके सामने इस जीवन के आगे का रास्ता Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ श्रष्टम श्रध्याय भी स्पष्ट था। वें लोक-परलोक के संबंध में बुद्ध की तरह अस्पष्ट नही थे । उन्होने आत्मा-परमात्मा, लोक की सान्तता, अनन्तता, शाश्वतता, शाश्वतता श्रादि प्रश्नो का यथार्थ उत्तर दिया । उनके मन मे किसी भी तत्त्व के लिए सन्देह नही था । उनके लिए दुनिया का कोई भी तत्त्व घुंधला नहीं था । प्रत . उन्होने प्रत्येक प्रश्न का वास्तविक समाघान किया। उन्होने किसी भी प्रश्न को अव्याकृत कह कर टालने का प्रयत्न नहीं किया । 7 भगवान महावीर का जीवन त्याग के प्रथम दिन से ही चिन्तन, मनन एव साधना प्रधान रहा है । साढ़े बारह वर्ष तक का समय उन्होने तप, ध्यान एवं अध्यात्म चिन्तन मे लगाया था और इतने लम्बे काल की कठोर साधना एवं उत्कट तप के बाद पूर्ण ज्ञान को प्राप्त किया। जिसके कारण लोक प्रलोक के सभी तत्त्व उनके सामने प्रत्यक्ष थे । इसलिए उनके उपदेश में करुणा, दया, अनुकम्पा श्रादि के साथ आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चिन्तन की गहराई के भी स्पष्ट दर्शन होते है । उन्होने केवल इस जन्म के भौतिक दुःखों से ही छूटने की बात नही कही, प्रत्युत प्राध्यात्मिक दुःखो - राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह श्रादि से निवृत्त होने की बात भी कही । क्योकि, जब तक राग-द्वेष का क्षय नही होगा तब तक दुःखो का श्रात्यन्तिक नाश नही हो सकेगा । इसकी कारण यह है कि दुख कर्मजन्य है और कर्म का मूल बीज राग-द्वेष है | अतः दुःख से सर्वथा मुक्त - उन्मुक्त होने के लिए राग-द्वेषका त्याग करना अनिवार्य है । अतः हम कह सकते है कि बुद्ध एवं महावीर की दृष्टि मे इतना श्रतर है- बुद्ध जनता को भौतिक दुःखो से छुटकारा दिलाने एव शूद्र Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर daw~~~~, rm..wwwwwer तथा नारी को सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए प्रयत्नशील थे और महावीर भौतिक एव प्राध्यात्मिक दुःख मात्र के नाश का मार्ग बता रहे थे। तथागत बुद्ध केवल दु.खो के ऊपरी पत्र-पुष्पों को काटने से व्यस्त रहे, उन्होने दु.ख को मूल जड़ को उखाड़ने का प्रयत्न नहीं किया, किंतु महावीर ने दुःख-दैन्य के पत्र-पुष्पों को समाप्त करने के साथ उसकी जड़ को भी उखाड़ फैकने का उपदेश दिया। उन्होने केवल भौतिक दुःखो के नाश की बात ही नही कही, बल्कि दुखा के मूल कारण को नष्ट करने का कारण बताया * । उनका प्रयत्न मनुष्य को यात्मा से परमात्मा बनने की राह दिखाने का था। वे बुद्ध की तरह भौतिकवादी नहीं, बल्कि अध्यात्मवादी थे। उन्होने आत्मा के अस्तित्व एव स्वरूप को स्पष्टतः जान लिया था। अतः उन्हें तथागत बुद्ध की तरह किसी भी.तत्व मे सन्देह नही था। . - यह हम ऊपर देख चुके हैं कि बौद्ध दर्शन का व्यवस्थित रूप बुद्ध के बाद का है। फिर भी हम उसके आधार पर यहा बौद्ध एव जैन दर्शन की मान्यता पर थोड़ा विचार करेंगे और देखेंगे कि उनमे कितनी साम्य एव वैषम्य है। बौद्ध दर्शन .. बौद्ध दर्शन को अनात्मवादी दर्शन कहते हैं। इसका यह अर्थ नही है कि वह आत्मा की सत्ता को नहीं मानता है । वह आत्मा को स्वोकार करता है । परन्तु आत्म स्वरूप की मान्यता मे कुछ भेद है। वैदिक दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं । बौद्धो को, एकात नित्यवाद स्वीकार नही है । वे आत्मा के नित्यत्व को सर्वथा अस्वी- *.प्राचाराग सूत्र, श्रुत १, अध्य. ३, उद्दे. २, गाथा ४।। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ~~ ~ ~ ~ ~~ ~ ~ ३३१ प्रष्टम अध्याय कार करते है * । उनका कहना है कि यदि प्रात्मा नित्य है, तो फिर वह अनन्त काल तक एक रूप रहेगा, उस मे कोई परिवर्तन नही होगा । अत उसमे बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नही घट सकेगी। क्योकि वन्ध विचारो की, भावो की परिणति के अनुसार होता है और उसका क्रिया के साथ सबंध है। क्रिया सदा एक रूप नही रहती और न भावो. परिणामो एव विचारो को धारा ही एक रूप रहती है। अतः आत्मा मे बंध मानते हैं, तो फिर वह परिणमनशील हो जायगा । और वह राग-द्वष, मोह आदि विभिन्न विकारो से युक्त हो जायगा। प्रत फिर हम यह नहीं कह सकेगे कि यह वही आत्मा है । प्रात्मा को नित्य मानने मे दूसरी कठिनाई यह उपस्थित होगी कि वह वधन युक्त है तो सदा वधन युक्त ही रहेगी। वह बधन से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेगी और उसका पुनर्जन्म भी नही हो सकेगा। क्योकि उसमे आत्मा को एक स्थिति नही रहती, उसमे परिवर्तन आता है। और उसे एकान्त नित्य मानने से उसमे कृत-कारित्व नही घट सकेगा,अतः आत्मा नित्य नही है । अव आत्मा के अस्तित्व को मानने मे यह कठिनाई है कि ससार मे प्रिय वस्तु को लेकर सारे दु.ख उत्पन्न होते है। जिस समय मनुष्य को आत्मा सर्व-प्रिय होती है,उस समय मनुष्य अपनो आत्माकी तुष्टिके लिए सुख-साधन सामग्रिया जुटाने के लिए अहकार का अत्यधिक पो. षण करने लगता है, परिणाम स्वरूप मनुष्य के मन मे उत्तरोत्तर दुख की अभिवृद्धि होती है। प्रत. प्रात्मा नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ * तत्त्वसग्रह, पृष्ठ ७९-१३० (मात्म परीक्षा प्रकरण)। www.mmmmmwwwwwwwwwwwwwwww~~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर -- - - - -- -- - - - - - नही है । * . बौद्ध विचारकों ने आत्मा को कोई स्वतन्त्र एव नित्य द्रव्य न मान कर रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और सस्कार इन पाचो स्कन्वो के समूह से प्रतिक्षण नए रूप में उत्पन्न होने वाली शक्ति मात्र माना है और उस को पुद्गल-आत्मा या विज्ञान कहा है -1 $ यह विज्ञान नदी प्रवाह की तरह (नदीसोतो वि य)-प्रतिक्षण बदलता रहता है । 1. * दुःखहेतुरहंकार आत्ममोहात्तु · वर्षत, । . , । ततोऽपि न निवर्त्यश्चेत् वर नैरात्म्यभावनां । ' ' ' . .. वोधिचर्यावतार, ९,७८ । साहंकारे मनसि न शमं . याति जन्म-प्रववो, ' ... नाहकारश्चलति हृदयात्मदृष्टौ च सत्याम् । 'अन्य गास्ता जगति भवतो नास्ति नैरात्म्यवादी, • नान्यस्तस्मादुपशमविधेस्त्वन्मतादस्ति मार्गः॥ . .. -तत्वसग्रह पजिका, पृष्ठ नात्मास्ति स्तवमानं तु कर्मवलेगाभिसस्कृतम् ।। अन्तराभवसन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ।। आत्मेति नित्यो ब्रवः स्वरूपतोऽविपरिणामवर्मा कश्चित पदार्थों नास्ति । कर्मभिः अविद्यादिक्लेशश्च संस्कारमापन्न पंचस्कस्वमात्रमेव, अंतराभवसन्तानक्रमेण गर्भ प्रविशति । क्षण-क्षणे उत्पद्यमानं विनश्यमानमपि तत् स्कन्वपचक स्वसतानद्वारा प्रदीप-कलिकावत् एकत्व बोधयति । - -अभिधर्म कोश ३,१८, टीका । + अमेरिका के मनोवैज्ञानिक प्रो० विलियम जेम्स Willium James ने भी विज्ञान (Consciousness) को विचार प्रवाह मानते हुए नित्य प्रात्मा के स्थान पर चित्तसन्तति (Stream of thoughts) को माना है Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अव्याय wwwwwwww ३३३ जैसे दीपक की ज्योति प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहने पर भी सदृश t ★ परिवर्तन के कारण एक प्रखण्ड प्रकार-सी प्रतीत होती है । उसी तरह बाल, युवा और वृद्ध अवस्था में विज्ञान में प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहने पर भी समान परिवर्तन के कारण विज्ञान ( आत्मा ) का एक ग्रखण्ड रूप से ज्ञान होता है । परन्तु, वस्तुतः वह एक रूप है नही ! विज्ञान प्रतिक्षण बदलता रहता है। पूर्व क्षण स्थित विज्ञान उत्तर क्षण रूप विज्ञान को उत्पन्न करके नष्ट हो जाता है । इस तरह विज्ञानप्रवाह (चित्त सन्तति) के मानने से हमारा काम चल जाता है, श्रतः आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने की क्या श्रावश्यकता है ? ? F 1 वौद्ध आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को नही मानते। फिर भी पुनर्जन्म आदि को मानते हैं। उनका कहना है कि दूसरे भव में नाम - और रूप उत्पन्न होता है । परन्तु, वह नाम और रूप वह नही है, जो मृत्यु के समय था । मृत्यु के समय स्थित विज्ञान सस्कारो की दृढता से गर्भ मे प्रविष्ट हो कर फिर से दूसरे नाम और रूप से सबद्ध हो जाता " The unity, the identity, the individuality and the immateriality that appear in the psychic life are thus accounted for as phenomenal and temporal facts exclusively and with no need of reference to any more simple or substantial agent than the present thought or section of stream...... But the Thought is perishing and not an immortal or incorruptible thing. Its successors may continuously succeed to it, resemble it and appropriate it, but they are not the original Thoughts, whereas the soul substance is supposed to be a fixed unchanging thing. - The Principles of Psychology, P 344-45. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर - r - ~ - - ~ है । अतः एक विज्ञान का मरण और दूसरे विज्ञान का जन्म होता है। जिस प्रकार ध्वनि और प्रतिध्वनि मे, मोहर और उसकी छाप मे, पदार्थ और पदार्थ के प्रतिविम्ब मे कार्य-कारण संबध है, उसी तरह एक विज्ञान और दूसरे विज्ञान मे तथा इस भव के मरण के समय के विज्ञान तथा अगामी भव के जन्म समय के विज्ञान मे कार्य-कारण सवध है । विज्ञान कोई नित्य वस्तु नही है। इस विज्ञान परम्परा से दूसरे भव मे उत्पन्न होने वाले मनुष्य को न पहला ही मनुष्य कह सकते है और न उसे पहले मनुष्य से भिन्न ही कहा जा सकता है।* जिस प्रकार कपास के वीज को लाल रंग से रग देने से उस वीज का फल भी लाल रंग का उत्पन्न होगा। उसी तरह तीव्र संस्कारो की छाप के कारण अविच्छिन्न सतान से यह मनुष्य दूसरे भव मे भी अपने किए हुए कर्मों के फल को भोगता है। इसलिए जिस प्रकार डाकुप्रो से हत्या किए जाते हुए मनुष्य के टेलीफोन द्वारा पुलिस के थाने मे खवर देने से मनुष्य के अन्तिम वाक्यो से मनुष्य के मरने के बाद भी मनुष्य को क्रियाए जारी रहता हैं । उसी तरह सस्कार की दृढता के बल से मरने के अन्तिम चित्त-क्षण से जन्म लेन के पूर्व क्षण के साथ सबध होता है। वास्तव मे आत्मा का पुनर्जन्म नही होता है, परन्तु जिस समय कर्म-सस्कार अविद्या से संबद्ध होता है, उस समय कर्म को ही पुनर्जन्म कहा जाता है। इस लिए बौद्ध दर्शन में कर्म मिलिन्दपण्ह अ २, पृष्ठ ४०-५०, तत्त्वसग्रह, कर्मफल सबध तथा लोकायत परीक्षा प्रकरण । $ Budhist Psychology, Page 25.' + Buddhism in translation (Warren),Page234-241 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ ...... अष्टम अध्याय को छोड़कर चेतना अलग वस्तु नही मानी जाती। ___ बौद्ध साहित्य मे प्रात्मा के सबध मे चार तरह की विचारधाराए मिलती हैं-- १-रूप, वेदना, सज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पांच स्कन्धो के अतिरिक्त आत्मा कोई स्वतन्त्र पदार्थ नही है। २-पाच स्कंधों के अतिरिक्त आत्मा एक स्वतन्त्र पदार्थ है। ३-आत्मा का अस्तित्व तो है, परन्तु इसे 'न अस्ति' कह सकते हैं और 'नास्ति' ही। ४-आत्मा है या नही है, यह कहना असभव है। . प्रथम मान्यता का उल्लेख मिलिन्दपण्ह मे मिलिन्द और नागसेन के प्रश्नोत्तर के रूप मे मिलता है। इसमे नागसेन स्पष्ट कर देता है, पुद्गल-मात्मा की स्वतन्त्र उपलब्धि नही होती है । ६ वह पाच स्कन्धो का समूह रूप ही है । जैसे रथ के पहिए, धुरे तथा रथ मे लगे हुए डड प्रादि रथ हैं ? नहीं। और क्या इन सब से पृथक रथ का अस्तित्व है ? नहीं । पहिए, धुरे डडे आदि के संयुक्त रूप को व्यवहार मे रथ कहते हैं। उसी तरह रूप-वेदना आदि के संगठित रूप को आत्मा कहते हैं। *, - ... + चेतनाह भिखवेकम्मति वदामि। -अंगुत्तर निकाय,३,४५ कम्म विपाका वन्ति विपाको कम्मसंभवो, कम्मा पुनव्भवा होति एव लोको पवत्तति । कम्मस्स कारको नत्यि विपाकस्स च । वेदको,सुधम्मा पवत्तन्ति,एवेत सम्मदस्सन । -विसुद्धिमग्ग,प्र १९ $ पुग्गलो नुपलव्मति । -मिलिन्द पण्ह * मिलिन्दपण्ह, अ २, विसुद्धिमग्ग, अ १६, कत्थावत्यु, १,२. अभिधर्म Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर बौद्धो की दूसरी मान्यता है कि यात्मा ५ स्कन्धों में भिन्न पदार्थ है। यह मान्यता नयायिक प्रादि दार्शनिको जमी है। यहा पर पुदगलश्रात्मा को ५ स्कन्धो का बोझ ढोने वाली कहा गया है। तीसरी मान्यता को मानने वाले पुदगलवादी वारसीनीय बौद्ध है । ये प्रात्मा के अस्तित्व को मानने हैं, परन्तु उसे न ५ कन्या में भिन्न कह सकते हैं वह । न अभिन्न और न नित्य है और न अनित्य हो। फिर भी यह पुद्गल-प्रात्मा अपने अच्छे-बुरे कमों का कर्ता और भोक्ता है, इसलिए इसके अस्तित्व का निषेध नही कर सकते। चौथी मान्यता के अनुसार प्रात्मा अव्याकृत है । अनुराध के प्रश्न का उत्तर देते हुए तथागत बुद्ध ने कहा कि तुम जब इस लोक में जीव दिखाने में समर्थ नहीं हो. तो फिर परलोक की तो बात दूर रही। इसलिए मैं श्रात्मा के अस्तित्व-नास्तित्व के चक्कर में न पड़कर 'दु.ख और दुख निरोध' इन दो तत्वो का उपदेश करता है। जैसे तीर से पाहत व्यक्ति को- यह तीर किसने बनाया, किसने मारा, कव मारा, किस दशा से मारा, आदि प्रश्न करने व्यर्थ हैं। उसे इन व्यर्थ क प्रश्नों मे न उलझकर तोर के घाव की रक्षा की बात सोचनी चाहिए। इसी तरह प्रात्मा क्या है ? परलोक क्या है ? तथागत पैदा होते हैं या नहीं? ये सब प्रश्न व्यर्थ है, अव्याकृत हैं। कोग३,१८टीका, दीघनिकाय-पायामिमुत्त, संयुत्तनिकाय,५,१०,६॥ ६ भार भो भिक्षवो देशयिष्यामि भारादानं भारनिक्षेप भारहार च । तत्र भार. पचोपादानस्कन्धा. भारादान तृप्ति, भारनिक्षेपो मोक्षः, भाराहार पुद्गला.। -तत्त्वसग्रह पजिका,मात्मवाद परीक्षा,३४९,धम्मपद का प्रत्तवग्गो। * सयुत्तनिकाय, अनुराधमुत्त, अभिधर्मकोश,५,२२ टिप्पण । warmraaranamam Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ अष्टम अध्याय बहुत से स्थानो पर नात्मा के सबंध में प्रश्न करने पर बुद्ध मौन रहे हैं। इस तरह मौन रहने का कारण पूछने पर उन्होने कहायदि मैं कहता हूँ कि आत्मा है तो शाश्वतवादी हो जाता है और आत्मा नही है ऐसा कहता हू तो उच्छेदवादो हो जाता हू । अत. दोनो का निराकरण करने के लिए मौन रहता हू । ६ __इस तरह हम देखते है कि बुद्ध ने आत्मा के मबध मे कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । नागार्जुन ने कहा है- "बुद्ध ने यह भी कहा है कि आत्मा है और यह भी कहा है कि प्रात्मा नही है । अतः बुद्ध ने आत्मा या अनात्मा किसी का भी उपदेश नही दिया। जैन दर्शन जैनागमो मे यत्र तत्र-सर्वत्र दार्शनिक एव आध्यात्मिक चिन्तनमनम की सामग्री व्यवस्थित रूप में उपलब्ध होती है । जैनदर्शन स्याद्वाद की नीव पर स्थित है । भगवान महावीर ने बुद्ध की तरह किसी भी प्रश्न को टालने का प्रयत्न नहीं किया। उन्होने आत्मा, परमात्मा, किं नु भो गोतम अत्थत्ताति, एव वुत्ते भगवा तण्ही अहोसि। . किं पन भो गोतम नत्यत्ताति.दुतिय पि खो भगवा तुण्ही अहोसि ॥ -सयुत्तनिकाय, ४, १०० ६ अस्तीति शाश्वतग्राहो नास्तित्युच्छेददर्शन । तस्मादस्तित्वनास्तित्वे नाश्रीयेत विचक्षण, ।। -माध्यमिक कारिका,१८,१० . । आत्मेत्यपि प्रज्ञपितमनात्मेत्यपि देशत । दुद्धनीत्मा न चानात्मा कश्चिदित्यपि देशित IL . -माध्यमिक कारिका, १९,६ . Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ......३३८ लोक-परलोक आदि के सवध में पूछे गए प्रश्नो का स्पष्ट उत्तर दिया इस बात को हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि जैनधर्म को एकान्तवाद मान्य नहीं है। वह न तो वैदिक परम्परा मान्य कूटस्थ (एकांत) नित्यत्व को ही ठीक मानता है और न एकान्त क्षणिकत्व को ही सत्य मानता है । क्योकि प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्म या गुण युक्त है । एक अपेक्षा से उसका एक पहलू है, तो दूसरी अपेक्षा से दूसरा पहलू भी है। जैसे सिक्के की दोनो बाजू सत्य हैं-एक तरफ अपने राष्ट्र की सरकार द्वारा मान्य छाप है, तो दूसरी ओर उसके बनने की तारीख एवं सिक्के का मूल्य अकित होता है। ये दोनो पहलू सिक्के के हैं। किसी एक को महत्त्व नहीं दिया जा सकता है और एक अस्तित्व में उस सिक्के का मूल्य भी नहो रह जाएगा। इसी तरह प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्म वाला है। अतः हम एकान्त दृष्टि से उसके यथार्थ स्वरूप को नही जान सकेंगे। आत्मा को कटस्थ नित्य मानने वाले मत का खण्डन करते हए वौद्ध विचारको ने यह तर्क दिया है कि यदि प्रात्मा को कूटस्थ नित्य मानेंगे तो उसमे कृत-कारित्व नही घट सकेगा। क्योकि जो व्यक्ति कूटस्थ नित्य होता है, उसमे किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं पाता। वह दीवार की तरह अपरिवर्तित स्थिति मे बना रहता है। अत वह कुछ कार्य नहीं कर सकेगा। यदि कहो कि प्रकृति कार्य करती है। तो प्रश्न होगा कि प्रकृति द्वारा किए गए कार्य का आत्मा को फल कैसे मिलेगा? यह सभव नही कि कार्य कोई करे और फल दूसरा भोगे। यदि यह मान भी ले कि प्रकृति ही उसका फल भोग लेती है। तव भी Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९....... अष्टम अध्याय समस्या की उलझन बनी रहेगी। फिर तो प्रात्मा का स्वर्ग-नरक: आदि गतियो मे गमन भी नही हो सकेगा और न उसका वन्ध होगा, और न मुक्ति ही। वह जिस गति एव स्थिति में स्थित है, उसी में वनी रहेगी। इस लोक मे भी एक स्थान से दूसरे स्थान मे आ जा नहो सकेगी । परन्तु ऐसा होता है, वह गमनागमन करती है । इसलिए एकांत नित्यवाद यथार्थता से दूर है। उसे मानने पर प्रात्मा का कृतकारित्व नहीं रह जाता है। जो दोष एकान्त नित्यवाद मे आते हैं, वे ही दोष आत्मा को एकात क्षणिक मानने मे भी आते हैं। क्षणिकवाद को दृष्टि से प्रतिक्षण, नई आत्मा का जन्म होता है । पहले क्षण जो आत्मा थी उसका नाश हो जाता है और दूसरे क्षण अभिनव प्रात्मा की उत्पति होती है। इससे स्पष्ट है कि द्वितीय क्षण उत्पन्न होने वाली प्रात्मा प्रथम क्षण मे स्थित प्रात्मा से भिन्न है। यदि भिन्न नही है वही है, तो फिर आत्मा नित्य हो जायगी । और उसे भिन्न मानते है तो यह प्रश्न उठता है कि जो कर्म प्रथम क्षण स्थित आत्मा ने किया है, उसका फल कौन भोगेगा? यदि कहे कि दूसरे क्षण स्थित प्रात्मा भोग लेगो, तो यह कहना उचित नहीं है। क्योकि कर्म कोई करे और उस का फल दूसरे को मिले, यह तो व्यवहार से भी विरुद्ध है । यदि बाप चोरी करेगा तो उसका दण्ड उसकी सन्तान को नही, उसे ही मिलेगा। यदि कहे कि उसका फल ही नही मिलता तो फिर क्रिया निष्फल हो जायगी और ऐसा होता नहीं। इसी तरह बन्ध मोक्ष का भी प्रश्न उपस्थित होगा । क्योकि जब आत्मा में नित्यता है ही नही तो फिर कर्म का वन्ध किसे होगा और उसे तोड़ेगा भी कौन ? क्योकि कर्म करने वाला श्रात्मा तो नष्ट Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ३४० हो गया है | अतः उसका - कर्म का बन्ध किसी के नही होगा । परन्तु ऐसा होता नही । जो व्यक्ति बुरे या अच्छे जैसे कर्म करता है, उसे वैसा फल भी मिलता है । इससे स्पष्ट है कि वह शुभाशुभ कर्म का बन्ध करता है और उसे तोड़ता भी है । क्योकि जिसका बन्ध होता है, उसका नाश भी किया जा सकता है । और यह वन्ध-मोक्ष की स्थिति एकान्त क्षणिकवाद मे नही घट सकती है । 1 WANN 3 अत, आत्मा को एकात नित्य मानना भी दोषयुक्त है । और एकांत अनित्य मानना भी । इसलिए जैन दर्शन उसे न एकात नित्य मानता है और न एकांत अनित्य ही, वह उसे नित्यानित्य मानता है । आत्म द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है । क्योकि शरीर की बदलती हुई स्थितियो एव गतियो मे भी उसका अस्तित्व वना रहता है । उसके अस्तित्व मे, आत्म प्रदेशो मे थोड़ा भी अन्तर नही पडता । परन्तु ज्ञान-दर्शन आदि जो आत्मा के गुण हैं और सदा प्रात्मा के साथ रहते हैं, उनमे प्रतिक्षण परिवर्तन होता है । इसके अतिरिक्त ससारी श्रात्मा के शरीर एव गति मे भी परिवर्तन होता रहता है । इस पर्याप्त परिवर्तन की अपेक्षा से उसमे परिवर्तन भी आता है । इस तरह श्रात्मा न एकांत नित्य है और न एकात अनित्य ही । वह परिणामी नित्य है द्रव्य की अपेक्षा से सदा स्थित रहता है और पर्याय की अपेक्षा से सदा बदलता रहता है ! बौद्धो का यह तर्क भी कोई महत्त्व नहीं रखता कि आत्मा सव से अधिक प्रिय होने के कारण मनुष्य उसकी तृप्ति के लिए अहकार का अत्यधिक पोषण करता है या हिंसा आदि पापो मे प्रवृत्त होता है। यह दोष अनात्मवाद मे ही उपस्थित होता है । क्योकि आत्मवादी - Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ अष्टम अध्याय इस बात को भली-भाति मानता है कि अहकार एवं हिसा आदि दोष ससार परिभ्रमण के कारण है । इसलिए वह उनसे वचकर रहता है। संसार मे दो दृष्टिएं पाई जाती है-- १-वाह्याभिमुखी और २प्रात्माभिमुखी। जिन प्राणियो को सम्यग्ज्ञान नहीं होता, उनकी दृष्टि बहिर्मुखी होती है। वे पचभूत से बने स्थूल शरीर को ही आत्मा मानने लगते हैं। इसलिए उसे सुरक्षित, स्वस्थ एव चिरकाल तक बनाए रखने के लिए अनेक तरह के पापो का आसेवन करते है और रात-दिन विषय-कषाय मे संलग्न रहते है। इस तरह वे दुःख की अभिवृद्धि करते हैं। परन्तु जिन्हे सम्यग्ज्ञान है, उनकी दृष्टि प्रात्माभिमुखी होती है। वे प्रत्येक कार्य करते समय अपने हित की तरह दूसरे के हित एव सुख का ध्यान रखते हैं। क्योकि वे प्रत्येक प्रात्मा को अपनी आत्मा के समान देखते हैं और यह जानते है कि मुझे दुख अप्रिय है,उसी तरह दुनिया के समस्त जीवो को दु.ख अप्रिय लगता है, सुख प्रिय है और सभी प्राणी जीना चाहते हैं । इसलिए वे अपने स्वार्थ को पूर्ति के लिए दूसरे प्राणियो का यो हो विनाश नहीं करेगा। वह प्रत्येक कार्य विवेक पूर्वक करेगा। हिंसा आदि दोषो से बचने का प्रयत्न करेगा। इस तरह वह पाप कर्म बध एव दु खो से सहज ही बच जाता इससे स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा के अस्तित्व को मानने से दुःखो की परम्परा नही बढती, बल्कि आत्मा को स्वीकार नही करने से हो दु.खो की परम्परा मे अभिवृद्धि होती है। प्रात्मा के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञाता तो दुःख प्रवाह को ही समाप्त कर देता है। वह जो कुछ करता है, वह शरीर की तुष्टि के लिए नहीं करता, प्रत्युत आत्म Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ३४२ विकास के लिए करता है और ग्रात्मा को शरीर मे पृथक मान कर करता है । इसलिए वह केवल शरीर पोषण के लिए किये जाने वाले सभी दोपो से निवृत्त होकर साधना के सयम के पथ पर बढता है । और वह अपनी सारी शक्ति ग्रात्मा को कर्म एव कर्म जन्य शरीरं यादि साधनों से सर्वथा मुक्त करने मे लगा देता है । ऋत. वह एक दिन शारीरिक एवं मानसिक सभी दुखो से मुक्त हाकर अनन्त आत्म सुख को प्राप्त कर लेता है । MAAAAA wwwww इस तरह जैन दर्शन ग्रात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है । श्रौर उसका विश्वास है कि ग्रात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले व्यक्ति को श्रात्मा ही सर्वप्रिय लगती है। इसलिये वह शरीर पोषण से अपना ध्यान हटाकर आत्म विकास मे लगा देता है और आत्म विकास समस्त दोपो से निवृत्त होने पर ही होता है। इस तरह वह सारे दोषो एव तज्जन्य दुखो से सहज ही वच जाता है । जैन दर्शन मे श्रात्मा को स्वतन्त्र पदार्थ माना है । वह इन्द्रिय, मन आदि से अलग स्वतन्त्र द्रव्य है और रूप, वेदना आदि से रहित है | क्योकि रूप आदि पर्यायें भौतिक पदार्थों मे होती हैं । जैन दर्शन मे माने गये छह द्रव्यो मे - १ धर्म, २- अधर्म, ३ - प्राकाश, ४-काल, ५ जीव 1 और ६- पुद्गल, केवल पुद्गल द्रव्य रूप आदि से युक्त है, शेष जड़ एव चेतन द्रव्यों से रूप आदि नही पाये जाते हैं । ससारी जीव मे जो रूप एंव कर्म जन्य वेदना आदि परिलक्षित होती है, इसका कारण यह है कि वह कर्म से संयुक्त है और कर्म पुद्गल हैं, अतः जीव मे रूप, वेदना, सज्ञा आदि की होने वाली अनुभूति कर्म पुद्गल के कारण होती है । अतः ये सब ग्रात्मा नही, प्रत्युत आत्मा के साथ सबद्ध पुद्गल हैं, पर्यायें Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३४३ अष्टम अध्याय है और इसी कारण उनमे प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । "इनके 'पुरातन स्वरूप का नाश एव अभिनव स्वरूप की उत्पत्ति होती रहती है इसी कारण आत्मा को भी पर्याय की अपेक्षा से अनित्य भी माना है। अस्तु,इन साकार पुद्गलों के कारण आत्मा को रूपवान नही कहा जा सकता। वह इन से अलग अरूपी है- और पर्यायो के विनाश कारण उसके द्रव्य स्वरूप मे कोई अन्तर नही आता, इसलिए वह एकान्त भनित्य नही, नित्यानित्य है। आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। वौद्ध दर्शन मे जो आत्मा को रूप आदि से युक्त एव एकान्त क्षणिक माना है, वह कर्म युक्त आत्मा के अदर होने वाली पौद्गलिक हरकतो एव उसकी परिवर्तित होने वाली पार्यो को देखकर ही उसे रूप आदि से युक्त एव क्षणिक कहा है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर अर्थात् आत्म द्रव्य पर जिसमे त्रिकाल मे कभी भी अतर नहीं आता और जो पौद्गलिक गुणो से सर्वथा रहित है, रूप, रस आदि से युक्त नहीं है. बौद्ध दर्शन की दृष्टि नहीं गई । जन विचारको ने उसके यथार्थ स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण करके रखो है और वह अनुभव से सत्य सिद्ध होता है। जैन दर्शन ने किसी भी वस्तु को न एकान्त नित्य कहा है और न एकान्त रूप से अनित्य माना है । क्योकि वस्तु अनन्त गुणो से युक्त है, प्रत. उसके लिए एकात भाषा का प्रयोग ही नहीं किया जा सकता। परन्तु,इससे यह मानना गलत है कि जैनदर्शन सशयशील है।उसे वस्तु के नित्यानित्य,एक-अनेक आदि स्वरूपो मे पूरा विश्वास है और वह निश्चयात्मक रूप से कहता है कि वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है। उसे वस्तु के उभय रूपो मे निश्चय है । परन्तु तथागत बुद्ध जब मात्मा Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ३४४ आदि को अव्याकृत कहते हैं, तो इसका अर्थ यह है- उन्हे प्रात्मा के स्वरूप के सवध में कोई निश्चय नहीं है। इस लिए वे अन्य दार्शनिको की कटु आलोचनाओ से बचने के लिये उन्हे अव्याकृत कहकर अपना पीछा छुडाते हैं। परन्तु, जन विचारको ने मात्मा, परमात्मा, मोक्ष प्रादि के यथार्थ स्वरूप को बनाया है । इस तरह जैन दर्शन एव बौद्ध दर्शन में मौलिक अतर यह है कि बौद्ध दर्शन प्रात्मा को रूप, वेदना आदि पाच स्कन्वो से अतिरिक्त नही मानता और जैन दर्शन उसे इन से अलग स्वतन्त्र द्रव्य मानता है। वौद्ध दर्शन प्रात्मा को क्षणिक मानता है और जैन दर्शन एकात रूप से क्षणिक नही मानता। बौद्ध दर्शन मुक्त अवस्था में आत्मा को प्रभावशून्य अवस्था मानता है और जैन दर्शन मुक्त अवस्था मे भी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है और उसे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अव्यावाघ सुख एव अनन्त शक्ति से सपन्न मानता है। प्रश्न- जैनधर्म और बौद्ध धर्म दोनों में कोई समानता है या नहीं? उत्तर- जैनधर्म और बौद्धधर्म मे अनेकों समानताएं पाई जाती हैं। दोनो वेदो को प्रमाण नही मानते । हिंसामय यज्ञो के दोनो विरोधी हैं। जगत का नियन्ता ईश्वर है, यह दोनो का विश्वास नहीं है । दोनो पुरुष मे ही, उसका आध्यात्मिक विकास होने पर देवत्व की कल्पना करते हैं। दोनो अहिंसा के अनुयायी हैं। दोनो के सघ मे साधु और साध्वी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । इन बातो के अलावा जैनधर्म के चौबी $ इस सम्बन्ध मे हम 'आत्म विचारणा', 'कर्म विचारणा' आदि प्रकरणों में विस्तार से लिख चुके है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ अष्टम अध्याय सवे तीर्थकर भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध दोनों समकालीन थे। दोनो राजकुमार थे,विवाहित थे। सोने के सिहासनो को लात मार दोनो ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी, साधनाकाल मे दोनों के जीवन मे अनेको वाधाए उपस्थित हुईं। ब्राह्मण संस्कृति से दोनो की टक्कर थी, दोनों ही श्रमण सस्कृति के स्तभ थे । वैदिकी हिसा हिसा न भवति, की असंगत और हिसक धारणा का दोनो ने डट कर विरोध किया था। इस प्रकार अन्य भी अनेको बाते हैं, जिनके कारण जैनधर्म और बौद्धधर्म मे समानता पाई जाती है। प्रश्न- जैनधर्म और बौद्धधर्म में कोई भिन्नता है ? यदि है तो वह क्या है ? . उत्तर- दोनो धर्मो मे अनेको जगह मतभेद मिलता है। दोनो के धामिक ग्रन्थ जुदे-जुदे, हैं, इतिहास जुदा है. कथाए, जुदो हैं,इतना ही नही, धार्मिक सिद्धात भी दोनोके नितान्त भिन्न हैं ।जैनधर्म नित्य और अभीतिक जीव तत्त्व का अस्तित्व मानता है, तथा उस का विश्वास है कि जब तक यह जीव कर्मों से वधा हुआ है, तब तक ससार मे भ्रमण करता रहता है । जव अहिंसा, सयम और तप की- त्रिवेणी मे डुबकिया लगा कर अनादिकालीन अपने कर्म-मल को सदा के लिए घो. डालता है, निष्कर्म हो जाता है, तव मुक्त होने पर सिद्धशिला मे जा विराजता है, और अनन्तकाल तक यात्मिक गुणों मे मग्न रहता हुआ शाश्वत आत्मिक सुखो को भोगता है, किन्तु बौद्धधर्म जीव तत्त्व को नही मानता है। उसके, मत मे जिसे जीव कहा जाता है, वह कोई नित्य पदार्थ नही है प्रत्युत क्षणिक धर्मोकी एक सन्तान है,जैसे तेल और बत्तीके जल चुकने पर दीपक का विनाश हो जाता है, वैसे ही उस सन्तान का भो Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....प्रश्नों के उत्तर ...............३४६ नारा हो जाता है । बौद्धधर्म का यह सिद्धात जैनधर्म में सर्वथा विप रीत है। . इसी प्रकार जनसाधुत्रो में और बौद्धसाघुमो की मर्यादामो में बहुत अन्तर पाया जाता है। जैनसाधु का जीवन तपश्चरण की दृष्टि से बड़ा ही कठोर जीवन होता है । जनसाधु कड़ी से कड़ी सरदी पड़ने पर भी प्राग नहीं से कते, प्यास के मारे कण्ठ सूख जाने पर भी .,सचित्त जल का सेवन नहीं करते। चाहे कितनी भूख लगी हो पर फल आदि कच्ची सब्जी नही खाते । प्राग और हरी सब्जी का स्पर्श नहीं करते । बुढापा या बीमारी होने पर भी कोई मवारी नहीं करते। सदा सर्वत्र नगे पाव और नगे सर पाद- भ्रमण करते है। पैरो मे जूते नही पहनते, कौडो पैसा आदि कुछ भी धन अपने पास नहीं रखते सूई तलक रात्रि को अपने पास नही रहने देने। ऐनक के फ्रेम मे भी बांस का खण्ड रखते है. उसमे लोहे का तार नहीं रखते। ऐसे अनेकों नियम हैं, जो बौद्ध साधुओ में नहीं पाए जाते। -- - बौद्ध साधुओ को सचित्त जल के सेवन से कोई संकोच नही, वे "सहर्ष सचित्त वनस्पति को अपने उपयोग मे लाते हैं। रेल, टागा,मोटर हवाई जहाज आदि जितनी भी सवारिया हैं, वे सभी का प्रयोग करते हैं। रुपया, पंसा, सोना, चादी आदि सभी प्रकार का धन अपने काम में लाते हैं । वौद्धसांधुनो को यदि उनका कोई शिष्य घर जीमने का निमत्रण देता है, तो वे उस के निमत्रण को स्वीकार करके उसके घर चले जाते हैं किन्तु जैन साधु ऐसा नहीं करते। जैन साधु किसी की निमंत्रण नहीं मानते, किसी के घर जाकर नही जीमते। वे तो “घरो से भिक्षा मांग कर लाते है, और अपने स्थान में प्राकर ही भोजन का ग्रहण करते हैं । इस प्रकार बौद्ध साधु और जन साधु के Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रष्टम अध्याय जीवन मे आचार-विषयक अनेको मतभेद हैं। : - . . . . - बौद्धसाधु मांस खाते है। इनका विश्वास है कि जो मांस वौद्धः साधुप्रो के निमित्त तैयार नहीं किया गया है, उस मांस को खाने में . कोई दोष नहीं है। इसीलिए जापान मे बौद्धमासविक्रेतायो की दुकानों पर "Not kindle for you" अर्थात् - " यह मास आपके लिए तैयार नही किया गया है। इन शब्दो से अकित बोर्ड लगे रहते हैं। इनके लगाने का यही उद्देश्य होता है कि बौद्ध साधु निर्दोष समझ कर यहा से मास ले सके । स्वय महात्मा बुद्ध के जीवन मे,ऐसे.प्रसग आएहैं, जिनमे उन्होने मासाहार का सेवन किया है, महात्मा बुद्ध की मृत्यु ही सूअर का मास खाने से हुई थी । किन्तु जैन साधु मासाहार' के सर्वथा त्यागी होते हैं, मास तो क्या वे सचित्त वनस्पति को भी नही छूते हैं। कच्ची सब्जी ले स्पर्शमात्र से वे तो हिंसा को कल्पना" करते हैं। ऐसे अहिंसक जीवन मे मासाहार का तो प्रश्न ही पैदा नहीं: होता। जनसाधु तो मांसाहार से सर्वथा दूर रहते ही हैं, किन्तु जैन-- गृहस्थ भी इसे कभी अपने उपयोग मे नही लाते है। जैनधर्म मासाहार, को अभक्ष्य और हिंसापूर्ण आहार बतलाता है । जैनधर्म में मासाहार का बडी दृढता से विरोध किया गया है । करुणा के सागर भगवान ने इसे कुव्यसनो मे माना है और नरक का कारण बतलाया है । जैन वाड मय के प्रसिद्ध सूत्र श्री स्थानागसूत्र के चतुर्थ स्थान मे लिखा है कि प्राणी महारभ करने से, महापरिग्रह रखने से, पञ्चेन्द्रिय जीवो का वध करने से, और मास का भक्षण करने से नरक में जाता है। वौद्धधर्म और जैनधर्म मे कितनी भिन्नता है यह २ . . . जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । इस मे सभी प्रकार के पापो की. विरक्ति पर विशेष लक्ष्य दिया गया है। मुनियो के लिए जीवहिंसा, Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ३४८ असत्य, चोरी, ब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि का सर्वथा त्याग बतलाया गया है । उन्हे मन, वचन और काया से न स्वय हिंसा करनी चाहिए और न दूसरो से करानी चाहिए, और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करना चाहिए। कृत, कारित और अनुमोदन करने की यह भावना सभी व्रतो के लिए है । मुनिव्रत धारण करते समय व्यक्ति को प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि " सव्वं सावज्ज जोगं पचक्खामि " अर्थात् मैं सभी सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग करता हूं, किन्तु बौद्धधर्म ने निवृत्ति धर्म को इतना महत्त्व नहीं दिया । wwwwwwwe. ha जैनधर्म ने आत्मा, परमात्मा, पुण्य, पॉप, बन्ध, ' निर्जरा आदि जिस किसी भी तत्त्व को पकड़ा है, उसके स्वरूप को पूर्णरूप से जनता के सामने रखा है । भगवती सूत्र मे वर्णित गंगा अनगार के भागें अपनी विशेषता आप ही रखते हैं, उन्हें समझना कोई खाला जी का घर नही । जितना सूक्ष्म, गंभीर और तात्त्विक विवेचन जैनधर्म ने अध्यात्म जगत को दिया है, इतना बौद्धधर्म ने तो क्या किसी भी जैनेतर धर्म ने नही दिया । जैनधर्म का अधिक झुकाव पदार्थों के स्वरूप के अन्वेषण और अनुसन्धान की ओर रहा है, आत्मा के अनादिकालीन कर्ममल की विशुद्धि के लिए, अहिंसा, सयम और तप की आराधना की और रहा है, जैनधर्म का दृष्टिकोण अलौकिक रहा है. आत्मसुधार का रहा है, लोकिक जीवन की ओर जैनधर्म ने विशेष महत्त्व नही दिया । इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनधर्म लौकिक जीवन की सर्वथा उपेक्षा करता है, लौकिक आचार विचार के उत्थान की ओर भी उसने ध्यान तो दिया है, परन्तु उतना नही, जितना कि लोकोत्तर आचार-विचार की भोर दिया है। इसके विपरीत बौद्धधर्म का झुकाव लौकिक श्राचार Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAHAAmVvv अष्टम अध्याय विचार की ओर ही अधिक रहा है, उसने लोकोत्तर (आत्मिक) प्राचारविचारगत उत्कर्ष की पोर विशेष लक्ष्य नहीं दिया। यही इनमे प्राचारविचारगत भिन्नता है। इस प्रकार जैनधर्म और बौद्धधर्म में सैद्धान्तिक और धार्मिक दृष्टि से पर्याप्त मतभेद पाया जाता है। तथापि इस सत्य से इन्कार नही किया जा सकता कि दोनों धर्म एक ही क्षेत्र मे फले फूले हैं,पौर. अन्य धर्मों की अपेक्षा एक दूसरे के अधिक निकट हैं। भगवान महावीर भोर महात्मा बुद्ध के जीवन मे जो समानता तथा असमानता है, उसे निनोक्त तालिका से समझा जा सकता है महावीर पिता सिद्धार्थ 'शुद्धोधन माता . -त्रिशला महामाया गोत्र कश्यप कश्यप , जन्मभूमि क्षत्रियकुण्डग्राम कपिलवस्तु जाति जात शाक्य जन्मसम्वत् ई०पू० ५९९ ई०पू०६०० यशोधा यशोधरा सन्तान प्रियदर्शना [पुत्री] राहुल [पुत्र] ३०वर्ष की आयु मे - २९वर्ष की प्रायु मे पादितप १२ वर्ष ६वर्ष. ज्ञानप्राप्तिस्थान ऋजुवालिका तट (बौद्ध)गया निर्वाण वि.स. से ५२७वर्ष पूर्व वि.स.से५२० वर्ष पू. निर्वाणस्थान मध्यम अपापा(पावापुरी)- कुशी नगर मायुष्य ७२ वर्ष ८० वर्ष महाव्रत पांच महाव्रत पाच शील सिद्धात भनेकान्तवाद क्षणिकवाद स्त्री Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और चार्वाक दर्शन . , नवम अध्याय प्रश्न- भारतीय दर्शनों में चार्वाक नास्तिक दर्शन माना गया हैं। चैदिक दार्शनिकों ने चार्वाक की तरह जैन दर्शन को भी नास्तिक दर्शन कहा है। अतः यह स्पष्ट करें कि चावकि एवं जैन दर्शन में क्या अन्तर है ? . उत्तर- आस्तिक-नास्तिकवाद प्रकरण में हम विस्तार से बता चुके हैं कि जैन दर्शन नास्तिक दर्शन नही,ग्रास्तिक दर्शन है। उसे नास्तिक दर्शन कहना केवल सांप्रदायिक व्यामोह मात्र है। यदि वेद को प्रमाण न मानने मात्र से ही कोई दर्जन नास्तिक हो जाता हो, तव सास्य दर्शन को भी नास्तिक दर्शन मानना होगा। क्योकि जनो को तरह वह भी वेद को ईश्वर कृत एव प्रमाण रूप नहीं मानता। और शंकराचार्य वेद को प्रमाण रूप मानता है, फिर भी वैदिक पुराणो मे उसे नास्तिक कहा है । इससे स्पष्ट होता है कि नास्तिक आस्तिक का ६ मायावादी वेदान्ती (गकराचार्य) अपि नास्तिक एव पर्यवसाने नेपद्यते इति नेयम् । मत्र प्रमाणानि साख्य प्रवचन योदाहृत नि पद्मपुराण वचनानि यथा मायावादमसच्यास्त्र प्रच्छन्न बौद्धमेव च । - मयंव कथित देविकलो ब्राह्मणरुपिणा ।। - Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ f मवधं वेद को प्रमाण मानने या नही मानने से नही है । यह परिभाषा 'सम्प्रदायवाद के विषाक्त युग मे बनाई गई है । वस्तुत' 'जो विचारक 'ग्रात्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व एवं परलोक के अस्तित्व को नही मानते, वे नास्तिक और जो इनमें विश्वास रखते है वे नास्तिक कहलाते हैं । 'इस दृष्टि से जैन दर्शन नास्तिक नही, बल्कि आस्तिक दर्शन है । इस बात को हम ग्रास्तिक नास्तिक विवेचन मे स्पष्ट कर चुके है। अब हम चार्वाक एव जैन दर्शन मे समानता है या नही? इस पर विचार करेंगे। इस तुलनात्मक विवेचन को प्रारंभ करने से पहले चार्वाक दर्शन को समझ लेना अवश्यक है । इसलिए पहले हम चार्वाक दर्शन की मान्यता पर विचार करेगे । E 1 1 www. नवम अध्याय JV INV "PAT चार्वाक दर्शन चार्वाक दर्शन पुण्य-पाप आदि तत्त्वो को नहीं मानता । वे इस बात को भी स्वीकार नहीं करते कि व्यक्ति के द्वारा की जाने वाली किसी भी क्रिया का इस लोक के प्रतिरिक्त परलोक मे फल मिलता है। वे समस्त तत्त्वो का चर्वण कर जाते हैं, इसलिए उन्हे चार्वाक कहते है * । इनकी भाषा लोक रुचि को लिए हुए होती है, इस तरह भापा अपार्थं श्रुतिवाक्याना दर्शयल्लोक गर्हितम् कर्म-स्वरूपत्याज्यत्वमत्रे च प्रतिपाद्यते ।। सर्वं कर्म परिंम्रशान्नेष्कर्म्य तत्र चोच्यते । परमात्मजीवयोरैक्य मयात्र प्रतिपाद्यते ।। 1 - साख्यप्रवचन भाष्य, १.१ भूमिका; न्यायकोश पृ ३७२१ * चर्वन्ति, भक्षयन्ति तत्त्वतो न मन्यन्ते पुण्यपापादिक परोक्ष वस्तुजातमिति चार्वाका. । 4 -- गुणरत्न सूरि । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर ~~~~~~.. . .३५२ की सुन्दरता के कारण भी उन्हे चार्वाक कहते हैं । इन का प्रावरण सामान्य लोगो की तरह होता है, इन मे सयम,एवं तप का प्रभाव होता है। साधारण लोगो की तरह भोगो मे आसक्त रहने के कारण इन्हे लोकायत या लोकायतिक भी कहते हैं । चार्वाक पुण्य-पाप को नही मानते और उनके फल स्वरूप मिलने वाले नरक स्वर्ग को भी नही मानते, इसलिए इन्हे नास्तिक भी कहते हैं ।। चार्वाक भौतिकवादी दर्शन है । वह मानता है कि सृष्टि मे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पांच मूल तत्त्व है । इन्ही से -सृष्टि का निर्माण होता है। पाचो तत्त्वो के सम्मिलन से आत्मा की उत्पत्ति होती है । और उसके विनाश के साथ आत्मा का भी विनाश हो जाता है । अत, चार्वाक दर्शन की मान्यता है कि ससार मे प्रास्मा नाम की कोई स्वतन्त्र शक्ति नही है। उसका अस्तित्व तभी तक रहता है, जब तक पचभूतो का अथवा शरीर का अस्तित्व रहता है : शरीर के नाश के साथ आत्मा का भी विनाश हो जाता है। इसलिए दुनिया मे जो कुछ है, वह यह मनुष्य लोक ही है । इसके अतिरिक्त * चारुलोकसम्मतः वाक: वाक्य यस्स सः चार्वाकः। -वाचस्पत्यकोश। * लोकाः निर्विचारा. सामान्यलोकस्तद्वदाचरन्ति स्मेति लोकायता लोकायतिका। -गुणरत्न मूरि। + नास्ति पुण्यं पापमिति मतिरस्य नास्तिकः। --आचार्य हेमचंद्र ६ मति पचमहन्भूया, इहमेगेसिमाहिया । पुढवि, पाउ, तेउ वा वाउ मागास पचमा ।। एस पच महन्भूया, तेब्यो एगोत्ति आहिया । प्रह तेसि विणासेण, विणासो होइ देहिणो। सूत्रकृतांग, १,१,१, ७.८ । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ नवम अध्याय नरक - स्वर्ग आदि परोक्ष लोक नही है । अत आत्मा मर कर नरकस्वर्ग में नही जाती और न वह पाप-पुण्य से आवद्ध होती है । इसलिए मनुष्य को धर्म-कर्म करने की आवश्यकता नही है । उसे आनन्द पूर्वक अपना जीवन विताना चाहिए। यह जीवन बड़ी कठिनता से मिला है, अतः खाने-पीने एव ऐश-आराम मे सदा व्यस्त रहना चाहिए । भोग-विलास में निमग्न रहना चाहिए। इस मत के एक विचारक ने कहा भी है- " यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृत पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहिनः पुनरागमणः कुतो ॥ 11 इससे स्पष्ट होता है कि चार्वाक दर्शन पूर्णतः भौतिकवादी है । वह प्रत्यक्ष मे दिखाई देने वाले शरीर एव भोगो के अतिरिक्त किसी वस्तु को वास्तविक नही मानता है । इसे प्रत्यक्ष के अतिरिक्त कोई भी प्रमाण मान्य नही है । भी जैन दर्शन जैन दर्शन पाच भूतो के सघात से बने हुए शरीर को ही आत्मा नही मानता है । आत्म विचारणा प्रकरण मे हम इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि आत्मा शरीर, इन्द्रिय एव मन से अतिरिक्त स्वतन्त्र द्रव्य है और शरीर आदि का विनाश होने पर भी उसका नाश नही होता है । वह सदा-सर्वदा अपने स्वरूप मे स्थित रहता है । कभी भी, किसी भी अवस्था मे आत्मा के असख्यात प्रदेशो मे थोड़ा भी अन्तर नही आता । उनकी संख्या न कभी बढती है और न घटती है । अनन्त काल तक पुद्गलो के साथ सवध रहने पर भी आत्मप्रदेशो की सख्या एव ग्रात्मा के स्वभाव मे कोई अन्तर नही श्राता । इमंलिए आत्मा { A Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ૬૪ को मात्म द्रव्य की अपेक्षा से नित्य माना गया है । यह सत्य है कि उसके गुणो मे परिवर्तन अवश्य होता है, उनको पर्याय प्रतिक्षण वदलती रहती है । जैसे ज्ञान एवं दर्शन आत्मा के गुण हैं । श्रात्मा में अनन्त ज्ञान एव अनन्त दर्शन स्थित है । प्रत्येक प्रात्मा ज्ञान एवं दर्शन की सत्ता लिए हुए हैं । यह बात अलग है कि समारी आत्माए ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के प्रावरण से प्रावृत्त होने के कारण उनका ज्ञान एव दर्शन पूर्णतः प्रकट नही हो पाता है । जितना-जितना कर्मों का क्षयोपशम होता है, उतना ही ज्ञान दर्शन का प्रत्यक्षीकरण होता है। ज्ञान और दर्शन के द्वारा आत्मा पदार्थों को जानता देखता है । पदार्थ पर्याय युक्त हैं और पर्याये सदा वदलती रहती हैं, इसलिए प्रत्येक पदार्थ पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य है और ज्ञान एवं दशन से पदार्थों की पर्यायों का भी बोध होता है । श्रतः पर्यायो के परिवर्तन के · 2 J साथ उसका ज्ञान भी परिवर्तित होता रहता है। जैसे भगवान महावीर के समय नालन्दा आदि शहर थे और आज भी वे स्थान स्थित हैं । परन्तु, उस युग के नालन्दा एव आज के- नालन्दा की स्थिति में बहुत अन्तर आ गया है । इतने लम्बे काल की बात को छोड़िये, आजादि के पहले के भारतीय एव पाकिस्तानी सीमा मे स्थित शहरी को स्थिति एव आज को स्थिति मे कितना अन्तर आ गया है इस बात को प्रत्येक व्यक्ति भली-भांति जानता है। तो इस परिवर्तन के साथ हमारे ज्ञान एव दर्शन की अनुभूति मे भी परिवर्तन हो गया । ज्ञान और दर्शन ग्रात्मा के गुण हैं और गुण सदा गुगो मे रहते हैं । यतः ज्ञान-दर्शन ग्रात्मा से संबद्ध हैं और कभी भी आत्मा से अलग नही होते। उनके अस्तित्व के अभाव मे ग्रात्मा का अस्तित्व ही नहो रह पाता है । तो उनके परिवर्तन का अर्थ होता है आत्मा की पर्यायो wwwww Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ का परिवर्तन | इस अपेक्षा से प्रात्मा श्रनित्य भी मानी गई है। वह द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय को अपेक्षा श्रनित्य है । ससारी मात्मा कर्मों से प्रावद्ध होने के कारण शरीर से भी युक्त है। जब तक वह सपूर्ण कर्मों का नाश नहीं कर देता, तब तक वह शरीर से छुटकारा नही पा सकता है । मृत्यु के समय स्थूल-प्रदारिक शरीर यही छूट जाता है और अपने आगामी जन्म के स्थान तक पहुचने के लिए उसे श्या३या४ समय लगते है। उतने काल तक वह स्थूल शरीर मे रहित रहता है, फिर भी अशरीरी नहीं होता । क्योकि, कार्मण शरीर सदा उसके साथ रहता है । उस समय भी वह शरीर श्रात्मा से सबद्ध रहता है और उसी कार्मण शरीर के माध्यम से वह अपने बांधे हुए श्रायुष्य के अनुरूप स्थान मे पहुच जाता है और वहा पहुच कर सबसे पहले प्रहार ग्रहण करता है और उसके बाद प्रौदारिक या वैक्रियस्थूल शरीर बनाता है । यह शरीर प्रति समय परिवर्तित होता है और श्रात्मा के बाघे हुए कर्मों मे भी प्रतिक्षण परिवर्तन आता रहता है । श्रात्मा शरीर से संबद्ध होने के कारण शरीर श्रादि पर्यायों के परिवर्तन की अपेक्षा से भी अनित्य कहलाता है । इस तरह हमने देखा कि ग्रात्मा अपेक्षा विशेष से नित्य भी है और अनित्य भी । परन्तु एकान्त रूप से नाशवान नहीं है । शरीर के विनाश के साथ ही उसका अस्तित्व समाप्त नही हो जाता । एकान्त क्षणिकवाद को मानने वाले बौद्धो ने भी शरीर के नाग के साथ-साथ प्रात्मा का विनाश नही माना है । अतः शरीर के साथ आत्मा का विनाश मानना भारतीय संस्कृति के किसी भी आस्तिक विचारक को स्वाकार नही है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक दर्शन एव जैन दर्शन मे सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जैन दर्शन श्रात्मा की स्वतन्त्र सत्ता एव उसके परिणामी नित्यत्व 1 नवम अध्याय PANIPA ইছক * Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नों के उत्तर ३५६ को स्वीकार करता है और चार्वाक दर्शन मात्मा को शरीर से अलग स्वतन्त्र तत्त्व एवं शरीर के बाद भी उसके स्थित रहने को नही मानता। चार्वाक दर्शन पदार्थों के स्वरूप को जानने-देखने के लिए प्रत्यक्ष ज्ञान को ही प्रमाण मानता है, अनुमान, आगम आदि परोक्ष ज्ञान को प्रमाण नहीं मानता। परन्तु, जैन दर्शन प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनो ज्ञानो को प्रमाण मानता है । वह अनुमान, उपमान, पागम आदि प्रमाणो को भी स्वीकार करता है। क्योकि केवल चक्षु प्रत्येक पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानने मे समर्थ नही है । वह स्थूल होने के कारण भौतिक पदार्थों के स्थूल रूप को मर्यादित रूप से जान-देख सकती है। कई भौतिक पदार्थ इतने सूक्ष्म होते है कि उन्हें प्रांखो से देख सकना कठिन ही नही, असभव है । जैसे- परमाणु को आखो से नही देखा जा सकता, अांखो से ही नहीं, सूक्ष्म दर्शक यत्र (Microscope) के सहयोग से परमाणु के दर्शन नही हो सकते । फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि आंखो से दिखाई नही देने के कारण परमाणु नही है । क्योकि उसका कार्य रूप से अनुभव होता है। परमाणुओ के मिलने एव बिछड़ने पर ही भौतिक वस्तुओ का निर्माण एव विध्वस होता है । समस्त भौतिक पदार्थो का मूल आधार परमाणु है। दुनिया के तमाम भौतिक पदार्थ- जिनका इन्द्रियो द्वारा ग्रहण किया जा सकता है, अनन्त-अनन्त परमाणुओ के स्कन्ध रूप हैं। क्योकि अनन्त परमाणुरो का स्कन्ध ही चक्षु ग्राह्य हो सकता है । इससे स्पष्ट है कि परमाणु के स्कन्ध रूप कार्य को देख कर उसके कारण परमाणु के अस्तित्व का सहज ही अनुमान लगा सकते है । चार्वाक भी परमाणु को तो मानता ही है, अत, आखो से दृष्टिगोचर होने वाले प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनु Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ नवम अध्याय मान को सर्वथा प्रमाण नहीं मानने की घोषणा करना उन्मत्त प्रलाप मात्र है । चार्वाक आगम प्रमाण को भी नही मानते, वे उसे सर्वथा अप्रमाणिक मानते हैं | परन्तु, अनेक परोक्ष वातो को सिद्ध करने के लिए वे उनका सहारा भी लेने हैं। जैसे- अमुक युग मे अमुक व्यक्ति हुआ था या हमारे दादा परदादा आदि ऐसे वीर या दानी या सच्चरित्रवान श्रादि थे, जब हम यह कहते हैं तो हम इन्हे न तो प्रत्यक्ष मे देखते है भोर न देख ही सकते हैं, फिर भी इतिहास एवं अपने पिता, दादा श्रादि के वचनो पर विश्वास रख कर उन घटनाओ को सत्य मानते है। यदि किसी के दादा ने किसी को एक हजार रुपया उधार दिया है, हम ने तो उसे उधार देते वक्त देखा नही, परन्तु बही मे लिखा है, तो क्या उस लिखावट के आधार पर हम उस हिसाब को सही नही मानेगे ? क्यो नही । उसे अवश्य हो सही मानेगे और उसके आधार पर रुपये वसूल करेंगे । यही बात आगम के संबध मे है । श्रागम प्राप्त पुरुषो की वाणी है और प्राप्त पुरुष वे हैं, जो राग-द्वेष के विजेता है | श्रत उनकी वाणी मे असत्यता एव परस्पर विरोध नहीं होता । इस लिए वे अपने दिव्य ज्ञान मे जो देखते है वही आगम के रूप मे हमारे सामने सुरक्षित है । जैसे- बाप-दादे द्वारा प्रत्यक्ष मे देखी गई बात उन की लिखावट के आधार पर सत्य मानी जाती है- चार्वाक भी इमे सत्य मानता है, इसी तरह सर्वज्ञ पुरुषो के दिव्य ज्ञान से प्रत्यक्ष किए हुए स्वरूप को असत्य मानना केवल बुद्धि का अजीर्ण है । अत. ग्रागम प्रमाण को नहीं मानना चार्वाक का हठ ही है। इसे नही मानने क पीछे कोई ठोस तर्क एव प्रमाण नहीं है । 1 *T AAAAAA THEX Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नो के उत्तर इस तरह हम देखते है कि.जब परमाणु- जो वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि से युक्त है वह भी आखो से दिखाई नही देता. तो आत्मा जो वर्ण आदि से रहित है वह आंखो से कैसे देखा जा सकता है। फिर भी हमें उसका अनुभव अवश्य होता है। जैसे परमाण दिखाई नही देता, फिर भी उसके कार्य को देख कर उसके अस्तित्व का अनुमान करते हैं। इसी तरह आत्मा के चेतना रूप कार्य को देख कर हम यह अनुभव करते हैं कि शरीर से अतिरिक्त प्रात्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है। क्योंकि, जब आत्मा गरीर को त्याग कर चला जाता है जिसे लोक भाषा मे मृत्यु कहते हैं, उसके बाद भी शरीर का अस्तित्व बना रहता है, परन्तु उसमे चेतना का अभाव होने से वह किसी तरह की हरकत नही कर सकता। इससे स्पष्ट होता है कि आत्मा का शरीर से पृथक अस्तित्व है। यदि आत्मा और शरीर एक ही होते तो आत्मा के निकलते ही शरीर का नाश हो जाता या शरीर का नाश होने पर चेतना (आत्मा) का लोप होता है। यदि ऐसा होता तब तो यह माना जा सकता था कि आत्मा और शरीर एक ही है। परन्तु, ऐसा होता नही है। आत्मा के निकल जाने के बाद भी शरीर निष्क्रिय पड़ा रहता है। उसमे पांचो भौतिक तत्त्व विद्यमान रहते हैं, फिर भी चेतना के अभाव मे उसका कोई मूल्य नही रह जाता है। इससे आत्मा का अस्तित्व स्पष्टत. प्रतीत होता है । वह आखो से दिखाई नहीं देने पर भी हमारी अनुभूति से छिपा नहीं रहता है, हम उसे प्रतिक्षण अनुभव एव दिव्य ज्ञान की चक्षुत्रो से देख सकते हैं। प्रात्मा को तरह आगेम को भी हमने नहीं देखा। परन्तु, इतने मात्र से वह अप्रमाणिक नहीं हो जाते । जव हम वाप-दादो द्वारा कही एवं लिखी हुई बातो को उनकी लिखावट एव वाणो मानकर सच Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ नवम अध्याय t मानते हैं, तो आागम को असत्य मानने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है | आगम भी क्या है ? प्राप्त पुरुषो द्वारा कथित विचार ही तो आगम है और प्राप्त पुरुष वह है, जिसने राग-द्वेष का क्षय कर दिया है । वीतराग होने के कारण उसकी वाणी मे किसी भी तरह का विरोध, असत्य एव अपूर्णता नही रह जाती है । इसलिए सर्वज्ञ पुरुष द्वारा कहे गए ग्रागम सत्य एव प्रामाणिक है । उस मे सशय करने का बिल्कुल अवकाश ही नही रहता है। 1 इस तरह हम देख चुके हैं कि जैन दर्शन एवं चार्वाक दर्शन मे पर्याप्त भेद है। फिर भी, जैन दर्शन अनेकान्तवादी है । इसलिए वह चार्वाक दर्शन मे भी आशिक सत्य को देखता है । क्योकि जैन दर्शन भी अपेक्षा विशेष से भौतिकवाद को भी स्वीकार करता है । वह चार्वाक की तरह एकात रूप से, भौतिकवाद का समर्थन नहीं करता और न एकात रूप से उमे झुठलाता ही है । जैन दर्शन सापेक्षवाद का स्वीकार करता है, इसलिए वह अध्यात्मवादी होते हुए भी एक नय से, एक अपेक्षा से भौतिक पदार्थों को भी साधना मे सहायक मानता है । वह लाल कपड़े को देखने मात्र से बिगडने वाले बैल की तरह भौतिकता के नाम मात्र से चिढता नही है। वह प्रत्येक वस्तु मे रहे हुए सत्य को निष्पक्ष भाव से देखता एव स्वीकार करता है । यही कारण है कि भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का समन्वय करते हुए दार्शनिक विचारक श्री श्रानन्दघन जी नेमिनाथ भगवान की प्रार्थना करते हुए लोकायत ( चार्वाक-भौतिक) दर्शन को भगवान के पेट की उपमा दो है, अर्थात् ग्राध्यात्मिकता के साथ अश रूप से भौतिकता को भी स्वीकार किया है * । * लोकायतिक कूख जिनवर नी, अश विचार जो कीजे । 5 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~ - ~~ ~ -~ ~~r nvrom~-~~~ - ~ ~ - ~ प्रश्नो के उत्तर प्रस्तुत पद मे लोकायत या चार्वाक दर्शन को पेट के तुल्य माना है। शरीर मे विचार शक्ति के स्रोत मस्तिष्क प्रादि अमो मे पेट का महत्त्वपूर्ण स्थान है, खुराक से प्राप्त शक्ति को पेट से लेकर सव अग अपना-अपना काम करते हैं । इसी तरह आध्यात्मिक जीवन में भौतिक साधनो का भी अपना स्थान है। शरीर, मकान, वस्त्र, खाद्यपदार्थ एव सयम साधना के अन्य भौतिक साधनो (उपकरण श्रादि} के सहयोग के विना साधक अपने साध्य को सिद्ध नही कर सकता ! अतः जैन दर्शन भौतिक पदार्थों को सर्वथा उपेक्षा नहीं करता। परन्तु वे पुष्पमाला मे पुष्पों के नीचे दवे हुए धागे की तरह आध्यात्मिकता को ज्याति से दवे रहते हैं। यह सत्य है कि पुष्पमाला को बनाने के लिए धागा अावश्यक है। धागे में अनुस्यूत सभी पुष्प शोभायमान होते है । परन्तु, यह शोभा तभी तक स्थित रहती है, जब तक धागा फूलो से ढका रहे। यदि फूलो को छिन्न-भिन्न करके धागा फार उभर आए तो वह पुष्पमाला भट्टी-सी परिलक्षित होगी, कोई भी व्यक्ति उसे लेना स्वीकार नहीं करेगा। यही स्थिति आध्यात्मिक एव भौतिकवाद की है । यदि आध्यात्मिक पुष्पो को पराग के नीचे भौतिकता का धागा दवा रहे तो इसमे जैन दर्शन को कोई आपत्ति नही। साधना काल मे साधक भौतिकता से सर्वथा निवृत्त नही हो सकता। इस लिए उसके अस्तित्व से सर्वथा इन्कार नही किया जा सकता। परन्तु, यदि आध्यात्मिकता के पुष्पो को नष्ट-भ्रष्ट करके भौतिकता अपना तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम चिण केम पीजे ॥ पड् दर्शन जिन अग भणीजे न्यास पडग जो साधे रे। नमि जिणद का चरण उपासक पड् दर्शन जो अराधे रे । , -पानन्दधन चौबीसी । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ नवम अध्याय AAAAAAMA MAMI माधिपत्य जमाना चाहती हो, जीवन मे सर्वत्र भौतिकता का साम्राज्य स्थापित करने की अभिलाषा हो तो जैन दर्शन, को यह स्वीकार नहीं है । वह प्राध्यात्मिक ज्योति से रहित भौतिकता को किसी भी हालत मे पसन्द नहीं करता । वह आध्यात्मिकता मे युक्त भौतिकता का या यों कहिए त्याग निष्ठ भोग का समर्थन करता है। और चार्वाक आध्यात्मिक रहित भौतिकता का या त्याग रहित केवल भोग का समर्थन करता है। प्रत. चार्वाक एव जैन दर्शन मे यही सबसे बड़ा अंतर है। चार्वाक की मान्यता के सबंध मे एक श्लोक प्रसिद्ध है, उसके प्रथम पद मे कहा है- " यावज्जीवेत सुख जीवेत" अर्थात् जब तक जीवित रहे, सुख-पूर्वक जीवित रहे । इस से जैन दर्शन का कोई विशेष विरोध नहीं है । जैन दर्शन भी यही कहता है कि मानव सुखशान्ति से रहे । वह रोते-तड़पते हुए जोवन के क्षण न विताए। पार्त पौर रौद्र ध्यान मे ही सदा निमग्न न रहे । वह रात-दिन चिन्ता के झूले मे झूलता न रहे । साधक का चाहिए कि वह सुख-दुख मे हमेशा मुस्कराता रहे। दुखो को तपतो दुपहरो मे भी उसका मन सरोज कुम्हलाए नहो । वह हर स्थिति मे सकल्प-विकल्पो से ऊपर उठ कर शांत मन से आत्म-साधना मे संलग्न रहे। हा तो, जहा तक पहले चरण का सबध है, जैन दर्शन का कोई विरोध नही है। वह भी मनुष्य को सुख-शाति एत्र आनन्द पूर्वक जोने को प्रेरणा देता है। परन्तु गेष तीन पदो के साथ जनदर्शन सहमत नहीं है ! उनमे कहा गया है कि "...ऋण कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मी-भूतस्य देहिनः, पुनरागमण कुतः।" उक्त दूसरे पद की भाषा किसी सभ्य एव इमानदार व्यक्ति की भापा प्रतीत नही होती । क्योकि सुख-पूर्वक जोने का यह अर्थ नही है कि चाहे जैसे अनैतिक साधनो से भौतिक Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ उत्तर .................... प्रश्ना पदार्थो को इकट्ठा करके मुख भोग किया जाए। यह हम पहले ही पता चुके है कि त्याग निष्ठा से रहित केवल भोग की भावना पतन के गर्त मे गिराने वाली है। यह मानव को मानवता से बहुत दूर,दानवता की प्रोर ले जाने वाली है। प्रस्तु,अनंतिकता के पोषण का स्वर इनसान का नही, शैतान का हो हो सकता है / इसलिए अनंतिक तरीको से भोगों में आसक्त रहनेकी प्रेरणा देना संसारको नरक बनाना है और जनदर्शन ससार को जीवित नरक बनाने के पक्ष में नहीं है। वह तो मानव को भोग के कीचड से उपर उठा कर त्याग के शिखर पर पहुचाने का प्रयत्न करता है / और वह चार्वाक की इस बात से भी सहमत नहीं है कि शरीर के नष्ट होने क साथ प्रात्मा का नाश हो नाता है, उस का पुनर्जन्म नहीं होता। हम इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि जैन दर्शन प्रात्मा को परिणामी नित्य मानता है। और ससार में स्थित प्रात्मा एक योनि में प्राप्त स्थूल शरीर के नाग होने पर वह दूसरी योनि मे जन्म ग्रहण करता है। यह नितात सत्य है कि मोक्ष मे जाने के वाद आत्मा पुन ससार मे नही आता या जन्म ग्रहण नहीं करता। परन्तु वहा भी आत्मा का अस्तित्व सदा बना रहता है, उसरे स्वरूप का लोप नहीं होता। इतने विस्तृत विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक और जैन दर्शन मे आकाश-पाताल का-सा अन्तर है। चार्वाक पुण्यपाप, नरक-स्वर्ग आदि के अस्तित्व को नही मानने वाला एकान्त भौतिकवादी दर्शन है और जैन पुण्य-पाप, नरक-स्वर्ग आदि के अस्तित्व मे विश्वास रखने वाला अध्यात्मवादी दर्शन है / चार्वाक नास्तिक दर्शन है और जैन दर्शन आस्तिकवाद से परिपूर्ण है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- _