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________________ प्रश्नों के उत्तर जाते । जव उनमे एकरूपता नहीं आती तो क्या कारण है कि स्याद्वाद के द्वारा मान्य एक ही वस्तु मे स्थित दो विरोधी धर्मों का आश्रय एक होने से भेद और अभेद मे एक रूपता आ जायगी ? अस्तु, यह मानना भ्रम है कि आश्रय एक होने पर दोनो विरोधी धर्म एक हो जाते हैं । क्योकि भेद और अभेद दोनो एक नही, भिन्न हैं । दोनो की अलगअलग प्रतीति होती है। अत दोनो का आश्रय एक होने पर भी दोनो को पृथक्-पृथक् मानना चाहिए। ५-कुछ दार्गनिक स्यावाद पर यह दोप लगाते है कि जहाँ भेद है, वहाँ अभेद है और जहां अभेद है, वहा भेद है। इस तरह भेद और अभेद आपस में वदले जा सकते है । इससे व्यतिकर दोष लग जायगा। यह कथन भी स्याद्वाद एव वस्तु के स्वरूप को नहीं समझने का परिणाम है। स्याहाद व्यतिकर दोप से दूपित नही है । भेद और अभेद दोनो धर्म वस्तु मे स्वतन्त्र रूप से रहते हैं। दोनों का अपनाअपना अस्तित्व है । फिर दोनो को अपने-अपने स्वरूप मे प्रतीति होती है । अत. एक दूसरे का एक दूसरे मे परिवर्तन होने की कल्पना करना मिथ्या है । स्याद्वाद भेद को भेद रूप से ओर अभेद को अभेद रूप से स्वीकार करता है। ६-तत्त्व भेदाभेदात्मक होने से किसी निश्चितं धर्म का निर्णय नही हो पाएगा। और निश्चित निर्णय के अभाव में सशय उत्पन्न हो जायगा । सगय तत्त्व ज्ञान का विरोधी है। इस तरह स्याद्वाद से तत्त्व जान नही हो सकेगा? स्याहाद को सशय ज्ञान समझना भारी भूल है। भेदाभेदात्मक ज्ञान का होना सगय नही है। सशय तब होता है, जब किसी धर्म का निर्णय न हो। यह समझ मे न आ रहा हो कि वस्तु भेदात्मक है या अभेदात्मक,वहाँ सशय ज्ञान होता है और उस स्थिति मे तत्त्व का सही
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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