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________________ .३१ प्रथम अध्याय आश्रय मे अनेक धर्म अनुभव सिद्ध है, इस के लिए किसी अपर प्रमाण की आवश्यकता नही है। ३-वह धर्म जिस मे भेद माना जाता है तथा वह धर्म जिस मे अभेद स्वीकार किया जाता है, दोनो का परस्पर क्या सबध है ? यदि भिन्न है तो पुन यह प्रश्न उठता है कि वह भेद जिसमे उठता है उससे भी वह भिन्न है या अभिन्न ? इस प्रकार अनवस्था दोष होगा और यही दोप अभिन्न मानने पर आयेगा। ___ स्याहाद पर अनवस्था का दोषारोपण करना गलत है । क्योकि जैन दर्शन यह नही मानता कि भेद और अभेद भिन्न है और भेद और अभेद जिस मे रहता है वह धर्म अलग है । वस्तु के परिणामी (परिवर्तनशील) स्वभाव को भेद कहते है और अपरिणमनगील स्वभाव को अभेद कहते है। भेद और अभेद कोई वाहर से आकर वस्तु के साथ नही जुड़ते। परन्तु वस्तु स्वय भेदाभेदात्मक है। द्रव्य की अपेक्षा वस्तु अभेदात्मक है तो पर्याय की अपेक्षा भेदात्मक है। ऐसी स्थिति में इस तरह के सवध का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। जब उस के भद और अभेद के सवध का प्रश्न ही नही उठता तब उस पर अनवस्था का दोप लगाना तो स्वत ही व्यर्थ सिद्ध हो जाता है । ४-जहा भेद है वहा अभेद है और जहा अभेद है वहा भेद है। भद और अभेद का भिन्न-भिन्न आश्रय न होने से दोनो एक बन जाएँगे। इस तरह सकट दोष उत्पन्न होगा। यह कथन भी सत्य से परे है। आश्रय एक होने का तात्पर्य यह नहीं है कि आश्रित भी एक हो जाए। बौद्ध भी तो इस बात को मानते है कि एक ही-ज्ञान मे चित्रवर्ण का आभास होता है, फिर भी सभी वर्ण एक नहीं होते। न्याय-वैशेषिको की मान्यतानुसार एक ही वस्तु मे सामान्य और विशेष रहते है, फिर दोनो एक रूप नही हो
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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