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________________ . प्रथम अध्याय निर्णय नही हो पाता है। परन्तु स्याद्वाद मे ऐसे ज्ञान को अवकाश नही है । उस मे तो वस्तु का स्पष्ट रूप परिलक्षित होता है । वस्तु का भेद रूप भी निश्चित है और अभेद रूप भी निश्चित है । जैन दर्शन में वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए जो स्यात् शब्द का व्यवहार होता है, कई दार्शनिक उसे गायद के अर्थ मे समझकर उसे सगयात्मक ज्ञान मानने लगते हैं। गकराचार्य जैसे विद्वान् ने भी स्यात् शब्द के अर्थ को समझने मे भारी भूल की है । स्यात् शब्द का अर्थ शायद नही है। उस का अर्थ अपेक्षा या दृष्टि है । जव हम यह कहते हैं कि वस्तु स्यात् भेदात्मक है, स्यात् अभेदात्मक है। हमारा कहने का अभिप्राय यह नह कि वस्तु शायद भेदात्मक है या शायद अभेदात्मक । हमारा तात्पर्य यह है कि वस्तु द्रव्य की अपेक्षा से अभेदात्मक है और पर्याय की अपेक्षा से भेदात्मक है । और दोनो विवक्षा मे ज्ञान निश्चयात्मक है। जैन दर्शन को वस्तु के भेदामद होने मे ज़रा भी सगय नही है । अत स्याद्वादपूर्वक होने वाला ज्ञान निश्चात्यात्मक है। अत सशय के आश्रय मे रहे हुए जितने भी दोष हैं, वे इस पर लागू नहीं होते। - सुप्रसिद्ध विद्वान् आनन्दगकर ध्रुव की भी मान्यता है कि स्याद्वाद सशयवाद नहीं है। वे वजनदार शब्दो मे कहते हैं- स्याद्वाद का सिद्धांत सशयवाद तो नही ही है। वह मनुष्य को विशाल-उदार दृष्टि से पदार्थ को देखने के लिए प्रेरित करता है और विश्व के पदार्थों का किस प्रकार से अवलोकन किया जाए यह सिखाता है * । यह वस्तु का एकान्त अस्तित्व नहीं मानता और न वह उस प्रकार के स्वीकरण को सर्वथा अस्वीकार ही करता है । वह कहता है कि वस्तु है या नही,यह दोनो आपेक्षिक दृष्टि से कहे जा सकते हैं। भारत के माने हुये दार्शनिक उपराष्ट्र पति डा० राधा कृष्णन ने भी उसी बात को पुष्ट करते हुए * कन्नोमल, सप्तभंगी न्याय, प्रस्तावना पृ ८ ammmmmmmmmmmmmmmmmarrrrrr
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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