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________________ १८३ तृतीय अध्याय सवेदन होता है । प्रत सुख-दुख की सवेदना के कारण आठ ही हैं, इस के अतिरिक्त कोई व्यक्ति पूर्व कर्म को सवेदना का कारण मानता है, तो यह मिथ्या है | क्योकि इसका वहुत थोडा भाग ऐसा है, जो पूर्व कृत कर्म का फल हो, अधिकाश भाग तो दूसरे कारणों पर ही आधारित है । सवेदना का कौनसा भाग पूर्व कृत कर्म का है, इस का निर्णय तो वुद्ध ही कर सकता है | $ r जैन दर्शन इस बात को मानता है कि कर्म का सवव आत्मा से है । भौतिक वस्तुनो पर उसका कोई असर नही होता है। पुद्गलो का भी पुद्गली के साथ बंध होता है, परन्तु उसके बघ की व्यवस्था दूसरी तरह से है । जिसका वर्णन तत्त्व - मीमासा अध्याय के जीव विचारणा प्रकरण मे कर चुके हैं । परन्तु ग्रात्मा के साथ जो कर्म का बघ होता है, वह की जाने वाली क्रिया के साथ चल रहे परिणामों या भावनाओ के द्वारा ही होता है और वह भावना या परिणाम जीव के ही होते हैं । त. परिणामो से युक्त ससारी जीव आत्मा ही कर्म बन्ध करता है । जीवो मे जो वैचित्र्य नजर ग्राता है, वह वधे हु कर्म का फल है । नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव आदि जो विभिन्न रूप है, श्रदारिक, वैक्रिय आदि विभिन्न शरीर मिले है तथा सुख-दु:ख, सपति-विपत्ति, ज्ञान-अज्ञान, चारित्र प्रचारित्र आदि की उपलब्धि होती है, वह कर्म के ही कारण से होती है । परन्तु भूकम्प यादि जैसे भौतिक कार्यो मे कर्म का सीधा सवध नही है । यह बात कर्म की. मूल और उत्तर प्रकृतियों से भी स्पष्ट हो जाती है । * 2 § मिलिन्द प्रश्न, ४, १, ६२. * विशेष विस्तार से जानने वाले जिज्ञासु कर्म ग्रन्थ भाग छठा हिन्दी अनुवाद (पं फूलचंद सिद्धातशास्त्री ) की प्रस्तावना, पृ ४३ देखे ।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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