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________________ N २४९ . षष्ठम अध्याय बौद्ध दर्शन भी ईश्वर को जगत्कर्ता एव पुण्य-पाप का फलप्रदाता नही मानता है। बौद्धो ने मोक्ष को माना है, परन्तु उन की मुक्ति एव मुक्त अवस्था मे स्थित आत्मा के स्वरूप का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। उन्होने आत्मा को शून्य अवस्था को मोक्ष माना है। इस से भली-भाति स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न आस्तिक दर्शनो की तरह जैन भी ईश्वर को मानते हैं। अन्तर इतना ही है कि जैनागमो मे ईश्वर शब्द के स्थान मे सिद्ध, बुद्ध, अजर, अमर, मुक्त, परमात्मा ग्रादि शब्दो का प्रयोग हुना है और उस का कारण जैन एव वैदिक सिद्धात की मूल मान्यता का अन्तर ही है । इस पर हम आगे वाले प्रश्न के उत्तर मे विस्तार से विचार करेगे। प्रश्न- वैदिक परंपरा में जैन दर्शन को अनीश्वरवादी दर्शन कहा है । जब जैन परमात्मा को मानते हैं, तो फिर ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर- ईश्वर गव्द वैदिक परपरा का है । ईश्वर का अर्थ स्वामी होता है और वैदिक परपरा मे यह शब्द इसी अर्थ मे प्रयुक्त हुआ है । हम ऊपर देख चुके हैं कि वैदिक परपरा मे ईश्वर एक माना गया है और उसे जगन्नियन्ता, जगत्कर्ता और सृष्टि का सचालक माना है अर्यात् वह स्वामी है और सारा संसार, सृष्टि के छोटे-बडे सभी प्राणी उसके सेवक है । वह अपनी इच्छानुसार कुभकार के चाक की तरह सब को इधर-उधर घूमाता-फिराता रहता है। कुछ वैदिक विचारका को दृढ मान्यता है कि ईश्वर सदा ईश्वर ही बना रहता है और जीव जीव ही बना रहेगा। जीव ईश्वर के निकट पहुच सकता है, परन्तु
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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