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________________ २९१... सप्तम अध्याय ब्रह्मचर्य और परिग्रह आदि इसीलिए पाप माने जाते हैं क्योकि ये हिसा को प्रोत्साहन देते हैं । आचाराग सूत्र मे भगवान महावीर कहते हैं कि जो अरिहन्त हो चुके हैं, जो विद्यमान है, जो भविष्य मे होगे वे सब यही कहते हैं, और कहेंगे कि किसी प्राणी (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव), भूत ( वनस्पतिकायिक जीव), जीव ( पञ्चेन्द्रिय जीव ) या सत्त्व ( वनस्पतिकायिक जीवो को छोड कर शेष सभी स्थावर जीव ) को नही मारना चाहिए, न पकड़ना चाहिए और उन्हें नाही कष्ट पहुचाना चाहिए । यह धर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है । ससार को अच्छी तरह ज्ञानियों ने बताया है। F-54 VN जैन धर्म कहता है कि अहिंसा धर्म है, और हिंसा पाप । हिंसा किसी के नाम पर की जाए, वेदो के नाम पर की जाए ईश्वर या किसी अन्य देवी देवता के नाम पर की जाए, हिसा हिंसा है । वह कभी ग्रहमा का रूप नही ले सकती। आग अपने चूल्हे की हो या पडौसी के चूल्हे की, पर आग-आग है । वह सत्र को जलाती है । उस के सामने अपने और पराए का कोई पक्षपात नही रहता है। हिंसा भी एक प्रकार की आग है। वह भी जीवनगत दया को, अनुकम्पा और सहानुभूति के भावो को जला कर राख बना देती है । हिंसा की आग जन्म-जन्मान्तर तक हिमक को जलाती रहती हैं । ऐसी आग को हिंसा का रूप कैसे दिया जा सकता है। ? यह सत्य है कि आगे चल कर वैदिक परम्परा मे भी माख्याचार्य कपिल और भागवत सम्प्रदाय मे वासुदेव श्री कृष्ण यादि ऐम युगपुरुष हो गए है, जिन्होने हिमक यज्ञों का विरोध करके अहिंसा को प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रयत्न किया । किन्तु ये युगपुरुष वैदिक परम्परा की यज्ञगत हिंसा को सर्वथा समाप्त करने में सफल नही हो सके। फिर भी आज
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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