________________
प्रश्नों के उत्तर...
२९२ वैदिक परम्परा मे जो अहिंसा को भावना पाई जाती है । इसका कारण, जैनधर्म का प्रभाव रहा है। एकबार "हिन्द तत्त्वज्ञाननो इतिहास" के लेखक श्री नर्मदागकर देवगकर मेहता ने "जनो और हिन्दु.
ओ के वीच सस्कारों का पारस्परिक आदान-प्रदान" इस विषय पर बोलते हुए कहा था--
...चौबीस तीर्थकरों मे से पार्श्वनाथ (तेइसवें) और महावीर (चौबीसवें) वास्तव मे ऐतिहासिक महापुरुष है । वे वासुदेव कृष्ण के पीछे हुए है। इन दोनो महापुरुषो मे से पार्श्वनाथ भगवान बुद्ध के पहले हुए हैं और महावीर बुद्ध समकालीन थे । इन दोनो महापुरुषो ने स्पष्ट रूप से कहा कि हिंसा और शुद्ध धर्म,इन दोनो का मेल सभव नहीं है। तथा धर्म के बहाने से पशुवध करना पुण्य नही, किन्तु पाप है। इस निश्चय को उन्होने अपने शुद्ध चारित्र के द्वारा और सघ के प्रभाव से प्रजा मे फैलाया। और उसका हिन्दुओ पर ऐसा गहरा प्रभाव पडा कि यज्ञ मे हिंसा करना धर्म है, ऐसा कहने के लिए कोई हिन्दू तैयार नहीं है । अाज विद्वान और धर्म चिन्तक शास्त्री गण उस हिंसा का प्रतिपादन मात्र कर सकते हैं, किन्तु यदि कोई ठेठ वैदिक धर्म के अनुसार श्रोतकर्म करने वाला सोमयाग करने को तैयार हो तो हिन्दू उसको तिरस्कारपूर्वक निकाल दे और स्लाटर हाऊस (वधगृहामे पशुवध करने वाले कसाई की तरह उसकी दुर्गति करें।"
मेहता जी के इस भाषणाश से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म की अहिंसा का वैदिक परम्परा पर काफी प्रभाव पड़ा है और इसीलिए इस परम्परा के लोग हिंसा मे अरुचि रखने लग गए हैं। तथा
। एक वार्षिक यज्ञ जिसमे सोमपान होता है- वृहद् हिंदी कोप। $ पण्डित कैलाश चन्द्र जी शास्त्री कृत,"जैनधर्म" पृष्ठ ३४७ ।