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________________ सप्तम अध्याय ... ... .rrxxmmm अहिंसा को प्रादर एव सम्मान की दृष्टि से देखते है । "मा हिंस्यात् सर्वाणि भूताणि" आदि जितने भी वाक्य वैदिक परम्परा में पाए जाते है, इनके मूल मे अहिंसा-प्रधान जैन धर्म का प्रभाव ही काम कर रहा स्वावलम्बन वैदिक परम्परा परावलम्बन पर आश्रित है, वह परमुखापेक्षी है, इसमे दु खो से मुक्ति प्राप्त करने के लिए तथा सुखो की उपलब्धि के लिए ईश्वर या देवी-देवतायो की शरण में जाना पड़ता है । इसके विपरीत जैनधर्म का प्राधार स्वावलम्बन है । इसमें व्यक्ति को अपना उद्धार करने के लिए परमुखापेक्षो नही बनना पडता, ईश्वर या किसी अन्य देवी-देवता के द्वार नही खटखटाने पडते । इसके विश्वासानुसार जीव स्वय ही विकास करता है, अपने भाग्य का स्वय निर्माता है, अपने भले बुरे के लिए स्वय उत्तरदायी है। जैनधर्म कहता है हे मानव | तू स्वय अपना मित्र है, अपने को छोड कर अन्य मित्र कहा ढूंढ रहा है ? ६ सत्य अहिंसा के महापथ पर चलने से तथा राग-द्वेष को वृत्तियो का परित्याग कर देने से प्राध्यात्मिकता की उच्चता को प्राप्त यह जीवन आत्मा को मित्र की तरह काम देता है और यही जीवन जव वासनाओ की अन्ध गलियो मे चक्र लगाने लग जाता है, हिंसा और असत्य के कुपथ पर चल देता है तो आत्मा को अमित्र अर्थात् शत्रु का काम देता है । शत्रुता और मित्रता का उत्पादक आत्मा स्वयं है । बाहिर का न कोई शत्रु है, और न कोई मित्र है। __ वैदिक धर्म मे मनुष्य देवी-देवताओ का दास है, गुलाम है, उनके $ पुरिसा | तुममेव सुप मिच, कि बहिया मित्तमिच्छसि । - आचाराग सूत्र, १,३,३ ।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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