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________________ द्वितीय अध्याय कुछ साधको की दृष्टि इन्द्रियो पर भी गई और उन्होने इन्द्रियो को श्रात्मा माना । बृहदारण्यक मे इस का स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि इंन्द्रिया स्वय कार्य करने में समर्थ है। इस तरह इन्द्रियो को आत्मा मानने की परपरा चली । इस का खण्डन दार्शनिक एव टीका ग्रन्थो मे मिलता है। इस से यह स्पष्ट है कि किसी समय किसी व्यक्ति की यह मान्यता रही हो। इस मत के विचारकों का यह विश्वास था कि मृत्यु प्राण की नहीं, बल्कि इन्द्रियो की होती है । मृत्यु इन्द्रियो को थका देती है, शिथिल कर देती है और निष्प्राण बना देती है। इस तरह इन्द्रियो के मध्य मे निवसित प्राण का मृत्यु कुछ 'नही विगाडती। इन्द्रियों की गति बन्द होने के कारण प्राण रुक जाता है और मनुष्य मर जाता है। इस प्रकार इन्द्रियो ने ही प्राण का स्थान ले लिया और' ये ही आत्मा मानी जाने लगी । जैनागमो मे भी दस प्राण मे इन्द्रियो को भी प्राण माना है, परन्तु उन्हे आत्मा से भिन्न स्वीकार किया है। - मनोमय आत्मा । . मानव चिन्तन इन्द्रियो और प्राण तक ही सीमित नही रहा। वह आगे भी सोचता रहा और उसी चिन्तन की गहराई मे उसने मन को देखा। वह सोचने लगा मन इन्द्रियो एव प्राणो से भी महत्त्वपूर्ण है । इन्द्रियो एव प्राण का सचालक मन ही है। मन का सम्पर्क होने पर ही इन्द्रिया अपने विषय को ग्रहण कर सकती है, उस के अभाव मे कोई इन्द्रिय किसी विषय को ग्रहण करने मे स्वतन्त्र नही है, अत मन ही आत्मा है या विश्व का मूल तत्त्व है। - यह नित्तात सत्य है कि इन्द्रिय एव प्राण की अपेक्षा मन सूक्ष्म है। परन्तु वह भौतिक (जड) है या अभौतिक (चैतन्य) इस विषय
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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