SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४५ पञ्चम अध्याय उसे सत्य सिद्ध करने के लिए वह समस्त दर्शन के सिद्धातो एव विचारो का खण्डन करता है और परिणाम स्वरूप देश में कटुता, द्वेष एव वैमनस्य की अभिवृद्धि होने लगती है। श्राज साप्रदायिक मतभेद इतना उग्र, कटु एव विषाक्त हो गया है कि इसके कारण राष्ट्रीय ताकत छिन्न-भिन्न सी हो गई है। हिन्दू मुस्लमानो को मलेच्छ कह कर उन से घृणा एव नफरत करते है, तो मुस्लमान हिन्दुओ को काफर बता कर जिहाद का नारा बुलन्द करते है । वैदिक परम्परा मे पले व्यक्ति जैनी को नास्तिक कहने मे सकोच नही करते। और वीतरागता के उज्ज्वल, समुज्ज्वल, महोज्ज्वल ध्वज को लहाने का दावा करने वाले जैन अपने से इतर सप्रदाय वाले को मिथ्यात्त्री, ढोंगी पाखण्डी कहने से नही चूकते, ग्राज वे भी राग-द्वेष के महापक मे फसे हुए है | धर्म के नाम पर प्रज्वलित राग-द्वेष एव साप्रदायिक वैमनस्य की श्राग ने मानव जीवन को स्वाह कर दिया है । धर्म और सभ्यता की कितनी ast विडम्ना है, यह । 1 मनुस्मृति मे लिखा है- "वेद निन्दको नास्तिक । " अर्थात् वेदो को नही मानने वाला नास्तिक है । इस बात को हम स्पष्ट कर चुके हैं कि इस कथन मे जरा भी सत्यता नही है । ये परिभाषाए सत्य पर ग्रावारित नही है, बल्कि साप्रदायिक श्रभिनिवेश की परिसूचक है । दो सप्रदायो मे भेद एव सघर्ष पैदा करने वाली हैं । यदि इस परिभाषा को सत्य मान लिया जाए तो फिर जैन भो आस्तिक-नास्तिक के लिए इस प्रकार की परिभाषा बना सकते हैं -- "नास्तिको जैनागम निन्दक | इसी तरह बौद्ध अपनी परम्परा एवं साप्रदायिक मान्यता के अनुसार परिभाषा रच लेंगे और अन्य सप्रदाय वाले अपनी अपनी डफली और अपना-अपना राग वजाने लगेंगे । परिणाम यह "
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy