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________________ www प्रर्शनो के उत्तर www.w wwwwwwww २४६ wwwwwww आएगा कि कोई भी दर्शन ग्रास्तिक दर्शन नही रह जाएगा । 1 जैन और वैदिक दर्शन की बात छोडिये । वैदिक दर्शनो मे भी एकरूपता नही है । वेदान्ती वेद को पीरुपेय मानते है, एक ग्रात्मवाद एव अद्वैतवाद को मानते हैं और सास्य दर्शन वेद को पौरुपेय और अनेक आत्मा तथा द्वैतवाद को मानता है । सनातनी मूर्तिपूजा, ईश्वर के अवतरित होने, श्राद्ध एवं याज्ञिक हिंसा को वेदविहित मानते हैं, किन्तु प्रार्यसमाजी इसके विपरीत विश्वास रखते हैं, अर्थात् वे इन्हे वेतनही मानते हैं और ये सभी वैदिक दर्शन हैं । ऐसी स्थिति मे एक-दूसरे की दृष्टि से एक-दूसरा नास्तिक हो जाएगा । साख्य का दृष्टि मे वेदान्ती नास्तिक है, तो वेदान्त की दृष्टि मे साख्य । सनातन धर्म का दृष्टि मे आर्यसमाजी नास्तिक है, तो आर्यसमाज को दृष्टि मे सनातनी नास्तिक है । इसी तरह अन्य संप्रदायो के सवध मे भी कल्पना की जा सकती है । अस्तु मनुस्मृति द्वारा की गई यह परिभाषा -- ' वेद निन्दको नास्तिक. " सर्वथा असत्य एव प्रयथार्थ है । दुख इस बात का है कि आज के वौद्धिकवादी युग मे कई विद्वान इस परिभाषा का प्रयोग करते हुए गर्व का अनुभव करते हैं । परन्तु, यह दृष्टि किसी भी तरह से उचित एव श्रादरास्पद नहीं कही जा सकती । 3 अन्त मे निष्कर्ष यह निकला कि प्रास्तिक-नास्तिक की मूल परिभाषा व्याकरण सम्मत है । मनुस्मृति आदि की अन्य परिभाषाए साप्रदायिक युग की देन है और इस परिवर्तन का या नई परिभाषाए घड़ने का मूल कारण साप्रदायिक विद्वेष रहा है।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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