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________________ १६४ vvvvvvvv. ~~~..................प्रश्नो के उत्तर .................. होती है, उसे भी भाव कर्म कहते हैं। राग-द्वेप-मोह या कषायो की प्रवृत्ति का आविर्भाव मन, वचन और योग के द्वारा होता है । इसलिए कषाय और योग को द्रव्य कर्म बन्ध का कारण माना है। योग और कपाय की प्रवृत्ति एक रूप दिखाई देती है, फिर भी ये दोनो भिन्न है। कपाय और योग का सवध रंग और वस्त्र के सवध जैसा है । विना रंग का सफेद वस्त्र एक रूप होता है, परन्तु रग चढने के बाद उसमे एक रूपता नही रह पाती है ।हल्के और गहरे. रग का भेद खड़ा हो जाता है। इसी तरह कषाय रहित मन, वचन और काया के योग की प्रवृत्ति सफेद वस्त्र की तरह एक रूप है, उससे कर्म वन्ध नही होता, सिर्फ कर्म वर्गणा के पुद्गल आते हैं और तुरन्त झड जाते हैं, वे आत्मा के साथ सवद्ध नही हो पाते हैं। और कषाय युक्त योग रगीन वस्त्र की तरह है, उसमे एक रूपता नही रहती है। उसकी तीव्रता और मन्दता के अनुरूप द्रव्य कर्म का तीव्र या मन्द वन्ध होता है। ... . . . . नैयायिक-वैशेषिक और जैन . नैयायिक दर्शन ने भी राग, द्वेप और मोह को दोष माना है। इन दोषो से प्रेरित हो कर जीव के मन, वचन और काया की प्रवृत्ति होती है, उससे धर्म-अधर्म सस्कार की उत्पत्ति होती है और यह आत्मा का गुण है। नैयायिक गुण को गुणी से भिन्न मानते हैं और वे गुण को आत्मा की तरह चेतन नही मानते हैं । यह हम देख चुके हैं कि जैन भी राग-द्वेप और मोह को कर्म वन्ध का कारण मानते है और नैयायिक भी । जैन जिसे भाव कर्म कहते है, नैयायिक उसको दोष कहते है। जैन जिस क्रिया को योग कहते है, नैयायिक उसे दोषजन्य प्रवृत्ति के नाम से पुकारते हैं । जैन परिभाषा मे जिसे कर्म कहते है, 1 $ न्याय सूत्र ४, १, ३-४, १, १, १७ ।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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