SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६५ तृतीय अध्याय नैयायिको ने उसका नाम संस्कार रखा है। द्रव्य कर्म को जैन भी जड़ मानते हैं और नैयायिक भी सस्कार को जड स्वीकार करते हैं। दोनों की सैद्धातिक मान्यताओं में अन्तर इतना ही है नैयायिक सस्कार को यात्मा का गुण मानते हैं और जैन द्रव्य कर्म को प्रात्मा से भिन्न पुद्गल मानते है। जरा गहराई से सोचे तो सस्कार भी दोषजन्य प्रवृत्ति से पैदा होते है और द्रव्य कर्म भी भाव कर्म अर्थात् कषाय और योग से उत्पन्न होते हैं । जव हम यह कहते है कि द्रव्य कर्म कषाय और योग से उत्पन्न होते हैं, तो इसका यह तात्पर्य नही है कि कपाय और योग (द्रव्य कर्म) पुद्गलो को उत्पन्न करता है। पुद्गल तो पहले से ही विद्यमान है। आत्मा के कषाय युक्त परिणामो का पुद्गलो पर ऐसा सस्कार पडता है कि वे पुद्गल कर्म वर्गणा के रूप को प्राप्त हो कर आत्मा के साथ सवद्ध हो जाते हैं। - - - जैन विचारको ने स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर भी माना है। जैन परिभाषा मे उसे कार्मण शरीर कहते हैं । कार्मण शरीर से स्थूल शरीर को निष्पत्ति होती है । यह कार्मण-शरीर एक गति से दूसरी गति मे जाते समय भी जीव के साथ रहता है । नैयायिको ने भी स्थूल शरीर के साथ एक अव्यक्त गरीर माना है और उसे अतीन्द्रिय स्वीकार किया हैं । $ जैनो ने भी इसे अतीन्द्रिय कहा है। " इस तरह कर्म सिद्धात को मान्यता मे नैयायिक दर्शन जैनो के काफी निकट है। वैशेषिक दर्शन को मान्यता नैयायिक दर्शन की तरह ही है। सिर्फ अन्तर इतना ही है कि वैशेषिक दर्शन ने धर्म-अधर्म रूप सस्कार को अदृष्ट नाम दिया है। सिर्फ नाम का अन्तर है, सिद्धात का नही । क्योकि वेशेषिक दर्शन भी नैयायिक दर्शन की तरह अदृष्ट को $ न्यायवार्तिक ३, २, ६८॥
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy