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________________ प्रश्नो के उत्तर १६६ आत्मा का गुण मानता है। $ और उभय दर्शन की यह मान्यता है कि दोष से संस्कार और जन्म होता है और जन्म से दोष उत्पन्न होता है। इस तरह दोनो का अनादि सवध है। जैन-भी द्रव्य कर्म और भाव कर्म का सन्तति या प्रवाह रूप से अनादि सवध मानते हैं।, .. - योग दर्शन और जैन . __ योग दर्शन पाच क्लेश मानता है- १ अविद्या, २ अस्मिता, ३. रॉग, ४ द्वेष, और ५ अभिनिवेश। उक्त क्लेग से क्लिष्टवृत्ति-चित्त व्यापार उद्बुद्ध होता है और उससे धर्म अधर्म रूप सस्कार अवतरित होते हैं । क्लेश को भाव कर्म, क्लिष्ट वृत्ति को योग और सस्कार को द्रव्य कर्म के स्थान पर रख सकते हैं। योग दर्शन में भी इनके कार्यकारण भाव को अनादि माना है। । । इस तरह जैन दर्शन और योग दर्शन की मान्यता मे वहुत-कुछ साम्य है। दोनो सिद्धातो मे कुछ अन्तर भी है, वह इस प्रकार हैयोग दर्शन क्लेश, क्लिष्टवृत्ति और संस्कार का सबंध आत्मा के साथ नही मान कर चित्त वृत्ति के साथ मानता है और यह चित्तवृत्ति। अन्त करण,प्रकृत्ति का विकार है । और जैन दर्शन भी कषाय या राग, द्वेष और मोह- भाव कर्म को विकार मानता है और द्रव्य कर्म को भी विकृति का परिणाम मानता है, परन्तु उसका आत्मा के साथ सबध होना भी स्वीकार करता है । इन विकृत परिणामो के कारण ही आत्मा ससार में परिभ्रमण करती है । यदि उनका आत्मा के साथसर्वथा सवध ही नही होता है, तो फिर उसके ससार भ्रमण का कोई कारण नहीं रह जाता है। जैसे मिट्टी का वही पिंड घूमता है, जिसका कुभकार की चाक के साथ संवध हुआ है, परन्तु वह मृतिका पिंड कभी v v v v v v vvvvvvv vvvvvvvvvvvvvv ६ प्रशस्तपाद भाष्य पृ ४७।।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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