SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नो के उत्तर द्रव्य और प्रदेश । द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दृष्टि की तरह द्रव्यार्थिक और प्रदेगार्थिक दृष्टि से भी वस्तु का विवेचन किया जा सकता है । यह हम बता चुके है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि एकता की सूचक है और प्रदेशार्थिक दृष्टिकता को व्यक्त करती है । पर्यायार्थिक दृष्टि भी अनेकता का सूचन करती है । फिर भी पर्यायार्थिक और प्रदेशार्थिक दृष्टि एक नही है । पर्याय और प्रदेश मे अन्तर यह है कि पर्याय - द्रव्य की देश और कालकृत अनेक अवस्थाएँ है और प्रदेश द्रव्य के अवयव है । परमाणु जितने स्थान को घेरता है वह एक प्रदेश । जेनदर्शन की मान्यतानुसार कुछ द्रव्यो के प्रदेश नियत हैं और कुछ द्रव्यो के अनियत । जीव-प्रमाके प्रदेश सर्व देश और सर्व काल मे नियत है । उन की संख्या मे न अभिवृद्धि होती है और न ह्रास ही। यह बात अलग है कि वे जिस शरीर मे स्थित रहते है, उसके अनुरूप छोटे वडे हो सकते है, परन्तु ग्रात्म प्रदेशो की सख्या मे कोई परिवर्तन नही होता । वे सकोच - विस्तार वाले है. जैसा छोटा या बडा शरीर मिलता है उसी के अनुरूप श्रात्म प्रदेशो का सकोच या विस्तार कर लेते है । जैसे दीपक छोटे कमरे मे अपने जितने प्रदेशो को फैलाता है, उतने ही प्रदेगो को बड़े कमरे मे फैला देता है । कमरे के छोटे और बड़े होने मात्र से दीपक के प्रदेशो में कोई अन्तर नही पड़ता, उसी तरह शरीर के छोटे - वडे होने से ग्रात्म प्रदेशों की संख्या में कोई अन्तर नही आता । श्रात्म प्रदेशो की तरह धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और लोकाकाश के प्रदेश भी नियत है । पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश प्रनियत हे स्कन्ध के अनुसार उसके प्रदेशो मे अन्तर होता रहता है। पर्याय हमेशा ग्रनियत रहती है । क्यो कि उसमे सदा परिवर्तन होता रहता है । 1 ४८
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy