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________________ ४७ प्रथम चध्याय क्योकि वस्तु द्रव्य और पर्याय युक्त है । अत सामान्य - प्रभेद मूलक जितनी दृष्टिया हैं उन सवका द्रव्य में और भेदमूलक जितनी दृष्टियाँ हैं उनका पर्याय मे समावेश हो जाता है। दो दृष्टियाँ मे सभी दृष्टियों समाविष्ट हो जाती है । इसलिए नय के भी मुख्य दो भेद माने है 素 - द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । शेष सभी इनके ही भेद-उप- भेद है । भगवान् महावीर ने तत्त्वों का विश्लेषण करते समय इन दोनो नयो का आधार लिया है । भगवती सूत्र मे वस्तु की नित्यता - अनित्य-ता का जो विवेचन मिलता है, वह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि से ही किया गया है । द्रव्य की अपेक्षा से जीव नित्य- शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य- अशाश्वत है । इसी तरह स्थानाग सूत्र के - प्रथम स्थान मे जो 'एंगे आया' का तथा भगवती आदि अन्य आगमों - अनन्त जीवो का जो उल्लेख किया गया है, वह भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि से ही किया गया है । सामान्य दृष्टि से आत्मा एक है, तो विशेष दृष्टि से आत्माएँ अनन्त है । द्रव्यार्थिक नय आत्म द्रव्य की अपेक्षा से सबको अभेदात्मक मानता है और पर्यायार्थिक नय विभिन्न पर्यायो एवं सब आत्माओ के स्वतंत्र अस्तित्व की अपेक्षा से सब के भेद का ज्ञान करता है । इन दोनो दृष्टियो को सामने रख कर ही भगवान् महावीर ने कहा कि "आत्मा एक भी है और अनेक भी । दोनो दृष्टियाँ अपनी-अपनी दृष्टि से वस्तु में रहे हुए अनेक धर्मों मे से एक धर्म को स्वीकार करती है, परन्तु दूसरे का विरोध नही करती इसलिए इन मे आपस में सघर्ष नही होता और इसी कारण इन को । सम्यक् नय कहा गया है । 37 ****
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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