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________________ ११९ द्वितीय- अध्याय मे नही । इसलिए व वह जैन दर्शन के ग्रधर्म द्रव्य की मान्यता के बिल्कुल अनुरूप बैठता है । 15 “ प्रकाश द्रव्य जिस द्रव्य मे जीव, जीवादि सभी द्रव्य युगपत अवकाश पाए हुए हैं. वह आकाश द्रव्य है । पुदगल भी परस्पर एक दूसरे पदार्थ को अवकाश देते हुए देखे जाते हैं, जैसे तरत पर घडी, शीशी मे तेल आदि । । फिर इसे प्रकाश का हो गुण कैसे कहा जा सकता है ? तख्त पर पुस्तक एव अन्य पदार्थो के आधार पर अन्य पदार्थ स्थित दिखाई देते हैं, वहा भी आकाश ही है और वे पदार्थ अमुक पदार्थ पर रहे हुए - होने पर भी प्रकाश मे ही स्थित हैं । क्योकि प्रत्येक पदार्थ मे जितना भाग खाली या खुला है, वह आकाश ही है और दूसरे पदार्थ उसी आकाश में स्थित होते हैं । प्रत यह कहना उपयुक्त नही जचता कि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ को अवकाश देता है । यदि व्यवहार दृष्टि से ऐसा मान भी ले तब भी आकाश के लक्षण से कोई अन्तर नही पडता । क्योकि कोई भी पदार्थ विश्व के समस्त पदार्थों को युगपत ( एकसाथ ) अवकाश नही दे सकता । वह कुछ ही पदार्थों को ठहरने का स्थान देता है, परन्तु प्रकाश सभी द्रव्यों को एकसाथ स्थित होने का स्थान देता है 1' वह ग्रनन्त प्रदेश युक्त, निष्क्रिय, अमूर्त और प्रखण्ड द्रव्य है । इसके मध्य भाग मे चवदह राजू का पुरुषाकार लोक है । इसके कारण यह लोक आकाश और अलोक आकाश इन दो भागो मे विभक्त हो जाता है । लोक के चारो ओर अलोक आकाश फैला हुआ है । लोक आकाश असख्यात प्रदेशी है और शेष भाग अनन्त प्रदेशी है। झुलोक मे केवल आकाश ही है और अन्य कोई द्रव्य नही है । आकाश 2
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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