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प्रश्नो के उत्तर
२८ है। किसी भी दार्शनिक ने जैनों के स्याद्वाद का अनुशीलन करके आलोचना की हो ऐसी सभावना कम ही लगती है। यदि ऐसा होता तो उनकी आलोचना का दूसरा रूप होता। उस दार्शनिक युग की बात छोड़िए, आज भी जैन दर्शन के ग्रन्थो का प्रकाशन हो गया और वे सर्वत्र उपलब्ध भी है, फिर भी बहुत से विद्वान् दूसरे दार्शनिको द्वारा विरोधी के रूप मे व्यक्त किए गए विचारों को पढ कर ही जैन दर्शन एव स्याद्वाद पर अपने विचार बना लेते हैं। यही कारण है कि स्याद्वाद के सवध मे उन्हें भ्रम वना रहता है । क्योकि विरोधी दर्शन मे स्याद्वाद के संबंध मे जो कुछ कहा गया उस मे पूरी वास्तविकना हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक दर्शन की वास्तविक मान्यता का यथार्थ ज्ञान करने के लिए उसी दर्शन के ग्रथ पढना आवश्यक है। अत स्याद्वाद के स्वरूप को समझने के लिए जैन दर्शन एव जैनागमो का अध्ययन करना आवश्यक है । अन्यथा स्याद्वाद के सही रूप का ज्ञान नहीं हो सकेगा। - बौद्ध दर्शन के प्रमुख विचारक धर्मकीर्ति ने स्याद्वाद को उन्मत्तोपागलो का बंकवाद कहा है और जैनों को निर्लज्ज कहा है। आचार्य शान्तिरक्षक ने भी तत्त्व-सग्रह मे ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया है। उसने कहा है- स्याद्वाद जो सत और असत, एक-अनेक, भेद-अभेद सामान्य-विशेष जैसे विरोधी विचारो का सुमेल करता है, वह उन्मत्तो की बौखलाहट है * । इसी प्रकार शकराचार्य जैसे विद्वान् ने भी स्याद्वाद को एक तरह का पागलपन माना है ।
६ प्रमाणवातिक १, १८२-१८५॥ * तत्त्व-सग्रह ३११-३२७ । ६ शाकर-भाष्य २,२,३३। ।