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________________ प्रथम अध्याय - है, नय के भी उतने ही भेद होते हैं और जितने नय के भेद है उतने ही मत है । इस दृष्टि से नय के अनन्त भेद हो सकते हैं। परन्तु अनन्त भेदो का वर्णन करना हमारी शक्ति के बाहर है। यो द्रव्य और पर्याय इन दो रूपो में सारे भेद समाविष्ट हो जाते है । परन्तु द्रव्य और पर्याय को अधिक स्पष्ट करने के लिए उनके अवान्तर भेद किए गए हैं। इस सवध मे हमे तीन विचारधाराए दिखाई देती है। आगम और दिगम्बर परम्परा सीधे तौर पर नयो के सात भेद मानती है- १ नंगम २ सग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र, ५ शब्द, ६ समभिरूढ और ७ एव भूत । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ६ नय मानते है, वे नैगम नय को स्वतत्र नही स्वीकार करते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र मे नय के ५-भेद किए है-१ नैगम, २ सग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र और ५ शब्द । इस मे पहली नैगम नय के दो भेद किए है- देश परिपेक्षी और सर्व परिपेक्षी और शब्द नय के साप्रत, समभिरुढ और एवभूत तीन भेद माने है। परन्तु इन सब मे सात भेद वाली आगम परम्परा अधिक प्रसिद्ध है। नैगम नय नेगम नय वस्तु को सामान्य और विशेष उभयात्मक दृष्टि से स्वीकार करता है । क्योकि सामान्य और विशेष एक दूसरे से संबद्ध है । जावइया वयणवहा, तावइया चेव होति नयवाया। , जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया ।। -सन्मति तर्क, प्रकरण ३, ४७ * स्थानाग सूत्र ७, ५५२, तत्त्वार्थ राजवर्तिक १, ३३ ६ सन्मति तर्क मे नय प्रकरण । * तत्त्वार्थ १,३४-३५
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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