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________________ प्रश्नो के उत्तर २०६ wwwcommmmmmmmmmmmmmm निर्भतया की उज्ज्वल एव निर्मल धारा 'प्रवहमान होतो है, जिसके प्रवाह में पाप कर्म की कालिमा बह जाती हैं। ऊपर से यह तप मालूम नही होता है, क्योकि इसमे शरीर को जोर नहीं लगता। परन्तु अपनी भूल को स्वीकार करने मे आत्मा को मजबूत एवं पवित्र बनाना होता है और मन एव बुद्धि पर जबरदस्त कन्ट्रोल करना पड़ता है । इसलिए इसे आभ्यन्तर तप कहा है।" २ विनय- वय मे, गुणो मे, दीक्षा मे वृद्धं या बड़े मुनियो का आदर-सम्मान करना तथा अपने से छोटे साधुओ के साथ प्रेम-स्नेह का व्यवहार रखना विनय तप कहलाता है। ३ वैयावृत्यं- अपने से बड़े व्यक्तियो की, गुरु की, वृद्ध की, बीमार की एवं नवदीक्षित साधु की सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य तप कहलाता है। सेवा-शुश्रूषा मे भी मन पर- कन्ट्रोल करना पडता है, सहिष्णुता रखनी पडती है। इसलिए इसे भी आभ्यन्तर तप कहा है। ४ ध्यान- एकाग्न मन से सीखे हुए तत्त्वो का चिंतन-मनन करना। - इस मे शरीर की अपेक्षा मन एव वचत योग की वत्ति पर अधिक कन्ट्रोल करना पड़ता है। शरीर एवं वचन को स्थिर करना फिर भी सहज है, परन्तु मन को एकाग्र करना, चिन्तन में लगाना सबसे अधिक कठिन है और उसके 'एकांग्र बने बिना ान एवं चिन्तन हो नहीं सकता। इसलिए इसे भी प्राभ्यन्तर तप कहा है। - ' , , ५ स्वाध्याय- पंढे हुए ज्ञान का, शास्त्रो का तथा साहित्य का अवलोकन करना । स्वाध्याय शब्द का वास्तविक अर्थ है-स्वध्याय अर्थात् अपना यात्म स्वरूप का अध्ययन-चिन्तन करना। 'आत्म स्वरूप को जानने का नाम स्वाध्याय है अर्थात् जिस साहित्य से 'आत्म स्वरूप का बोध होता हो या उस ओर आत्मा की प्रगति होती - -
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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