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________________ तृतीय अध्याय 5 ५ कायक्लेश-, सर्दी मे नग्न बदन होकर छाया में बैठना तथा गर्मी में खुले शरीर धूप, मे. आतापना लेना कायक्लेश तप है । - ६ - प्रतिमुलीनता - मर्यादा से कम वस्त्र रखना प्रतिसलीनतां F २०५ तप कहलाता है । 7 1. इसी तरह ग्राभ्यन्तर तप के भी- ६-भेद हैं- १ प्रायश्चित, विनय, ३ वैयावृत्य, ४ ध्यान, ५ स्वाध्याय और ६ कायोत्सर्ग । १ प्रायश्चित्त- भूल से या जानकर हुए दोषो की निशल्य भाव से आलोचना करके प्रायश्चित्त स्वीकार करना और फिर से वह भूल न हो, इसके लिए सावधान रहना प्रायश्चित्त तप है । 3 ব साधु के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपनी साधना मे सदा सावधान होकर विवेक पूर्वक गति करे । फिर भी छद्मस्थ अवस्था के कारण कभी भूल एवं गलती हो जाना स्वाभाविक है । क्योकि साधक भी आखिर इन्सान है, मनुष्य है। इसलिए वह प्रमादवश गलती कर बैठता है । उस समय उसके लिए बताया गया है कि वह उस भूल की शूल को छिपाए नही, बल्कि गुरु या दीक्षा मे अपने से बड़े मुनि के पास आलोचना करके प्रायश्चित्त स्वीकार कर ले, । चाहे कितनी भी बड़ी गलती क्यो न हो सच्चा साधक उसे छिपाता नही । छिपानां गलती करने की अपेक्षा अधिक भयकर पाप है । उससे झूठ आदि दोषो को पनपने का प्रश्रय मिलता है, इसलिए छुपाना महापाप माना गया है और पता लगने पर भूल की अपेक्षा भी उस छुपाने की भावना का अधिक प्रायश्चित्त बताया गया है --. 14 । 1 " 2 कहने का तात्पर्य यह है कि आलोचना- प्रायश्चित्त को तप कहा गया है । इसका कारण यह है कि इससे हृदय मे निष्कपटता की भावना उद्बुद्ध होती है, सत्य का प्रकाश फैलता है और आत्मा मे 2
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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