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________________ प्रश्नी के उत्तर ११४ म्यूर, कोयल आदि ४ उरपुर - पेट के वल रेगने वाले सर्प यादि और ५ भुजपुर - भुजाओ के वल पर गतिशील, नेवला, गिलहरी यादि । मनुष्य - कर्मभूमि और अकर्मभूमि के भेद से दो प्रकार का माना गया है । कर्म भूमि मे भी जम्बू द्वीप, घातकीखण्ड, पुष्करार्ध और उसमें भरत, एरावत और महावदी क्षेत्र एव श्रार्य श्रनार्य आदि क्षेत्रो के भेद-उपभेद से तथा कर्मभूमि मे भी देवकुरु, उत्तरकुरु, हरिवास, रम्चकवास, हेमवय, घरणदय और ५६ अन्तरद्वीपा की अपेक्षा से अनेक भागो मे विभक्त है। देवता के भी चार भेद हैं १ भवनपति, २ वाण - व्यन्तर ३ ज्योतिष्क और ४ वैमानिक । सन्नी पञ्चेन्द्रिय के दो भेद हैं- १ तिर्यश्व और २ मनुष्य | सन्नी तिर्यश्व के सन्नी तिर्यश्व की तरह पाच भेद हैं और उन के नाम उसी प्रकार हैं । सन्नी मनुष्य के १४ भेद है - वे जीव १ टट्टी, २ पेगाव, ३ खखार, ४ कफ, ५ नाक के मैल, ६ वमन, ७ पित्त, पीप, ९ खून, १० मृत कलेवर, ११ वीर्य, १२ स्त्री-पुरुष के सयोग, १३ नाली र १४ समस्त प्रगुचि स्थानो मे उत्पन्न होते हैं । ८ इस तरह अनेक गति, जाति एव योनियो मे अनन्त जीव विद्यमान हैं। उनकी सजीवता को आगम, तर्क, अनुभव एव वैज्ञानिक दृष्टि के ठोस प्रमाणों से प्रमाणित किया गया है । इतनी लम्बी चर्चा - +9 से हम स्पष्टत. देख चुके हैं कि ग्रात्मा है और वह स्वतंत्र रूप से गति शील है। उसके विकास और पतन मे निर्मित अनेक मिलते हैं, परन्तु वस्तुत. विकास के शिखर को सस्पर्श करने तथा पतन के गर्त मे गिरने वाला वह स्वय है । न कोई उसे धक्का देकर नरक में भेज सकता है श्रौर न कोई हाथ पकड़ कर स्वर्गे मे पहुचा सकता है । इस तरह जैन दर्शन अनन्त आत्माओ के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करता है ।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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