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________________ ११५..... द्वितीय अध्याय जड़-अजीव मीमांसा हम पहले बता चुके हैं कि ससार मे मूल द्रव्य दो हैं-जीव और अजीव या चैतन्य और जड़ । जिसे साख्य प्रकृति और पुरुष के नाम से पुकारते हैं और वेदान्ती ब्रह्म और माया के रूप मे उसका विवेचन करते है । जीव द्रव्य का विवेचन पिछले प्रकरण मे कर चुके हैं,प्रस्तुत प्रकरण मे अजीव द्रव्य के विषय मे कुछ विचार करेंगे। अजीव या जड़ चैतन्य से रहित होता है । जड परमाणु मे भी हरकत होती है, वह भी गति करता है । फिर भी वह जीव से भिन्न है। क्योकि जीव मे चेतवा है, ज्ञान है, उपयोग है और जड़ मे इनका अभाव है । इसके ( अजीव के ) पाच भेद माने गए है १ धर्म, २ अधर्म ३ आकाश ४ पुद्ग्ल और ५ काल ! . धर्म और अधर्म द्रव्य यहाँ धर्म और अधर्म का अर्थ आत्मा की शद्धाशुद्ध परिणति से नहीं है और न इनका अर्थ पुण्य-पाप के रूप मे भी अभीष्ट है। ये दोनो स्वतत्र द्रव्य हैं। और आकाश की तरह सम्पूर्ण लोक मे व्याप्त है, वर्ण, गध, रस, और स्पर्श से रहित हैं, अरूपी है, अमूर्त हैं । उनका कोई आकार नही है, फिर भी दोनो अखण्ड द्रव्य हैं। इनमे कोई हरकत नही होती । धर्म, अधर्म, आकाश और काल चारो निष्क्रिय द्रव्य है। पुद्गल मे हरकत होती है । वह जीव की तरह गतिशील है, सक्रिय है । कई आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य नही मानते । उनके विचार से धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीव के चार भेद है। विशेष जानकारी के लिए देखें तत्त्वार्थ सूत्र (प सुख लाल सववी) पृ. १८५. ।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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