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________________ प्रश्नों के उत्तर ११६ ' आकाश अनन्त है । वह लोक और लोक मे भी व्याप्त है । काग मे स्थित लोक के ग्राकार को या यों कहिए लोक की सीमा को निश्चित करने के लिए यह नितान्त जरूरी है कि कोई ऐसी विभाजक रेखा किसी वास्तविक श्राधार पर तय की जाए, जिम से लोक मर्यादा जानी जा सके और पुद्गल एव जीवो का गमन उस अक्षांश रेखा को लाघकर ग्रलोक मे नही हो सके। आकाश श्रखण्ड, मूर्त और अनन्त प्रदेशी द्रव्य है। उसकी अपनी सत्ता सब जगह एक समान है । वह जीव और पुद्गलो को सर्वत्र अवकाश देता है । परन्तु उस मे जीव और पुद्गलो को लोकाकाश मे ही रोक रखने की प्रतिवन्धक शक्ति नही है। उस मे लोक और अलोक ग्राकाश के प्रदेश हैं, परन्तु स्वभाव भेद नही है । उसका अवकाश देने का स्वभाव सर्वत्र एक-सा है । इसलिए जीव और पुद्गलों का लोक के बाहर गमन न हो, यह नियत्रण करने की शक्ति आकाश मे नही है । जीव एव पुद्गल स्वय गतिशील हैं और जव वे गति करते हैं तो फिर उन के ठहरने या स्थित होने का सवाल ही नही उठता । परन्तु यह भी निश्चित है कि जीव और पुद्गल लोक के बाहर गमन नही करते हैं। ग्रत उन्हे लोक मे ही रोक रखने वाला लोकाकाग के वरावर एक अमूर्त, निष्क्रिय और अखन्ड द्रव्य है । जो गतिशील जीव और पुद्गल की गति में साधारण कारण होता है। यह द्रव्य स्वयं हरकत नही करता है और न ही किसी पदार्थ को गति करने के लिए प्रेरित ही करता है । परन्तु जो पदार्थ अपने स्वभाव से गति करते हैं, तव उन की गति मे सहायक होता है । इस द्रव्य के अभाव मे कोई भी पदार्थ - भले ही वह जीव हो या पुद्गल गति नही कर सकता । इस द्रव्य का प्रभाव गतिशील द्रव्यो की गति का अवरोधक है और यह द्रव्य लोकाकाश परिणाम है, "
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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