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________________ प्रश्नो के उत्तर २२० सकते हैं कि धर्म की भाति आगम साहित्य मे वर्धमान और उन के समय के पहले तक का भी अनुसन्धान मिलता है। इस से हम कह सकते हैं कि जैन धर्म महावीर से भी बहुत पहले का है । प्राचीन इतिहास के सुप्रसिद्ध प्राचार्य प्रो. नागेन्द्र नाथ वसु अपने हिन्दी विश्वकोष के प्रथम भाग के ६४वे पृष्ट पर लिखते है "ऋषभदेव ने ही सम्भवत लिपि विद्या के लिए लिपि-कौगल का उद्भावन किया था । ऋषभदेव ने ही सम्भवत ब्रह्मविद्या की शिक्षा के लिए उपयोगी ब्राह्मी लिपि का प्रचार किया था।" महामहोपाध्याय डा० श्री सतीश चन्द्र विद्याभूषण प्रिन्सिपल सस्कृत कालेज कलकत्ता ने कहा है, "जैनधर्म तव से ससार में प्रचलित है, जब से ससार मे सृष्टि का प्रारम्भ हुआ है । मुझे इस मे किसी बात का उज्र नही कि यह वेदान्त आदि दर्शनो से पूर्व का है। __ इतिहास शास्त्र के सुप्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय जर्मन विद्वान् डाक्टर जेकोवी ने लिखा है, "जैनधर्म सर्वथा स्वतन्त्र धर्म है। मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नही है । इसीलिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्त्वज्ञान और धर्मपद्धति का अध्ययन करने वालो के लिए बडे महत्त्व की चीज़ है।" मेजर जनरल फलांग ने लिखा है, "जैनधर्म वहुत पुराना भारतीय धर्म है । इस के प्रारम्भ का पता लगाना कठिन है। 'ओक- - सियाना, कासविया, वलख, समरकन्द मे भी फैला हुआ था। सन् ईस्वी से अनगिनत वर्ष पूर्व जव भारत मे द्रविड लोग राज्य करते थे, तव यह तत्त्वज्ञानपूण धर्म फैला हुआ था। आर्य लोगो के गगा * कल्पसूत्र (स. डा याकोबी) पृष्ठ, १५।
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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