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________________ .... प्रश्नों के उत्तर .. ... ... .२३४ "दैटिकास्तिक-नास्तिकाः । ३, २, ६१. दैष्टिकादयतदस्येति पप्ठ्यन्ते ठणन्ता नियात्यन्ते । दिष्टा प्रमाणान्पातिनी मतिरस्य, दिप्ट दैवं प्रमाणमिव मतिरस्येति वा दैप्टिकः । अस्ति परलोक पुण्यपापमिति च मतिरस्येत्यास्तिक' ! एव नास्तीति नास्तिकः । पाणिनीय व्याकरण सिद्धात कौमुदी मे आचार्य भट्टो जी दीक्षित ने भी उक्त उभय शब्दो पर अपना अभिमत प्रकट करते हुए लिखा है "यास्ति-नास्ति दिष्टं मतिः। ४, ४, ६०. 'तदस्य इत्येव अस्ति परलोक इत्येव मतिर्यस्य स आस्तिक । नास्तीति मतियंत्य म नास्तिक. । दिष्टमिति मतिर्यस्य स दैप्टिक.।" आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने नास्तिक की परिभाषा करते हुए लिखा है- " नास्ति पुण्य पापमिति मतिरस्य स नास्तिक ", अर्थात् जिस की वुद्धि मे पुण्य-पाप का अस्तित्व नहीं है, उसे नास्तिक कहते है। उक्त वैयाकरणो द्वारा दी गई परिभापात्रो से यह स्पष्ट हो गया कि आस्तिक और नास्तिक शब्द की मूल प्रकृति अस्ति और नास्ति शब्द हैं । अस्ति शब्द सत्ता का, अस्तित्व का परिचायक है और नास्ति शब्द निषेध का ससूचक है। जिन विचारको एव दार्शनिको का आत्मा, परलोक, पुण्य-पाप आदि के अस्तित्व मे विश्वास है, श्रद्धा है, वे आस्तिक हैं और जो विचारक इन के अस्तित्व मे विश्वास नही रखते अर्थात् जिन की मति-बुद्धि एव धारणा यह है कि आत्मा, परलोक, पुण्य-पाप आदि कुछ नहीं है, वे नास्तिक है । इस तरह आस्तिक और नास्तिक शब्दो का व्याकरण सम्मत एव व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ यह है। प्रश्नव्याकरण सूत्र मे नास्तिक का स्वरूप बताते हुए यही कहा गया है कि कुछ लोग मानते है कि जीव नहीं है, जाति नही है, जीव को पुण्य-पाप का फल नही मिलता है,नरक-स्वर्ग आदि कुछ नही
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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