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पञ्चम अध्याय है। इस तरह आत्मा, पुण्य-पाप एव परलोक आदि तत्त्वो के अस्तित्व __ को स्वीकार नहीं करने वाले को नास्तिक कहा है। *
प्रश्न- जैन दर्शन आस्तिक दर्शन है या नास्तिक दर्शन ? उत्तर- जैन दर्शन का भली-भाति अनुशीलन परिशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आस्तिक दर्शन है । क्योकि, जैन दर्शन
आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानता है, परलोक, पुण्य-पाप, कर्मवन्धन, मुक्ति आदि के अस्तित्व को स्पष्टत. स्वीकार करता है। वस्तुतः जैन दर्शन ने उक्त तत्त्वो पर जितनी गहराई से सोचा-विचारा और जितना सूक्ष्म अन्वेषण किया है,उतना किसी भी विचारक ने नही सोचा। प्राय. सभी दार्शनिको एव चिन्तको ने ऊपर-ऊपर से उडाने भरी है,पर आत्मा की गहराई मे उतरने का जैन विचारको के अतिरिक्त किसी ने साहस किया हो ऐसा दिखाई नही देता। इसलिए आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व मानने तथा पुण्य-पाप एवं कर्मबन्ध तथा मुक्ति के सबध में हमे जितने स्पष्ट एव तर्क सम्मत प्रमाण जैन दर्शन मे उपलब्ध होते हैं, उतने अन्य दार्गनिक ग्रन्थो मे उपलब्ध नही होते । जैनो का आगम एव दर्शन साहित्य आत्म तत्त्व के विवेचन से भरा पड़ा है। जैन दर्शन द्वारा मान्य नव तत्त्वो मे आत्मा या जीव तत्त्व मुख्य है, नव तत्त्व का प्राण है। इस के अतिरिक्त कोई व्यक्ति अपने ज्ञान की विशिष्टता से या तीर्थकर अथवा किसी विशिष्ट ज्ञानी के उपदेश से इस को जान लेता है कि मै पूर्व-पश्चिम आदि किसी एक दिशा से आया हूँ और मेरी आत्मा उत्पत्तिशील है तथा इन दिशा-विदिशाओ मे स्थित विभिन्न योनियो मे परिभ्रमण करने वाला मैं ही
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* प्रश्न व्याकरण सूत्र, २, ७।