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________________ प्रश्नो के उत्तर ..१८० जैनों की तरह उपनिपदो में भी मन को शुद्ध और अगुद्ध दो तरह का माना है। काम सकल्प रूप मन को अशुद्ध और उमसे रहित मन को शुद्ध माना है । अशुद्ध मन ससार का कारण है और शुद्ध मन मुक्ति का । जन विचारको ने भी इस बात को माना है कि जब तक कपाय का क्षय नहीं हो जाता, तब तक अशुद्ध मन रहता है और १श्वे गुणस्थान मे और उसके वाद १३ वे गुणस्थान मे शुद्ध मन की ही प्रवृत्ति होती है और १४ वे गुणस्थान में पहुंचते ही, केवली सर्व प्रथम मन योग का निरोध करते हैं, उसके बाद वचन और काय योग का निरोव करते हैं। . . इन तरह जनों ने मन योग को प्रवल माना है। उसका निरोध कर लेने के बाद वचन और काय योग का सहज हो निरोध हो जाता है। जब तक मन का निरोध नही होता, तब तक वचन और काय योग का निरोध नहीं होता। क्योकि इन दोनो योगो का संचालक मन है। उस पर विजय पा लेने पर सव पर विजय हो जाती है। आध्यात्मिक भक्त कवि आनन्दघन जो ने कुथुनाथ भगवान की प्रार्थना करते हुए कहा है- - . "मन जीत्यु ते सगलो जीत्यु ए बात नहीं खोटी, - एम कहे में जीत्युते नवी मानु,एही बात छे कई मोटी । हो कुथु जिन मनड़ो किमही न - वांझे ॥" इस तरह हिंसा-अहिंसा का आधार भी मन को माना है मानसिक परिणति विशुद्ध हो रही है, तो उस समय' शरीर से हिंसा । ब्रह्म विन्दु उपनिषद्, १ । - विशेषावश्यक भाप्य, ३०५९ से ३०६४ .
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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