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________________ प्रग्नों के उतर ३२० होगा। कर्मवाद का अर्थ है- जीव जैसा कर्म करता है, उम का वैसा फल भोगता है। कर्मफल का उपभोग करने के लिए ईश्वर या किसी अन्य देवी देवता को माध्यम बनाने की प्रावश्यकता नही है। यदि एक व्यक्ति पाखे बन्द करके या देखते हुए कप की मोर बढता चला जाए ता वह उसमे गिरेगा ही। कुए मे गिरने और उससे लगने वाली चोट को जवाबदारी उसी पर है । कुए में डालने वाली ईश्वर या कोई अन्य शक्ति है, ऐसा मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। कर्मवाद को ले कर इस पुस्तक में अन्यत्र विवेचन किया गया है। पाठक उसे देखने को कण्ट करे। हृदय का परिवर्तन जैनधर्म वाह्य क्रियाकाड की अपेक्षा हृदय परिवर्तन पर वल देता है, बाह्य रूप का यहा विशेष महत्त्व नहीं है। मनुष्य किसी भी भेषमे हो,किसी भी जाति का हो किन्तु यदि उसका हृदय शुद्ध है,प्रात्मा निमल है, तो वह मोक्ष का अधिकारी बन सकता है। जनवम चारित्रनिर्माण की ओर विनेपं ध्यान देता है। इसके विपरीत वैदिक धर्म में वाह्य क्रियाकाड को महत्त्व प्राप्त है। तीर्थसान, तीर्थयात्रा प्रादि अनुप्ठानों को वैदिकधर्म सर्वेसर्वा मानता है, जबकि जैनधर्म (स्थानकवासी परम्परा) मे इन को कोई स्थान नहीं है। मतक की गति वैदिकधर्म की मान्यता है कि यदि कोई खाट पर मर जाए, या छत पर किसी का प्राणान्त हो जाए तो उसको गति नही होनी । गति .. के लिए भूमि पर शव्या करनी होती है, यदि मरने वाला शय्या पर
SR No.010874
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages385
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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